दैवसिक प्रतिक्रमण श्रमण
दोष बने आभरण हमारे ।
करे तिन्हें प्रतिक्रमण किनारे ।।
ले विशुद्धि अभिलाष नाथ ! मैं,
प्रकट करूँ दिन दुष्कृत सारे ।।
मानी हम मायावी-पापी ।
बन अपराध पड़े हा ! काफी ।।
खड़े आप दर, हाथ जोड़ कर,
दे दो अपराधों की माफी ॥
क्षमा कर रहे हम सब जन को |
क्षमा करें सारे जन हमको ॥
वैर किसी से नहीं मित्र सब,
कहो पराया कह दें किसको ॥
बन्ध शोक भय त्याग रहा हूँ ।
उत्सुकता परित्याग रहा हूँ ।।
हर्ष भावना दीन, द्वेष तज,
विसर अरति रति-राग रहा हूँ ।।
दुष्कृत-दुःचिन्त्वन तन-मन से |
छोड़े बाण-विषाक्त वचन से ।।
करूँ खेद भीतर ही भीतर,
अश्रु बहाऊँ अब नैनन से ॥
द्रव्य निमित्त विराधन सारी ।
क्षेत्र, काल आसादन सारी ।।
मन, वच, तन से करूँ त्याग मैं,
भाव निमित्त विराधन सारी ।।
ले इक से इन्द्रिय पन जीवा |
पृथ्वी, पवन, हुताशन जीवा ।।
जीव वनस्पति काय, जीव जल,
त्रस, मन रहित, सहित मन जीवा ।।
इनका किया विराधन होवे ।
दिया ताप, बध, बन्धन होवे ॥
कर अनुमोदन पाप कराया,
उसका शीघ्र विसर्जन होवे ॥
समिति, महावत, इन्द्रिय रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ।।
रहे मूल गुण आठ बीस भो ।
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत-प्रमाद तिन भूल-भूल मम,
छेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
चरित त्रयोदश तारण-तरणा ।
श्रमण धर्म दश शरण्य-शरणा ।।
पाद-मूल-गुरु, शील उभय गुण,
तप द्वादश बरसायें करुणा ॥
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
सिद्ध-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
नमन नन्त-नित् अरिहन्तों को ।
सिद्ध, सूरि, पाठक वृन्दों को ।।
नापे बिन वैशाखी शिव पथ,
उन समस्त साधु सन्तों को ॥
मंगल उत्तम शरण चार हैं ।
अरिहत जामन-मरण हार हैं ॥
सिद्ध-साधु-गण धर्म-अहिंसा,
एक जलधि भव करण-धार हैं ।।
सागर-जुगल सुद्वीप अढ़ाई ।
पनदश कर्म-भूमि शिव-दाई ।।
अरिहत जितने जिन परि-निर्वृत,
तीर्थक, सिद्ध, बुद्ध जिन राई ॥
धर्माचार्य, धर्म ध्वज धारी ।
चमु चतु-रङ्ग धर्म अधिकारी ।।
देव-देव, दृक्, ज्ञान, चरित कृति-
कर्म करुँ बनने अविकारी ॥
प्रभु ! अब समता भाव धर रहा ।
त्याग सर्व सावद्य कर रहा ।।
जब तक करता पर्यु-पासना,
करने से दुश्चरित डर रहा ॥
(कायोत्सर्गम्)
संस्तवन जिनवर आदरता हूँ ।
जिन अनन्त वन्दन करता हूँ ।।
पुरुषोत्तम ! जग महित, रहित रज-
हृदय तीर्थ-कर पद धरता हूँ ॥
जग जगमग जगमग उजियारा ।
वन्दन ज्ञान अलौकिक धारा ॥
आद-आद भव तीर वीर जिन,
वन्दन धर्म तीर्थ करतारा ।।
वृषभ प्रणुत, जित-शत्रु-नन्दना |
नुत सम्भव, अभिनन्द वन्दना ॥
सुमत प्रणुत, नुत पद्म-सुपारस,
नमन चन्द्र-प्रभ विहर-क्रन्दना ।।
प्रणुत सुविध, नुत शीतल स्वामी ।
श्रेयस प्रणुत, पूज्य-जिन नामी ॥
प्रणुत विमल जिन नन्त धर्म नुत,
प्रणुत शान्ति जिन अन्तर्यामी ॥
प्रणुत कुन्थ जिन अर भगवन्ता ।
मल्लि, सुव्रत मुनि प्रणुत अनन्ता ॥
नमि नुत, नेमि, पार्श्व नुत सन्मति,
बनने निरति-चारी निर्ग्रन्था ॥
मैं अनन्य इक आप पुजारी ।
विगत रजो-मल पाप-प्रहारी ॥
मरण विहीन, क्षीण-जर जिनवर !
