पाक्षिक प्रतिक्रमण श्रमण
=हाईकू=
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
भक्ति
श्री सिद्ध प्रतिष्ठापनाचार्य
का कायोत्सर्ग ।
सम्यक्त्व, ज्ञान,
वीरज, दृक्, सूक्ष्मत्व, अवगाहना ।
अगुरु-लघु, अव्याबाध,
गुणाष्ट सिद्ध पावना ।।
तप-संयम, ज्ञान दर्शन
नय सिद्ध वन्दना ।
कायोत्सर्ग श्री भक्ति-सिद्ध
उसकी करूँ निन्दना ।।
पत गुणाष्ट, हत कर्माष्ट,
ज्ञान दृक् व्रत साथ ।
चरित-सिद्ध-संयम,
थित ऊर्ध्व-भुवन-माथ ।।
भूत-भविष्यत्, वर्तमाँ,
सभी सिद्धों को नमो नमः ।
कमों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण |।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
भक्ति
श्री श्रुत प्रतिष्ठापनाचार्य का कायोत्सर्ग ।
नमन म्हारा,
शतक कोटिक वा, कोटिक बारा ।
लाख तिरासी,
पंचधि पद, अष्ठावन हज्जारा ।।
मुखरित श्री जी,
गुन्थित ऋषी जी, श्रुत वन्दना ।
कायोत्सर्ग, श्री भक्ति श्रुत
उसकी, करूँ निन्दना ।।
सूत्र, सूत्रार्थ,
पूर्व-गत, चुलिका, प्राभृत, तथा ।
उपांग, अंग,
प्रकीर्ण, परि-कर्म, धर्म सत्-कथा ।।
वन्दना, स्तव,
अनुयोग प्रथम,पर्युपासना ।
अर्चना सदा,
तब तलक, आये लौट श्वास ना ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
भक्ति आचार्य,
प्रतिष्ठापनाचार्य का कायोत्सर्ग |
सागर श्रुत,पारंगत,
विवेकी, स्वपर मत ।
निधान तप, चारित जुत,
गुण गम्भीर स्तुत ।।
पूर्ण गुण छ: तीस,
दक्ष शिष्य नु-ग्रह वृषीश ।
धार आचार शीश
नमन, संघ चतुर्विधीश ।।
भक्ति गुरु,
सु-व्रत धार, जलधि संसार पार ।
कर्म अष्ट यूँ संहार,
पाय मृत्यु, न अवतार ।।
होम चरित, मन्त्र लीन,
व्यतीत ध्याँ, साँझ तीन ।।
साधु, तपस्वी अहीन,
आवश्यक षट्क प्रवीण ।।
गुण है शस्त्र, वस्त्र शील,
सतेज चन्द्रार्क लील ।
प्रसीद साधु होय,
मोक्ष पाटन कपाट कील ।।
ज्ञान इन्दु दिक्,
गंभीर सिन्धु व्रत, गुरु वन्दना ।
कायोत्सर्ग, श्री भक्त्याचार्य
उसकी, करुँ निन्दना ।।
वन्त आचार,
ज्ञान-दृक् सदाचार, समन्ताचार्य ।
पाठक, श्रुत सुत,
ज्ञान, दृक्, व्रत जुत, साध्वार्य ।।
इन श्रमणों की आराधना,
करूँ पर्युपासना ।
अर्चना सदा,
तब तलक, आये लौट श्वास ना ।।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण |।
आदर्श ज्ञान,
झलकने जहान, जै वर्द्धमान ।
द्वेष न राग,
सामायिक समता, संयम जाग ।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
करता हूॅं
श्री भक्ति सिद्धालोचना का कायोत्सर्ग ।
आकर्षण से, हुआ प्रसन्न,
आप गुण डोर के ।
अकर्म, प्राप्त धर्म
आप्त ! नमन हाथ जोड़ के ।।
स्वर्ण पाषाण, ज्यों होय स्वर्ण
योग्य उपादान से ।
प्रसिद्ध, सिद्धि,
उपलब्धि आत्म, त्यों कर्म हान से ।।
गुण विनाश, मुक्ति न आत्मावास,
क्यों तप त्रास ?
नादि, बद्धाऽस्ति,
स्वकृतज, फलभुक्, मुक्ति, तत् हास ।।
जाननहार, देहाकार,
सकोच धर्म विस्तार ।
स्वगुणाधार, सताकार
सिद्धि न अन्य प्रकार ।।
हेतुज, बहि-रन्तर बोधि,
वही शस्त्र उससे ।
विनष्ट कर पाप कर्म,
‘अचिन्त्य सार’ ले उसे ।।
ज्ञान, दृक्, सुख, सम्यक्त्व,
दानादि नौ नन्त लब्धियाँ ।
ले विलसे,
औ’ चॅंवर छत्रादिक उपलब्धियाँ ॥
लोकालोक विद एक साथ,
संतृप्त सुख अबाध ।
विहर नादि मोह रात,
सभाएँ कर सनाथ ।।
ईश्वर जगत् तीन,
सूर्य चन्दर ज्योति विलीन ।
हुये प्रवृत्त यूँ,
होते हुये आप में आप लीन ।।
अशेष छेद, बेड़ी शेष,
संश्लिष्ट गुण विशेष ।
क्षायिक सभी,
वगाहनत्वादि से लसे जिनेश ।।
विशुद्ध स्वात्म यूँ स्वरूप,
हाथ आ गया अनुप ।
हुये पश्चात् यूँ
समय एक, ईषत् प्राग् भार भूप ।।
अन्य आकार शून्य,
पूर्व देह त:, त: किञ्चित् न्यून ।
प्रशस्ताकार,
देह प्रतिबिम्ब सा,अर्मूत पून ।।
हुआ क्षुदादि भीम दुख,
प्रभव भव अभाव ।
है कौन जान सका
प्रभु श्री सिद्ध सुख स्वभाव |।
आत्मो-पादान सिद्ध,
श्रेष्ट सुख है वह विशाल ।
विगत वृद्धि-हास,
विगत-बाध, थिर त्रिकाल ।।
रहित भाव प्रतिपक्ष,
अपेक्षा अभीष्ट नहीं ।
अमित, गत विषय-अक्ष,
सार उत्कृष्ट यही ।।
‘नीरुज’ व्यर्थ दवा,
दीप किमर्थ, जो भोर हुआ ।
व्यर्थ, सुमन-शन-शेन,
अशुचि, अक्षुद्, अथका ।।
सिद्ध, विविध नय,
दृक्, ज्ञान, व्रत, नन्त निधीश ।
सिद्ध त्रिकाल, त्रिकाल ढ़ोक,
लोक साधने शीश ।।
करूँ सभक्ति
कायोत्सर्ग निर्दोष, सिद्ध वन्दना ।
कायोत्सर्ग, श्री भक्ति सिद्ध,
उसकी, करुँ निन्दना ।।
पत गुणाष्ट,
हत कर्माष्ट,
ज्ञान दृक् व्रत साथ ।
चरित-सिद्ध-संयम,
थित ऊर्ध्व-भुवन-माथ ।।
भूत-भविष्यत्, वर्तमाँ,
सभी सिद्धों को नमो नमः ।
कमों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण |।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
करूँ
श्री भक्ति आलोचना चारित्र का कायोत्सर्ग ।
करता पंच प्रकार,
पंचाचार को नमस्कार ।
कारण यही,
करते मुनियों का इन्द्र सत्कार ।।
व्यञ्जन, अर्थ, उभय,
अनिह्नव, शुद्धि उपधाँ ।
काल, विनय, बहुमाँ,
ज्ञानाचार गाऊँ महिमा ।।
नि:-शंका-कांक्षा,
निर्विचिकित्सा, प्रीति, अमुग्धाचार ।
स्थिति करण,
प्रभावन गूहन दर्शनाचार ।।
षड् तप बाह्य,
उपास, तन त्रास, एकान्त वास ।
ऊन उदर,
वृत्ति परि संख्यान, रसावकाश ।।
षडन्तः तप,
प्रायश्चित, विनय, स्वाध्याय, ध्यान ।
कायोत्सर्ग वा वैयावृत्त,
समाधि बोधि निधान ।।
सम्यक् ज्ञानी, श्री जी श्रद्धानी,
साधु की शक्ति जितनी ।
‘नो वो भो जल’,
वीर्याचार करनी, भक्ति उतनी ।।
गुप्ति, समिति, व्रत,
‘ति-पन-पन’ आचार तेरा ।
अपूर्व वीर पूर्व,
वन्दन मेरा तिन्हें घनेरा ।।
उज्ज्वल नन्त प्रकाशी,
निरुपम श्री अविनाशी ।
अभिलाषी मैं, भेंटता नुति ।
प्रति निर्ग्रंथ यति ।।
वशि अज्ञान
कराया वर्तन या किया अन्यथा ।
हे ! निष्पाप
वे भारी पाप हमारे, हो जावे मिथ्या ।।
पुण्य पुनीत,
हंस मत विनीत, संसार भीत ।
चारित्र शिव दान सोपान,
भव्य सो…पा…ना आन ।।
कायोत्सर्ग
श्री मन् श्री भक्ति चारित का किया मैंने,
चाहूँ निन्दन
नौ सलंगर लगा अगर खेने ।।
सर्व प्रधान,
प्रकाशित संज्ञान, मार्ग निर्वाण ।
दृक्, अधिष्ठान
साधन ज्ञान, ध्यान, समिति वान ।।
त्रि गुप्ति गुप्त,
महाव्रत संयुक्त, क्षमा आधार ।
फल निर्जरा कर्म,
सार समता प्रवेश द्वार ।।
चारित्र करूँ आराधना
इनकी पर्युपासना ।
अर्चना सदा,
तब तलक, आये लौट श्वास ना |।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन
हो समाधि मरण ‘श्री’ श्री वरण |
हा ! अतिचार दृक्, ज्ञान, वीर्य,
तप चारित्राचार ।
पाक्षिक अर्ध-मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।।
( पाखाष्टिक चौ मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।
वार्षिक बारा-मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।
यौगिक साठ मासिक,
आलोचना का इच्छाकार )
आठ प्रकार, ज्ञानाचार,
व्यञ्जन, अर्थ, उभय ।
उपधान, अ-निह्नव,
बहुमान, काल, विनय ।।
थुति थवन, अर्थख्याना
ऽनुयोग ऽनुयोग -द्वार ।
इनमें हीन,स्वर, व्यन्जन,
अर्थ, ग्रन्याधिकार ।।
किया स्वाध्याय,
अकाल की अनुमोदना ।
हो मिथ्या,
रह पाया, माँ प्रवचन, गर गोद ना ।।
दर्शनाचार
प्रभावन, गूहन, स्थिति करण,
निःशंका-कांक्षा, निर्विचिकित्सा
प्रीति, अमुग्धाचार
अष्टातिचार
विचिकित्सा, पाखण्ड पर प्रशंसा ।
अप्रभावना,
शंका, आकांक्षा, अन्य दृष्टि प्रशंसा ।।
अवात्सत्य,
षड् अनायतन सेव रुपासादना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
षड् तप बाह्य
उपास, तन त्रास, एकान्तवास ।
ऊन उदर,
वृति परि संख्यान, रसावकाश ।।
षडन्तः तप,
प्रायश्चित्त, विनम, स्वाध्याय, ध्यान ।
कायोत्सर्ग वा वैयावृत,
समाधि बोधि निधान ।।
परिषहादि पीड़ित,
की इनकी जो विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ-साधना ।।
पञ्च प्रकार-वीर्याचार
आगम यथोक्त तथा ।
सपराक्रम, सोत्साह
दैहिक आत्म शक्तिश: ।।
हा ! छिपा शक्ति अपनी,
की इनकी जो विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
व्रत, समिति, गुप्ति,
विध तेरह चारित्राचार ।
उसके अति-चारों की
आलोचना का इच्छाकार ।।
विरला
नाम अहिंसा महाव्रत पहला
हा ! हा !
