बुला रही उस तट शिव-राधा
मात कूख प्रण विसराओ ना ।
मृग तृष्णा जग ललचाओ ना ।।
सब साधा कब बात बनी है,
साधो एक जिसे न साधा ।।
बुला रही उस तट शिव-राधा
कहो हाथ शमशीर कहाँ है ।
धनुष कहाँ है, तीर कहाँ है ।।
लिये आत्म विश्वास खड्ग क्या,
नीर, चीर ना दे पथ बाधा ।।
बुला रही उस तट शिव-राधा
त्रस पर्याय बड़ी दुर्लभ है ।
संज्ञी पन फिर कहाँ सुलभ है ।।
सुनो लगाना जोर तनिक सा,
पा मानस नापा पथ आधा ।।
बुला रही उस तट शिव-राधा
शिव-बाला दे हाथ रही है
बाँधो कमर बटोही जागो ।
शिव पर्वत आरोही जागो ।।
देखो उन्मीलित नयनों से,
शेष कहाँ अब रात रही है ।।
शिव-बाला दे हाथ रही है
हन्त ! पेलते रेत रहे क्या ।
बाहिर बक से श्वेत रहे क्या ।।
पा मुकाम हम हमसफर गये है,
हम पिछड़े क्या बात रही है ।।
शिव-बाला दे हाथ रही है
पथिक चल पड़े मंजिल आये ।
चीर धार, आ साहिल जाये ।।
राम भरोसे काम बने कब,
कह जिनवाणी मात रही है ।
शिव-बाला दे हाथ रही है
शरण अलौकिक त्रिभुवन चार
होकर आत्म ध्यान लवलीन ।
किये घातिया कर्म विलीन ।।
सत्य अहिंसा धर्म प्रचार ।
नुति भगवत् अरहत शत-बार ।।
शरण अलौकिक त्रिभुवन चार
मिटा कर्म वसु नाम निशान ।
समय एक पहुँचे शिव-थान ।।
लेना और ना अब अवतार ।
नन्त सिद्ध नुति बारम्बार ।।
शरण अलौकिक त्रिभुवन चार
शशि सित, रवि जित, सिन्ध गभीर ।
अवहित मन श्रुत-पादप-कीर ।।
रतन तीन गुण-गण अविकार ।
नुति मुनि मन वच काय सम्हार ।।
शरण अलौकिक त्रिभुवन चार
जिओ और जीने दो गीत ।
केवलि जिन मुखरित संगीत ।।
अमित, अमिट शिव सुख करतार ।
धर्म अहिंसा जय जय कार। ।
शरण अलौकिक त्रिभुवन चार
मुझे जीव सब देेवें माफी
मेरा मुख उगले विष भारी ।
रखूँ राम मुख, बगल कटारी ।।
हाय ! मोह मदिरा पीक करके,
कीनी भूल अब-तलक काफी ।।
मुझे जीव सब देेवें माफी
तन मेरा किस दुष्कृत रीता ।
मन भी दुर्भावों तीता ।।
पाप प्रपञ्चों में फँस करके,
हन्त ! राह उल्टी ही नापी ।।
मुझे जीव सब देेवें माफी
आता मुझे पृष्ठ पल भखना ।
दे दीपक दो तेल हरखना ।।
पकड़ कान स्वीकार करूँ मैं,
मानी मायावी, खल पापी ।।
मुझे जीव सब देेवें माफी
नव वधु से मुनि पग रखते हैं
खोई निधि पाने मचले हैं
विधि-बन्धन विहँसे निकले हैं ।।
चलें रात-दिन, वैशाखी बिन,
शिव मारग, किस पल थकते हैं ।
नव वधु से मुनि पग रखते हैं
नयन तीर तिय असफल सारे ।
त्राहि-माम् शर सुमन पुकारे ।।
न्यार नार लख भगवत् सत्ता,
भरे वासना कब तकते हैं ।।
नव वधु से मुनि पग रखते हैं
करें न स्वीकृत रञ्च वञ्चना ।
निज निवसे, उलझें प्रपञ्च ना ।।
कलि जुग जनम विजय लख वैरिन,
कम लिखते, ज्यादा लखते हैं ।।
नव वधु से मुनि पग रखते हैं
साधो ! स्वाभिमान मत खोना
कर तर कर मत करना अपना ।
श्वान भाँति मुख पर ना तकना ।।
झाँकी बगलें, बगुले बन के,
निर्जन पुनि ना नैन भिंगोना ।।
साधो ! स्वाभिमान मत खोना
सजन ! अनर्गल वचन न बोलो ।
कुछ कहने से पहले तोलो ।।
उगले विष ऐसे तरुओं के,
बागवान ! पुनि बीज न बोना ।।
साधो ! स्वाभिमान मत खोना
चेहरा आईना ‘रे मन का ।
अपनाया मारग क्यों वन का ।।
प्रश्न स्वयं से कर ये, दिल का,
नित टटोलते रहना कोना ।।
साधो ! स्वाभिमान मत खोना
भव जल का आ गया किनारा
एक समय में छुआ लोक सिर ।
घृत, कब बनता दूध कहो फिर ।।
एक अनेक, मगर अपने में,
दिखे न ऐसा और नजारा ।।
भव जल का आ गया किनारा
पहने मुकुट सितारों वाला ।
पलकें बिछा राह, ले माला ।।
लुप-छुप अव-गुण्ठित घूँघट से,
शिव राधा शिव कन्त निहारा ।।
भव जल का आ गया किनारा
आ सुख अव्याबाध गया कर ।
झट दामन गुण नन्त गया भर ।।
ज्ञान शरीरी सिद्ध अपरिमित,
तिन्हें अपरिमित नमन हमारा ।।
भव जल का आ गया किनारा
देर तनिक आ ध्यान लगायें
जो पल को भीतर जाते हैं ।
भव जल को भी तर जाते हैं ।।
बैठ गर्भ-गृह हिय हुलसायें ।
देर तनिक आ ध्यान लगायें ।।
कुछ न नाक के आगे अपना ।
कहाँ भाँति मृग भागे, रुक ना ।।
निगहबान बन आत्म दिखायें ।
देर तनिक आ ध्यान लगायें ।।
अपने भी सपने जब सोते,
सपने भी अपने ‘जग’ होते ।।
पैठ आत्म सर गहरे आयें ।
देर तनिक आ ध्यान लगायें ।।
साधा सभी न पाया कुछ भी ।
समय अभी न गवाया कुछ भी ।।
सजग ‘एक’ दृग् दोल झुलायें ।
देर तनिक आ ध्यान लगायें ।।
छू नभ रही पालड़ी हल्की ।
डूबे कब, कब लकड़ी हल्की ।।
भाँत वात निःसंग कहायें ।
देर तनिक आ ध्यान लगायें ।।
पकरे सबर घुरे मुख मिसरी
अरे ! बाबरे, रे ! नव-सीखे ।
फल कब ऋत पहले तरु दीखे ।।
ढ़ोल न सुन, गगरी पे गगरी ।
पकरे सबर घुरे मुख मिसरी ।।
‘रे ये क्या नादानी करता ।
कब नासूर पलक में भरता ।।
रुक उड़ेल मत मरहम सबरी ।
पकरे सबर घुरे मुख मिसरी ।।
‘लीला उसकी’ साँच कही है ।
अंगुलि इशारे नाँच रही है ।।
बेवश बड़ी हाय ! कठपुतली ।
पकरे सबर घुरे मुख मिसरी ।।
मनुआ ‘जय-सन्मत-जय’ कह ले ।
जिस विध राखें तिस-विध रह ले ।।
बह धारा तट लगती लकरी ।
पकरे सबर घुरे मुख मिसरी ।।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा
तुझे झुलाया हाथ दोल पे ।
अब तू मढ़ निज चाम ढ़ोल पे ।।
बजा, नाँच, गा विरद रचेगा ।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा ।।
तुझे घुमाया गोदी लादे ।
काँवर बिठा, उठा अब काँधे ।।
दर-दर भी माथा रगड़ेगा ।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा ।।
तुझे सुलाया गा के लोरी ।
तू जो लाया ब्याह के गोरी ।।
सेव साथ दिन-रात करेगा ।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा ।।
तुझे सिखाया क, ख, ग, घा ।
रग-रग अपनी करके धागा ।।
ले जा गंगा-गगन धरेगा ।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा ।।
तुझे रिझाया बन तुझ जैसा ।
जमा कर रखा जितना पैसा ।।
पाइ-पाइ भी नाम लिखेगा ।
माँ का कर्ज न चुका सकेगा ।।
समशरण, समशरण, समशरण
बैर भाव छोड़ के
सभी हाथ जोड़ के
बैठे अरहत चरण
समशरण, समशरण, समशरण
