उत्तम त्याग धर्म विधान
*समर्पण भावना*
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
पंच मेरु पूजन विधान
प्रथम सुदर्शन नाम,
विजय, अचल, मंदर तथा ।
विद्युन्-माल ललाम,
पंच मेरु हरते व्यथा ॥
वन इक-इक दिश चार,
वन-वन जिन गृह एक ।
षोडश अकृतिम न्यार,
नुति सविनय सर टेक ॥
जल दो, ढाई द्वीप,
मिल अस्सी जिन धाम ।
होने वजनी सीप,
डबडब नैन प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमा-समूह !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जल, गन्धा-क्षत, पुष्प, चर,
दीप, धूप, फल, अर्घ ।
भेंटूँ, मेंटूँ अघ-तिमर,
भेंटो स्वर्ग-पवर्ग ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
सोलह कारण भावना पूजन
भावना षो-डसि अनूठी ।
प्रकृति तीर्थंकर विभूती ॥
आन पड़ती आप झोरी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
करें सविनय आह्-वानन ।
हृदय वेदी करें थापन ॥
और सन्निधिकरण न्यारा ।
करें, ले जुग नयन धारा ॥
रोम पुलकित गात ले के ।
बोल गदगद साथ ले के ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
दूसरे सब काम छोड़ी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणानि !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दिल दुखाना खूब आता ।
जुड़े क्यों कर डूब नाता ॥
डूब विरली हाथ आये ।
गंग गगरी साथ लाये ॥
है मुझे विश्वास पूरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
झूठ जब तब बोल आता ।
रहे रूठी क्यों न साता ॥
निराकुलता हाथ आये ।
गंध कलशा साथ लाये ॥
है मुझे पूरा भरोसा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
चीज इस उस चुरा लाता ।
लगे क्यों ना दुक्ख ताँता ॥
सौख्य शाश्वत हाथ आये ।
सार्थ अक्षत साथ लाये ॥
आश है विश्वास मुझको,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
आँख वश में रख न पाता ।
हाय ! मुँह की खा लजाता ॥
आत्म गौरव हाथ आये ।
सुमन सौरभ साथ लाये ॥
और मन कह रहा मेरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द ‘परि-ग्रह’ मौन बोले ।
सुन, समझ हम बने भोले ॥
हंस बुद्धी हाथ आये ।
नव्य चरु घी साथ लाये ॥
कई बारी कहा माँ ने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द जब तब गरम बोलूँ ।
नीर कम, मैं अधिक खौलूँ ॥
सीप अद्भुत हाथ आये ।
दीप अनबुझ साथ लाये ॥
मुख सुना हर-बोल मैंने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
बर्फ बनता, जल दबाता ।
ऊँट नीचे ‘गिर’ दिखाता ॥
नूप सरगम हाथ आये ।
धूप अनुपम साथ लाये ॥
वेद, शास्त्र, पुराण कहते,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
मुखौटे ऊपर मुखौटा ।
तन अनोखे मनस् खोटा ॥
सरलता चित हाथ आये ।
फल सभी ऋत साथ लये ॥
वचन दैगम्बर न झूठे,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
लोभ लालच गृद्धता मन ।
रहे कैसे स्वच्छ दामन ॥
भव्य पगड़ी हाथ आये ।
द्रव्य शबरी साथ लाये ॥
सभा शच-पत साँच खोले,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना
विधान अर्घ
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाये बिना न मोख ।
गाढ़ा पुण्य कि हो चले,
अलग अलग दूं धोक ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
भजो भावना सोलह कारण ।
भव का होता नाश है ॥
दरश विशुद्धि भावना भाई ।
झोरी प्रकृति तीर्थ-कर आई ।
शचि-पति होता दास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
भा…वन सम्पन्-नता विनय चुन ।
चुनर सितार जड़े सतिशय पुन ।
कर्मन होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
भा…वन निरति-चार व्रत शीला ।
कर्म निरंकुश पाँव नकीला ।
तट हट होता पास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
भा…वन ज्ञान अभीक्ष्ण धारी ।
निकट भव्य ! दिव-शिव अधिकारी ।
अनुभव होता खास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
आ संवेग भावना भाते ।
भव सागर, खुर-गाय बनाते ।
भी…तर होता वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
त्याग शाक्तिश: भा…वन सीझी ।
नगरी मुक्ति राधिका रीझी ।
टूकन होता पाश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
भव्य शक्तिश: तप भा…वन भा ।
लो सार्थक अन्-तरंग मनवा ।