करें दृष्टि अब ओर हमारी ।।
कीर्तन मैंने किया वचन से ।
पूजन तन से, वन्दन मन से ।।
करें विभूषित सिद्ध नन्त वे,
हमें समाध-बोध जिन-गुण से ।।।
चन्दा दागदार, तुम बढ़ के ।
सूरज आग, न्यार तुम बढ़ के ।।
निर्मल, तेजोमय, गभीर तुम,
सागर झाग क्षार तुम बढ़ के ।।
गो-खुर सा जग जिन्हें झलकता ।
जिन ढ़िग अरि कब टिका पलक था ॥
श्री मत वीर करें करुणा वे,
नीर-नैन-निर्झरन छलकता ॥
सिद्ध हुये जे तप संयम से ।
नय, सम-दृक्, चारित, अवगम से ।।
अभिनन्दित जग सिद्ध अपरिमित,
करें सुशोभित शम-यम-दम से ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम-दृक्, ज्ञान, चरित अधिशासी ।
विगत-कर्म शिव-शैल निवासी ॥
तप, नय, संयम-सिद्ध चरित-सम,
भूत-भावी-सम्प्रति अविनाशी ॥
सिद्ध अनन्त करूँ सुमरण भो ।
लाभ-रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
समिति, गुप्ति, व्रत, चरिताचारा ।
मुख प्रमाद हा ! तहाँ निहारा ॥
हुआ-विराधन आलोचन अब,
करूँ नाथ ! ले आप सहारा ।।
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ॥
नन्ता-नन्त वनस्पति जीवा |
छिन्न-भिन्न, हरि, अङ्कुर बीजा ।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुःखी, पीड़ित भयभीता ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव-आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
जीव असंख्या-संख्या साथी ।
विन्द्रिय सीप-शंख, कृमि आदि ॥
इन्हें विघाता, क्षमा कीजिये,
परिणति अब रह-रह पछताती ।।
जीव असंख्या-संख्या भ्राता ।
तिन्द्रिय चिवटि आद विख्याता ।।
क्षमा कीजिये, हा ! कृत, कारित,
दे अनुमति, यूँ इन्हें विघाता ।।
जीव असंख्या-संख्या ज्ञानी ।
श्रुति जिन चउ इन्द्रियाँ बखानी ॥
डाँस, आद दुख दिया इन्हें हा !
क्षमा कीजिये, सम रस सानी ॥
जीव असंख्या-संख्या जगती ।
जर-रस-श्वेद परसते धरती ।।
पोत-समूर्च्छन उद्भेदिज उप-
पादिज अण्डजादि पञ्चेन्द्री ॥
योनि लाख चउरासी में से ।
लाख-बीस छह योनिज ऐसे ॥
जीव विघाते, विघटे दुष्कृत,
निकट भान तुम, तम के जैसे ॥
व्रत पन, प्रथम अहिंसा प्यारा ।
त्याग, असत्, चोरी, व्यभिचारा ।।
पञ्चम विरति संग व्रत षष्टम्,
व्रत अणु विरमण निशि आहारा ॥
समिति, ईरिया भाषा नामी ।
आदाँ-निक्षेपण अभिरामी ।।
समिति-प्रतिष्ठा-पन वा ऐषण,
गुप्ति, ज्ञान, व्रत, दृक् सुखधामी ॥
भावन किरियाएँ पन बीसा ।
अठ-दश शील सहस्र मुनीशा ।।
गुण लख-चौरासी कषाय नौ,
गुप्ति ब्रह्म नौ, जिन चौबीसा ।।
शुद्धि कर्म वसु प्रवचन माता ।
चरित, समिति व्रत पन विख्याता ॥
चउ संज्ञा प्रत्यय तप संयम,
द्वादश अङ्ग धर्म जिन-गाथा ॥
धर्म मुण्ड दश, सुधर्म ध्याना |
चौदह पूर्व सप्त भय ठाना ॥
आवश्यक षट् जीव-निकाया,
गुण मूलोत्तर तन मन वाणा ।।
गारव तिय ऋद्धि रस साता ।
द्विविध त्रिविध परिणाम असाता ॥
मिथ्या दृक् व्रत ज्ञान दण्ड तिय,
कृष्ण नील लेश्या-कापोता ।।
हा ! प्रयोग मिथ्यात्व कषाया ।
योग प्रयोग अव्रत मन भाया ॥
श्रमण अयोग्य क्रिया विहरा मन,
हा ! मुनि योग्य क्रिया गर्हाया ।।
इनमें अरु कुत्सित पर्शन में |
वशि अनुराग अदृश-दर्शन में ॥
क्रिया प्रदोष, क्रिया परितापन,
आद क्रियावन आकर्षण में ॥
क्रोध, मान, भय, मोह हास से ।
राग, द्वेष, विषयाभिलाष से ॥
हुआ विराधन, विघटे दिन हा !