अव्रती हुये व्रती
हो व्रती महाव्रती
मेंटें जामन-मरण
समशरण, समशरण, समशरण
मान-थम्भ ज्यों छुआ
मान थम्भ त्यों हुआ
मुस्कुराये पन करण
समशरण, समशरण, समशरण
बैठ पास सींह मृग
कहें टिका आप दृग्
और न तारण तरण
समशरण, समशरण, समशरण
प्रातिहार्य अठ सभी
भूमि, धूप-घट सभी
चित्त का करें हरण
समशरण, समशरण, समशरण
सहस-जिह्वा भले
करने वर्णन चले
कर न सकेगा धरण
समशरण, समशरण, समशरण
गति परम, गति परम, गति परम
रति समाध जोड़ अब
एक साथ छोड़ सब
कर दिये बिदा करम
गति परम, गति परम, गति परम
सुख अबाध है यहाँ
गमन यहाँ से कहाँ
कहे अहिंसक धरम
गति परम, गति परम, गति परम
नेक रहें एक में
चकित दृग् देख मैं
गहल अपहर भरम
गति परम, गति परम, गति परम
देह ज्ञान रूप हैं
चेतन चिद्रूप हैं
देह न्यून कुछ चरम
गति परम, गति परम, गति परम
लख रहे बुरा भला
राग पे कहाँ गिला
जान चुके खिल मरम
गति परम, गति परम, गति परम
छू न सके देव हैं
अछूते देव देव हैं
अनुपमेय शिव शरम
गति परम, गति परम, गति परम
ना उपल, ना उपल, ना उपल
थापना निक्षेप से
चैत्य रु जिन एक से
जो विराजे मुक्ति थल
ना उपल, ना उपल, ना उपल
ये तो तदाकार जी
कहो, निराकार भी
जल न करे विष विफल
ना उपल, ना उपल, ना उपल
भाव-प्रमुख धर्म जिन
संभल प्रत्येक छिन
बीज भाँत फल फसल
ना उपल, ना उपल, ना उपल
टकटकी तो दीजिये
तृप्त नैन कीजिये
गिन न वृक्ष, चखिये फल
ना उपल, ना उपल, ना उपल
अपने जो गये गुजर
होगी तो तस्वीर घर
न देखते ही दृग् सजल ?
ना उपल, ना उपल, ना उपल
यम कब दे दस्तक आया है
बख्तर पहिन खड्ग लो कर में
बाँधे हाथ न बैठो घर में
कौन बिना अभ्यास शत्रु को,
बोलो धूल चटा पाया है
यम कब दे दस्तक आया है
पंछी कहाँ विहँसने वाला
खोल उड़े पिंजरे का ताला
पिंजरा मिला नया पंछी को,
गीत मधुर फिर से गाया है
यम कब दे दस्तक आया है
पी पियूष जग कौन अवतरा
किसे परेशाँ करे ना ‘जरा’
कितना और रहोगे इसमें,
हुई जर-जरित ये काया है
यम कब दे दस्तक आया है
संभलो दिन ढ़लने वाला है
क्षितिज छोर या, है जल स्रोता
आते आते ओझल होता
रुक जाओ ना मृग पैरों में,
पड़ने वाला अब छाला है
संभलो दिन ढ़लने वाला है
झुलस चला लौं लगा पतंगा
पद्म पाँख चिर-निन्द्रित भृंगा
चढ़े, उतरने को कब राजी,
मोह मदिर ऐसी हाला है
संभलो दिन ढ़लने वाला है
साधो ! सिर्फ द्वेष मत छोड़ो
सुनो, राग से भी मुख मोड़ो
शीतल होने पर भी फसलें,
क्या ना जला रहा पाला है
संभलो दिन ढ़लने वाला है
माँ किस-सी मुश्किल कह पाना
दिन भर भान उगलता शोले
दुनिया शशि मृग-लाञ्छन बोले
नखत एक दिन खिर गिर जाना
माँ किस-सी मुश्किल कह पाना
नाम निम्नगा नदिया पाती
ले मुस्कान कली झर जाती
रंग बदल मौसम का आना
माँ किस-सी मुश्किल कह पाना
हा ! पानी सागर का खारा
दिया तले पनपे अंधियारा
सछिद्र मुरली ताना-बाना
माँ किस-सी मुश्किल कह पाना
श्रमण नाम है निश्छलता का
जलज भाँत जग जल रहने का
निर्झर सरित् भाँत बहने का
सुख में सुखी, दुखी ना दुख में,
नित अभिनन्दन अविकलता का
श्रमण नाम है निश्छलता का
सहज बेत से झुक जाने का
विहर गहल मृग रुक जाने का
भ्रमण चतुर्गत अनाद लख के,
निर्मूलन उच्छृंखलता का
श्रमण नाम है निश्छलता का
कूर्म भाँति इन्द्रिय गोपन का
दर्प चक्री तिय गत जोवन का
मान-सरोवर राज-हंस सी,
बाह्य भीतरी उज्ज्वलता का
श्रमण नाम है निश्छलता का
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
आप स्वयं बलखाते चलता
मन, इससे ले सीख संभलता
चल शिक्षक यह एक कहाहिं
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
बोझ आईने का ले घूमे
विहँस कलंक गगन मन झूमे
कौन बागवां इसके घाहिं
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
लिये रबर यह रहे हमेशा
मेरा चित्र बन चला ऐसा
देश-विदेश भाँति इस नाहिं
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
बड़ा यद्पि अपराध हमारा
ठोक-पीट दे हाथ सहारा
बात न गरमा पाई सिराहिं
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
फुरसत कहाँ गैर जो आके
हित अपनों के टोके-टाके
सुन, न इसे कह गैर उलाहिं
हित चिन्तक निन्दक जग माहीं
संभल, गरूर न पैर जमा ले
जल छिन मीन, चीटिंयाँ खातीं
जल बिन, मीन चीटियाँ खातीं
वक्त आज इस, कल उस पाले
संभल, गरूर न पैर जमा ले
सुबह अहा’ रे खिल मुस्कुराते
साँझ-सकारे गुल मुरझाते
दिन फिरते, जुग लगें न ‘लाले’
संभल, गरूर न पैर जमा ले
कीमत कहीं लकड़ियाँ पातीं
भील लड़कियाँ कही जलातीं
रहते समय, गहल विहँसा ले
संभल, गरूर न पैर जमा ले
थका न था करके उजियाला
राहु-केतु मुख बना निवाला
मुदें आँख सब काल छुड़ा ले
संभल, गरूर न पैर जमा ले
पद्म पाँख अलि दे जीवन दे
पद्म पाँख अलि ले जीवन ले
मरण सफल अवीचि बना ले
संभल, गरूर न पैर जमा ले
‘अप्प दीप भव’ पन्थ चालिये’
गुजरा कल कब आने वाला
गुजरा कब, कल आने वाला
तब सँभलेगा, अब संभालिये
‘अप्प दीप भव’ पन्थ चालिये
हो जब पर्वत ऊपर चढ़ना
कब आसान बोझ ले बढ़ना
गद संग्रह संग्रहणी टालिये
‘अप्प दीप भव’ पन्थ चालिये
सः यानी ‘कि वह, अब हारा
कहे खुदबखुद शब्द सहारा
वैशाखी सब हटा डालिये
‘अप्प दीप भव’ पन्थ चालिये
कल रुलाने वो काम न करना
बुने जा रही ताना-बाना
था ये कब मकड़ी ने जाना
फँस इस मुझे एक दिन मरना
कल रुलाने वो काम न करना
अंधों के अंधे होते हैं
दुष्ट भले जब तक सोते हैं
चीर हरण ‘इति-हास’ सिहरना
कल रुलाने वो काम न करना
दूध कहाँ इतना भी मीठा
कहे जमा…ना माँ…सी पीटा
मींच न नैन, खोज ले शरणा
कल रुलाने वो काम न करना
बनो न बेंट कुदाल सहारे
दृग् घड़ियाल सजल कई सारे
वृक्ष बचेगा एक न वरना
कल रुलाने वो काम न करना
काँटे बन रक्षक आते हैं
खबर न लगे, कहर ढ़ाते हैं
लाड़ो ! सँभल-सँभल पग धरना
कल रुलाने वो काम न करना
लो अपना, फिर पंक उछालो
लख भी निरख न छिद्र पाओगे
दोष मढ़े सिर स्वयं जाओगे
सिर्फ नाक से भार हटा लो