पृथ्वी कायिक
असंख्याता-संख्यात
जल-कायिक,
अग्नि-कायिक,
असंख्याता-संख्यात
वायु-कायिक,
जीव-कायिक-हरित
नन्तानन्त,
बीज-अकुंर ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘वे’
असंख्याता-संख्यात
कृमि शंखादि
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘ते’
असंख्याता-संख्यात
जूँ चिवट्यादि,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय चौ,
असंख्याता-संख्यात
कीट, डाँसादि ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वा पञ्चेन्द्रिय,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हा ! महाव्रत सत्य दूसरा,
राग-द्वेष, हास से ।
प्रदोष कोध-गुमान,
माया, लोभ अभिलाम से ।।
सनेह, मोह, भय, प्रमाद,
लज्जा, गारव तथा ।
कारण किसी भी अन्य से,
हा ! किया भाषण-मृषा ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हहा ! अचौर्य महाव्रत तीसरा,
ग्राम मठ में ।
खेट, नगर, द्रोणमुख, पत्तन,
या कर्वट में ।।
संवाह, सभा-मण्डप,
मण्ड़ल, या सन्निवेश में ।
अदत्त वस्तु कोई भी उठा लाया,
हा ! जिनेश मैं ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
व्रत-श्रमण चतुर्थ,
ब्रह्मचर्य महाव्रत में ।
नर, तिर्यञ्च, देव, अचेतन स्त्री,
त्रि जो जगत् में ।।
तिनके शब्दों में,
मनोज्ञामनोज्ञ-रूप रसो में ।
रूपों में, गन्धों में,
मनोज्ञामनोज्ञ-रूप स्पर्शो में ।।
हा !
परिणाम चक्षु इन्द्रिय रस परिणाम में ।
या,
परिणाम घ्राण इन्द्रिय स्पर्श परिणाम में ।।
परिणाम नो-इन्द्रिय, कर्ण में
वाक् काय मन का ।
संवरण, न कर पाया रक्षण,
ब्रह्म-धन का ॥
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
अथ, पञ्चम महाव्रत
विरक्ति परिग्रह से ।
परिग्रह वो
अन्तः बाह्य नाम से जानते जिसे ।।
विधाष्ट अन्तः परिग्रह
मोहनी, ज्ञानावरणी ।
नाम, गोत्रायु,
अन्तराय, वेदनी, दृगावरणी ।।
अनेक विध बाहिर परिग्रह
पीठ, पुस्तिका,
संस्तर, शैय्या,
कमण्डलु, फलक, भाण्ड, पीछिका,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
अथ, षष्टम विरक्ति
रात्रि-भुक्ति अणुव्रत में ।
चौ-विधा-हार
अशन-पान, खाद्य, स्वाद्य इनमें ।।
आहार खट्टा, कड़वा,
कषायला, नमक हीन ।
आहार मीठा, तीखा,
सचित्ताचित या नमकीन ।।
काय वाक् मन से,
अयोग्याहार में लिया रस हो ।
धिक् ! हा ! हन्त ! हा !
स्वप्न भी रस से न किया बस हो ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
समिति ईर्या,
आदान निक्षेपण, भाषा, ऐषणा ।
प्रतिष्ठापन, उच्चार प्रसवण आदि क्षेपणा ।।
समिति ईर्या,
प्राक्, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा ।
ईशानाग्नेय,
वायव्य, वा नैऋत चउ विदिशा ।।
इनमें देख चलना चाहिये था,
भू चार हाथ ।
पै देख यहाँ वहाँ,
चलता रहा वशि प्रमाद ।।
विराधन, अप् पृथ्वी अग्नि,
हरित त्रस पवन ।
समिति ईर्या संबंधी,
पाप सभी वे अनगण ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
समिति भाषा,
क्रमशः
मध्यंकशा, परकोपिनी, कटु कर्कशा
परुष,
छेदंकरा, अतिमानिनी,
अनयंकरा, भयंकरा
निष्ठुरा, विभाषा दश ।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
समिति भाषा संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
हहा ! भोजन अयोग्य अन्तर्गत
अधः कर्म से ।
भोजन पाण, पणय, बीज, हरि,
पूर्व कर्म से ।।
कर्म पश्चात् वा,
कृत उदिष्ट, कृत या निर्दिष्ट से ।
संश्लिष्ट रज-दया,
आहार इष्ट, या गरिष्ट से ।।
क्रीत या मिश्र,
थापित, अनिषिद्ध या समूर्च्छित ।
प्राभृत, बलि प्राभृत,
अभिघट दोषाच्छादित ।।
मात्रा-अधिक हा !
या लेना भोजन गिरा गिरा के ।
क्षण-भोजन भू तीन न तकना
होश गवा के ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
समित्-यैषणा संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन् ! समिति आदान-निक्षेपण
फलक, पोथी,
आसन, पीछी,
कमण्डलु, विकृति, मालादि जो भी
पिच्छी आदि से,
बिना प्रतिलेखित उठाते हुये ।
जल्दी-जल्दी में,
सप्रमाद हा ! इन्हें बिठाते हुये ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
दाँ-निक्षपण संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
प्रतिष्ठापन समिति अन्तर्गत
साँझ काल में ।
निशि अदृश संस्थल,
छुद्र छिद्र या विशाल में ।।
अभावकाश आदि
थान सचित्त, स्निग्ध धान में ।
संयुक्त बीज,
युक्त हरित काय, भू प्रधान में ।।
नासिका मल,
उच्चार, प्रसवण, विकृति, कफ ।
क्षेपण पल,
कर रहे जीव जो कोई भी उफ ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
प्रतिष्ठापन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वचन गुप्ति
मन गुप्ति वा तन, गुप्तियाँ तीन ।
‘गुप्ति’
करना निग्रह, इन तीनों का समीचीन ।।
आर्त वा रौद्र ध्यान में,
संज्ञा परिह जहान में ।
संज्ञा आहार, भय, मैथुन, संग,
शल्य मान में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
हा ! गुप्ति-मन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन ! भोजन कथा में,
धन कथा में, अकथा में ।
वैर कथा में,
हा ! राज कथा, चोर, स्त्री विकथा में ।।
पर पाषण्ड कथा में,
मौखरिका, कंदर्पिका में ।
आत्म-प्रशंसा कथा में,
भास-देश डंबरिका में ।।
पर-पैशून्य, परिवाद,
जुगुप्सा पीड़ा कर में ।
कथा कौत्कुच्य,
सावद्यानु-मोदिका वा निष्ठुर में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
गुप्ति-वचन संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
श्री मन् !