खड़े द्वार तुम, इसी आश से ॥
कीनी कर प्रतिक्रमण शरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन होता ॥
क्षय-दुख, नाश-कर्म,गुण अरिहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त-धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो |
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन, भूल भूल मम
क्षेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व अतिचार परसने
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहसने ॥
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति-प्रति-क्रमण, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
नमन निषिधिका रज-परिहारी ।
अरिहत सिद्ध-बुद्ध-अविकारी ।।
शुभ-सम-मन, सम-जोग-भाव, जिन,
नमन समर्थ ममत्व-प्रहारी ॥
नुत निर्भय, गुण रतन निधाना ।
निर्गत माया, मोस, गुमाना ॥
मोह-राग-निर्गत, नुत निर्गत-
माया, मिथ्या, शल्य निदाना ॥
नमन शील सागर निर्ग्रन्था ।
शल्य घट्ट, निर्दोष अनन्ता ॥
वर्धमान ऋषि-बुद्धि प्रभावक,
तप अ-प्रमेय वीर भगवन्ता ॥
सिद्ध बुद्ध जिन मंगल-कारी ।
वास ब्रह्म-चर, ब्रह्म बिहारी ॥
ज्ञान अवधि-श्रुत केवल, पर्यय-
मन: पूर्व-धर, गुण-गण-धारी ।।
मंगल तीर्थ, तीर्थकर, ध्यानी ।
ज्ञान, विनय, विनयी, संज्ञानी ।।
तप, तापस, ऋषि, संयम, संयत,
स्व-पर समय-विद्, सम रस सानी ॥
क्षमा, क्षमा-धर, मंगल दाता ।
क्षपक, विमोह क्षीण, जग त्राता ।।
गुप्ति, गुप्ति-धर, मुक्ति, मुक्ति-धर,
समिति, समिति-धर, चैत्य-विधाता ॥
मंगलकर, तरु चैत्य ललामी ।
बुद्धि-मन्त बुध-बोधित नामी ॥
प्रवचन-धर, धर-दर्शन प्रवचन,
दर्शन, क्षीण वन्त, निष्कामी ।।
त्रिजग आयतन सिद्ध प्रणामा ।
गिर सम्मेद शिखर अभिरामा ॥
अष्टा-पद गिरराज मध्यमा,
ऊर्जयन्त परि निर्वृति धामा ॥
चम्पा ‘पुर’ पावा बड़भागी ।
सिद्ध बुद्ध शिव-थल-अनुरागी ।।
कर्म-पाप-मल वर्जित चउ विध-
संघ प्रवर्तक, थविर, विरागी ॥
नृजग भरत दश विदेह पंचा |
उपाध्याय गुरु सूरि विरंचा ॥
नमन उन्हें, वे पावन मंगल,
करें, लें विहर, नादि प्रपंचा ॥
=प्रतिक्रमण=
कृत नाचार दिवस अतिचारा ।
मन-वच-तन कृत शिथिला-चारा ॥
दृगाचार अतिचार ज्ञान, तप,
वीरज चरिता-चार-तिचारा ॥
समिति, गुप्ति, व्रत, मन, वच, काया ।
आवश्यक षट्-जीव निकाया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
गमन किया ले वेग सहारा ।
भूषण नाहक गमन हमारा ॥
थान निर्गमन उद्-वर्तन पल,
मुख प्रमाद का हन्त ! निहारा ॥
सकुचित अंग किये फैलाये ।
कुत्सित कर्कश कर्म सुहाये ॥
नियत प्रदेश शरीर पर्श कर,
पर्श प्रदेश सर्व हरषाये ॥
बैठ गये बिन देखे सोधे ।
बैठ गये झट उठ के सो के ।।
सोये कर्वट ली परिमार्जन,
किये बिना हा ! सुध-बुध खो के ॥
आदि किया इन पाप कमाया ।
जीवों को दुख दिया सताया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
किया गमन मुख करके ऊँचा ।
किया गमन मुख करके नीचा ॥
किया गमन करके मुख तिरछा,
लख परिकर दिश्-विदिश् समूचा ॥
जीवों पे पग रख पथ नाँपा ।
कुचल बीज, हरि मन नहिं काँपा ॥
मृदा, तन्तु, उत्तिंग, पणग, जल,
आहत किया इन्हें खो आपा ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
जीवों को दुख दिया सताया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
भगवन् ! भाषा समिति शोभनी ।
कर्कश, निष्ठुर, मर्म-भेदनी ॥
कटु, पर-कोपिन्, परुष, विरोधिन,
वध-करि, छेयंकर-ति-मानिनी ॥
भाषा दश तिन मन विहराया ।
भाषण-भाषा अशुभ कराया ॥
श्लाघा भाषा अशुभ-भाषि हा !