लो अपना, फिर पंक उछालो
जो अब तलक न्याय माँगे था
समाधान वो मन माँगेगा
चल ‘पग…ले-उस’ देख जरा लो
लो अपना, फिर पंक उछालो
मनस् सजा-ए-मौत लिखे था
खड़े कटघरे स्वयं दिखेगा
सिक्के और ओर दृग् ला लो
लो अपना, फिर पंक उछालो
लड़ने पल पहले मचले था
लाड़ प्यार करने मचलेगा
दृग् रस्ते दिल उसे बिठा लो
लो अपना, फिर पंक उछालो
जादू नेह है हि कुछ ऐसा
कमी स्वयं की दिखे हमेशा
गीत विश्व-वत्सल आ गा लो
लो अपना, फिर पंक उछालो
दूर न दुख, सुख आस-पास भो
खिलीं खुलीं गुल गुलशन पाँँखें
शूल न कम तरेरते आँखें
चुन लो आये भ्रमर रास जो
दूर न दुख, सुख आस-पास भो
सर-मानस मणि-मुक्ता खानी
मछली तो पानी की रानी
हंस चाह जो बना ग्रास लो
दूर न दुख, सुख आस-पास भो
ईख चूमते-गगन, न कम हैं
लहरा रहें फणिन परचम हैं
चाह स्वाति-जल करो श्वास वो
दूर न दुख, सुख आस-पास भो
लहर-लहर गुमराह सिन्धु की
दीप थम्भ भी, छाह इन्दु की
चाह पंछी कर लो प्रवास वो
दूर न दुख, सुख आस-पास भो
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
माँझी पा बाछें खिल जाना
कब पर्याप्त नाव मिल जाना
तल-हित जल में पड़े उतरना
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
कब काफी सिर हाथ बागबाँ
गर छूने की आश आसमाँ
गहरे माटी पड़े बिखरना
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
माटी, कृपा कुम्हार न काफी
दिल्ली दूर, न घट भर हाँपी
अभी परीक्षा-अग्नि बिसर ना
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
माना माँ ला देगी दाना
रख मुख भी माँ देगी माना
तुम्हें पड़ेगा मगर निगलना
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
धूमिल इक-सा अतीत सबका
और कठिन भी मार्ग न शिव का
चल घुटने बल-ही चल पड़ ना
चरण न, सन्त छुओ आचरणा
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
धिक् लख बक करतूतें कालीं
कर गन्दला मुुख दी जो गालीं
बुध ! ये वचन न तुम्हें ठीक थे
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
धुला दूध का कौन यहाँ है
धुंधला धुंध न कोन यहाँ है
तुम कब कल चल रहे लीक थे
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
तलहट से देखा पर्वत को
पर्वत से देखा तलहट को
दिखे नजारे कब सटीक थे
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
होगी कुछ उसकी मजबूरी
श्रृद्धा कब सब पास सबूरी
सभी कखहरा यहाँ सीखते
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
ठोकर जिन पैरों ने खाई
पीर समझ गैरों की पाई
देखो पंकज पंक पीकते
सिर्फ सर्प पग सर्प दीखते
घर छोरा, अर गाँव ढ़िढ़ोरा
लाली ढ़ल इक आई दूजी
रही पहेली पर अनबूझी
थका हाय ! मृग दौड़ा-दौड़ा
घर छोरा, अर गाँव ढ़िढ़ोरा
जल मे रह के मछली प्यासी
दीप खोजती तारक-राशी
सुर कौए से सीखे भौंरा
घर छोरा, अर गाँव ढ़िढ़ोरा
सुख भी’तर ले रहा हिलोरें
जाने किस-हित बाहर डोलें
काज हंस मत से लें थोड़ा
घर छोरा, अर गाँव ढ़िढ़ोरा
माँ रहती है साथ हमारे
बला न इतना भी इतराओ
भला, लौट पग उलटे जाओ
वरना दिन दीखेगे तारे
माँ रहती है साथ हमारे
माटी छुऊँ बन चले सोना
हाथ लग चला जादू टोना,
पुण्य पूर्व कृत पाँव पसारे
माँ रहती हैं साथ हमारे
चाँद उतर आये उस आँगन
टक सितार चालें उस दामन
बढ़ क्या इससे स्वर्ग नजारे
माँ रहती है हमारे साथ
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
अदल-बदल धन कमी न बेशी
गति सुविचार कहाँ पै ऐसी
अदल-बदल आ दुगुण बनाये
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
काकी कोयल बच्चे पाले
कोयल अच्छी लोरी गा ले
मिल जुल बूझ पहेली जायें
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
गमा बहुत कुछ चले सकोची
कमा सके कुछ कब मति ओछी
बन गभीर कर्तव्य निभायें
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
सुना, देखते ही खरबूजा
खरबूजा बदले रंग दूजा
लोच रखें, बदलें मुस्कायें
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
दुनिया में हर चीज़ सिखाती
नज़र नेक दक्षिणा मँगाती
वज्र अखर ये कुछ गुदवायें
मिलें ‘कि सीखें या सिखलायें
माँ तेरे जैसा ना कोई
कला कहाँ से माँ ये सीखी
काँटा चुभा मुझे तू चींखी
हँसी हँसा मैं, रोया रोई
माँ तेरे जैसा ना कोई
समझ न पाया, मैं ये माया
कौर स्वयं का मुझे खिलाया
औझल हुआ ‘कि आँख भिंजोई
माँ तेरे जैसा ना कोई
बूझ न अब-तक सका पहेली
तिनके तोड़ बला सिर ले ली
सुला मुझे गा रोली सोई
माँ तेरे जैसा ना कोई
कहीं धूल मोहन तो ना ये
बना हाथ का दोल झुलाये
रहे मिरे ख्यालों में खोई
माँ तेरे जैसा ना कोई
पढ़ी दूसरी कक्षा लागे
लाद मुझे बन घोड़ा भागे
तुझ-सी तू इह-पर जग दोई
माँ तेरे जैसा ना कोई
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
इक आये महफिल रँग छाये
एक जाये महफिल रँग आये
पड़ी आपसी गाँठें खोलो
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
कहा शोर-गुल काका गाना
कहाँ शोर, गुल हाँ… हाँ गाना
जुबां केशरी मिसरी घोलो
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
इक को चमका रहा कीच है
इक औ ‘चमका-रहा’ कीच है
कमरी और न अधिक भिंजो लो
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
गिरा, जुड़ा कब तारा नभ से
कब बिछुड़ा ध्रुव तारा नभ से
पानी कितने जरा टटोलो
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
तोता राम-राम इक रटता
तोता जाम-जाम इक जपता
रहते वक्त पार उस हो लो
क्या बनना ? मन मेरे बोलो
घर की फिर बाहर की बारी
जग भर में करते उजियारा
रख सुरमई तले अंधियारा
दीप न कहे इसे हुशियारी
घर की फिर बाहर की बारी
दूर-दूर का देखन जातीं
आस-पास क्या ? देख न पातीं
इतनी भी क्या दृग् लाचारी
घर की फिर बाहर की बारी
तारे कितने ? कौन गिनाये
कर उद्धार न अपना पाये
भाँत सेतु मति तो न तुम्हारी
