सिद्ध-चक्र मंडल विधान
षष्ठम वलय
*श्री वर्धमान मंत्र*
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रि-सहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, वि-वाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्-भणे वा, मो-हणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अव-राजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
नव देवता संस्तवन
वीतरागी निरे ।
देव देवी घिरे ।
चतुष्टय अनन्त जय ।
देव अरिहन्त जय ।
देव नव जयन्त जय ।।१।।
बीज भव जल चला ।
जा टिके सिध शिला ।
कर्म क्षय तुरन्त जय ।
मुक्ति वधु कन्त जय ।
देव नव जयन्त जय ।।२।।
मण परस कद बड़े ।
खुद सदृश कर चले ।
उर सदय ! भदन्त जय ।
सूरि भगवन्त जय ।
देव नव जयन्त जय ।।३।।
तम तले दीप ना ।
तम मिटाते घना ।
अख विजय ! विनन्द जय ।
भूरि श्रुत-वन्त जय ।
देव नव जयन्त जय ।।४।।
ध्यान, श्रुत जुड़ चले ।
श्वान वित्ति मुड़ चले ।
मद विलय ! महन्त जय ।
सन्त निर्ग्रन्थ जय ।
देव नव जयन्त जय ।।५।।
हेत पर दृग भरे ।
सेतु परहित खड़े ।
गुण प्रशय ! वसंत जय ।
पोत सद्-पन्थ जय ।
देव नव जयन्त जय ।।६।।
अमृत जिन मुख झिरा ।
कुण्ड गणधर गिरा ।
मान नय समन्त जय ।
गंग सद्-ग्रन्थ जय ।
देव नव जयन्त जय ।।७।।
दृष्टि-नासा निरी ।
मिश्रि मनु मुख घुरी ।
मुद अभय ! सुवृन्द जय ।
चैत्य जिन-चन्द जय ।
देव नव जयन्त जय ।।८।।
द्वार छोटे बने ।
शिखर नभ तक तने ।
रज मलय सुगंध जय ।
निलय जैनेन्द्र जय ।
देव नव जयन्त जय ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री नव देवता भगवन् !
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान कीर्तन
एक अमंगल-हारी ।
यही सुमंगल-कारी ॥
कलजुग एक सहारा ।
जल संसार किनारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥१॥
सुर सुन्दर इक बहना ।
एक सुन्दरी मैना ॥
पिता नृपति पहुपाला ।
बल बाहुन मतवाला ॥
सुर-सुन्दर मत-शैव पक्षधर,
स्व वर स्वयं चुन डाला ।
पास अर्जिका पढ़ मैना ने,
सम्यक् दर्शन धारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥२॥
खड़ी विनीत दुवारे ।
पिता कहें ओ ! बाले ॥
मनचाहा वर न्यारा ।
चुन लो राजकुमारा ॥
बोली मैना, मैं ना छीनूँ,
थारा यह अधिकारा ।
आप चुनेंगे जिसे वही वर,
होगा भाग हमारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥३॥
पूर्व भाग लिख जाता ।
जुड़े उसी से नाता ॥
पिता बोलते बाला ! ।
मैं तेरा रखवाला ॥
मुझे भुला, जश भाग गा रही,
लगा ज़ुबाँ पे ताला ।
वरना भागीदार बनेगी,
व्यर्थ क्रोध दव ज्वाला ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥४॥
मंत्री बात संभाली ।
निकली सैर सवारी ॥
लख कोढ़ी श्रीपाला ।
बोले नृपति दयाला ॥
आप कौन ? आ रहे कहाँ से,
कहो ? ठाँव क्या थारा ।
और भाग-वादी लख मैना,
ब्याह चला श्रीपाला ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥५॥
मैना कहती माई ! ।
कर दो जल्द विदाई ॥
पति सेवा पत-वारा ।
वर दो, होऊँ पारा ॥
और चली जिन-धाम विराजे,
जहाँ संत अनगारा ।
ढोक चरण में दे कह डाला,
सिसक सिसक दुख सारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥६॥
बेटा कह, मुनि बोले ।
जीव कर्म वश डोले ॥
बाँध भक्ति सिध पाला ।
तरो व्याधि जल-धारा ॥
साध पाठ सिध-चक्र आठ दिन,
कार्तिक, फाग, असाढ़ा ।
गन्धोदक सिध-यंत्र माथ पति,
चढ़ा सुमर नव-कारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥७॥
मन सिमरन सिध लागा ।
कुष्ठ दाव दुम भागा ॥
जागा पुण्य विशाला ।
तन सुवर्ण बन चाला ॥
कामदेव भी देख लजाया,
दिव्य रूप मनहारा ।
रत सत विरद सात सौ कोढ़ी,
सभी मान उपकारा ॥
एक अमंगल-हारी ।
यही सुमंगल-कारी ॥
कलजुग एक सहारा ।
जल संसार किनारा ॥
सिद्ध-चक्र मण्डल विधान का,
सातिशयी जयकारा ।
लगा जिसे मैना सुन्दर ने,
पति का कुष्ठ निवारा ॥८॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
सिद्ध-चक्र मंडल विधान पूजन
जय जयकारा जय जयकारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ॥
आगे पीछे रेफ, मध्य सह,
बिन्दु हकारा ।
कमलाकृति-दल कर्णि पूर्व सिध,
स्वर दश चारा ॥
फिर कवर्ग, फिर चवर्ग नीचे ।
फिर टवर्ग, फिर तवर्ग पीछे ॥
फिर पवर्ग अंतस्थ-ऊष्म यूँ,
साथ अनाहत मन्तर न्यारा ।
अंत ह्रीम् बेढ्यो अति प्यारा ॥
मंत्र णमो अरिहंताणं मध,
पाँखन विस्तारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ।
जय जयकारा जय जयकारा ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
श्री सिद्ध यंत्र
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
सिद्ध मंत्र आलापता,
असि-आ उसा प्रसिद्ध ।
सिद्ध यंत्र को थापता,
हित सरवारथ सिद्ध ॥
इति यन्त्रस्-थापनार्थं पुष्पांजलिं क्षिपेत्