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
भोजन बीज, पणग, हरि, कीना ।
अशन-पाण हा ! अयोग्य लीना ॥
अधः-कर्म, आरंभ-सून पन,
सुमर हहा ! खो विवेक दीना ॥
कर थुति दातृ किया-आहारा |
कर-भोजन मुख दातृ-निहारा ॥
बर्तन धूल मिट्टी में भोजन,
बन कर दया पात्र स्वीकारा ॥
कीना भोजन गिरा-गिरा के ।
लिया-दिया-शन खरीद ला के ।।
पात्र-दातृ निज भूमि तीन हा ।
देख सका नहिं सुध-विसरा के ॥
निर्देशित भोजन मन भाया ।
मन-उद्-देशित-अशन भ्रमाया ॥
मिश्र-अशन थापित बलि पाहुड,
पाहुड़-शन कीर्तन मन गाया ॥
प्रीत गरिष्ट-इष्ट रस कीनी ।
वस्तु निषिद्ध ग्रहण कर लीनी ॥
सर्व देश अभिघट गृद्धता,
परिणति सीम उलंघन दीनी ॥
आदि क्रिया इन दोष लगाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
समिति तुरिय आदाँ-निक्षेपण ।
विकृति फलक मणि उपकरणासन ॥
लेते रखते हुये इन्हें वश,
प्रमाद कर ओझल प्रतिलेखन ।।
जीव प्राण सत् भूत सताया ।
पीड़ित इन्हें करो समझाया ॥
कीना पर पीड़न अनुमोदन,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
समिति प्रतिष्ठापन फिर तिन में ।
अदृश थान संध्या निशि छिन में ।।
हरित, बीज, अभ्रावकाश भू-
खण्ड अप्रासुक थल आर्द्रन में ॥
बिन देखे शोधे मल क्षेपा ।
बिन देखे शोधे कफ फेका ।।
क्षेपण मल-नासिका पस्-स्रवण,
विकृति पूर्व हा ! नहिं प्रतिलेखा ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
जीवों को दुख दिया सताया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
द्वितिय महाव्रत विरति झूठ से ।
क्रोध, लोभ, व्यवहार-कूट से ॥
राग, द्वेष, भय, मोह हास, मद,
नेह, लाज, गृद्धि अटटू से ॥
गारव इक ऋद्धि रस साता ।
विध पन-दश प्रमाद विख्याता ॥
नादर तथा प्रदोष किसी अर,
कारण से ‘व्रत सत्य’ विघाता ।।
मन यूँ भाषण असत् रमाया ।
हा ! मिथ्या-भाषण करवाया ॥
की श्लाघा मिथ्या भाषिन् हा !
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
तृतिय महाव्रत चौर्य विरति में ।
ग्राम, खेट, पत्तन, कर्वट में ।।
सन्निवेश सम्-वाह, द्रोण-मुख,
घोष, मडम्ब सभा पुर-मठ में ।।
काष्ठ विकृति तृण आदि उठाया ।
बिना दिया हा ! ग्रहण कराया ।।
हा ! अदत्त ग्राहक अनुमोदन,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
तुरिय महाव्रत बिन रति-पति के ।
तिय सुर-नर-पशु तिय प्रतिकृति के ॥
इन्द्रिय इष्टानिष्ट विषय-वश,
निभा सका कर्त्तव्य न यति के ॥
आ आमर्श न कर विमर्श मैं ।
पशेन्द्रिय परिणाम पर्श मे ॥
धिक् ! धिक् ! हन्त ! हन्त ! हा ! मा ! धिक् !