झोरी होता पार्स है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
साध समाध अनूठी भा…वन ।
गद हर मृतु, ‘जर’-बूटी जामन ।
दल खल होता ग्रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
भा…वन वैय्या-वृत्त कारणी ।
सुख प्रदायनी ! दुख निवारणी ! ।
सुरभित होता श्वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अर्हत् भक्ति भावना साधो ! ।
आती आपद के पग बाँधो ।
नियोग होता रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
भा आचार्य भक्ति भा…वन तुम ।
माथ धरो शिव राजन् कुमकुम ।
मा…रग होता आर्ष है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
बहु श्रुत भक्ति भावना ज्योती ।
पूर्ण-प्रबुद्धि-भावना होती ।
मनहर होता पार्श्व है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
प्रवचन भक्ति भावना विरली ।
गिरी नारियल सार्थक गिर ली ।
शत्तुर होता ताश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
भा…वन अपरि-हाणि आवश्यक ।
प्रद संज्ञान, चरित, दृग सम्यक् ।
कभी न होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
भा…वन मार्ग प्रभावन ध्यायो
विभव स्वर्ग मन भावन पाओ
‘पर’ धन होता घास है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
प्रवचन वत्सल भा…वन ओ ‘री
‘सहज-निराकुल’ परिणति गोरी
मिसरी होता भाष है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाने की बस देर
हाथ हाथ सौधर्म के,
महाभिषेक सुमेर
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
रत्नत्रय पूजन विधान
प्रथम सम्यक् दर्शन पूजा ।
ज्ञान-समिचीन रतन दूजा ।
तीसरा सम्यक् चारित है,
धरा पाताल गगन गूंजा ॥
न जब तक रत्नत्रय धारी ।
चल सखी ! करते पूजा ‘री ।
सुना, सतियों ने श्रद्धा रख,
स्त्री-लिंग छेदा बलि-हारी ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रय धर्म
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
खड़ी ले जल सीता रानी ।
रोज सम्मुख जिन वरदानी ।
तब कहीं जाकर के अगनी,
धन्य ! धन ! बन चाली पानी ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चढ़ाती थी नित-प्रति चन्दन ।
तभी टूटे तड़ तड़ बन्धन ।
आँसुओं ने आ साथ दिया,
द्वार ठहरे त्रिशला नन्दन ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
चढ़ाये थिर मन वच काया ।
सुअक्षत सुता दुपद-राया ।
हाथ दुश्शासन हार तभी,
चीर अक्षत कतार आया ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
रोहणी दिव्य पुष्प लाई ।
चढ़ाई चरणन जिनराई ।
पुत्र फेंका पति सुर झेला,
स्वप्न भी कभी न दुख पाई ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
थाल भेंटी सुरभित व्यञ्जन ।
तीज त्यौहार न, नित अंजन ।
तभी इतिहास खास जैनी,
पुत्र बजरंग शिला भंजन ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चढ़ाती दीपक घृत वाला ।
रोज सोमा जग से न्यारा ।
तभी थे घड़े साँप काले,
निकाले निकले फुल-माला ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
उर्मिला ने चन्दन चूरी ।
चढ़ाई नित-प्रति कस्तूरी ।
उठे लछमण आँखें मलते,
स्याह मनसा न शक्ति पूरी ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चढ़ाया नीली ने आ…जा ।
रोज फल थाल भाँत राजा ।
तभी गाजा नभ सति नीली,
पाँव लग खुल्ला दरवाजा ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
अर्घ सेना बसन्त राखा ।
रोज जिसकी बढ़-चढ़ साखा ।
राख लाखा इक नाम महल,
हुआ पाण्डव न बाल बाँका ॥
ॐ ह्रीं सम्यक्-रतन्त्रयाय धर्म
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
दश लक्षण धर्म पूजन
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ ।।
हृदय वेदिका शुद्ध बनाओ ।
धर्म क्षमादिक दश पधराओ ।
आह्वानन संस्थापन सन्-निधी,
करके हरषाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्म !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
कड़वी तुमड़ी भले नहाओ,
कब मीठी होती ।
धर्म क्षमाद सिन्धु अवगाहो,
जगा आत्म ज्योति ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
गंग सिंध नदियों का पानी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
दिशा दिशा महकाता चन्दन,
पर कड़वा होता ।
दो पाण्डव रख राग जरा सा,