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ‘पूर्वर स्वर-चौदह वर्णा ॥१॥
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ
ऋ ॠ ऌ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् आग्ने-यर, वर्ण कवर्गा ॥२॥
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् दक्षिण-अर, वर्ण चवर्गा ॥३॥
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
दक्षिण-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् नैऋत्-त्यर, वर्ण टवर्गा ॥४॥
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् पश्चिम-अर, वर्ण तवर्गा ॥५॥
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् बायव्-व्यर वर्ण पवर्गा ॥६॥
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् उत्तर अंतस्थ सुवर्णा ॥७॥
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ईशा-नर ऊष्मक वर्णा ॥८॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ सिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग
॥ प्राकृत पद्यानु-वाद ॥
॥ दोहा ॥
सिद्ध, ज्ञान, दर्शन-मयी,
जीव-घणा, अशरीर ।
अनाकार, साकार भी,
कुछ कम देह-अखीर ॥१॥
॥ चौपाई ॥
बंधोदय सत्-कर्म अराती ।
प्रकृति मूल-उत्तर संघाती ॥
मंगल-भूत अष्ट गुण-वन्ता ।
जल-संसार तीर अगणंता ॥२॥
सिद्धी-भूत निरंजन, नित्या ।
विकल कर्म विध-वस कृत-कृत्या ॥
सार्थ सिद्ध लोकाग्र निवासी ।
अष्टक प्रमुख शगुन गुण-राशी ॥३॥
नष्ट अष्ट मल-कर्म विशुद्धा ।
सिद्ध, बुद्ध नव-लब्धि समृद्धा ॥
शेखर-मुकुट भुवन-तिहुँ माथा ।
श्री-मद्-भट्टारक जग-त्राता ॥४॥
॥ दोहा ॥
गमना-गमन विमुक्त जे,
प्रकृति कर्म संघात ।
शाश्वत सुख संयुक्त वे,
सिद्ध विमुक्त-उपाध ॥५॥
॥ चौपाई ॥
मंगल-भूत दुभू पाताला ।
निर्मल परिणत बहती धारा ॥
दर्शन, अवगम, चारित सहिता ।
द्रव्य कर्म, नो-कर्म वि-रहिता ॥६॥
केवल दर्शन, चारित, ज्ञाना ।
निध-सम्यक्त्व, वीर्य-अप्रमाणा ॥
सूक्ष्म, अगुरुलघु, अव्या-बाधा ।
अवगाहन गुण अष्टक साधा ॥७॥
तप से सिद्ध, सिद्ध संयम से ।
नय से सिद्ध, सिद्ध अवगम से ॥
दर्शन, ज्ञान, सिद्ध आचरणा ।
हों प्रसन्न, वे तारण-तरणा ॥८॥
॥ दोहा ॥
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥९॥
॥ चौपाई ॥
भूषण-भू-वस, कल्मष-क्षीणा ।
चरित, ज्ञान, दर्शन समिचीना ॥
सिद्ध भूत, वर्तमान, भावी ।
नन्ता-नन्त काल अप्रभावी ॥१०॥
बुध-प्रतेक ! बुध-बोधित ! बुद्धा !।
बुध-अनेक, बुध-स्वयं ! विबुद्धा !॥
उनका पूजन, वन्दन करता ।
मन, वच, तन अभिनन्दन करता ॥११॥
कर्म क्षीण हो, दुख विलीन हो ।
संगत-साध, सुगति अधीन हो ॥
बोधि ‘निराकुल’ समाधि पाऊँ ।
धन ! जिन-गुण-सम्पद् पा जाऊँ ॥१२॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अकृत्रिम जिनालय अर्घ्यं
आठ करोड़ लाख छप्पन ।
सन्त्यानवे हजार धन ! धन ! ॥
इक्यासी ऊपर सौ चार ।
अखर जिनालय जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं आठ करोड़, छप्पन लाख,
सन्त्यानवे हजार, चार सौ इक्यासी
श्री अकृत्रिम जिनालयेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अकृत्रिम जिन बिम्ब अर्घ्यं
कोटिक नव सौ पच्चीसा ।
लाख तिरेपन सत-बीसा ॥
हजार, नव सौ अड़तालीस ।
नुति जिन-बिम्ब अखर निशिदीस ॥
ॐ ह्रीं नौ सौ पच्चीस करोड़,
तिरेपन लाख, सत्ताईस हजार,
नव सौ अड़तालीस
श्री अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
षष्ठम वलय पूजन
ढपली ढोल उठाओ ‘री ।
झूमो, नाचो, गाओ ‘री ।
नैनन जल भर लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन्
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
अंगारे ने हाथ जलाया ।
स्वप्न न गुस्सा नाक बिठाया ॥
आदि, अजित, संभव जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
जल गंगा भर लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
मुरझाई माला सुर माया ।
गिरगिट जैसा सिर न उठाया ॥
नन्दन, सुमति, पद्म जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
चन्दन घिस कर लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
खुद जाले मृत मकड़ी पाया ।
माया से दामन झटकाया ॥
सुपार्श्व, चंद्र, सुविधि जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
कण अन टूटे लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
चिर निद्रित अल कमल दिखाया ।
जड़ से लालच लोभ मिटाया ॥
शीतल, श्रेय, पूज्य जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
नन्दन पुष्प मंगाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
ठोकर और सीखना आया ।
भीतर कछु…आ कछु हट पाया ॥
विमल, अनंत, धर्म जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