घर की फिर बाहर की बारी
खड़ा दीप ले द्वारे द्वारे
मृग-लाञ्छन जग तीन पुकारे
चाँद समझ से बाहर म्हारी
घर की फिर बाहर की बारी
गंदले नहीं किसी के द्वारे
गंदले रोशनदान हमारे
करे सफाई की तैयारी
घर की फिर बाहर की बारी
जग सीधा निज करे उलूका
रग-रग बन्दर बाँट समाये
दृग् जल मगरमच्छ ले आये,
रहे चाखने चुगली भूखा
जग सीधा निज करे उलूका
पर अशगुन हित नाक कटाये
दे, ना दे, ले, हाथ बढ़ाये
माँगन माँ न कलेजा चूका
जग सीधा निज करे उलूका
रत-स्वास्थ, भू भाग-भार सा
नख-शिख रग-रग रँगे शियार सा
हद हो चली घुटाला भूसा
जग सीधा निज करे उलूका
छोड़ चुका फन गिरगिट पीछे
धिक् खरगोश भाँत दृग् मींचे
‘पीके’ देख पराया सूखा
जग सीधा निज करे उलूका
विष सहेज, तज रहा काचली
चला घर जला और आँच ली
मुँहफट दे जवाब दो टूका
जग सीधा निज करे उलूका
भली न अपनों से खामोशी
चाहे जिसे, चाह ही उसको
चाहे तुझे, चाह भी उसको
ताँक, तँकें दृग् कातर गो सी
भली न अपनों से खामोशी
यूँ कब हरे दवा ही पीड़ा
सिर कुछ धरे दुआ भी बीड़ा
लख दृग् तृण दाबे हिरणों सी
भली न अपनों से खामोशी
चश्मा कहाँ ? देखती आँखें
पंछी ‘चुन’ चुन चुने सलाखें
सुनते हरिक आत्म सिद्धों सी
भली न अपनों से खामोशी
खोल, न पड़ने दे ग्रन्थी को
खोल जुबां बल दे सन्धी को
हट मत पकड़ संभल सन्तोषी
भली न अपनों से खामोशी
माँ तेरे आगे सब बोने
बँटवारे का आज समां है
दुकां काम किस काम मकां है
माटी के सब खेल खिलौने
माँ तेरे आगे सब बोने
किसी और को दे दो खलिहां
कहीं और लें खिल-खुल कलियाँ
हूँ तैयार न तुझको खोने
माँ तेरे आगे सब बोने
लगे सराफा हाथ न अरमाँ
ख्वाब न किस्मत रहे मेहरवाँ
गोद मिले बस तेरी सोने
माँ तेरे आगे सब बोने
भगवन् ! उसे मुबारक बागा
आ मुड़रे उस गा ले कागा
माँ, सनेह दृग् मिले भिंगोने
माँ तेरे आगे सब बोने
लाख दुआ वो छुये आसमाँ
बस मिल जाये मुझे काश माँ
प्रभु कर दो कुछ जादू टोने
माँ तेरे आगे सब बोने
दिखला खोल मुट्ठी देना
बन्द लाख की मुट्टी सुनते
हुई खाक की मुट्ठी खुलते
मोल न सिर आफत ले लेना
दिखला खोल मुट्ठी देना
रखते दृग् दल कमल दूर से
लगते जल-कण कोहनूर से
छू न डबडबा लेना नैना
दिखला खोल मुट्ठी देना
मिल न किसी को गये किनारे
डरे डरे से सहमे सारे
हम कितने पानी क्या कहना
दिखली खोल मुट्ठी देना
मति जैसा गति वैसी साथी
कहते ही अब ‘के अब हारे
दिखने लगते दिन में तारे
जीत खिसक उस पाले जाती
मति जैसा गति वैसी साथी
फतह सुनिश्चित कहते ही ‘रे
आप लगे नौका उस तीरे
ला मेहनत यूँ रंग दिखाती
मति जैसा गति वैसी साथी
झूठ जुबां पुनि-पुनि गर पर्से
पड़ भारी सच के सर बर्से
राम-बाण घुट दवा कहाती
मति जैसा गति वैसी साथी
नकल भले पर करो अकल से
कल देगी वो मिला असल से
मति हंसी कब इक की थाती
मति जैसा गति वैसी साथी
घड़ा पाप भरते ही फूटे
कंकर नहि कण्कण ‘कर’ शोभा
चुभ गर गया हृदय क्या होगा
मिल क्या रहा सार, तुष कूटे
घड़ा पाप भरते ही फूटे
जगह अगर उसकी हम होते
हम भी उसी-भाँत वन-रोते
लेख रेख के बड़े अनूठे
घड़ा पाप भरते ही फूटे
रहे कहो कब रात हमेशा
दिन ही रहे, कहो कब ऐसा
पलक झपकती किस्मत रूठे
घड़ा पाप भरते ही फूटे
रखनी देर कुछेक देर की
सवा शेर से भेंट शेर की
सपने पुनः जुड़ेगे टूटे
घड़ा पाप भरते ही फूटे
बड़े से बड़ा भी अपराधी
चाह राह ले सीधी सादी
विधि के स्वप्न बना दे झूठे
घड़ा पाप भरते ही फूटे
अब तलवार धार पर चलना
इतनी भली न अलि बेताबी
गुल गुलाब कब सिर्फ गुलाबी
काँटे कम ना जरा संभलना
अब तलवार धार पर चलना
लो उड़ान माखी को भरना
जोड़ा छोड़ रही, क्या वरना
धुनना सर होगा ‘कर’ मलना
अब तलवार धार पर चलना
कड़री प्राय: पहली रोटी
रहना टिके न आशाँ चोटी
काई पर हो चले फिसलना
अब तलवार धार पर चलना
पात चीकने तरु बड़भागी
फणि आस्तीन पान इक दागी
लक्षण दिखें पूत के पलना
अब तलवार धार पर चलना
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
छीन जिन्दगानी ले पानी
बहुत जरूरी जीने पानी
रूठी, मिली-जुली भी दुनिया
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
मुख ‘कण्टक’ इक आह निकाले
संकट हर इक वाह निकाले
कण्टक, खिली कली भी दुनिया
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
रक्षक दाँत वही इक म्याऊँ
भक्षक दाँत वही इक म्याऊँ
बन्द किताब, खुली भी दुनिया
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
बिन्दु स्वाति इक वंशा मोती
इक भुजंग मुख ध्वंसा होती
उधड़ी हुई, सिली भी दुनिया
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
चाले सुख ‘गाड़ी झुक-झुक सी’
घड़ी चले दुख में रुक-रुक सी
धूमिल, दूध-धुली भी दुनिया
दुनिया बुरी, भली भी दुनिया
आसाँ समझ न पाना माँ को
माँ जिराफ दे जन्म धकेले
शिशु उठ जब-तक साथ न खेले
पड़े ‘जि’ वज्र बनाना माँ को
आसाँ समझ न पाना माँ को
माँ म्याऊँ शिशु दाँत दबाया
देख कहे जग कलिजुग आया
पड़े ‘मुँ’ गोद बनाना माँ को
आसाँ समझ न पाना माँ को
माँ नागिन कब भूखी इतनी
कल जाने जाँ ले ये कितनी
ममता पड़े लजाना माँ को
आसाँ समझ न पाना माँ को
माँ कपि शिशु जाँ पड़ी गवानी
ऊपर नाक देख के पानी
बच्चे और रखाना माँ को
आसाँ समझ न पाना माँ को
माँ चिड़िया ना लाई दाना
हो जो चुका पंख का आना
भरना पेट सिखाना माँ को
आसाँ समझ न पाना माँ को
जागो मन, क्या साधु न होना
देता दंश नाग अनगणना
पर छू-मन्तर चिढ़ना, कुड़ना
तब रीझी चन्दन छव सोना
जागो मन, क्या साधु न होना
पत्थर बरसा रहा जमाना
ले मीठे फल उसे खिलाना
आओ तरु से कुछ सीखो ना
जागो मन, क्या साधु न होना
छाती भूम चीर दी गहरी
फूटी धारा माफिक मिसरी
सरल न परहित आँख भिंगोना
जागो मन, क्या साधु न होना
छीन साँप ने लिया घरौंदा
मुँह दाबा फिर माटी लौंदा
दीमक ने तज रोना धोना
जागो मन, क्या साधु न होना
हाथी घोड़ा चढ़े पालकी
सकुचा अंग, न आँख लाल की