लगा रहे गोता ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
पर्वत मलय सुगंधित चन्दन,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
हटा ललाई, धान हो चली,
अपने सी धौरी ।
दौड़ा मृग कस्तूरी पीछे,
आखिर दम तोड़ी ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
धान कटोरे कण अनटूटे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
धन ! कांटों के बीच फूल ये,
हॅंसी खुशी रहते ।
धन्य ! भरत, जल भिन्न कमल जग,
हम भी रह सकते ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
नन्दन-वन से पुष्प अनोखे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
आटे ने घी गुड़ से मिल के,
रंग जमा लीना ।
सजग ना रहा, रहा स्वप्न बस,
वर्ष शंख जीना ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
छप्पन भोग सजा के थरिया,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
तिल तिल जल के स्वयं दिया ने,
किया उजाला है ।
ग्वाला सरसुत मात माथ रख,
मुनि बन चाला है ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
स्वर्ण दीप कर्पूरी बाती,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चूरी धूप उन्हीं हाथों में,
खुशबू दे चाली ।
फल आये जैसे, वैसे ही,
झुक चाली डाली ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
चन्दन चूर अगर कस्तूरी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सार्थक नाम गिरी सुन श्रीफल,
महंगा हो चाला ।
मृत बिन भंवर कमल बिच भँवरा,
मदिर मोह हाला ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
जगत अकेला श्रीफल भेला,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
गंगा जल, मलयागिर चंदन,
अक्षत अनटूटे ।
दिव्य पुष्प, अरु चरु, मण दीपक,
गंध दश अनूठे ।।
श्री फल मिला द्रव्य सब आठों,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
दोहा
हैं स्वभाव अपने सखे,
उत्तम क्षमादि धर्म ।
बनती कोशिश पाल के,
पा लो दिव-शिव शर्म ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जयमाला
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।
किस ग्रन्थ न विस्तारे हैं ।।
दे क्रोध तसल्ली झूठी ।
है उत्तम क्षमा अनूठी ।।
करबद्ध देव ठाड़े हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
रख मान, ज्ञान सपने सा ।
उत्तम मार्दव अपने सा ।।
जश वांचे ऋषि सारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
छल छीनी शिव रजधानी ।
उत्तम आर्जव वरदानी ।।
नभ गूंजे जयकारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
पड़ लोभ नारकी जोना ।
है उत्तम शौच सलोना ।।
टकते चुनरी तारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
कह झूठ टूक विश्वासा ।
सत्-धर्म पूर्ण मन आशा ।।
प्रद चक्र सहस आरे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
वश आलस निज-निध दूरी ।
उत्तम संयम कस्तूरी ।।
करते वारे न्यारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
व्रत विरत जीव जग डोला ।
उत्तम तप धर्म अमोला ।।
मण अक्षर उजियाले हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
विष ‘विष’य शब्द इठलाता ।
धन ! त्याग धर्म एक त्राता ।।
भव जल तारण हारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
ग्रह परि-ग्रह रिश्तेदारी ।
आकिंचन धर्म प्रभारी ।।
अलकापुर गलियारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
बाहर कछु…आ, बहु धोखा ।
उत्तम ब्रम-चर्य अनोखा ।।
सुख ‘निराकुलम्’ द्वारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
दोहा
दश धर्मों को पाल के,
सूर बनें अरिहन्त ।
सिद्ध शिला फिर जा वसें,
वन्दन कोटि अनन्त ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
जयमाला पूर्ण
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश धर्म अर्घ्य
उत्तम क्षमा धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
उत्तम मार्दव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
उत्तम आर्जव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
उत्तम शौच धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
उत्तम सत्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