गुप्ति तृतीय नाम तन,
चित्र कर्म में ।
काष्ट कर्म में,
कर्म लयन लेप, वस्त्र कर्म में ।।
विराधन अप्, पृथ्वी, अग्नि,
हरित, त्रस, पवन ।
हा ! गुप्ति-काय संबंधी,
पाप सभी जे अनगण ।।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
सोला कषाय,
नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, नौ ‘नो कषाय’ ।
संसार सप्त,
भय शुद्धि अष्ट, छः जीव निकाय ।।
मुण्डन दश, श्रमण धर्म ध्यान
चारित पाँच ।
शील सहस्र अठारह,
वा गुण चौरासी लाख ।।
संयम तप अङ्ग द्वादश,
पूर्व चउदहों में ।
भावना क्रिया पन बीस,
बाबीस परिषहों में ।।
उपसर्ग चौ संज्ञा प्रत्यय,
गुण मूलोतर जे,
तिनमें
लज्जा, प्रमाद, भय, हास, अनादर से ।
पक्ष आभोग, नाभोग,
अतिचारा-नाचार तथा ।
सर्वा-तिक्रम, व्यतिक्रम हो मृषा
पा आप कृपा ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण,’श्री’ श्री वरण ।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।
भक्ति
श्री सिद्ध प्रतिष्ठापनाचार्य का कायोत्सर्ग ।
सम्यक्त्व, ज्ञान,
वीरज, दृक्, सूक्ष्मत्व, अवगाहना ।
अगुरु-लघु, अव्याबाध,
गुणाष्ट सिद्ध पावना ।।
तप-संयम, ज्ञान दर्शन
नय सिद्ध वन्दना ।
कायोत्सर्ग श्री भक्ति-सिद्ध
उसकी करूँ निन्दना ।।
पत गुणाष्ट, हत कर्माष्ट,
ज्ञान दृक् व्रत साथ ।
चरित-सिद्ध-संयम,
थित ऊर्ध्व-भुवन-माथ ।।
भूत-भविष्यत्, वर्तमाँ,
सभी सिद्धों को नमो नमः ।
कमों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण |
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।
करूँ मैं
भक्ति श्री योगि आलोचना का कायोत्सर्ग ।
किया स्वीकार
तरु मूल, बर्षा में मूसलाधार ।
तजा काष्ठ वत् देह,
फसलें जब दहे तुषार ।।
निहारा, पाद-छाया-वक्त
शिखर गिरि घर्म में ।
सोपान मुक्ति सन्त !
करें संस्थित मुझे धर्म में ।।
ग्रीष्म में गिरि चूल,
संस्थित, वर्षा मे वृक्ष मूल ।
खम् तले शीत,
श्रमण माथ तिन चरण धूल |।
विजन यात्री, कर पात्री,
दामातृ शिव वन्दना ।
कायोत्सर्ग श्री भक्ति योगी,
उसकी करुँ निन्दना ।।
जन्में सिन्धु दो,
द्वीप अढ़ाई ,कर्म-भू पन्द्रहों में
निरत योग,
वृक्ष मूलातापन, अभावकाश,
पक्षोपवास,
मौन, कुक्कुटासन, धरेक पार्श्व
इन योगियों की आराधना
करूँ पर्युपासना ।
अर्चना सदा
तब तलक, आये लौट श्वास ना ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
व्रत, समिति, गुप्ति,
विध तेरह चारित्राचार ।
उसके अति-चारों की
आलोचना का इच्छाकार ।।
विरला
नाम अहिंसा महाव्रत पहला
हा ! हा !
पृथ्वी कायिक
असंख्याता-संख्यात
जल-कायिक,
अग्नि-कायिक,
असंख्याता-संख्यात
वायु-कायिक,
जीव-कायिक-हरित
नन्तानन्त,
बीज-अकुंर ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘वे’
असंख्याता-संख्यात
कृमि शंखादि
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘ते’
असंख्याता-संख्यात
जूँ चिवट्यादि,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय चौ,
असंख्याता-संख्यात
कीट, डाँसादि ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वा पञ्चेन्द्रिय,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
धर्म उत्तम क्षमादि,
मूल-गुण महाव्रतादि ।
तप द्वादश, चरित त्रयोदश,
शील-गुणादि ।।
दृढ़ता पाऊॅं,
अ, सि, आ, उ, सा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ, पूर्वा-चार्या-नुसार,
स्तव-समेत ।।
भक्ति आचार्य,
श्री निष्ठापनाचार्य का कायोत्सर्ग ।
सागर श्रुत,पारंगत,
विवेकी, स्वपर मत ।
निधान तप, चारित जुत,
गुण गम्भीर स्तुत ।।
पूर्ण गुण छ: तीस,
दक्ष शिष्य नु-ग्रह वृषीश ।
धार आचार शीश
नमन, संघ चतुर्विधीश ।।
भक्ति गुरु,
सु-व्रत धार, जलधि संसार पार ।
कर्म अष्ट यूँ संहार,
पाय मृत्यु, न अवतार ।।
होम चरित, मन्त्र लीन,
व्यतीत ध्याँ, साँझ तीन ।।
साधु, तपस्वी अहीन,
आवश्यक षट्क प्रवीण ।।
गुण है शस्त्र, वस्त्र शील,
सतेज चन्द्रार्क लील ।
प्रसीद साधु होय,
मोक्ष पाटन कपाट कील ।।
ज्ञान इन्दु दिक्,
गंभीर सिन्धु व्रत, गुरु वन्दना ।
भगवन् !
करूॅंं पाक्षिक आलोचन, जोड़ के हाथ ।
प्रथम व्रत अहिंसा महाव्रत
अमृषावाद ।।
अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निःसंग,
छठा-नुव्रत तथा ।
समिति, ईर्या,
आदान, निक्षेपण, भाषा, ऐषणा ।
प्रतिष्ठापन, उच्चार, प्रसवण आदि क्षेपणा ।।
ज्ञान, दर्शन, चरण,
गुप्ति, तन, मन, वचन,
दश मुण्डन,
धरम-ध्यान दश, धर्म श्रमण,
सोला कषाय,
नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, नौ नो-कषाय,
संसार सप्त ,
भय शुद्धि अष्ट, प्र-वचन माय,
जीव निकाय,
षटावश्यक, पञ्च चारित्र अक्ष,
अठ दशक शील सहस्र,
गुण चौरासी लक्ष ।
संयम, तप, अंग द्वादश,
पूर्व चउदहों में ।
भावना क्रिया पन-बीस
वाबीस परिषहों में ।।
उपसर्ग चौ संज्ञा प्रत्यय,
गुण मूलोत्तर जे ।
तिनमें,
लज्जा प्रमाद, भय, हास, अनादर से ।
राग विरोध, पिपासा-क्रोध,
मान, माया, लोभ से ।
क्रिया-प्रादोषि
पर-तापनि, दृष्टि ,पुष्टि क्षोभ से ।।
लेश्या, गारव, दण्ड़,
तिय संक्लेश परिणामों को,
मिथ्या, ज्ञान, दृक्, व्रत,
विय संक्लेश परिणामों को,
किया, योग्य से हटा,
दिया अयोग्य में उपयोग ।
किये प्रयोग हा !
मिथ्यात्व अव्रत कषाय योग ।।
पक्ष आभोग, नाभोग
अतिचार, नाचार तथा ।
सर्वातिक्रम व्यतिक्रम हों मृषा,
पा आप कृपा |।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
धर्म उत्तम क्षमादि,
मूल-गुण महाव्रतादि ।
तप द्वादश, चरित त्रयोदश,
शील-गुणादि ।।
दृढ़ता पाऊॅं,
अ, सि, आ, उ, सा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।
अथ,
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ, पूर्वा-चार्या-नुसार,
स्तव-समेत ।।
करता हूँ,
श्री भक्ति प्रतिक्रमण का कायोत्सर्ग ।
नमन अर्हन्,
सिद्ध, सूरि, भगवन्,
पाठक ऋषिन् ।
चार शरण,
सिद्ध, अर्हन्, श्रमण,
धर्म माहन ।
चउ उत्तम,
सिद्ध, अर्हन्, सुत्तम,
व्रति महत्तम् ।
चौ मङ्गलरु
सिद्ध, अर्हन्, सुगुरु
देव वाक् पुरु ।
जन्मे, सिन्धु दो, द्वीप अढ़ाई,
कर्म-भू पन्द्रहों में ।
तीर्थक, अर्हन्,
आदियर, भगवन् जिन जिनेश |
बुध, केवलि, अन्तकृत,
पारग, परिनिर्वृत |
देवाधिदेव,
आचार्य-उपाध्याय, दृक्, ज्ञान, व्रत |।
चक्री सद्धर्म,
इनका मैं करता हूँ कृतिकर्म ।
भगवन् करूँ सामायिक,
विसरूँ सावद्य जोग ।
कृत कारिता-नुमत,
आजीवन साथ त्रियोग ।|
प्रतिक्रमण अतिचारों का,
करूँ पाप-गर्हा भी ।
जब तलक भजूँ आपको,
तजूँ पाप चर्चा भी ॥
कार्यात्सर्ग
श्री मन् !
नृसिंह ! महामना !
तीर्थंक ! जिन ! वन्दना ।
लोक-आलोक,
ऋषीश चार-बीस अभिनन्दना ।।
ऋषभ, जित,
सम्भौ-अभिनन्दन,
सुमति, पद्म,
सुपार्श्व,चन्द्र,
पुष्पदन्त, शीतल
श्रेयांस, पूज्य,
विमल, नन्त,
धरम, शान्ति, कुन्थ,
अरह, मल्लि,
मुनि-सुव्रत,
नमि, अरिष्ट नेमि,
पार्श्व, सन्मति |
होंय प्रसन्न
भक्त अनन्य मुझ पे तीर्थक ये ।
केवल ज्ञान,समाधि,बोधि
करें प्रदान मुझे ।।
दें सिद्धि
‘इन्दु’ जेय कमल-बन्धु ‘गंभीर-सिन्धु’ !