कछु…आ पास न जादू टोना
जागो मन, क्या साधु न होना
अब तो फतह सुनिश्चित साथी
मौन कुदाल प्रहार सहे है
पैर प्रहार सहे न कहे है
देती अग्नि परीक्षा माटी
अब तो फतह सुनिश्चित साथी
छूना गगन लिये ये सपना
मिला बजूद खाक ‘कण’ अपना
झाँका चीर भूमि की छाती
अब तो फतह सुनिश्चित साथी
खिला दही मिश्री माँ दीना
बिदा तोड़ तिनके है कीना
लिये कलश पनहारिन आती
अब तो फतह सुनिश्चित साथी
पल मरणा-वीचिन् जग बीते
पर दुख कातर दृग् जुग तीते
उपनय खड़े, मृत्यु पढ़ पाती
अब तो फतह सुनिश्चित साथी
दुनिया माया जाल सरीखी
यहाँ टाँग सब खींच रहे हैं
सभी हाथ में कीच लिये हैं
दुनिया मिर्च संभलना तीखी
दुनिया माया जाल सरीखी
आँखों में घड़ियाली आँसू
जुबां-कर्ण ‘पल-पृष्ठ’ पिपासू
दुनिया दूर ढ़ोल सी नीकी
दुनिया माया जाल सरीखी
यहाँ सभी पिछलग बगुले के
चित सकुचित पौधे गमले के
दुनिया ऋत पतझड़ वत् फीकी
दुनिया माया जाल सरीखी
गिदगदान गुर रखने वाले
दूध धुले तन मन विष प्याले
दुनिया भिड़ा लड़ाना सीखी
दुनिया माया जाल सरीखी
श्वान भाँत निज कौम घातिया
अजा कृपाणी न्याय साथिया
दुनिया ‘भी’ न, पक्षधर ‘ही’ की
दुनिया माया जाल सरीखी
आ मन के झाँसे मत जाना
भोजन कहो जरूरी जितना
गज ! कब भोग जरूरी उतना
छोड़ो ना क्या छल अपनाना
आ मन के झाँसे मत जाना
जिह्वा ले चुटकी ले मीना
खेल जुआ, कब पार सफीना
सार्थ सुरक्षित ‘सफर’ सुहाना
आ मन के झाँसे मत जाना
सुनो ! भ्रमर कुछ कहती नासा
आशा तब तक, जब तक श्वासा
कहो, तुम्हें क्या श्वास गवाना
आ मन के झाँसे मत जाना
माना जीवन दीप तिहारा
तू भी उसे बता क्या प्यारा
पता न गर, फिर क्यों दीवाना
आ मन के झाँसे मत जाना
लगे न मृग, कोकिल सुर लहरी
छल तो नहीं, देख बन पहरी
जाल रहे छुप, दीखे दाना
आ मन के झाँसे मत जाना
छूट सराय गई, घर आया
भेड़ बीच पल भेड़ समाना
‘सिंह तुम’ पड़े वचन जब काना
लगा दहाड़-एक भर आया
छूट सराय गई, घर आया
रुक-रुक अय ! गज राज राजसी
प्रिया न प्रतिकृति पड़े आरसी
मार भगाया मनमथ भाया
छूट सराय गई, घर आया
जाँ से बड़ कस्तूरी भाई
‘भाग’ साँझ मंजिल न आई
मान हार मृग कदम थमाया
छूट सराय गई, घर आया
किसे न पुल तारीफ बँधाना
सुधी ! सूर्य का मुख जिस तरफी
सूर्य-मुखी का मुख तिस तरफी
चाहे हटके रंग जमाना
किसे न पुल तारीफ बँधाना
देख आम-वन बौरें आईं
कोकिल कुछ-कुछ सी बौराईं
लुभा चला मन मानस गाना
किसे न पुल तारीफ बँधाना
तोता राम ज्योतिषी खासे
राम-राम रटते रसना से
ये कुछ हटके जग ने जाना
किसे न पुल तारीफ बँधाना
छीना-झपटी छोड़-छाड़ के
श्वान खड़ा जिह्वा निकाल के
दुम लहरा चाहे नजराना
किसे न पुल तारीफ बँधाना
रंग बिरंगी प्रकृति समूची
पर-हित रही बिखेर विभूती
सिर्फ खुराख न आबोदाना
किसे न पुल तारीफ बँधाना
मन को कर आगे मत चलना
पेट भले आकण्ठ भरा था
आस-पास मल दिखो जरा क्या
हो जाता मन श्वान मचलना
मन को कर आगे मत चलना
चंचल यूँहि, पिये कपि हाला
बिच्छू डसा, हुआ मतवाला
मन उससे भी चपल, संभलना
मन को कर आगे मत चलना
तुला मँगाया, मँहगा वाला
रखा एक, दूजा भग चाला
कठिन बड़ा मेंढक तुल सकना
मन को कर आगे मत चलना
बदल साँझ में चला सबेरा
हाय ! गई मति मोरी मारी
ढ़ली उमर बन सिरी सवारी
रे मन ! ले अब ढ़ूढ़ बसेरा
बदल साँझ में चला सबेरा
कुछ न साथ था, रोते आये
कहो साथ किसके क्या जाये
मना छोड़ो भी तेरा मेरा
बदल साँझ में चला सबेरा
नन्दी खोलो भी दृग् पाटी
घड़ा बनी पद-दलिता माटी
छाना निशि फिर घना अंधेरा
बदल साँझ में चला सबेरा
चिड़िया, दुनिया बड़ी दुरंगी
हाथ बढ़ा न रही मिलाने
थाह नीर हम कितने पाने
आये, स्वप्न दिखा सतरंगी
चिड़िया, दुनिया बड़ी दुरंगी
पहले जाल बिछा जाती है
दाना लिये नज़र आती है
हाथ बढ़ा न रही मिलाने
थाह नीर हम कितने पाने
आये, स्वप्न दिखा सतरंगी
चिड़िया, दुनिया बड़ी दुरंगी
बड़े-बड़े नाखूँ रखती है
घड़ियाली आँसू रखती है
हाथ बढ़ा न रही मिलाने
थाह नीर हम कितने पाने
आये, स्वप्न दिखा सतरंगी
चिड़िया, दुनिया बड़ी दुरंगी
राम नाम तोते सा रटती
लख बगुले सा मीन झपटती
हाथ बढ़ा न रही मिलाने
थाह नीर हम कितने पाने
आये, स्वप्न दिखा सतरंगी
चिड़िया, दुनिया बड़ी दुरंगी
दिन मणि संभल बिलाने वाली
लौट बचपना आया फिर से
लगीं दीखने गायें घर से
लाली लसी सुलाने वाली
दिन मणि संभल बिलाने वाली
पैर तीसरा पास आ गया
झुलसा उपवन श्वास पा गया
पद्म पाँख मुँद जाने वाली
दिन मणि संभल बिलाने वाली
चलना दूभर गिर सी सिढ़ियाँ
शिशु हित चोंच लिये चुन चिड़ियाँ
कजड़ि दुकां बढ़ाने वाली
दिन मणि संभल बिलाने वाली
खटपट लगीं खिड़कियाँ करने
चतुपथ लगीं लड़कियाँ डरने
ड्योड़ी दीप बुलाने वाली
दिन मणि संभल बिलाने वाली
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
लगे गगन से कुछ बतियाने
साथी कुछ भर रहे उड़ाने
दृग् उन्मील, न कर अनदेखी
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
रह बच्चे भूखे जायेंगे
परचम श्याही लहरायेंगे
ख्यात विदेश-देश तुम नेकी
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
कछुआ सुन खरगोश हराता
ऊँट पहाड़ तलहटी आता
रखी न रह जाये सब शेखी
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
गर्मी, बरसा देख न सरदी
खोज मिलेगा मानस-सर भी
भली न, भूलन पनघट भेकी
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
सहने की भी कुछ हद होती
झिरा रहे दृग् चन्दन मोती
गा तो वन चन्दन बन केकी
उठ, उड़ तू चिड़िया सोने की
साधो ! आप गिरेबां झाको
वह कर्मों का हाय ! सताया
भला बुरा क्या जान न पाया
नहीं किसी को टोको-टाँको
साधो ! आप गिरेबां झाको
जिसके पास बुद्धि है जितनी
सुलझाये वह उलझन उतनी
दृग् न किसी पे रोको-राखो
साधो ! आप गिरेबां झाको
छुपी किसी मुट्ठी मिट्टी है
गई किसी की खुल मुट्ठी है
आप पड़ी क्या ? बा को-ताँको
साधो ! आप गिरेबां झाको
अच्छे समय मजाक लतीफा