उत्तम संयम धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सयंम धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
उत्तम तप धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम त्याग धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
उत्तम आकिंचन धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ॥ ९ ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
त्याग धर्म धारी
आचार्य छत्तीस अर्घ
मठाधीश विख्यात ।
भाग-दौड़ मृग हाथ ॥
टेक वीर ढिग सिर ।
फिरके फिरे न फिर ॥
ॐ ह्रीं श्री गणी गौतम मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
राग आग मान के ।
त्याग याग जान के ॥
जुड़ चले सुधर्म से ।
सिद्ध शिला जा बसे ॥
ॐ ह्रीं श्री सुधर्म स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
परि यानी चहु ओर ।
ग्रह मनमानी घोर ॥
छोड़ चले जम्बू ।
छोर न आता क्यूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जम्बू स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
दो बैल स्वप्न में आये ।
धुनि जय श्रुत देव पठाये ॥
शिष्यों को सब दे दीना ।
बढ़ मरण समाधी कीना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य धरसेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
कहे देवी माँग लो वर ।
सिद्ध था करना अहो ! भर ॥
मान गुरु आज्ञा बुलाया ।
तज चुका मैं मोह माया ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पुष्पदंत स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
सूत्र चल ।
भूत बल ।
कह चली दिव तिया ॥
पूत कल ।
ब्याह जो शिव तिया ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भूतबली मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
लेख द्वादशी अकाल ।
देख अमावसी काल ॥
त्याग सूर पद किया ।
जाग नूर-पद लिया ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भद्रबाहु स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
वक्र ग्रीव इक नाम की,
हो चाली है आय ।
माँ सेवा वस-याम की,
परम तप: स्वाध्याय ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य कुंदकुंद मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
निर्जर संवर भी तप से ।
सिर्फ न लिखा जुड़े जप से ॥
तप धन ! धन्य ! उमा स्वामी ।
भावी नन्त रमा स्वामी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य उमा स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
स्तोत्र स्वयंभू ।
कहे स्वयं यूँ ॥
आलस त्यागी ।
माँ बढ़-भागी ॥
जन्मा तब मैं ।
जन मानस में ॥
फैली खुशबू ।
स्तोत्र स्वयंभू ।
कहे स्वयं यूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समन्त भद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
त्याग बुराई दी ।
जाग भलाई की ।
देव सेन पीछे,
यूँहि न आई ‘री ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य देव सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
त्रुटी त्याग ।
श्रुती राग ॥
पूज्य-पाद ।
पूज्य नाथ ।
थुती भाग ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पूज्य पाद स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
श्वास न आई बिन त्यागे ।
त्याग दिलाई सुख आगे ॥
यत योगीन्द्र देव कहना ।
जागृति भव मानव गहना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य योगीन्दु देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
घर निकले बाहर ।
भीतर कछु…आ कर ॥
सिध सेन दिवाकर ।
निध गुण रत्नाकर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
गत शंक ।
श्रुत अंक ॥
‘अकलंक’ ।
मण पंक ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अकलंक देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
जन मानस छाना ।
धन ! आदि पुराणा ॥
तप त्याग महाना ।
जिन से…न जहाना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जिन सेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
पीत पीपल पात झर ।
नई कोपल हाथ कर ॥
त्याग जीवन दायनी ।
कहे इतनी बात भर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणभद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