झलके, ज्ञान जिनके
तिहु-लोक मानिन्द बिन्दु ।।
जिन, जितारि,
देश- सर्व परमा-वधि धारी जै ।
गण-गरिष्ठ,
कोष्ठ बीजादि पदा-नुसारी जय ।।
स्वयं-प्रत्येक बुद्ध,
बुद्ध-बोधित, श्रोतृ संभिन्नः ।
विद् पूर्व,
विद् अष्टांग निमित्त ,धर पर्यय मनः ।।
धर विक्रिया चारण,
विद्या, प्रज्ञा,नभ विहार ।
धारक आशी विष दृष्टि,
दीप्तोग्र, तप, अपार ।।
जै घोर गुण पराक्रम,
सब्रह्म अघोर गुण ।
ऋद्धि विड् सर्व खेलाम
जल्ल, बली काय वाक् मन ।।
अक्षीण महा-नस आलय,
मधु क्षीरामृत घी ।
श्री महावीर वर्द्धमाँ,
ऋद्धि बुध गणेश सभी ।।
मदन गज सींह !
जहाज जल जन्म ! गुणोघ !
वन्द्य ! वन्दित वृन्द गणीन्द्र
मुझे दें सिद्ध लोक ।।
श्री मन् वन्दना,
सि, आ, धी मन् वन्दना, ‘भी’ मन् वन्दना
णमो णंतोहि
परमोहि, सव्वोहि, ओहि-जिणाणं |
णमो वोहिय-सयं पत्तेय
कोट्ठ-बीज-बुद्धीणं ।।
उजु मदीणं विउल,
दस चउद्-दश पुव्वीणं ।
अट्ठंग महा निमित्त कुशलाणं
विज्जाहराण ।।
विउव्व इड्ढि पत्तागं, चारणाण
आसी विसाणं |
दिट्ठिविसाणं,
णमो परक्कमाणं, घोर गुणाणं ।।
बलीणं
मन, बचि, काय,
आगास गामीणं णमो ।
णमो संभिन्न सोदाराणं,
पादानु सारीणं णमो ।।
उग्ग तवाणं,
आमोसहि पत्ताणं, दित तवाणं ।
तत्त तवाणं,
खेल्लो सहि पत्ताणं, महा तवाणं ।।
घोर तवाणं,
जल्लो सहि पत्ताणं, खीर सवीणं ।
सप्पि सवीणं,
विप्पोसहि पत्ताणं, महु र्सवीणं ।।
बड्डमाणाणं,
सव्वो सहि पत्ताणं, अमी सवीणं ।
श्री भयवदो,
महदि महावीर, बुद्धि रिसीणं ।।
अघोर गुण बंभ यारीणं,
पण्णा समगाणं श्री ।
णमो अक्खीण महा नसाणं
सिद्धा-यदणाणं ‘भी’ ।।
सद्धर्म,
आया हाथ, विनत माथ, पंचांग तिन्हें ।
अयि ! आयुष्मान् सुने,
तीर्थक, सर्व दर्शी वीर ने ।।
गति, आगति,
च्यवन, उपपादा-नुभाग, स्थिति ।
बन्धन, मोक्ष,
तर्क, ऋद्धि, कलारु:, कर्म षट् द्युति ।।
नुभूत-पूर्व,
कृत प्रतिसेवित, मानसवृत्त ।
देखते हुये युगपत्,
विहरते हुये सर्वत्र ।।
मातृका पद उत्तर,
महाव्रत भावना तथा ।
नुवत छटा,
कहूँ तथा सद्धर्म मैं, कहा यथा ।।
अहिंसा महाव्रत,
विरक्ति- झूठ-चौरी-अब्रह्म ।
अपरिग्रह,
णुव्रत षष्टम् रात्रि भुक्ति अगम्य ।।
श्री मन् प्रथम महाव्रत में,
काय मानस वाकतः ।
हिंसा समस्त कोटि-नो,
आमरण परित्यागता ।।
स्थावर, त्रस, काईय,
ए, वे, ते, चौ, पञ्च इन्द्रिय ।
बादर, सूक्ष्म, अपर्याप्त,
प्राण-सत्-भूत पर्याप्त |।
जीव पंचाक्ष,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत कारिता नुमत
न करना इन्हें आहत ।
‘व्रत’ सम्बन्धी उस दोष का
करूँ प्रतिक्रमण ।।
पूर्वातिचार विसर्जन,
गर्हण, आत्म निन्दन ।।
हिंसा,
की स्वयं, वशीभूत हो, मोह या द्वेष-राग ।
कराई, या दी अनुमति,
करता उसका त्याग ।।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
इस धर्म का,
अज्ञान, कोध, मान, माया, लोभ से ।
अदृक्, अवीर्य,
असाधुत्व, अव्रत, मोह, क्षोभ से ।।
अमीमांसित
अनधिगमा-बोध, भय, हास से ।
प्रमाद, राग-द्वेष,
गारव, लाज, अभिलाष से ।।
प्रदोष, प्रेम,
आलस्य, अनादर, कर्म भार से ।
भार-अतीव,
प्रदेश-कर्म, कर्म दुराचार से ।।
कर्म वेग,
अ-विदित परमार्थ, श्रुत अल्पता ।
और भी कई,
अन्य यूँहि, संकल्प हा ! विकल्प तः |।
करता उन सभी,
पूर्व दुष्कर्मों का मैं ग्रहण ।
भूत, भविष्यत्, वर्तमान,
दोषों का प्रतिक्रमण ।।
भावी पापों का प्रत्याख्यान
हा ! गर्हा अगर्हित की ।
अनालोचित का आलोचन
निन्द्रा, अनिंदित की ।।
रहा विसर विराधना-
राधना रहा सुमर ।
रहा विसर अज्ञान,
ज्ञान सम्यक् रहा सुमर ।।
रहा विसर अदृक्,
दर्शन सम्यक् रहा सुमर ।
रहा विसर कुवृत्ति,
वृत्ति सम्यक् रहा सुमर ।।
रहा विसर अकार्य,
कार्य सम्यक् रहा सुमर ।
रहा विसर कुकृत्य,
कृत्य सम्यक् रहा सुमर ।।
रहा विसर हिंसा,
भाव अहिंसा रहा सुमर ।
रहा विसर असत्य,
भाव सत्य रहा सुमर ।।
रहा विसर कुतप,
तप सम्यक् रहा सुमर ।
रहा विसर अतप,
तपः-कर्म रहा सुमर ।।
रहा विसर अब्रह्म,
ब्रह्मचर रहा सुमर ।
रहा विसर चेल
पन अचेल रहा सुमर ।।
रहा विसर सङ्ग,
पन निः सङ्ग रहा सुमर ।
रहा विसर ग्रन्थ,
पद निर्ग्रन्थ रहा सुमर ।।
रहा विसर नह्वन,
अनह्वन रहा सुमर ।
रहा विसर अलोंच,
केश लोंच रहा सुमर ।।
रहा विसर आरम्भ,
निरारम्भ रहा सुमर ।
रहा विसर असंयम,
संयम रहा सुमर ।।
तज धावन दन्त,
अदन्तवन रहा सुमर
तज अदत्ता दाना
ऽऽदान गृहीत रहा सुमर ।।
तज शयना क्षिति,
क्षिति-शयन रहा सुमर ।
तज अशना-थिति,
थिति-अशन सुमर ।।
तज अपाणि पात्र,
स्वपाणि पात्र रहा सुमर ।
तज आहार रात्रि
भुक्ति दिनेक रहा सुमर ।।
तज ध्याँ आर्त रौद्र
ध्याँ धर्म शुक्ल रहा सुमर ।
तज अशुभ लेश्या
लेश्याएं शुभ रहा सुमर ।।
रहा विसर क्रोध,
क्षमा उत्तम रहा सुमर ।
रहा विसर मान,
भाव मार्दव रहा सुमर ।।
रहा विसर माया,
भाव आर्जव रहा सुमर ।
रहा विसर लोभ,
भाव संतोष रहा सुमर ।।
रहा विसर मिथ्या दृक्,
दृक क्षायिक रहा सुमर ।
रहा विसर कुशील,
शील सम्यक् रहा सुमर ।।
रहा विसर शल्य,
पन-निःशल्य रहा सुमर ।
रहा विसर अविनय,
विनय रहा सुमर ।।
रहा विसर अनाचार,
आचार रहा सुमर ।
रहा विसर उन्मार्ग,
जिन-मार्ग रहा सुमर ।।
रहा विसर अशान्ति,
शान्ति पन्थ रहा सुमर ।
रहा विसर अगुप्ति,
गुप्ति पन्थ रहा सुमर ।।
रहा विसर अमुक्ति,
दशा मुक्त रहा सुमर ।
रहा विसर ममत्व,
निर्ममत्व रहा सुमर ।।
रहा विसर असमाधि,
समाधि रहा सुमर ।
रहा विसर भावित,
अभावित रहा सुमर ।।
निर्ग्रन्थ लिङ्ग हमें आप्त,
कृपया दें करा प्राप्त ।
प्रवचन है यही,
परिपूर्ण, न इस सा कहीं ।
जिन-कथित,
नैकायिक है,
यही सामायिक है ।
निःशल्य, शुध्द, मार्ग मोक्ष
प्रमोक्ष, क्षमा मुक्ति का ।
मार्ग निर्याण, निर्वाण,
सिद्धि, श्रेणी वा प्रमुक्ति का ।।
मारग परि-निर्वाण का,
दुक्ख परि-हान का ।
निर्विवाद है यही,
यही, शरण-शरण्य सही ।
प्राप्त होता हूँ इसे,
करता, श्रृद्धा, रुचि, स्पर्श भी ।
इसके जैसा उत्तम,
न था, न है, न होगा कभी ।।
इससे, दृक् से
ज्ञान वृत से,
जीव होते सिद्ध हैं ।
होते हैं मुक्त,
कृतकृत्य, विमुक्त-दुख, बुद्ध हैं ।।
श्रमण होता हूँ,
भोग विरक्त भी,
उपशान्त भी ।
उपाधि, मूर्छा, असत् मान, वञ्चना
छोड़ता सभी ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायश, अहिंसा महाव्रत में ।।
होने पे महा-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
अरिहन्तों को
नुति सिद्ध नन्तों को, तिय सन्तों को ।
जै अर्हन् जै
जै सिद्धाचार्यो पाध्याय जै, जै साधु जै ।
ॐ नमः, अ ह्रां, सि ह्रीं,
आ ह्रूॅं, उ ह्रौं, सा ह्र: नमो नमः ।
श्री मन् ! द्वितीय महाव्रत में
काय, मानस, वाक् तः ।
भाषण-मृषा कोटि नो
आमरण परित्यागता ।।
उस स्वीकृत महाव्रत में,
राग-द्वेष, हास से ।
प्रदोष, कोध-गुमान,
माया, लोभ, अभिलाष से।।
सनेह, मोह, भय, प्रमाद,
लाज, गारव तथा ।
कारण किसी भी और
न करना भाषण-मृषा ।।
न बुलवाना,
असत् भाषिन् करना नानुमोदना ।
करूँ द्वितीय
महा-व्रतातिचार की आलोचना ।।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायशस्वी, सत्य महाव्रत में ।।
होने पे महा-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
जै थारी अर्हन्,
त्रिपुरारी भगवन्, त्रिधारी पिच्छिन् ।
जै अरिहन्त,
सिद्ध, प्रसिद्ध नन्त, तिय निर्ग्रन्थ ।
जै अर्हन्, सिद्ध,
ति-रतन समृद्ध, सन्त प्रसिद्ध ।
श्री मन्, तृतीय महाव्रत में,
काय, मानस, वाक् तः ।
अदत्तादान, कोटि नो
आमरण परित्यागता ।।
उस स्वीकृत महाव्रत में,
हहा ! ग्राम मठ में ।
नगर, द्रोण-मुख,
पत्तन या कर्वट में ।।
सभा मण्डल, मडम्ब
मण्डल, उत्पथ जल में ।
घोष, आसन, रणांगण,
अरण्य, पथ स्थल में ।।
संवाह, खेत, खलिहाँ,
सन्निवेश, देश में तथा ।
खेट में रखा,
विकृति, मणिका या काष्ट, तिनका ।।
अल्प, अधिक,
पतित, अपतित, सूक्ष्म या स्थूल ।
सचित्ताचित्त,
नष्ट, निहित, कोई गया या भूल ।।
रखा बाह्य या अन्तः
शोधन हेत दन्तन्तर भी ।
बिना दिया हा !