सरस चारु चरु लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तप आसान बड़ा इक ध्याया ।
रुक आशा न बढ़ा इक पाया ॥
शांति, कुंथु, श्री अर जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
दीपक घिरत जगाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
चूड़ी एक न बजती पाया ।
जो…वन सार्थक कर दिख लाया ॥
मल्लि, सुव्रत, श्री नमि जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
नूप धूप घट लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
शब्द सफलता लता दिखाया ।
राह वहाँ तक कदम बढ़ाया ॥
नेमि, पार्श्व, सन्मति जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
ख़ुद सा श्री-फल लाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
पद जु अर्ध-नारीश्वर पाया ।
सिद्ध अनन्त, सूर, उवझाया ॥
साधु सभी भावी जिन राया ।
लगा समय डग भर शिव आया ॥
द्रव्य परात सँजाओ ‘री ।
चरणन आन चढ़ाओ ‘री ।
कर्म दहन निर्वाण थान की ।
नन्त सिद्ध करुणा निधान की ।
पूजन आन रचाओ ‘री ।
आओ ‘री सखि ! आओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दो-सौ-छप्पन गुण अर्घ
ज्ञानावरण विनाश के,
ज्ञानाभरण प्रकाश ।
और न सपने दास के,
रखो बना बस दास ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
सकल ज्ञानावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समा चलें गज पाँव में,
जैसे सबके पाँव ।
‘सन्मत’ केवल छाँव में,
लगे हाथ शिव गाँव ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
आभि-निबोध-वारक-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
देख लिया पुर आतमा,
अब श्रुत नौका गौण ।
करने कर्मन खातमा,
धोक न देगा कौन ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
श्रुत-ज्ञानावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सुख अबाध झोरी पड़ा,
व्यर्थ अवधि-मर्याद ।
हित परिणत गो ‘री खड़ा,
तिलक लगा दो माथ ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
अवधि-ज्ञानावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मन-मन में जो आ बसे,
पर्यय-वाची नाम ।
दिग्-दिगन्त जश जा धसे,
क्या अचरज का काम ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
मन: पर्यय ज्ञानावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वन वन चन्दन वन यथा,
केवल एक अकेल ।
बचे जरा, मृतु, भव कथा,
भेंट नारियल भेल ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
केवल ज्ञानावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कर्म दर्शनावरणी एका ।
चित् चारों खाने अभिलेखा ॥
रेखा शिव वधु ब्याह खिंचाने ।
आये सिद्ध अनन्त मनाने ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
सकल दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अब न चक्षु देखनहारे हैं ।
नेत्र तीसरे खुल चाले हैं ॥
भोले भाले बनें आप से ।
आये कहने सिर्फ आप से ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
चक्षु दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अचक्षु दर्शन छूटा पीछे ।
प्रतक्ष दर्श अनूठा खींसे ॥
फूटा अपना भाग बनाने ।
आये हम, ले अक्षत दाने ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
अचक्षु दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अवधि दर्शनावरण विनाशा ।
और न, दृष्टि टिकाई नासा ॥
आशा तृष्णा गर्त भराने ।
झूम गुनगुनाऊँ गुण-गाने ॥ १० ॥
ॐ नमः
अवधि दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
केवल दर्श आवरण घाता ।
एकल दर्श आभरण नाता ॥
बरसाने सुख साता धारा ।
भेजूँ गगन सिद्ध जयकारा ॥ ११ ॥
ॐ नमः
केवल दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
नौ दो, ग्यारा आलस तन्द्रा ।
दर यमराज खड़ी जा निद्रा ॥
भद्रा कर पाऊँ परिणामा ।
आऊँ दर तेरे तिहु शामा ॥ १२ ॥
ॐ नमः
निद्रा दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
निद्रा निद्रा वरण विदाई ।
भाव निरालस हुई सगाई ॥
माई सरसुति कण्ठ पधारें ।
और न, ले यह भाव पुकारें ॥ १३ ॥
ॐ नमः
निद्रा-निद्रा दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हनन आवरण प्रचला-प्रचला ।
कर्ज न अबकी बाकी पिछला ॥
उजला उजला दामन चाहूँ ।
तभी भक्ति-सर तुम अवगाहूँ ॥ १४ ॥
ॐ नमः
प्रचला दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
प्रचला सार्थ दर्शना-वरणी ।
लेते ही ‘सिध-नाम’ सुमरनी ॥
करनी भरनी अबकी मेंटूँ ।
सिद्ध सिद्ध रट हिचकी भेंटूँ ॥ १५ ॥
ॐ नमः
प्रचला-प्रचला दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गिर स्त्यान गृद्धि भू-साई ।
स्वात्म ध्यान क्या ? ज्योत जगाई ॥