*हाइकु*
सजाये बिना…
सुख अर्थी,
कहाये ही ना विद्यार्थी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या नन्द स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
त्याग फिर राग ना ।
राग सिर जाग ना ॥
क्या ? मतलब निकला ।
सिंह कोई विरला ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादीभ सिंह सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
सत् भदन्त ।
सार्थ चन्द ॥
अमृत हाथ ।
जगत सार्थ ॥
जय जयन्त ।
जयतु नन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अमृत चंद्र सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
सरल दान देना अहो !,
त्याग वीर पहचान ।
देखा मुड़ के बाद ना,
तभी बने भगवान् ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर नन्दी स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
लेवा, देवा काँपे ।
बलदेवा वन नापे ॥
धर आपा गुणधर ।
मृत्यु बुढापा तर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणधर स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
त्याग ‘कल्…यान’ ।
राग कलि आन ॥
भव मानव विरथा ।
जाग वरदान ।
राखो दृढ़ सरधा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य नेमिचंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥
भीत ‘री इक ठण्डक,
हाथ लगती साधो ।
त्याग तप आराधो,
ओ माटी माधो ! ॥
तीसरी दृग दस्तक,
आँख सावन भादो ।
त्याग तप आराधो,
ओ माटी माधो ! ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य यति वृषभ सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २४ ॥
टूट पड़ते ताले ।
दूधिया, मन-काले ॥
त्याग महिमा बड़ी ।
भाग चिन्ता मणी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य मानतुंग देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २५ ॥
दिया दिखाया ।
जिया बताया ॥
मूला-चारा, कृति अवतारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वट्टकेर सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २६ ॥
सागर खारा ।
संग्रह कारा ॥
मानिक नन्द ।
स्वर्ण सुगंध ॥
त्याग निराला ।
जयतु जयन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य माणिक्य नन्दी देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २७ ॥
राज त्याग राम वन गये ।
राज… त्याग-नाम, बन गये ॥
धन ! रविषेण ।
अक्षर बैन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य रविषेण स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २८ ॥
काले से धौरे हुये,
बादल पानी त्याग ।
सार्थ चन्द्र शुभ छव छुये,
जाग भर्त-हरि जाग ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शुभ चंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २९ ॥
ठहर सका कोढ़ ना ।
दबा दुम्म दौड़ना ॥
त्याग खुद समान है ।
अमर कीर्तिमान है ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादि राज सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३० ॥
त्याग मन भाया ।
भागती माया ॥
आ करे केली ।
शान्ति अलवेली ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शांति सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३१ ॥
तज घर बार ।
वस्त्र उतार ॥
केश उखाड़ ।
सम्मत वीर ॥
सन्मत वीर ।
नमन हजार ।
हित भव-तीर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३२ ॥
त्याग रखी, यह कह अरे !,
निद्रा माई गोद ।
जीव गिंजाई शिव चले,
सीधे निकल निगोद ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शिव सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३३ ॥
त्याग पद अपना कीना है ।
शिष्य पद बैठा दीना है ॥
हाथ जोड़े नीचे बैठे ।
तब कही जा भीतर पैठे ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य ज्ञान सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३४ ॥
उमर वाली ।
त्याग भारी ॥
देवता क्यों न गाये गुण ।
कहाँ विद्यासागर सा पुन ॥
भाग-शाली
उमर वाली ।
त्याग भारी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३५ ॥
त्याग पस्या देख ।
पर हित दृग अभिषेक ॥
आचार्य पदारोहण ।
क्या ? और पुण्य दोहन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३६ ॥