नेत्रेन्द्रिय परिणाम दर्श में ।।
कर्णन्द्रिय परिणाम शब्द में ।
घ्राणेन्द्रिय परिणाम गन्ध में ।।
रसनेन्द्रिय परिणाम रस तथा,
मन अनियत परिणाम नन्त में ।।
पाया बचा न मन वच काया ।
ब्रह्म बाढ़ नव, रख नहिं पाया ॥
कारित अनुमति आद कोटि नव,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
पञ्चम व्रत मुनि त्याग भार का ।
है परिग्रह वह दो प्रकार का ॥
नाम बाह्य अन्तरंग परिग्रह,
हेत जुगल यही श्वभ्र द्वार का ॥
अन्तर् परिग्रह नाम वेदनी ।
ज्ञान-दर्शनावरण मोहनी ॥
आयु गोत्र अरु अंतराय मिल,
भेद अष्ट शिव सुख निरोधनी ॥
परिग्रह बाह्य पीठ, उपशैय्या ।
फलक, कमण्डलु, संस्तर, शैय्या ॥
अशन-पान उपकरणादिक बहु-
भेद विवर्णित जिन श्रुत मैय्या ॥
कर्म बंध कर तिन से आया |
या बन्धन अधीनस्थ कराया ॥
कर्म विबन्धक अनुमोदन धिक्,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
मुनि षष्टम अणुव्रत निशि अनशन |
अशन पान अरु खाद्य, स्वाद्य इन ॥
आहारों में तिक्त, अम्ल, मधु,
लोन-अलोन कषायल कटु-पन ॥
तिन्हें रात्रि-गर चाहा मन से ।
निशि स्वीकार क्रिया गर तन से ॥
किया स्वप्न आहार, कहा हा !
निशि कर लें आहार वचन से ॥
इमि निशि अशन स्वयं मन भाया ।
दूजों को निशी-अशन कराया ॥
हा ! कीनी श्लाघा निशि-भोजिन्,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
रूप कामिनी लखा स्वप्न में ।
भोजन षट्-रस चखा स्वप्न में ॥
हा ! वशात् वासना गोद निज,
तिरियावन तिय रखा स्वप्न में ॥
मृदु संलाप स्वप्न तिय कीना ।
मन प्रवेश स्वप्न तिय दीना ॥
हन्त खलन वीरज कर हा ! हा !
श्वानानन्द स्वप्न तिय लीना ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ॥
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
आरत-रौद्र रूप दुर्ध्याना ।
संज्ञा-भय इह अपर जहाना ॥
मैथुन संगाहार शल्य दृक्,
मिथ्या, माया, नेह निदाना ।।
क्रोध, लोभ, मद, शल्य, पिपासा |
रूप, गन्ध, रस, शब्दरु फाँसा ॥
पाप जोग, परिणाम असंयम,
मिथ्या दर्शन, मठ अभिलाषा ।।
लोभ कषाय, क्रोध, मद, माया ।
लेश्या अशुभ, वचन, मन, काया ॥
तन-अधिकरण क्रिया परितापन,
प्राण हरण षट् जीव निकाया ॥
सुख अभिलाष काय परिणामा ।
परिग्रह दुख प्रदाय परिणामा ॥
षड्-आरम्भ वियोग-करण दश,
प्राण निकाय-जीव परिणामा ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ॥
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
रंग, रूप तिय कथा सुहाई ।
कथा, अर्थ कर यथा कमाई ।।
कथा चोर छल छिद्र-भेद यूँ,
कथा राज थिर यूँ ठकुराई ।।
विकथा कथा देश पुर ग्रामा ।
पर-पाषण्ड़ कथा संग्रामा ।।
कथा सधृष्ट प्रलाप मौखरिक,
भक्ष्य पृष्ट-पल कथा प्रकामा ॥
गाथा विविध महा लघु भाषा ।
पर-पीड़न परिवाद पिपासा ॥
कन्दर्-पिका कथा ड़म्बरिका,
विरह-कलह नजदीक निवासा ॥
कथा वैर थल मर्म विघाता ।
अकथा कौत-कुच्य कुख्याता ॥
अनुमोदिन सावद्य कथा पर-
निन्दन् आत्म प्रशंसन् गाथा ॥
विकथावन इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ॥
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