साईं अपने घाईं कर लो ।
अध-जल गगरी मुँह तक भर लो ॥ १६ ॥
ॐ नमः
स्त्यान गृद्धि दर्शनावरण-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वेदनीय नाश के ।
सुख अनन्त राश के ॥
आप हो चले धनी ।
निरख नासिका अणी ॥
जजूँ हेत कर्म क्षय ।
जय अनंत सिद्ध जय ॥ १७ ॥
ॐ नमः
वेदनीय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कर्म-सात घात के ।
मर्म आत्म पाठ के ॥
आप हो चले धनी ।
भज रुदन न निर्जनी ॥
जजूँ हित सदय हृदय ।
जय अनंत सिद्ध जय ॥ १८ ॥
ॐ नमः
साता-वेदनीय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
घात असाता करम ।
ठाठ विधाता परम ॥
राख सजगता घनी ।
आप हो चले धनी ॥
जजूँ हेत दुख विलय ।
जय अनंत सिद्ध जय ॥ १९ ॥
ॐ नमः
असाता-वेदनीय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मोह चित् चारों खाने ।
नन्त सुख लगा रिझाने ॥
नन्त सुख में भी पाऊँ ।
नन्द-वन पुष्प चढ़ाऊँ ॥ २० ॥
ॐ नमः
मोहनीय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दुखे क्यूँ कर अब मत्था ।
कर्म विनशाया मिथ्या ॥
कर्म विनशाने आया ।
घर्म जग, तुम पद छाया ॥ २१ ॥
ॐ नमः
मिथ्यात्व-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
घात सम्यक् मिथ्यातम ।
रात-दिन रम शुद्धातम ॥
‘बुद्ध-आगम’ पद पाऊँ ।
गृद्धता भ्रम विघटाऊँ ॥ २२ ॥
ॐ नमः
सम्यक्-मिथ्यात्व-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पैठते कुछ यूँ अन्दर ।
प्रकृति सम्यक् छू-मंतर ॥
मंत्र रट सिद्धम् सिद्धम् ।
नन्त भट शुद्धम् बुद्धम् ॥ २३ ॥
ॐ नमः
सम्यक्-प्रकृति-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुजर छह महिने चाले ।
फाँस दुर्योधन शाले ॥
पुत्र अंधों के अंधे ।
क्रोध से बचना बन्दे ॥ २४ ॥
ॐ नमः
अनन्तानुबन्धी-क्रोध
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुजर छह महिने चाले ।
मान मन रावण पाले ॥
बालि ना ब्याही बहना, ।
कभी अभिमान न करना ॥ २५ ॥
ॐ नमः
अनन्तानुबन्धी-मान
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुजर छह महिने चाले ।
शकुनि मनसूबे काले ॥
शत्रु या भांजे घाते ।
कपट से तोड़ो नाते ॥ २६ ॥
ॐ नमः
अनन्तानुबन्धी-माया
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुजर छह महिने चाले ।
श्मश्रु नवनीत विचारे ॥
पैर मारा घट फूटा ।
लोभ वश सपना टूटा ॥ २७ ॥
ॐ नमः
अनन्तानुबन्धी-लोभ
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
माह छह भीतर भीतर ।
कुन्ति जा कौरव के घर ॥
वैर विष बेल उखाड़े ।
गूँज नभ सत जयकारे ॥ २८ ॥
ॐ नमः
अप्रत्याख्याना-वरण-क्रोध
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
माह छह भीतर भीतर ।
नाम लिख गिर वृषभाचल ॥
अश्रु पुरु चरण पखारे ।
गूँज नभ सत जयकारे ॥ २९ ॥
ॐ नमः
अप्रत्याख्याना-वरण-मान
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
माह छह भीतर भीतर ।
भरत बिठला गादी पर ॥
राम रट निशि-दिन धारे ।
गूँज नभ सत जयकारे ॥ ३० ॥
ॐ नमः
अप्रत्याख्याना-वरण-माया
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
माह छह भीतर भीतर ।
मुआ लक्ष्मण कांधे धर ॥
राम ने केश उतारे ।
गूँज नभ सत जयकारे ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
अप्रत्याख्याना-वरण-लोभ-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पक्ष कब लॉंघी रेखा ।
क्रोध जड़ उखाड़ फेंका ॥
भाँत केका प्रभु सुमरन ।
पाप-अहि छोड़े चन्दन ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
प्रत्याख्याना-वरण-क्रोध
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सार्थ पख-पात किया ना ।
मान को मान दिया ना ॥
दिया संज्ञान जगाया ।
हिये अज्ञान हटाया ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
प्रत्याख्याना-वरण-मान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
प्रीत व्रत अणुन जगा ली ।
पैड़ि बढ मंजिल पा ली ॥
सुना मा-या मैं संभले ।
आप सारीखे विरले ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
प्रत्याख्याना-वरण-माया-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लोभ प्रत्याख्यानी हन ।
शोभ समरस-सानी धन ! ॥
न आनी जानी नाता ।
सधा सब, था इक साधा ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
प्रत्याख्याना-वरण-लोभ-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
रेख शिल-धरा न खींचें ।
धूल रेखा दृग मीचें ॥
रेख जल क्रोध विनाशा ।
लेख ! शिव किया निवासा ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
संज्वलन-क्रोध-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
शिला, हड्डी ना लकड़ी ।
सघनता वेंत न पकड़ी ॥
सार्थ नवनीता नीके ।