घट जल, चन्दन, अक्षत दाने ।
चुन वन नन्दन पुष्प सुहाने ॥
व्यञ्जन, दीप, धूप, फल भेंटूँ ।
सूर आप जैसा तम मेंटूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्वा-चार्य परमेष्ठि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३७ ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
उत्तम त्याग धर्म जयमाला
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।
उज्जैनी नगरी अति प्यारी ।
सागरदत्त नाम व्यापारी ।।
बच्चे सात विवाहित सारे ।
शशि भा सेठानी शिशु तारे ।।
लिखी कोटि छप्पन दीनारे भाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।१।।
कर मुनि दर्श, कहे सेठानी ।
पालन में जिसके आसानी ।।
व्रत वह दीजे, भाग विधाता ! ।
साल साल भर में जो आता ।।
रोट तीज व्रत चौबीसी कर जाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।२।।
बच्चे उलट लगे समझाने ।
व्रत वो रखें, न घर जिन खाने ।।
बच्चों की बातों में आई ।
सेठानी प्रण निभा न पाई ।।
कंकर बनी दिनारें, अनरव फाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।३।।
सुता हस्तिना-पुर थी रहती ।
कहती, मैं न मदद कर सकती ।।
पुर बसंत ससुराल कहाई ।
लखा न उसने आंख उठाई ।।
भगे मित्र घर, लगे न चोरी दाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।४।।
सेठ समुद्र-दत्त पुर-चंपा ।
लख साधर्मी, रख अनुकंपा ।।
बहना सेठानी को माना ।
काम-काज दे, दिया ठिकाना ।।
ज्वार दिया, कटु तेल ‘कि जगे चिराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।५।।
आज हमारा व्रत शिवदाई ।
नन्द कहे, इक दिन भौजाई ।।
ननद काल, जो व्रत था तोड़ा ।
निन्दा की, हाथों को जोड़ा ।।
रोट हाथ जा ननन्द, स्वर्ण सुहाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।६।।
कंकर, खा पलटी दीनारें ।
अपना रिश्तेदार पुकारें ।।
गूँज चली घर में किलकारीं ।
खुश बेटे, खुश बहुयें सारीं ।।
दीक्षित सेठ सिठानी भर वैराग्य ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्माय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-जिंयानज्-ज्वाला
स-ह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ॥
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ॥
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ॥
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ॥
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ॥
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ॥
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दिस ॥
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।
क्षमा धर्म की आरती पहली ।
सक्षम जिसने गुस्सा सह ली ।।
बोध जगाओ ।
क्रोध नशाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१
उत्तम मार्दव आरती दूजी ।
छीने मान ज्ञान की पूँजी ।।
बुध कहलाओ ।
मद विहसाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।२
उत्तम आर्जव आरति तीजी ।
बस माया वश अँखियां भींजी ।
सुभट कहाओ ।
कपट मिटाओ ।।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।३।।
शौच धर्म की आरती चौधी ।
घटा न लोभ, रटी बस पौथी ।
लोभ घटाओ ।
लौं प्रकटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।४।।
सत्य धर्म की आरती पंचा ।
झूठ बोल पद दूर विरंचा ।
सत कह जाओ ।
चित्त चुराओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।५।।
उत्तम संयम आरति छट्टी ।
आंख असंयम मोहन पट्टी ।
अलस हटाओ ।
दरश रिझाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।६।।
परमोत्तम तप आरति सप्तम ।
कर इच्छा निरोध गढ़ परचम ।
लगन लगाओ ।
तपन मिटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।७।।
त्याग धर्म की आरति अष्टा ।
परिग्रह पीछे अरि ग्रह दुष्टा ।
राग मिटाओ ।
फाग मनाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।८।।
धर्म अकिंचन आरति नौवी ।
मेरा कुछ ना कह देखो भी ।
आतम ध्याओ ।
तम विघटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।९।।
धर्म ब्रह्मचर आरति दशमी ।
छव ब्रह्मचर बढ़ सहस्र रशमी ।
भीतर आओ ।
जी’ तर आओ ।।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१०।।
Sharing is caring!