पत्र, चित्र, तिय पट, कठ पुतलिन |
भित्ति-चित्र, पाषाण अन्य इन ॥
रखी कृतादिक गुप्ति काय नहिं,
दोष सभी मिथ्या हो भगवन् ॥
भगवन् ! भाव एक नाचारा ।
रागरु, द्वेष द्विविध पन धारा ॥
दण्ड़ गुप्ति गारव तिय चउ-विध,
संज्ञा-चौ कषाय व्यापारा ॥
समिति महा व्रत पन मुनिराया ।
आवश्यक षट् जीव निकाया ॥
सप्त अष्ट भय-मद नव गुप्तिन्,
ब्रह्मचर्य दश-वृष समुदाया ॥
गृहि प्रतिमा एकादश प्यारी ।
प्रतिमा भिक्षुक द्वादश न्यारी ॥
क्रिया त्रयोदश, भूत ग्राम दश-
चउ, प्रसाद पन-दश दुखकारी ॥
षोडस प्रवचन जित प्रतिवादी ।
संयम विध सत्रह निरुपाधी ।।
असम-परायन अठदश, नवदश-
अध्ययन नाथ निधान समाधी ॥
हा ! असमाधि थान विध बीसा ।
सबल क्रिया परिकर इक बीसा ।।
परिषह विदित बीस तिय अध्ययन,
सूत्र तीर्थ-कर जिन चौबीसा ॥
क्रिया बीस पन भावन ज्ञानी ।
बीस षट्क पृथ्वियाँ बखानी ॥
गुण अनगारन् सप्त बीस आ-
चार कल्प अठ-बीस प्रभावी ॥
पाप सूत्र उन्तीस प्रसंगा ।
कर्म विमोह तीस विध भंगा ।।
कर्म विपाक तीस इक विध विय-
तीस विर्निगत मुख जिन गङ्गा ॥
अत्यासन तिय तीस प्रधाना ।
जीव अजीव विराधन नाना ॥
अत्यासन तप चरित वीर्य-
अत्यासन दृक् अत्यासन ज्ञाना ।।
दुराचरण, गर्हण आदरता ।
रज त्रिकाल प्रतिक्रमण सुमरता ।।
करता प्रत्याख्यान अनागत,
आलोचन नालोचित करता ॥
आराधन स्वीकरण कर रहा ।
आसादन प्रतिक्रमण कर रहा ॥
गर्हन्-दोष अगर्हित, निन्दन्-
दोष अनिन्दित वरण कर रहा ॥
आदि किया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
पद निर्ग्रन्थ हमें अभिलाषा ।
करुणा क्षमा धर्म परिभाषा ॥
नैकायिक नुत्तर प्रति-पादित,
केवली पूर्ण विशुद्ध प्रकाशा ॥
सामायिक त्रिक् शल्य विघाता ।
सिद्ध मार्ग श्रेणी जग त्राता ॥
मग निर्याण, प्रमुक्ति मुक्ति मग,
मग निर्वाण, मार्ग शिव-दाता ॥
उत्तम अवितथ शरण यही है ।
दृक्, श्रुत, अवगम, चरण यही है ।।
हुआ न होगा, आज न कल भी,
इस सा तारण तरण यही है ॥
जीव इसे पा बुध हो जाते ।
सिद्ध मुक्त कृतकृत हो जाते ॥
दुख का कर विध्वंस निरख जग,
युगपत् परि-निर्वृत हो जाते ॥
इसे पर्श करता रुचि करता |
इस प्रतीति श्रद्धा आदरता ॥
करता ग्रहण ज्ञान-दृक व्रत-सम,
मिथ्या-दृक्-व्रत-ज्ञान विहरता ॥
विषयों से मुख मोड़ रहा हूँ ।
प्रशम दुशाला ओड़ रहा हूँ ॥
श्रमण हो रहा, मद, छल, मूर्च्छा,
उपधि, असत्, रति तोड़ रहा है ।।
आदि क्रिया इन दोष लगाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ॥
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
समिति, ईरिया, भाषा धीरा ।
आदाँ-निक्षेपण भव तीरा ॥
समिति प्रतिष्ठापन अरु ऐषण,
गुप्ति वचन मन गुप्ति शरीरा ॥
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराजा ।
सत् अचौर्य भव-जलधि जहाजा ॥
ब्रह्मचर्य निःसंग षष्ट अणु-
वृत निशि-शन अणुव्रत सरताजा ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
जीवों को दुःख दिया सताया ।।
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
दिन अतिचार हन्त ! आभोगा |
अनाचार हा ! हा ! नाभोगा ।।
कायिक, कृत, मानसिक, वाचनिक-
नुमति, कारितन् पाप-प्रयोगा ॥