कुछ भी न करना ग्रहण कभी ।।
न करवाना,
कर्म-चौर्य करना नानुमोदना ।
करूँ तृतीय
महाव्रता-तिचार की आलोचना ।।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायश, अचौर्य महाव्रत में ।।
होने पे महा-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
सकल श्री जी जै,
निकल श्री जी जै, कल श्री जी जै ।
धर केवल जै,
आत्मा ऽमल जै, त्रि तीर्थ चल जै ।
समोशर्णिन जै,
सिद्ध, सूरि, पाठिन जै, महर्षिन् जै ।
श्री मन् चतुर्थ महाव्रत में,
काय मानस वाक् तः ।
अब्रह्मचर्य कोटि नौ
आमरण परित्यागता ।।
उस स्वीकृत महाव्रत में हहा !
चित्र कर्म में ।
काष्ट कर्म में,
कर्म लयन लेप, वस्त्र कर्म में ।।
गृह कर्म में,
कर्म पाषाण-भेद, ग्रन्थ कर्म में ।
धातु कर्म में,
कर्म भाजन भिति, दन्त कर्म में ।।
पुद्-गल-हस्त संघर्षण से,
पाद संघर्षण से ।
नृ-पशु-देव,
अचेतन चतुष्क स्त्री जो विलसे ।।
तिनके शब्दों में,
मनोज्ञामनोज्ञ रूप
रसों में, रूपों में, गन्धों में,
मनोज्ञामनोज्ञ-रूप स्पर्शो में
हा ! परिणाम,
चक्षु इन्द्रिय रस परिणाम में ।
या परिणाम,
घ्राण इन्द्रिय, स्पर्श परिणाम में ।।
परिणाम नो इन्द्रिय
कर्ण में, वाक् काय मन का ।
संवरण,
न कर पाया, रक्षण ब्रह्म धन का ।।
न करवाना,
अब्रह्म की करना नानुमोदना ।
करूॅं चतुर्थ
महाव्रता-तिचार की आलोचना ।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायश, सुशील महाव्रत में ।।
होने पे महा-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
जै श्रीश,
सिद्ध-शिला-ईश, त्रि रत्न-धर ऋषीश ।
जिनेश, सिद्ध शीलेश,
गणेश, जै सन्त द्वि शेष ।
गौरार्क भोर,
सुवर्ण कण्ठ मोर, जै घन-शोर ।
श्री मन् ! पञ्चम महाव्रत में,
काय मानस वाक् तः ।
परिग्रहोभ कोटि नो,
आमरण परित्यागता ।।
सङ्गा ऽन्तरङ्ग
मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति,
भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुं, नपुंस्,
कुप्, माया-भिमान, लोभ,
कुठार, कोष,
खेत, खलिहां, वस्तु, प्रवस्तु, चाँदी ।
स्वर्ण, नगर,
अन्तःपुर, शकट, स्यंदन, गादी ।।
रथ, शिविका,
सुमरनी, पालकी, बल-वाहन
मुक्ता, माणिक,
शंख, प्रबाल, दासी, दास, गोधन ।।
निर्मित भाण्ड,
रजत, अयस्, कास्य, मणि स्वर्ण के ।
निर्मित वस्त्र,
कपास, अण्ड, छाल, रोम, चर्म के ।।
अल्प, अधिक,
सचित्त या अचित्त, सूक्ष्म वा स्थूल ।
यूँ नेक विध,
परिग्रह बहिर, संक्लेश मूल ।।
रखा बाह्य या अन्तः
प्रमाण बाल-अग्र भाग भी ।
मुनि अयोग्य,
परिग्रह करना ‘कर’ ना कभी ।।
न करवाना,
संगो-भय करना नानुमोदना ।
करूँ,
पंचम महाव्रता-तिचार की आलोचना ।।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायश, निः संग महाव्रत में ।।
होने पे महा-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
ॐ नमः जुग परमात्मा,
ॐ नमः त्रिक महात्मा ।
ॐ नमो नमः,
अर्हन्,सिद्धात्मा, सूरि, पाठिन्, महात्मा ।
नमो नमः
श्री धर, मुक्ति-वर, त्रि सन्त प्रवर ।
श्री मन् ! षष्टम अणुव्रत में हा !