गर्दिश बने लतीफा तीखा
नहीं किसी को ओछा आको
साधो ! आप गिरेबां झाको
आओ, आ आपे में जाओ
चोला हंस, काम बगुले के
और भले न, मन तो देखे
कौम अपनी सींह लजाओ
आओ, आ आपे में जाओ
सिंह मारे गज, भखे जमा…ना
ऐसा भी क्या पाप कमाना
चादर लाँघ न पैर बढ़ाओ
आओ, आ आपे में जाओ
दे मद रहे हृदय क्यों कोना
सब पाकर जब इक दिन खोना
गीत वत्स-गो वत्सल गाओ
आओ, आ आपे में जाओ
बना मील पत्थर सिरहाना
मान मुकाम न मग सुस्ताना
सिसके प्रिया न उसे भुलाओ
आओ, आ आपे में जाओ
सुनो क्रोध धोखे की टाटी
श्वान भाँति न भूसो लाठी
मान कर्म भव पूर्व सिराओं
आओ, आ आपे में जाओ
शत्रु न मन, मन ! मित्र हमारा
पास न दीप ज्योति मन थाती
ठुकरा नेह शलभ झुलसाती
जगत् हँसे यह देख नजारा
शत्रु न मन, मन ! मित्र हमारा
अहि ने आ घर पैर जमाये
मन बिन दीमक कर क्या पाये
ढ़ुलका चली मोति दृग् धारा
शत्रु न मन, मन ! मित्र हमारा
भेद कमल की पाँख न पाता
लकड़ी में सुराख कर जाता
मिला न मन का चूँकि सहारा
शत्रु न मन, मन ! मित्र हमारा
कान पकड़ते रहना मन के
लगे डाट नभ शिष्य दिखाये
लगे डाँट तट नौका आये
पटल परसने नभ आँगन के
कान पकड़ते रहना मन के
लगे चोट हो माटी मटकी
लगे चोट चढ़ती भ्रू भट की
हेत स्रोत सुख चैन अमन के
कान पकड़ते रहना मन के
लगे लगाम अश्व न मचले
लगे लगाम जुबां न फिसले
अनुचर बन रहने माहन के
कान पकड़ते रहना मन के
झकझोरे फल दे तरु मीठे
पीटे दे मृदंग सुर मीठे
रुदन विहँसने निर्जन वन के
कान पकड़ते रहना मन के
बरसे घन छाये खुशहाली
बरसे धन ! अन चले दिवाली
मालिक होने समता धन के
कान पकड़ते रहना मन के
साधु न आसाँ आत्म झलकना
विरद विदिश्-दिश यूँहि न गमके
पुष्प तोड़ लाने सा खम् के
घिस चन्दन सा पड़े महकना
साधु न आसाँ आत्म झलकना
चार चाँद लग यूँहि न जाते
नादाँ जब पत्थर बरसाते
दे तरु-से फल, पड़े हरखना
साधु न आसाँ आत्म झलकना
आश आसमां यूँहि न सीझे
आँचल कोर बिन्दु श्रम भींजे
अरुक सरित् सा पड़े सरकना
साधु न आसाँ आत्म झलकना
वाह-वाह जग यूँहि न होती
मेहनत भागीरथ भी ओछी
बेंत भाँत झुक पड़े बरकना
साधु न आसाँ आत्म झलकना
कोहनूर मिल यूँहि न जाये
भले लौट फिर बचपन आये
पर-हित भू सा पड़े दरकना
साधु न आसाँ आत्म झलकना
हरगिज़ निज हिम्मत न हारना
राम-सेतु पल एक गिलहरी
कर गगरी निज देह रूपहली
सुखा रही सागर ! निहार ना
हरगिज़ निज हिम्मत न हारना
ले चीनी चींटी है चढ़ती
गिर उठ फिर के आगे बढ़ती
पा मंजिल जाती, विसार ना
हरगिज़ निज हिम्मत न हारना
पिय-पिय कह चातक नभ ताँके
अमृत सुलभ भी बिन्दु चाखे
स्वाति प्रणय ‘पाती’ नकार ना
हरगिज़ निज हिम्मत न हारना
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
दौड़-धूप मल रही हाथ है
हाट शोरगुल विनत माथ है
चिन्ता फिकर पलट पग भागी
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
पीछा मोल-भाव से छूटा
नगदी का व्यापार अनूठा
आप हो चला जग अनुरागी
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
धोखा-घड़ी धुने सिर अपना
मौका घड़ी घड़ी वर सपना
थे हतभागी, अब बड़भागी
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
चैनो-अमन करे अठखेली
सर-मानस पवमान सहेली
कहाँ पहेली ? परणति जागी
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
आमद हासिल क्षितिज छोर सी
परसित गगन पतंग डोर सी
बोलें मुड़ेर कागा-कागी
हाथ दुकाँ मणि-माणिक लागी
मर न मरण से पहले जाना
माँगी मिन्नत दर-दर जा के
रत्न मिला, क्यों खोते पा के
क्या फिर जोन भटकना नाना
मर न मरण से पहले जाना
भव-भव भोगे भोग अनेका
क्यों तक रहे बिन्दु-मधु एका
क्या प्रण कूख, हुआ विसराना
मर न मरण से पहले जाना
रहें अंगीठी, जिये अँगारा
खो बजूद दे जिद का मारा
नेह न अपनों का ठुकराना
मर न मरण से पहले जाना
सभी चल रहे घुटने के बल
लेख-देख गंदले सबके कल
हँसना, हँसी न कभी उड़ाना
मर न मरण से पहले जाना
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
धन्य घड़ी, धन्य घड़ी,
धन्य घड़ी, धन्य भाग
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
और कोई नहीं मटकी,
है वही पद दलित माटी ।
नहीं घाटी हुई नाटी,
सिर्फ खाई गई पाटी ।।
करना नहीं है वार, उसका-
वार बस नाकाम करना ।
भाँति कछुये के छिपा के,
अंग सब आराम करना ।।
भूत, भावी, वर्तमाँ गुरु,
पञ्च जिस-जिस थान संस्थित,
शाम अपनी तीन उनके,
बिना-कारण नाम करना ।।
हो भले घनघोर अंधर,
उठाना ना हाथ लाठी,
तेल मीठा डाल बाती,
जगाना बस दीप साथी ।
और कोई नहीं मटकी,
है वही पद दलित माटी ।
नहीं घाटी हुई नाटी,
सिर्फ खाई गई पाटी ।।
पड़ा रहने नीर देना,
हंस सा पी क्षीर लेना ।
नहीं देना पीर-पर, पर-
बने अपहर पीर लेना ।।
कर्म जड़ क्या दोष इनका,
बपे हमनें बीज थे कल,
चुकाने में कर्ज, करना-
हर्ज क्या, धर धीर लेना ।।
सिर्फ गिरना हारना कब,
जब खड़े फिर कमर बाँधे,
भले नाटी, चढ़ ना जाती,
कहो ? चींटी शिखर घाटी ।।
और कोई नहीं मटकी,
है वही पद दलित माटी ।
नहीं घाटी हुई नाटी,
सिर्फ खाई गई पाटी ।।
स्वार्थ बिन कर नाम आना,
खुशी औरन ‘रे सरित सी ।
बन सके करना मदद,
निःसंग बन, जितनी मरुत सी ।।
प्रकृति सारी देख लो ना,
छल बिना दे बार जीवन ।
जहर होंठों से लगा,
मुस्कान लौटाना अमृत सी ।।
गहल वानर, श्वान, नाहर,
मीन, मृग, गज, कीर विसरा,
तीर पाने वृषभ तेली,
बन न कसना आँख पाटी ।।
और कोई नहीं मटकी,
है वही पद दलित माटी ।
नहीं घाटी हुई नाटी,
सिर्फ खाई गई पाटी ।।
‘कहाँ’ सीखा अहो श्रीजी,
शत्रु भी कर मित्र लेना ।
लगा ताताँ, कहाँ सीखा,
चुरा सबका चित्त लेना ।।
पास बैठे जात बैरी,
परस्पर गल बाँह डाले ।
हंस से मन हो चले हैं,
जो रहे पल पूर्व काले ।
दश न बस हो चले थे भव,
पड़ चले ‘के पोर कमती,
मिट चले कैसे ? न जाने,
झलकते लहु हृदय छाले ।।
शब्द नफरत सार्थ न…फरत,
नाम पाया पास आके ।