बुरे विचार किये हा ! मन से ।
कीनी दुष्प्रवृत्ति हा ! तन से ॥
देखे कुत्सित-स्वप्न बुझे विष,
प्रक-क्षेपे हा ! बाण वचन से ॥
समिति, गुप्ति, तिय मन, वच, काया ।
आवश्यक षट्, जीव निकाया ॥
ज्ञान, महाव्रत, दृक्, श्रुत, चारित,
पल सामायिक दोष लगाया ॥
क्रिया कर्म हन छल सिर लादा ।
साधा सब इक आत्म न साधा ॥
अंग-उपांग चलाचल कीने,
दृष्टि चलाचल की बन नादाँ ॥
खोले मूँदे लोचन भाई ।
लीनी खाँसी, छींक, जंभाई ।।
दोष श्वास उश्वास आदि इन
क्रिया होय मिथ्या जिनराई ॥
जब तक गीत आपके गाता ।
विधिवत् संस्तवन आप रचाता ।।
करता पर्युपासना तब तक,
तन, मन, वचन पाप विसराता ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त धावन ॥
एक-भक्त, अस्नान, शयन-भू
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति भोजन !
रहे मूलगुण आठ-बीस भो ।
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ।।
कृत प्रमाद तिन भूल-भूल मम,
छेदो-पस्थापन ऋषीश हो ।।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
वीर-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
भूत-भावी सम्प्रति पर्यायें ।
जिन्हें द्रव्य गुण सर्व दिखायें ।।
प्रभु सर्वग वे महावीर जिन !
चरणन सविनय शीश झुकायें ॥
वीर तीर्थ यह बुध जन शरणा ।
अभिहत कर्म महित-सुर-चरणा ।।
कान्ति,कीर्ति,श्री,द्युति,धृति,तप-धर,
वीर जलधि-भव तारण तरणा ॥
संयत सतत ध्यान कर करके ।
करें वीर नुति ‘कर’ सर धरके ॥
सघन विषम संसार सिन्धु वे,
करें पार दुख शोक विहर के ।।
संयम-कंध मूल व्रत सारे ।
बढ़ता यम जल नियम सहारे ॥
शील शाख कलि समिति, गुप्ति-पल्-
लव तप-दल-गुण कुसुम अहा ‘रे ॥
शिव सुख फलद छाँव जिस करुणा ।
शुभ जन पथिक बिन्दु-श्रम-हरणा ।।
दुरित रविज संताप विहर तरु-
चरित हरे वह जामन मरणा ॥
किया सर्व जिन चरिताचरणा ।
किये शिष्य युत चरिताभरणा ।।
लाभ चरित पञ्चम हित वन्दन,
करुँ भेद पन चरिता-मरणा ॥
अपर मित्र ! जिस दया मूल है ।
दिला रहा भव जलधि कूल है ॥
हितकर ! बुध ! सञ्चित शरण्य जिन-
धर्म, शीश तिन चरण धूल है ॥
संयम तप आभूषण धारी ।
धर्म अहिंसा मंगलकारी ॥
देव करें नित नमन उन्हें मन,
जिनका अविरल धर्म पुजारी ॥
भक्ति वीर आलोचन करता ।
पञ्चाचार-तिचार विहरता ॥
शील-नियम-यम संयम-गुण-
अतिचार जोग सावध विसरता ॥
क्रिया जोग अप्रशस्त कषाया ।
थान असंख्या अध्यव-साया ॥
कृत-कषाय संज्ञा इन्द्रिय वश,
दुष्प्रणिधान वचन, मन, काया ॥
विकथा, लेश्या अशुभ हाथ की ।
मन मे कुछ, कुछ और बात की ।।
वेद, शोक, भय, हास, जुगुप्सा,
अरति कुपथ-रति, आत्म-सात की ॥
आर्त-रौद्र परिणाम सुमरके ।
पग जुग हस्त चपलपन धरके ॥
अति-प्रवृत्ति इन्द्रिय मन, वच, तन,
अपरि-पूर्णता हा ! कर करके ॥
स्वर, अक्षर, पद, असत् मिलाये ।
ऊन-मन्द स्वर पञ्चम गाये ॥
पढ़े शीघ्र, हा ! सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ।।
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय रोधन |
आवश्यक षट्, अ-दन्त धोवन ।
एक भक्त, अस्नान,शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो !
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन भूल-भूल मम,
छेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति तीर्थ-कर, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
नाथ सगण गणधर निष्कामा |
जीवन मुक्त कन्त शिवरामा ॥
‘आद’ आद जिन सन्मत अंतिम,
तीर्थंकर चौबीस प्रणामा ॥
लखन हजार आठ विख्याता |
मथित जाल भव भाग-विधाता ।।
सुर, नर, नाग महित, जगदीश्वर,
चार-बीस गाऊँ गुण गाथा ॥
वृषभ सुरासुर नमित वन्दना ।
दीप सर्व-जग अजित वन्दना ॥
जिन सम्भव, सर्वग-अभिनन्दन,
देव-देव नित-अमित वन्दना ॥
सुमति कर्म शत्रुघ्न वन्दना |
पद्म-पद्म-प्रभ-गन्ध वन्दना ।।
क्षान्त, दान्त जिन सुपार्श्व वन्दन,
पून चन्द्र-प्रभ चन्द्र वन्दना ॥
पुष्प-दन्त जग विदित-वन्दना ।
शीतल भव-भय मथित-वन्दना ।
श्रेय जगाधिप, वासु-पूज्य वर-
शील-कोश बुध-महित वन्दना ॥
ऋषि-पति विमल जिनेश वन्दना ।
यति-पति ‘नन्त’ अशेष वन्दना ।।
धर्म-केतु सद्-धर्म शान्ति जिन,
शम-यम निलय विशेष वन्दना ॥
कुन्थ लब्ध वधु मुक्त वन्दना ।
भोग-चक्र अर-व्यक्त वन्दना ॥
मल्ल-गोत्र विख्यात खचर-नुत
सौख्य-राशि मुनि-सुव्रत वन्दना ॥
महित सुरेन्द्र नमीश वन्दना ।
ध्वज-हरि-कुल नेमीश वन्दना ॥
पार्श्व वन्द्य-नागेन्द्र शरण-इक,
वर्ध-मान जग-दीश वन्दना | |
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति तीर्थक जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ।।
प्रातिहार्य वसु पन कल्याणा ।
महित-इन्द्र बत्तीस प्रधाना ॥
युत-अतिशय चउ-तीस चतुर्विध-
संघ-शरण लख थवन निधाना ॥
तीर्थक तिन करता सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति मरण हो ॥
क्षय दुख, नाश कर्म गुण अरहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ।।
रहे मूल गुण आठ बीस भो !
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन-ऋषीश हो ॥
शुद्धि सिद्ध, प्रतिक्रमण परसने ।
रज तीर्थक, थुति वीर विहॅंसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति-समाधिन्, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
नमस्कार प्रथमानुयोग श्री ।
नमस्कार करणानुयोग जी ।।
नमस्कार चरणानुयोग नित,
नमस्कार द्रव्यानुयोग भी ॥।
श्रुताभ्यास सत्संग सुमन का ।
दोष-मौन कीर्तन गुण-धन का ॥
शिव-तक होवे प्राप्त भावना-
आत्म, थवन-जिन, विभव-वचन का ।।
शिव सुख नहिं जब तलक चख रहा ।
चरण हृदय तब तलक रख रहा ॥
नाथ ! हृदय मम, चरण आप जुग,
लगा टक-टकी अथक तक रहा ॥
कहा हीन पद अर्थ, अखर हो !
विस्मृत मात्रा हुई अगर हो ॥
क्षमा देव-श्रुत ! कर दें, दें वर,
हाथ रतन त्रय मुकति डगर हो ॥
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति समाध जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम दर्शन है जिसका वाना ।
स्वरूप सम चारित संज्ञाना ॥
लखन परम ब्रह्मन परमातम,
अविरल निर्-विकल्प तिस ध्याना ॥
करता तिस समाधि सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय सुगति गमन हो ॥
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण-अरहत्
सम्पद् वरण, समाधि मरण हो ॥
ओम्…
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