काय मानस वाक् तः ।
रात्रि भोजन कोटि नौ,
आमरण परित्यागता ।।
उस स्वीकृत,
विरक्त रात्रि भुक्ति अणुव्रत में ।
चौविधाहार
अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इनमें ।।
आहार,
खट्टा, तीखा, सचित्ताचित्त, नमक हीन ।
आहार,
मीठा, कड़वा, कषायला या नमकीन ।।
ना खा, ना खिला रात्रि इन्हें,
करना नानुमोदना ।
करूॅं
षष्टम अणुव्रता-तिचार की आलोचना ।।
रूप निर्ग्रन्थ ये,
पावन, नुत्तर, धर संज्ञान ।
विनय-मूल
चिन्ह धर्म अहिंसा, सत् अधिष्ठान ।।
लख चौरासी गुण,
युक्त हज्जार शील अठारा ।
उभय त्याग फल,
गुप्त बाढ़ नौ ब्रह्म विहारा ।।
बल क्षमा,
निवृत्ति लखन, मग देशक क्षमा ।
साधन शिव,
मारग, प्रकाशक प्रशम प्रधाँ ।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।
प्रणीत जिन धर्म ये,
इसमें जो पक्ष एक में ।
ईर्या पथ के
अतिचारा-तिचार संथारादि के ।
केशलोंच के
अतिचारा-तिचार पंथ आदि के ।।
उन सबका,
उत्तमार्थ का करूॅं प्रतिक्रमण ।
सम-चरण की ओर,
ताकि बढ़ा सकूँ चरण |।
महार्थ,
महा पुरुषानु-लखन, महा गुण में ।
महानुभाव,
महायश, छटवे अणुव्रत में ।।
होने पे अणु-व्रतारोपण,
होता हूँ श्रमण में ।
देवता, अर्हन्, सिद्ध, साधु की,
लेता हूँ शरण मैं ।।
स्वपर साक्षी,
हित उत्तमार्थ ये व्रत हमारे ।
सुव्रत हो,
हो दिखाने वाले भव-जल किनारे ।।
देह विदेही,
जै संज्ञान देही, त्रि अपर गेही ।
जविन मुक्त,
जै कर्म विमुक्त, त्रि रत्न संयुक्त ।
चौमुखी, सुखी अबाध,
धारी मुद्रा, जै जन्मजात ।
कहूँ चूलिका
प्रतिव्रत की, पाँच-पाँच भावना
प्रथम व्रती,
गुप्तिन् गुप्त, संयत काय-ऐषणा ।।
द्वितीय व्रती
ऽणुवीवि भाष दक्ष, क्षमा अध्यक्ष ।
विदूषक वा कृपण प्रतिपक्ष
रक्षित कक्ष ।।
तृतीय व्रती
अनित्य, अशुचि, नि-रत-भावना ।
सन्तुष्टा ऽशन, देह-धन
सवार ग्रन्थ नाव ना ।।
संसर्ग स्त्री, स्त्री कथा,
हास संग स्त्री, स्त्री क्रीडन तथा ।
दर्शनांग स्त्री,
भाव रागत: चौथा व्रति त्यागता ।।
पाँचवाँ व्रती,
सचित्ताचित्त द्रव्य त्याग भावना ।।
रहे निरत
सर्व संगा ऽत: बाह्य त्याग भावना ।।
धैर्यवाँ,
थित समीचीन रूप से योग और ध्यॉं ।
जय बाबीस परिषह,
ऋषीश व्रति उत्तमा ।।
अयि गौतम ! मान
सार संयम, सारों में सार ध्यान ।
इस प्रकार
छटानुव्रत, पंच व्रत महान ।।
भावन, पद, उत्तर,
समातृका सद्धर्म इन्हें ।
पाल निर्ग्रंथ बन,
सीझते सन्त न मान्य किन्हें ।।
पा नन्त ज्ञान,
पायें झट सुभट वे भव तट ।
उत्कट दुःख कहें हट,
लें जान विश्व युगपत् ॥
विरति,
हिंसा झूठ चोरी कुशल ग्रन्थि को छोड़ ।
पाल व्रतों को सम्यक् रीत्या ,
ले रिश्ता मुक्ति से जोड़ ।।
जिनमत में,
जो भी कोई निन्दित कही शल्य हैं ।
उन्हें विसार,
करें विहार ‘सन्त सींह’ मल्ल हैं ।।
निन्दा गर्दा से,
वे उत्पनानुत्पन्न दें विहस माया ।
निन्दा तुरन्त,
भाव-प्रतिक्रमण द्रव्य पराया ।।
हित ऋषीश,
विधि प्रतिक्रमण ये कही श्रीश ।
अक्षर हीन,
हीन मात्रार्थ पद कहा हो क्षीण ।।
क्षमा प्रवीण करें,
ज्ञान देव ! दें रतन तीन ।
समन्त अर्हन्,
सिद्धा-चार्यो-पाध्याय, साधु वन्दना ।
उभय सूत्र-पद
आसादन की करुँ निन्दना ।।
प्रणुत अर्हन्,
सिद्धा-चार्यो-पाध्याण, श्रमण पद ।
मंगलोत्तम,
तीर्थकर चौबीस, शरण पद ।।
पद प्रत्याख्यां
समता, कायोत्सर्ग, पद वन्दन ।
पद अः सही,
पद निः सही, पद, प्रतिक्रमण ।।
इनमें, अंगों में,
पूर्वों में, प्रकीर्णकों, कृति कर्मों में ।
या प्राभृत में,
प्राभृत-प्राभृतों में, भूत कर्मों में ।।
अवहेलना दर्शन,
अवगम अवहेलना ।
अवहेलना
तप, वीर्य, संयम अवहेलना ।।
अखर हीन,
स्वर, व्यञ्जन, अर्थ, ग्रन्थाधिकार ।
थुति, थवन,
अर्थख्याना-ऽनुयोगा-ऽनुयोग द्वार ।।
इनमें,
भाव है जो प्रणीत अर्हन् भगवन्त से ।
तीर्थक
नाथ-त्रिलोक ज्ञाता-दृष्टा, बुधवन्त से ॥
प्राप्त होता हूँ इन्हें,
करता श्रद्धा, रुचि, स्पर्श भी ।
ऐसे मुझसे,
पक्ष इक में हुये वे दोष सभी ।।
अकाल श्रुति रति,
की, कराई, की अनुमोदना ।
हो मिथ्या,
रह पाया माँ-प्रवचन गर-गोद ना ।।
अथैकम्, दोज,
तीस, चौथ, पाँचे, छट्, सताठे, नमी ।
दसे, ग्यारस, बारस,
तेरस, चौ-दश,पूर्णमी (मावशी) ।।
( यूँ पक्ष इक,
पन्द्रा दिनों, पन्द्रा रातों में हा ! हा !
यूँ माह चउ,
सित असित पक्ष आठों में हा ! हा !
यूँ वर्ष इक,
मास बारा दुगुण पक्षों में हा ! हा !
यूँ वर्ष पंच,
साठ मास दुगुण पक्षों में हा ! हा ! )
प्रथम व्रत अहिंसा महाव्रत
अमृषावाद ।।
अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निःसंग,
छठा-नुव्रत तथा ।
समिति, ईर्या,
आदान, निक्षेपण, भाषा, ऐषणा ।
प्रतिष्ठापन, उच्चार, प्रसवण आदि क्षेपणा ।।
शल्य, गारव, दण्ड ति गुप्ति,
तन, मन, वचन,
दश मुण्डन,
धरम-ध्यान दश, धर्म श्रमण,
सोला कषाय,
नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, नौ नो-कषाय,
संसार सप्त ,
भय शुद्धि अष्ट, प्र-वचन माय,
जीव निकाय,
षटावश्यक, पञ्च चारित्र अक्ष,
अठ दशक शील सहस्र,
गुण चौरासी लक्ष ।
संयम, तप, अंग द्वादश,
पूर्व चउदहों में ।
भावना क्रिया पन-बीस
वाबीस परिषहों में ।।
उपसर्ग चौ संज्ञा प्रत्यय,
गुण मूलोत्तर जे ।
तिनमें,
लज्जा प्रमाद, भय, हास, अनादर से ।
सम्यक् ज्ञान दृक् व्रत,
ति संक्लेश परिणामों को ।
मिथ्या ज्ञान दृक् व्रत,
वि संक्लेश परिणाओं को ।।
किया आभोगा ऽनाभोग,
अतिचारा ऽनाचार तथा ।
सर्वातिक्रम, व्यतिक्रम हो मृषा
पा आप कृपा ।।
जब तलक करता,
अरिहन्त पर्युपासना ।
तब तलक विसारता,
समस्त पाप वासना |।
श्री अर्हन्
सिद्धा-चार्यो, पाध्याय, सर्व साधुभ्यो नमः ।
हे आयुष्मानों !
कश्यप गोत्रीय, श्री मन् ! वर्धमान
महावीर ने, दिया उपदेश,
पा केवलज्ञान ।।
हित श्रावक श्राविका
क्षुल्लक वा क्षुल्लिका ।
विध द्वादश धर्म ग्रहस्थ,
सुन मैनें, ज्यों का त्यों लिखा कहा ।।
अहिंसा नामा ऽणुव्रत में
विरति हिंसा स्थूल से ।
सत्य द्वितीया ऽनुव्रत में
विरति मृषा स्थूल से ।।
चोरी स्थूल से,
विरति अचौर्या ऽनुव्रत तीसरे ।
णुव्रत-ब्रह्म,
ब्रह्म स्थूल पालन निशि दीस ‘रे ।।
स्वस्त्री सन्तोष,
कुछ यूँ ब्रह्म-सर्व पाले निर्दोष ।
करें ऽनुव्रती पाँचवें
परिमाण इच्छा सहोश ।।
क्रमश: गुण व्रत, दिग्व्रत में
विदिक्-दिक् प्रत्याख्यान ।
व्रत अनर्थ-दण्ड,
भोगोपभोगों का परिमाण ।।
क्रमश: शिक्षा व्रत वा
सामायिक, प्रोषधोपास ।
तृतीया ऽऽतिथि-संविभाग
भी’तर अंतिम श्वास ।।
इन व्रतों को प्राप्त,
अजीव, पुण्य, पाप संव्याप्त ।
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा,
भू वसु संप्राप्त ।।
धर्मानुरागी,
अनुरागी, वात्सल्या ऽस्थि- मज्जा समाँ ।
मोहितार्थार्थ-विहित
पालितार्थ, सेवितार्थ वा ।।
इमि यह ही नुत्तर है
निर्ग्रंथ वा प्रवचन ।
संदर्शनार्थ,
सेवितार्थ अष्टांग सम्यक् दर्शन ।।
दर्शनाचार
प्रभावन, गूहन, स्थिति करण,
निःशंका-कांक्षा, निर्विचिकित्सा
प्रीति, अमुग्धाचार
ऽणुव्रत पञ्च,
ति गुण व्रत, व्रत शिक्षा चौ सारे ।
सविधि
विध द्वादश धर्म ग्रही पाल अहा ‘रे ।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।
सब्रह्मा-रम्भ, परिग्रहा
ऽनुमति त्याग उद्दिष्ट्ठ ।।
प्रतिमा ऽऽरूढ़
त्यागी मकार, वेश्या व्यसन आदि
सशील सप्त,
गृही बनता वही स्वात्म आस्वादी ॥
इन्हें श्रावक श्राविका
जो क्षुल्लक क्षुल्लिका धरें ।
भवनत्रिक,
देवी सौधर्-मैशान न अवतरें ।।
होय न यहाँ ?
तो कहाँ ?