स्वर्ण सोला-बानी के ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
संज्वलन-मान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
बांस जड़, न मेष श्रृंगा ।
गो-पथ न खुरपी भंगा ॥
विसारी मायाचारी ।
सतत् शत धोक हमारी ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
संज्वलन-माया-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
न किरमिच ग्रीस न कादा ।
रंग हल्दी पग-बाँधा ॥
लोभ-लालच विसराई ।
शोभती शिव ठकुराई ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
संज्वलन-लोभ-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सुना ‘इति-हास’ थमे हैं ।
अंगदा-‘चरण’ जमे हैं ॥
नमे हैं, लख घट भरते ।
न सब मंजिल पग धरते ॥ ४० ॥
ॐ नमः
हास्य-नोकषाय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
शब्द र…त पल्टा देखा ।
त…र बने सिध अभिलेखा ॥
रत-जगा रम पाऊँ मैं ।
पथ मृगा थम पाऊँ मैं ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
रति-नोकषाय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अरति में ‘अर’ क्या पाया ।
कटारी ध्यान उठाया ॥
याद मा रुष, मा तुष है ।
मास-आतम, तन भुस है ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
अरति-नोकषाय-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
शोक तज तरु अशोक है ।
न दी तब शोक धोक है ॥
मोख है अब रजधानी ।
सुख निराकुल लासानी ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
शोक-नोकषाय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
विजय श्री भय के आगे ।
सुना निर्भय बढ़भागे ॥
समय लागा, लागे शिव ।
धन ! भगत बन भागे दिव ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
भय-नोकषाय-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जुगुप्सा सार्थक नामा ।
जु गुप रखना वस-यामा ॥
आत्म-रामा रस रसिया ।
मोक्ष धामा धस वसिया ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
जुगुप्सा-नोकषाय-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वेद नारी अब ना ‘री ।
श्वेत लहु रग दौड़ा ‘री ॥
वास…ना चित् चौ खाने ।
देव यूँ ही न दिवाने ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
स्त्री-वेद-नोकषाय-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सार्थ ‘काय-र…ता’ जानी ।
जगा पुरुषारथ ज्ञानी ॥
उठ चले पुरुष वेद से ।
जोड़ जुड़ नय-अभेद से ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
पुं-वेद-नोकषाय-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सुना ज्यों ‘मन-मथ’ जाता ।
चुना त्यों सन्मत गाथा ॥
नपुंसक वेद न झोरी ।
मुक्ति वधु खेले होरी ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
नपुंसक-वेद-नोकषाय-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुम कषाय, हो बाला ।
आयु कर्म खो चाला ॥
अब न आय कर्मों की ।
गुम अवाज कदमों की ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
आयुष्य-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
उदक पाय ‘दृग’-धारी ।
नरक आयु खो चाली ॥
सहा, कहा ना कुछ भी ।
सार्थ गंध कुटि सुर…भी ॥ ५० ॥
ॐ नमः
नरकायुष्य-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
छटी आयु तिर्यंची ।
हटे कतार प्रपंची ॥
रहे निराकुल खुद से ।
सिद्ध आज अद्भुत से ॥ ५१ ॥
ॐ नमः
तिर्-यगा-युष्य-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आयु मनुज छूटी है ।
झिर भीतर फूटी है ॥
सद्गुण माल अनूठी ।
वर तुम इक जड़-बूटी ॥ ५२ ॥
ॐ नमः
मनुष्-यायुष्य-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
देख-छिद्र दृग नीचे ।
रही आयु सुर पीछे ॥
खींचें अपनी रेखा ।
खींचातान न लेखा ॥ ५३ ॥
ॐ नमः
दे-वायुष्य-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
नाम नामा कर्म एका ।
जड़ समेत उखाड़ फेंका ॥
भाग-मृग टेका लगाया ।
भव किनारा भाग आया ॥ ५४ ॥
ॐ नमः
नाम-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जा नरक गति दूर ठाड़ी ।
नीति नारद क्या विसारी ॥
विदारी परिपाट कर्मा ।
माथ टीका आत्म परमा ॥ ५५ ॥
ॐ नमः
नारक-गति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अब न गति तिर्यंच फेरा ।
कपट ओर न पलट हेरा ॥
अँधेरा यम द्वार दीखा ।
गगन माथे सूर टीका ॥ ५६ ॥
ॐ नमः
तिर्यग्-गति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गति मनुष चित चार कोने ।
पीर पर लख लगे रोने ॥
समय सोने का न, जागे ।
विनय सोने औ सुहागे ॥ ५७ ॥
ॐ नमः
मनुष्य-गति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
देव गति से पिण्ड छूटा ।
केन्द्र छूता ‘वृत’ अनूठा ॥