सभी खेते नाव पानी,
कहाँ सीखा रेत खेना ।।
‘कहाँ’ सीखा अहो श्रीजी,
शत्रु भी कर मित्र लेना ।
लगा ताताँ, कहाँ सीखा,
चुरा सबका चित्त लेना ।।
विभव सब, छू रहे ‘पर’ कब,
उठ चले ऊपर गजब है ।
फूल फल युगपत् सभी ऋत,
उग चले भू पर गजब है ।।
वर्ष अठ अन्तर्-मुहूरत,
अधिक असमय वृद्ध जनहित,
माल ले वधु मुक्ति थित,
पहने मुकुट नूपुर गजब है ।।
छलकती झोली सभी की,
दिख रही मुख तक भरी जो,
कहाँ सीखा बिना स्वारथ,
आप निधिंयॉं लुटा आना ।।
‘कहाँ’ सीखा अहो श्रीजी,
शत्रु भी कर मित्र लेना ।
लगा ताताँ, कहाँ सीखा,
चुरा सबका चित्त लेना ।।
चार दिश् दिख रहा मुख इक,
जिसे लख दृग् चकित साथी ।
इन्द्र नेत्र हजार भी लख,
कब हुआ दृग् थकित साथी ।।
निरख मानस्तम्भ विगलित,
हो चला मद, कब छुपा है,
दिखा कब मिथ्या तिमिर, मन-
ज्यों हुआ ‘दृग्’ सहित साथी ।।
दिखा भा-मंडल रहा भव,
सुलट तो भवि ! जा किसी विध ।
कहाँ सीखा पीर-पर पल
बना लेना सजल नैना ।।
‘कहाँ’ सीखा अहो श्रीजी,
शत्रु भी कर मित्र लेना ।
लगा ताताँ, कहाँ सीखा,
चुरा सबका चित्त लेना ।।
थाम लीजे ‘अर’ हमारा,
‘कर’, कहीं हम गिर ना जायें ।
सिखा दीजे व्यूह भेदन,
प्रभु ! कहीं हम घिर ना जायें ।।
जन्म जन्मान्तर संजोया,
पुण्य फल नर जन्म पाया ।
यहाँ विषयों की मदिर कुछ,
अलग ही छा रही माया ।।
भाँत मर्कट पूर्व ही मन,
और ये हा ! मदिर हाला,
कर्म बीछू डसा मुझको,
देख नटवर भी लजाया ।।
धन्य ! जो तुमने बचा के,
उड़ा दिग् के दिये अम्बर,
पे कठिन चलना खडग खर,
धार शिशु हम लड़खड़ायें ।
थाम लीजे ‘अर’ हमारा,
‘कर’, कहीं हम गिर ना जायें ।
सिखा दीजे व्यूह भेदन,
प्रभु ! कहीं हम घिर ना जायें ।।
कह रहे गुरु आठ-दश-दश,
प्रश्न हल करना सभी ही ।
कहाँ पूरक परीक्षा,
आलस नहीं करना कभी भी ।।
भूल कर भी आज कारज,
काल पे मत डाल देना,
कमर कसना मुझे कारज,
आज का करना अभी जी ।।
सामने गुरुदेव के सिर,
डुलायें कठपुतलियों से,
बचा के हा ! नजर फिरके,
श्वान सा मल खोज लायें ।।
थाम लीजे ‘अर’ हमारा,
‘कर’, कहीं हम गिर ना जायें ।
सिखा दीजे व्यूह भेदन,
प्रभु ! कहीं हम घिर ना जायें ।।
सहारे घुटने खिसकते,
आ पड़ाव गया अखीरी ।
झोंक जीवन ज्ञान हवि कुछ,
हाथ लग पाई अमीरी ।।
मरण आवीचि पलक,
जागृत रहे वा-उम्र फिर भी,
कह रहा मन, बार इस फिर,
लजा ना जाये फकीरी ।।
ढ़ेर पीछी कमण्डल का,
लग चला जिनवाण कहती,
पीस निशिभर, बार इस फिर,
हा ! न पारे में उठायें ।।
थाम लीजे ‘अर’ हमारा,
‘कर’, कहीं हम गिर ना जायें ।
सिखा दीजे व्यूह भेदन,
प्रभु ! कहीं हम घिर ना जायें ।।
काया पड़ी यहीं रहनी
माया साथ नहीं चलनी
बोलता रहता काहे झूठ
बोल ‘ना’ करता काहे लूट
यहीं की साथी बस दमड़ी
माया साथ नहीं चलनी
काया पड़ी यहीं रहनी
माया साथ नहीं चलनी
नाक पे रखता काहे रोष
आँख में रखता काहे दोष
यहीं की साथी बस रमणी
जाया साथ नहीं चलनी
काया पड़ी यहीं रहनी
माया साथ नहीं चलनी
है सराय कहता काहे गेह
सँवारा करता काहे देह
यही की साथी बस चमड़ी
ले भी लो हाथ सुमरणी
काया पड़ी यहीं रहनी
माया साथ नहीं चलनी
बन-ठन के,
तैयार मैं बैठा
है तेरा इंतजार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब,
बग़ैर चिट्टी, बिन तार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब,
है तेरा इंतजार मुझे
तू मुझे छू भी न पायेगी
भले दबे पाँव आयेगी
लगा पायेगी न फिर भी दाँव
अबकी फिर मुँह की खायेगी
सीना-तन के
बन-ठन के,
तैयार मैं बैठा
है तेरा इंतजार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब
बग़ैर चिट्टी, बिन तार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब,
है तेरा इंतजार मुझे
पानी मुझे न गला पाई
अग्नि मुझे न जला पाई
देता ही नहीं दिखाई मैं जब
कर ले कोई तो कैसे धराशाई
तू मुझे छू भी न पायेगी
भले दबे पाँव आयेगी
लगा पायेगी न फिर भी दाँव
अबकी फिर मुँह की खायेगी
सीना-तन के
बन-ठन के,
तैयार मैं बैठा
है तेरा इंतजार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब
बग़ैर चिट्टी, बिन तार मुझे
ले चलना मौत चाहे जब,
है तेरा इंतजार मुझे
तोते… न उड़ चलें तोते
न फिर उठे, कई रह गये सोते
उफन न जाये, दूध कहीं
आ यहीं बैठो, न जाओ दूर कहीं
याद रखना, था कदम जमीं रक्खा रोते
तोते… न उड़ चलें तोते
न फिर उठे, कई रह गये सोते
बुझ न जाये दिया कहीं
हुई भी अपनी किसी की हवा कहीं
याद रखना, रहे अब तलक कागा धोते
तोते… न उड़ चलें तोते
न फिर उठे, कई रह गये सोते
विघट न जायें मेघ कहीं
टकटकी लगा
यहीं सिवा न और देख कहीं
याद रखना भव बीच भँवर खा रहे गोते
तोते… न उड़ चलें तोते
न फिर उठे, कई रह गये सोते
अपना किरदार
करके अदा
गये गुजर नाना
एक दिन, एक दिन, एक दिन
है हमें भी गुजर जाना
यहाँ होके अमर किसने जनम लिया
तेल बाती क्या चुक गया
बुझ गया दिया
याद रखना, याद रखना
ये जहाँ एक मुसाफिर खाना
एक दिन, एक दिन, एक दिन
है हमें भी गुजर जाना
अपना किरदार
करके अदा
गये गुजर नाना
एक दिन, एक दिन, एक दिन
है हमें भी गुजर जाना
यहाँ होके अमर, किसने जनम लिया
आब दाना क्या चुका, परिंंदा चल दिया
याद रखना, याद रखना
ये जहाँ एक मुसाफिर खाना
एक दिन, एक दिन, एक दिन
है हमें भी गुजर जाना
अपना किरदार
करके अदा
गये गुजर नाना
एक दिन, एक दिन, एक दिन
है हमें भी गुजर जाना
बात यह साँची है
बात यह साँची है
बात यह साँची है
‘के काया बड़ी काची है
न सौ टंच ही,
आने सोलह भी,
बात यह साँची है
‘के काया बड़ी काची है
लगते ही झोखा हवा
फूल सी,
माटी में मिल जाती है
‘के काया बड़ी काची है
बात यह साँची है
न सौ टंच ही
आने सोलह भी
बात यह साँची है
‘के काया बड़ी काची है
लगते ही धक्का जरा
काँच सी,
साथी ये बिखर जाती है
‘के काया बड़ी काची है
बात यह साँची है
न सौ टंच ही
आने सोलह भी
बात यह साँची है
‘के काया बड़ी काची है