कहते, सो उसी को सुनो ।
सौधर्मेशान,
सानत, माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में ।
लांतो, कापिष्ठ,
शुक्र मः शुक्र, सतार्-सहस्रार में ।।
स्वर्गानत में,
स्वर्गानत में
प्राण-तार-णाच्युत में होय देव ।
सशस्त्र, वस्त्र, बुध
सतेज, लब्ध महर्द्धि सेव ।।
ग्रहण करें
भव दो या तीन, वे उत्कृष्टतः ।
भव सात या आठ,
करें ग्रहण या जघन्यतः ।।
सुमानव से सुदेव,
हो सुदेव से सुमानवा |
पद, निर्ग्रन्थ शिरोधार,
अपार, पार ज्ञान पा ।।
होते हैं बुद्ध,
नन्त गुण समृद्ध, प्रसिद्ध सिद्ध ।
यूँ कर्म हान कर, पा निर्वाण,
हों सौख्य निधान ।।
जब तलक
करता अरिहन्त पर्युपासना ।
जब तलक
विसारता समस्त पाप वासना ।।
अथ पाक्षिक
प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा चार्यानुसार, स्तव समेत ।।
भक्ति निष्ठित-करण
चन्द्र, वीर का कायोत्सर्ग ।
गणीन्द्र शिर मौर,
चन्द्र गौर, न दूसरा और ।
जित, महित प्रभु चन्द्र,
वन्दना हाथों को जोड़ ।।
भिन्न तिमिर बहिर,
भा-मण्डल आप भान सा ।
भिन्न तिमिर भीतर,
दीप दिव्य आप ध्यान पा ।।
गज समद, हो विमद
ज्यों सुन सींह गर्जना ।
वाक् सिंह नाद,
आप हो विमद त्यों शत्रु दुर्जना ।
पद परम कर्म तेज,
अखर संज्ञान नेत्र ।
आप शासन समस्त,
दुक्ख क्षय अपर हेत ।।
चन्द्र कुमुद भव्य,
माल वचन न्याय पावना |
करें मानस पवित्र,
प्रभ चन्द्र यही भावना ।।
विश्व समस्त
जानते जो युगपत् उन्हें प्रणाम ।
अकर्म ! कृत तीर्थ धर्म !
विद् मर्म ! एक निष्काम ।।
श्रीष ! यशस्वी ! तपस्वी !
धीर ! वीर ! दें शुभाशीष ।
जलधि जन्म तीर,
पाते, सव्रत जो ध्याते ‘वीर’ ।।
संयम-स्कंध, व्रत-मूल,
सद्गुण सुगन्ध फूल ।
शील शाखाएँ,
समिति कलिकाएँ,
गुप्ति कोपल, तप पत्तियाँ,
छाँव दया विहर पथ्यापत्तियाँ,
वर्धित जल नियम,
करे शुभम्, चरित द्रुम ।।
सम्यक् चारित्र आराधूँ,
चारित्र ‘कि पंचम साधूँ ।
हितु, सुखद, धन-बुध
शिवद, धर्म विरद ।
सखा करीब, दया-नींव
रक्षक धर्म सदीव ।
धर्म संलीन मन,
करते देव उन्हें नमन ।।
कार्योंसर्ग
श्री भक्ति वीरा-लोचना अनुरागता ।
आचार गुण मुलोत्तरा-तिचार
सभी त्यागता ॥
लोक प्रमाण,
थान अध्यवसाय असंख्यात में ।
कषाय, अक्ष, अशुभ जोग
रस, ऋध्दि, सात में ॥
संज्ञा, उन्मार्ग, रति, अरति
शोक, भय, हास से ।
लेश्या अशुभ,
मन, वचन, काय, दुष्प्रयास से ।।
संक्लेश रूप आर्त-रौद्र
विकथा परिणाम से ।
ग्लानि, जंभाई,
विषय अक्ष पञ्च अत्या-याम से ।।
स्वर, अक्षर, व्यञ्जन,
पद दिये मिला अन्यथा ।
उच्चारे शीघ्र,
स्वर-पञ्चम, ध्वनि मन्थर तथा ।।
अन्यथा सुने,
चुने अपरिपूर्ण, कहे झूठ हों ।
क्रिया-वश्यक-हीन
कोटि नव वो, झूठ-मूठ हों ॥
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ
पाक्षिक प्रतिक्रमण दोष विशुहि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार स्तव समेत ।।
करूँ
शान्ति चौ-बीस तीर्थक भक्ति का कायोत्सर्ग
पर चक्र से,
कर रक्षा जे हुये राजा प्रतापी ।
अनघ ! ‘मूर्ति-दय’
विमुक्ति राह, थी स्वयं नापी ॥
श्री मन् ! जिन्होंने
चक्र से, चक्र लिया नरेन्द्र जीत ।
समाधि चक्र से,
पश्चात् चक्र मूर्च्छा किया विनीत ॥
सुभोग भोग,
बीच नृप, जे लसे नृसिंह समां ।
स्वाश्चित हुये
लसे अर्हन् श्री समोशरण सभा ।।
नृपेन्द्र चक्र इन
विनीत धर्म माहन मुनिन् ।
जिनेन्द्र चक्र सुर
विनीत कर्म सद्-ध्यानागन ।।
स्वदोष शान्ति,
शान्ति आत्म विहित शान्ति विधाता ।
शरण्य क्लान्ति शान्ति,
शान्ति ! वे होय शान्ति प्रदाता ।
वन्दना श्रीश चौबीस,
लोक शीश थित ऋषीश ।
धर लक्षण सहस्र-अष्ट,
जगज्-जाला विनष्ट ।
शशि दिनेश, सन्त वन्द्य,
वन्दना जिनेश नन्त ।
आदि सदीव वन्दना,
जित लोक दीव वन्दना ।
संभव श्रीश वन्दना,
ऋषि शीश अभिनन्दना ।
सुमति, कर्म-हन नमन
पद्म गन्धि सुमन ।
सुपार्श्व जेय अक्ष-पन,
चन्द्र-भा-शशि नमन ।
नमन पुष्प-दन्त-नन्त,
शीतल अभय वन्त ।
शील श्रेय श्री मन्त,
नमन वासु पूज्य अनन्त ।
दान्त विमल जै जयत,
नन्त जै, जै यत पत ।
सद्धर्म धर्म केतु जै।,
जल जन्म शान्ति सेतु जै ।
नमन कुन्थ चक्र त्यक्त,
अरह चक्री विरक्त ।
मल्लि मदन मान हत,
वन्दना मुनि सुव्रत ।
नुति नमीश जोड़ हाथ,
कीजिये नेमि सनाथ ।
स्तुत फणीश पार्श्व नाथ,
‘सहजो’ सन्मति साथ ।
कायोत्सर्ग
चौ-बीस तीर्थक भक्ति का किया मैंने ।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलंगर लगा अगर खेने ।।
सम्पन्न पञ्च कल्याण,
खान लख-संस्तुति गान ।
अतिशय चौ-तीस जुत,
देवेन्द्र बत्तीस नुत ।
समेत अष्ट प्रातिहार्य,
‘रे घिरे ऋषीश आर्य ।
तलक वीर चौबीस,
निशि दीस विनत शीश ।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ,रत्नन्नय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ पाक्षिक
प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ
पूर्वाचार्यानुसार, स्तव समेत ।
भक्ति चारित्रा-लोचनाचार्य
वृहद् का कायोत्सर्ग ।।
सिद्ध संस्तुति संलीन
जाल अग्नि रुष विलीन ।
विमुक्त, गुप्त,
साक्षी भाव अमल, वाक् सत् अहीन ।।
माहात्म साधु-गण- करीब,
वृत्ति जैनी प्रदीव ।
विघात दक्ष-कर्म नींव,
कामना सिद्धि सदीव ।।
शरीर गुण-मणि मढ़ा,
प्रमाद है नहीं जरा ।
द्रव्य विद् छः दृक् विशुद्ध,
संघ विद् चौ मन-हरा |।
तप विनष्ट मोह,
व्यवहार विद्, विशुद्ध वास ।
कुमार्ग अस्त,
‘जी’ प्रशस्त, मानस विनष्ट आश ।।
रहित किया प्रमाद,
वा मण्डित समस्त मुण्ड ।
सहिष्णु ! शिष्य वर्जित,
दण्ड चिर प्रचुर पिण्ड ।।
व्यपेत निद्र !
हीन लेश्या विहीन, अलिप्त देह ।
सथान ! अक्ष-जेय ! अचल !
वास-एकान्त गेह ।।
पवित्र भाव,
श्रुत-राति अखण्ड, सिद्ध आसना ।
विविक्त चित्त ऽनूप,
रिक्त अज्ञान, मोह-वासना ।।
पक्ष दुर्ध्यान भिन्न,
सुध्यान धर्म, शुक्ल अभिन्न ।
गारवापन्न न चर्या,
गण्य, दूर दुर्गतिन् पुण्य ।।
सराग, योग, तरुमूल
आतप, अभ्रावकाश ।
चर्या निष्पाप, हितु-जग,
अभय ! प्रभाव खास ।।
सुथिर योग, त्रि-रोग हर,
शिव सत् अनुत्तरा ।
आचार्य वे दें मुझे
ऽनघ, अछत, अचल धरा ।।
व्रत, समिति, गुप्ति,
विध तेरह चारित्राचार ।
उसके अति-चारों की
आलोचना का इच्छाकार ।।
विरला
नाम अहिंसा महाव्रत पहला
हा ! हा !