अँगूठा विधि धार दीना ।
अतल भव जल पार कीना ॥ ५८ ॥
ॐ नमः
देव-गति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जाति इक इन्द्रिय घाती है ।
रोध पंचेन्द्रिय साथी है ॥
पर्श इन्द्रिय पीछे छूटी ।
हर्ष अनवरत धार फूटी ॥ ५९ ॥
ॐ नमः
एकेन्द्रिय-जाति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जाति बे-इन्द्रिय दुम दावी ।
अनिन्द्रिय हावि न बेताबी ॥
पर्श, रस, इन्द्रिय छू-मंतर ।
निरन्तर डूब सुख समुंदर ॥ ६० ॥
ॐ नमः
द्वीन्द्रिय-जाति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जाति ते इन्द्रिय भूसाई ।
ध्यान ‘बुध’ अभेद तुम घाईं ॥
पर्श, रस, घ्राणेन्द्रिय खोई ।
दर्श आदर्श जगत दोई ॥ ६१ ॥
ॐ नमः
त्रीन्द्रिय-जाति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जाति चौ रिन्द्रिय यम द्वारे ।
आठ माँ प्रवचन दृग् तारे ॥
पर्श, रस, घ्राण, चक्षु रीते ।
जान जग, सभी कर्म जीते ॥ ६२ ॥
ॐ नमः
चतु-रिन्द्रिय-जाति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जाति पंचेन्द्रिय अब नाहीं ।
सरोवर स्वातम अवगाहीं ॥
पर्श, रस, घ्राण, चक्षु, कर्णा ।
धोक दे चले आप चरणा ॥ ६३ ॥
ॐ नमः
पञ्चेन्द्रिय-जाति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औदारिक देहा ।
खो निस्सन्देहा ।
गेहा सिद्धालय,
गुण मौलिक नेहा ॥ ६४ ॥
ॐ नमः
औदारिक-शरीर-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वैक्-क्रियिक काया ।
द्वारे यम राया ।
माया बिन देरी,
तज सब इक ध्याया ॥ ६५ ॥
ॐ नमः
वैक्रियिक-शरीर-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
शरीर आहारक ।
नकील आपा रख ।
साधक अलबेले,
बढ़ शशि-रवि-तारक ॥ ६६ ॥
ॐ नमः
आहारक-शरीर-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
तेजस तन चूरी ।
ते जश धन ! नूरी ।
दूरी शिव अब ना,
हिल…ना कस्तूरी ॥ ६७ ॥
ॐ नमः
तैजस-शरीर-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
तन कार्मण नामा ।
अतिथि मृत्यु धामा ।
ध्या रामा-आतम,
धन ! धन ! कृत कामा ॥ ६८ ॥
ॐ नमः
कार्मण-शरीर-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पुद्गल वर्गणा न करें ग्रहण ।
कैसे हो चले कर्म बन्धन ॥
घिस चन्दन सी खुशबू छोड़ी ।
आई शिव वधु दौड़ी दौड़ी ॥ ६९ ॥
ॐ नमः
औदारिक-शरीर-बन्धन-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
परमाणु वै-क्रियिक छू न रहे ।
दे जगह और, कर चू न रहे ॥
द्युपुर न रहे, आगे चाले ।
चूनर शिव नार टके तारे ॥ ७० ॥
ॐ नमः
वैक्रियिक-शरीर-बन्धन-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
परमाणु अहारक बन्धन ना ।
बुध ! कौन करेगा वन्दन ना ॥
वन क्रन्दन ना भीतर आये ।
पर तार, स्वयं भी तर आये ॥ ७१ ॥
ॐ नमः
आहारक-शरीर-बन्धन-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
परमाणु न ग्रहण करें तेजस ।
जे जे रस हैं लागे बेरस ॥
तेरस जैसी चौदस वैसी ।
‘धुन’ निस्तरंग अपने जैसी ॥ ७२ ॥
ॐ नमः
तैजस-शरीर-बन्धन-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कार्मण वर्गणा न स्वीकारी ।
नेकी करके दरिया डाली ॥
पा ली मंजिल सपने देखी ।
‘जग’ सार्थ कब बघारी शेखी ॥ ७३ ॥
ॐ नमः
कार्मण-शरीर-बन्धन-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औदारिक संघाता ।
घाता, ज्ञायक नाता ॥
त्राता तीन जहान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ! ॥ ७४ ॥
ॐ नमः
औदारिक-शरीर-संघात-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संघाता वैक्रिय हन ।
संज्ञाता जे त्रिभुवन ॥
स्वानुभवन वरदान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ! ॥ ७५ ॥
ॐ नमः
वैक्रियिक-शरीर-संघात-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संघाता आहारक ।
घात पाँत उपकारक ॥
तारक शिव जलयान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ! ॥ ७६ ॥
ॐ नमः
आहारक-शरीर-संघात-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हत संघाता तैजस ।
इक वरदाता जै, जश ॥
‘भै’ नश सिमरन ध्यान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ! ॥ ७७ ॥
ॐ नमः
तैजस-शरीर-संघात-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन कार्मण संघाता ।
हाथ निराकुल साता ॥
पाँता दया निधान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ! ॥ ७८ ॥
ॐ नमः
कार्मण-शरीर-संघात-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सम-चतु-रस ।
संस्थाँ वश ॥
नयना नम ।
जय सिद्धम् ॥ ७९ ॥
ॐ नमः
सम-चतुरस्र-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
न्यग्रोधा ।
‘बढ़’ रोधा ॥
भज आतम ।
जय सिद्धम् ॥ ८० ॥
ॐ नमः
न्यग्रोध-परिमण्डल-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वल्मीकी ।