किसने न देखा सुना
दिया सी,
श्वास अपने ही बुझ जाती है
‘के काया बड़ी काची है
बात यह साँची है
न सौ टंच ही
आने सोलह भी
बात यह साँची है
‘के काया बड़ी काची है
कल उसका सामना करना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
जितना सभी,
थोड़ा-मोड़ा नहीं
छोड़ के जोड़ा यहीं
भगवान् के घर चलना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
कल उसका सामना करना
क्यों किसी का दिल दुखाना
क्यों किसी की चुगली खाना
दिया वही जब लौट आना
क्यों किसी के दृग् भिंजाना
याद रखना, याद रखना, याद रखना
कल उसका सामना करना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
जितना सभी,
थोड़ा-मोड़ा नहीं
छोड़ के जोड़ा यहीं
भगवान् के घर चलना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
कल उसका सामना करना
नीली अँखिंयाँ क्यों रँगाना
काची कलिंयाँ क्यों झराना
दिया वही जब लौट आना
खूनी नदिंयाँ क्यों बहाना
याद रखना, याद रखना, याद रखना
कल उसका सामना करना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
जितना सभी,
थोड़ा-मोड़ा नहीं
छोड़ के जोड़ा यहीं
भगवान् के घर चलना
ओ ! माटी-माधो संंभलना
कल उसका सामना करना
यहीं जोड़ा यहीं रह जाना है
आये अकेले, अकेले जाना है
रात को दिन, बनाने में लगे
फिर क्यूँ… फिर क्यूँ
पाप का धन, कमाने में लगे
साँझ मुरझा के फूल झर जाना है
यहीं जोड़ा यहीं रह जाना है
आये अकेले, अकेले जाना है
पाताल आसमाँ, मिलाने निकले
फिर क्यूँ… फिर क्यूँ
आशियाना चन्द्रमाँ, बनाने मचले
श्वास-अपनी ही दीया बुझ जाना है
रात को दिन, बनाने में लगे
फिर क्यूँ… फिर क्यूँ
पाप का धन, कमाने में लगे
साँझ मुरझा के फूल झर जाना है
यहीं जोड़ा यहीं रह जाना है
आये अकेले, अकेले जाना है
संभालो काची माटी का घर
गरजे बरसे कारे-कारे बादर
दीवालों में घर सीलन करे
माटी लगाते ही लगाते झरे
छत चुये, टप-टप की आवाज कर
गरजे बरसे कारे-कारे बादर
संभालो काची माटी का घर
आँगन अभी, कुछ रहा सूखने
लो पानी भर गया, फिर उलीचने
रोशन दान बस नाम के, छाया अंधर
गरजे वरषे कारे-कारे बादर
संभालो काची माटी घर
गरजे बरसे कारे-कारे बादर
मतलबी सिर पहने ताज है
काया बड़ी धोखेबाज है
अमृत भी भर के रक्खो घड़े
कभी भूल से जो गिर पड़े
फूटे, करे भी न आवाज है
काया बड़ी धोखेबाज है
मतलबी सिर पहने ताज है
तर भले दाने-अनार गला
पिंजरा तोते को खुला क्या मिला
उड़े, जा शून छेड़े साज है
काया बड़ी धोखेबाज है
मतलबी सिर पहने ताज है
दिया सोने का बाती कपूर
पल जिया, ये क्या ज्योति काफूर
लगा के हवा के परवाज है
काया बड़ी धोखेबाज है
मतलबी सिर पहने ताज है
काया बड़ी धोखेबाज है.
सिद्धों के कुल में आता
मैं ज्ञाता-दृष्टा कहाता
तन मृणमय
मैं चिन्मय
मेरा जड़ से क्या नाता
मैं ज्ञाता-दृष्टा कहाता
सिद्धों के कुल में आता
तन गलता
तन जलता
तन मरता
अमरता
मुझे वरदान विधाता
मैं ज्ञाता-दृष्टा कहाता
सिद्धों के कुल में आता
न शगुन साँ !
घुन जैसा
धन-पैसा
औगुन नशा
मुझे मदहोश बनाता
मैं ज्ञाता-दृष्टा कहाता
सिद्धों के कुल में आता
माटी से गई बनाई,
कल मिल माटी में जाई
इस काया का, मत करना अहंकार
यह काया बस टिकना दिन दो चार
माटी का घड़ा देख लो
छोटा या बड़ा देख लो
जरा सा धक्का क्या लगा
जर्रा उपट्टा क्या लगा
घड़ा हो जाना छार-छार
इस काया का, मत करना अहंकार
यह काया बस टिकना दिन दो चार
माटी का दिया देख तो
छोटा या बड़ा देख लो
हवा का झोखा क्या लगा
जर्रा सा धक्का क्या लगा
घना छा जाना अँधकार
इस काया का, मत करना अहंकार
यह काया बस टिकना दिन दो चार
माटी से गई बनाई,
कल मिल माटी में जाई
इस काया का, मत करना अहंकार
यह काया बस टिकना दिन दो चार
चेहरे पड़ जाना सल
बाली उमरिया जाना ढ़ल
मत करना अभिमान
अय ! भावी भगवान्
जाके देख आ बागान
कहाँ मुस्कान, जो सुबह
गुल साँझ खुशबू कहाँ वह
पके ‘कि गिर जाना फल
बाली उमरिया जाना ढ़ल
चेहरे पड़ जाना सल
जा देख आना मसान
है क्या नीचे चमड़ी के
क्यूँ पड़ा पीछे दमड़ी के
तन धू-धू कर जाना जल
बाली उमरिया जाना ढ़ल
चेहरे पड़ जाना सल
जा देख आ आसमान
बनाया बादल ने महल
बाद क्या देखा, गया बदल
टूट तारा गिर जाना कल
बाली उमरिया जाना ढ़ल
चेहरे पड़ जाना सल
मत करना अभिमान
अय ! भावी भगवान्
रात ठहर लेता है
हुआ नहीं प्रात
उठके चल देता है
मानौ मुसाफिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
मुसाफिर दिन कितने ठहरता
सुबह चढ़ता सूरज, साँझ ढ़लता
सुबह फूल साँस जाता झिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
मुसाफिर सुबह यहाँ, साँझ वहाँ
मेघा झिर सुबह जहाँ साँझ कहाँ
टूटे तारा, भले टिकता चिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
मुसाफिर का अपना खूब साथ में
गहरी बड़ी लम्बी लकीरें जो हाथ में
हाथ मलना क्यूँ धुनना सिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
बात ये जग जाहिर है
मानौ मुसाफिर है
जोड़ा नहीं साथ गया
आया खाली हाथ गया
हर कोई
न बात नई
जाहिर जग दोई
न बात नई
तेरे मन भाये, सोच ओछी
फिर क्यूँ, फिर क्यूँ, फिर क्यूँ
तू सर औरों के पिनाये टोपी
पीला झर पात गया
बतला ये बात गया
आया खाली हाथ गया
हर कोई
न बात नई
जाहिर जग दोई
न बात नई
तू जाल बुने आप अपना मकड़ी
फिर क्यूँ, फिर क्यूँ फिर क्यूँ
तू सर औरों की उछाले पगड़ी
दीवा बुझ वात गया
बतला ये बात गया
आया खाली हाथ गया
हर कोई
न बात नई
जाहिर जग दोई
न बात नई
रख तैयारी
कल अपनी भी बारी
पीला पत्ता झर गया
साँझ मुर्झा गुल गया
फल पका न टिका डाली
कल अपनी भी बारी
रख तैयारी
टूट तारा गिर गया
साँझ सूरज ढ़ल गया
बस अमर नाम के खाली
कल अपनी भी बारी
रख तैयारी
पंछी रात्रि रुक, गया
तेल बाती चुक गया
रही मनने से दीवाली
कल अपनी भी बारी
रख तैयारी
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