पृथ्वी कायिक
असंख्याता-संख्यात
जल-कायिक,
अग्नि-कायिक,
असंख्याता-संख्यात
वायु-कायिक,
जीव-कायिक-हरित
नन्तानन्त,
बीज-अकुंर ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘वे’
असंख्याता-संख्यात
कृमि शंखादि
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘ते’
असंख्याता-संख्यात
जूँ चिवट्यादि,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय चौ,
असंख्याता-संख्यात
कीट, डाँसादि ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वा पञ्चेन्द्रिय,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
ज्ञान इन्दु-दिक्
गभीर सिन्धु व्रत गुरु वन्दना ।
कायोत्सर्ग श्री भक्त्याचार्य
उसकी करूँ निन्दना ।।
वन्त आचार,
ज्ञान दृक् सदाचार, समन्ताचार्य ।
पाठक, श्रुत सुत,
दृक् ज्ञान व्रत जुत, साध्वार्य ।।
इन श्रमणों की आराधना
करूँ पर्युपासना ।
अर्चना सदा,
तब तलक, आये लौट श्वास ना ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।
अघ पाक्षिक,
प्रतिक्रमण दोष, विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।
भक्ति
चारित्रा-लोचनाचार्य-मध्यं का कायोत्सर्ग ।।
विशुद्ध देश कुल जाति,
विशुद्ध वाक्, मन, काय ।
मुझे मङ्गल रूप होंय,
आपके पयोज पाय ।।
ज्ञातृ-अपर, मत-स्वपर
हेतु आगम नैन ।
विनत दिन रैन,
निरत श्री मन् जिनेन्द्र वैन ।।
बाल-थविर, शैक्ष्य, क्षपक
वृद्ध एवम् दुशील ।
शिष्य जानके उन्हें,
सुपन्थ-पद करें सलील ।।
व्रत, समिति, गुप्ति युक्त,
मार्ग संस्थापक, मुक्त ।
गुण-निलय,
साधु-उपाध्याय, सद्गुण संयुक्त ।।
भाव शुद्धतः जल स्वच्छ,
समाँ भू क्षमा भाव तः ।
दहन कर्म त: अनल,
नि:संग समां वायु त: ।।
समाँ आसमाँ, निरुपलेप,
सिन्धु भांति गभीर ।।
गुणी गुण ये, रगूँ
मैं उड़ा तिन भक्ति अबीर ।।
प्रसाद आप आधार
हा ! भ्रमित वन संसार ।
जीव-भविक,
मोक्ष-मार्ग पा रहे, पा मोक्ष-द्वार ।।
रहित लेश्या अविशुद्ध,
सहित लेश्या विशुद्ध ।
रिक्त अशुभ आर्त-रौद् ध्यां,
युक्त शुभ ध्याँ शुद्ध ।।
निधि संयुक्त
अवग्रह, ईहा, अ- वाय, धारणा ।
वन्द्य ! भावना- श्रुतार्थ,
करूँ तिन पर्युपासना ।।
आचार्य आप
गुण गण स्तवन किया भक्तितः ।
बोधि लाभ दें,
दें समाधि लाभ, दें मार्ग मुक्ति का ।।
हा ! अतिचार
दृक्, ज्ञान, वीर्य, तप, चारित्राचार ।
पाक्षिक अर्द्ध मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।।
( पाखाष्टिक चौ मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।
वार्षिक बारा मासिक,
आलोचना का इच्छाकार ।
यौगिक साठ मासिक
आलोचना का इच्छाकार )
आठ प्रकार, ज्ञानाचार,
व्यञ्जन, अर्थ, उभय ।
उपधान, अ-निह्नव,
बहुमान, काल, विनय ।।
थुति थवन, अर्थख्याना
ऽनुयोग ऽनुयोग -द्वार ।
इनमें हीन,स्वर, व्यन्जन,
अर्थ, ग्रन्याधिकार ।।
किया स्वाध्याय,
अकाल की अनुमोदना ।
हो मिथ्या,
रह पाया, माँ प्रवचन, गर गोद ना ।।
दर्शनाचार
प्रभावन, गूहन, स्थिति करण,
निःशंका-कांक्षा, निर्विचिकित्सा
प्रीति, अमुग्धाचार
अष्टातिचार
विचिकित्सा, पाखण्ड पर प्रशंसा ।
अप्रभावना,
शंका, आकांक्षा, अन्य दृष्टि प्रशंसा ।।
अवात्सत्य,
षड् अनायतन सेव रुपासादना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
षड् तप बाह्य
उपास, तन त्रास, एकान्तवास ।
ऊन उदर,
वृति परि संख्यान, रसावकाश ।।
षडन्तः तप,
प्रायश्चित्त, विनम, स्वाध्याय, ध्यान ।
कायोत्सर्ग वा वैयावृत,
समाधि बोधि निधान ।।
परिषहादि पीड़ित,
की इनकी जो विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ-साधना ।।
पञ्च प्रकार-वीर्याचार
आगम यथोक्त तथा ।
सपराक्रम, सोत्साह
दैहिक आत्म शक्तिश: ।।
हा ! छिपा शक्ति अपनी,
की इनकी जो विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
व्रत, समिति, गुप्ति,
विध तेरह चारित्राचार ।
उसके अति-चारों की
आलोचना का इच्छाकार ।।
विरला
नाम अहिंसा महाव्रत पहला
हा ! हा !
पृथ्वी कायिक
असंख्याता-संख्यात
जल-कायिक,
अग्नि-कायिक,
असंख्याता-संख्यात
वायु-कायिक,
जीव-कायिक-हरित
नन्तानन्त,
बीज-अकुंर ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘वे’
असंख्याता-संख्यात
कृमि शंखादि
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय ‘ते’
असंख्याता-संख्यात
जूँ चिवट्यादि,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
जीवेन्द्रिय चौ,
असंख्याता-संख्यात
कीट, डाँसादि ।
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
वा पञ्चेन्द्रिय,
असंख्याता-संख्यात
पोतुप-पाद,
श्वेद्, उद्भेद
समुर्च्छ, अण्ड, रस, जरायुजात,
जीव प्रमुख पनक्ष,
योनियों में चौरासी लक्ष,
कृत, कारित, अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ पाक्षिक
प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ
पूर्वाचार्यानुसार, स्तव समेत ।
भक्ति चरित्रा-लोचनाचार्य
लघु का कायोत्सर्ग ।
बुध विद् शास्त्र समस्त,
प्रशमवाँ, अस्ता-ऽभिलाषा ।
विद् लोक स्थिति,
प्रतिभा-पर:, सह प्रश्न विभाषा ।।
विद् पूर्व दृष्ट उत्तर,
प्रभु ! मना ऽपरा-पहारी ।
प्रस्पष्ट मिष्ट अक्षर,
गुण-निधि, निन्दापहारी ।।
वृत्ति विशुद्ध,
श्रुत विज्ञ मृदुल, विद् लोक नीति ।
बुध संस्तुति,
विधि-सम्यक्, सद्-पन्थ प्रदत्त प्रीति ।।
मति अपर प्रति-बद्ध,
कुशल विगत स्पृहा ।
आचार्य श्रेष्ठ !
लें बचा भव वन गहल हहा ।।
सागर श्रुत,पारंगत,
विवेकी, स्वपर मत ।
निधान तप, चारित जुत,
गुण गम्भीर स्तुत ।।
पूर्ण गुण छ: तीस,
दक्ष शिष्य नु-ग्रह वृषीश ।
धार आचार शीश
नमन, संघ चतुर्विधीश ।।
भक्ति गुरु,
सु-व्रत धार, जलधि संसार पार ।
कर्म अष्ट यूँ संहार,
पाय मृत्यु, न अवतार ।।
होम चरित, मन्त्र लीन,
व्यतीत ध्याँ, साँझ तीन ।।
साधु, तपस्वी अहीन,
आवश्यक षट्क प्रवीण ।।
गुण है शस्त्र, वस्त्र शील,
सतेज चन्द्रार्क लील ।
प्रसीद साधु होय,
मोक्ष पाटन कपाट कील ।।
ज्ञान इन्दु दिक्,
गंभीर सिन्धु व्रत, गुरु वन्दना ।
कायोत्सर्ग, श्री भक्त्याचार्य
उसकी, करुँ निन्दना ।।
वन्त आचार,
ज्ञान-दृक् सदाचार, समन्ताचार्य ।
पाठक, श्रुत सुत,
ज्ञान, दृक्, व्रत जुत, साध्वार्य ।।
इन श्रमणों की आराधना,
करूँ पर्युपासना ।
अर्चना सदा,
तब तलक, आये लौट श्वास ना ।।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण । |
थिति-भोजन,
इन्द्रिय-रोधन,
अ-दन्त-धोवन,
अनह्वन, भू-शयन,
आवश्यक, लुञ्चन कच,
अवस्त्र, एक-भक्त,
समिति, व्रत, गुण श्रमण ।
विघटीं त्रुटिं विघटें
पुनः छेदो-पस्थापना हो ।
अथ पाक्षिक
प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।
कर्म क्षयार्थ
पूर्वाचार्यानुसार, स्तव समेत ।
भक्ति चरित्रा-लोचनाचार्य
करके सिद्ध भक्ति चारित्र,
भक्ति प्रतिक्रमण ।
भक्ति निष्ठित करण,
चन्द्र, वीर, शान्ति तीर्थकन् ।
भक्ति चरित्रा-लोचनाचार्य
वृहद्, मध्यं, क्षुल्लक ।
भक्ति समाधि कायोत्सर्ग,
मेंटने कमी-अधिक ।।
नमः ऽनुयोग
प्रथम, करण वा द्रव्य, चरण ।
पठन ग्रन्थों का
संग निर्ग्रन्थों का, नुति जिनेशा ।
आत्म-भावना,
हित-गुणो-पासना मिले हमेशा ।।
आप ह्रदय मेरे,
मैं रहूँ, आप चरण घेरे ।
पद, अक्षर, मात्रा, अर्थ-हीन
जो कहा, हो क्षीण ।
कायोत्सर्ग श्री मन्
श्री भक्ति समाधी का किया मैंने ।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलगंर, लगा अगर खेने ।।
रत्नत्रयी श्री मन् परमात्मा का ध्यां,
जिसका निशां ।
सन्त, समाधि वन्त,
नमन उन्हें नन्त हमेशा ।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।
मोक्ष गमन,
हो समाधि-मरण ‘श्री’ श्री वरण ।।
ओम्…
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