छव फीकी ॥
हतप्रभ यम ।
जय सिद्धम् ॥ ८१ ॥
ॐ नमः
वल्मीक-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गत कूबड़ ।
बढ़ कूॅंवर ॥
विद् आगम ।
जय सिद्धम् ॥ ८२ ॥
ॐ नमः
कुब्जक-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना बौना ।
संस्थाना ॥
जोन खतम ।
जय सिद्धम् ॥ ८३ ॥
ॐ नमः
वामन-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जित हुण्डिक ।
संस्थानिक ॥
रमण ब्रहम ।
जय सिद्धम् ॥ ८४ ॥
ॐ नमः
हुण्डक-संस्थान-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
फाँसा न किसी को आँसे ।
धन ! अंगोपांग विनाशे ॥
छोड़ा तन परमौदार ।
अवतार सिद्ध जयकार ॥ ८५ ॥
ॐ नमः
औदारिक-शरीरांगोपांग
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
‘काई’ ना मुंह की खाई ।
धन ! अंगोपांग विदाई ॥
वै-क्रियिक देह परिहार ।
अवतार सिद्ध जयकार ॥ ८६ ॥
ॐ नमः
वैक्रियिक-शरीरांगोपांग
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
छीना अधिकार न दीना ।
धन ! अंगोपांग विलीना ॥
बढ़ आहारक दृग चार ।
अवतार सिद्ध जयकार ॥ ८७ ॥
ॐ नमः
आहारक-शरीरांगोपांग
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संहनन वज्र वृषभ नाराच ।
रूठा, छूटा संहनन काँच ॥
आज संभाला, संभला काल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ८८ ॥
ॐ नमः
वज्र-वृषभ-नाराच-संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संहनन दूज वज्र नाराच ।
रूठा, छूटा संहनन काँच ॥
रख तलवार, उठाई ढाल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ८९ ॥
ॐ नमः
वज्र-नाराच-संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संहनन आप भाँत नाराच ।
रूठा, छूटा संहनन काँच ॥
हत पतवारा बाँधा पाल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ९० ॥
ॐ नमः
नाराच-संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संहनन नाम अर्द्ध नाराच ।
रूठा, छूटा संहनन काँच ॥
लाठी फेंकी, दीप प्रजाल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ९१ ॥
ॐ नमः
अर्द्ध-नाराच-संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संज्ञा कीलक संहनन पाँच ।
रूठा, छूटा संहनन काँच ॥
कुटुंब वसुधा हृदय विशाल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ९२ ॥
ॐ नमः
कीलक-संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
असं-प्राप्त सृपाट जिन वाँच ।
रूठा छूटा संहनन काँच ॥
भीतर पैठ सुनी हरताल ।
सिद्ध त्रिकाली ! धोक त्रिकाल ॥ ९३ ॥
ॐ नमः
असंप्राप्त-सृपाटिका संहनन
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना वरण श्वेत ।
ना मरण खेद ।
जय जयतु सिद्ध,
इक शरण देत ॥ ९४ ॥
ॐ नमः
श्वेत-वर्ण
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना वरण पीत ।
ना मदन गीत ।
जय जयतु सिद्ध,
आहरण भीत ॥ ९५ ॥
ॐ नमः
पीत-वर्ण
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना हरित वर्ण ।
ना सहित कर्ण ।
जय जयतु सिद्ध,
आदरित चर्ण ॥ ९६ ॥
ॐ नमः
हरित-वर्ण
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना कृष्ण रंग ।
ना तृष्ण संग ।
जय जयतु सिद्ध,
भा-जिष्णु भंग ॥ ९७ ॥
ॐ नमः
कृष्ण-वर्ण
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना वर्ण रक्त ।
ना पर्ण छत्र ।
जय जयतु सिद्ध,
आभर्ण भक्त ॥ ९८ ॥
ॐ नमः
रक्त-वर्ण
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
इति श्री सुगन्ध ।
परिणति अबंध ।
जय जयतु सिद्ध,
जप संध संध ॥ ९९ ॥
ॐ नमः
सुगंध-गंध
रहित सिद्धाय स्वाहा ।
दुर्गंध शून ।
अर चन्द पून ।
जय जयतु सिद्ध,
जप नन्द दून ॥ १०० ॥
ॐ नमः
दुर्गंध-गंध
रहित सिद्धाय स्वाहा ।
ना तिक्त स्वाद ।
ना-सक्त गात ।
जय जयतु सिद्ध,
रट मुक्त पाथ ॥ १०१ ॥
ॐ नमः
तिक्त-रस
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कटु स्वाद दूर ।
पटु नाद तूर ।
जय जयतु सिद्ध,
नत चाँद सूर ॥ १०२ ॥
ॐ नमः
कटुक-रस
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
न कषाय स्वाद ।
अकषाय साध ! ।
जय जयतु सिद्ध,
फल-दाय नाद ॥ १०३ ॥
ॐ नमः
कषाय-रस
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
रस आम्ल छिन्न ।
जल कमल भिन्न ।
जय जयतु सिद्ध,
रट विकल-खिन्न ॥ १०४ ॥
ॐ नमः
आम्ल-रस
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मिठ स्वाद उक्त ।
दुठ आठ ‘मुक्त’ ।
जय जयतु सिद्ध,
गुण आठ युक्त ॥ १०५ ॥
ॐ नमः
मधुर-रस
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मृदु परस हन्त ।
विदु सरस पन्थ ।
जय जयतु सिद्ध,
वधु दरश कन्त ॥ १०६ ॥
ॐ नमः
मृदुत्व-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कर्कश विघात ।
पर रस विलात ।
जय जयतु सिद्ध,
अर जश विधात ! ॥ १०७ ॥
ॐ नमः
कर्कश-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गुरु पर्श नाह ।
अप-कर्ष दाह ।
जय जयतु सिद्ध,
उत्कर्ष राह ॥ १०८ ॥
ॐ नमः
गुरु-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लघु परस हान ।
विभु हरष-वान् ।
जय जयतु सिद्ध,
पुरु सदृश शान ॥ १०९ ॥
ॐ नमः
लघु-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गत शीत पर्श ।
अभिजीत ‘वर्ष’ ।
जय जयतु सिद्ध,
प्रद नीत-दर्श ॥ ११० ॥
ॐ नमः
शीत-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आकर्ष शर्म ।
ना पर्श घर्म ।
जय जयतु सिद्ध,
आदर्श धर्म ॥ १११ ॥
ॐ नमः
उष्ण-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
नस्-निग्ध पर्श ।
‘नस’ दुग्ध दर्श ।
जय जयतु सिद्ध,
तृष दग्ध हर्ष ॥ ११२ ॥
ॐ नमः
स्निग्ध-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गत रूक्ष नाम ।
पथ मोक्ष धाम ।
जय जयतु सिद्ध,
पद लक्ष शाम ॥ ११३ ॥
ॐ नमः
रूक्ष-स्पर्श
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हत नारक गत्यानु-पूरब ।
व्रत साधक सत्याणु पूरब ।
प्रति फल पाया ।
जल फल लाया ।
पूजन सिद्ध रचाने आया ॥ ११४ ॥
ॐ नमः
नरक-गत्यानु-पूर्व-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हत तिर्यग् गत्यानु-पूरब ।
व्रत रग रग सत्याणु पूरब ।
प्रति फल पाया ।
जल फल लाया ।
पूजन सिद्ध रचाने आया ॥ ११५ ॥
ॐ नमः
तिर्यग्-गत्यानु-पूर्व
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हत मानस गत्यानु-पूरब ।
व्रत तानस सत्याणु पूरब ।
प्रति फल पाया ।
जल फल लाया ।
पूजन सिद्ध रचाने आया ॥ ११६ ॥
ॐ नमः
मनुष्य-गत्यानु-पूर्व-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हत देवन गत्यानु-पूरब ।
व्रत सेवन सत्याणु पूरब ।
प्रति फल पाया ।
जल फल लाया ।
पूजन सिद्ध रचाने आया ॥ ११७ ॥
ॐ नमः
देव-गत्यानु-पूर्व-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ना हल्के कपास जैसे ।
ना भारी है, लोहे-से ॥
कहो सिद्ध फिर कैसे हैं ? ।
तो बस अपने जैसे हैं ॥ ११८ ॥
ॐ नमः
अगुरुलघुत्व
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
खुद का खुद ना घातें तन ।
अब न बनाता बातें मन ॥
रातें धन ! जो कीं, जागे ।
ब्याही वधु-शिव बड़-भागे ॥ ११९ ॥
ॐ नमः
उपघात
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कब घाता तन औरन का ।
नाता चौंषठ चौंरन का ॥
चित् चोरन का पाया पद ।
चित् चारन कोने आपद ॥ १२० ॥
ॐ नमः
परघात
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काम कामना हित जप का ।
नाम निशान न आतप का ॥
तप का जो सम्मान किया ।
प्रकटा केवल ज्ञान ‘दिया’ ॥ १२१ ॥
ॐ नमः
आतप
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दूर कर्म उद्योत हुआ ।
मृण दीवा मन ज्योत छुआ ॥
पहुंचा पोत किनारे पर ।
खड़े पार हित, द्वारे पर ॥ १२२ ॥
ॐ नमः
उद्योत
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
फूट चला भीतर झरना ।
क्यों कर कहो श्वास भरना ॥
करना धरना त्यागा है ।
‘जर’-ना मरना भागा है ॥ १२३ ॥
ॐ नमः
उच्छ्वास निःश्वास
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
इति श्री गति की हो चाली ।
शशि प्रशस्त गति क्या लाली ? ॥
खो चाली काली परिणत ।
रो चाली बैसाखी-मत ॥ १२४ ॥
ॐ नमः
प्रशस्त-विहायो-गति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गति अप्रशस्त विलानी है ।
नाक बचाया पानी है ॥
आनी जानी जुग खोई ।
समरस-सानी जग दोई ॥ १२५ ॥
ॐ नमः
अप्रशस्त-विहायो-गति-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
त्रस नाम ।
कृत काम ।
जय सिद्ध, जप शाम ॥ १२६ ॥
ॐ नमः
त्रस-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
त्रस वाम ।
कृत काम ।
जय सिद्ध, जप शाम ॥ १२७ ॥
ॐ नमः
स्थावर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
‘टोकन’ कहना ।
टोक न बहना ! ।
बनने सिद्ध न कहना, सहना ॥ १२८ ॥
ॐ नमः
बादर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सूक्षम नामा ।
काम तमामा ।
बने सिद्ध रट सिद्ध, प्रणामा ॥ १२९ ॥
ॐ नमः
सूक्ष्म-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हाँप ‘समाप्त’ ।
आप पर्याप्त ।
जयतु सिद्ध, जय जयतु आप्त ॥ १३० ॥
ॐ नमः
पर्याप्ति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
प्राप्त पर्याप्त ।
गत अपर्याप्त ।
जयतु सिद्ध, जय जयतु आप्त ॥ १३१ ॥
ॐ नमः
अपर्याप्ति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन प्रत्येका ।
हंस विवेका ॥
त्रिभुवन एका ।
आ…जा देखा ॥ १३२ ॥
ॐ नमः
प्रत्येक शरीर
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन साधारण ।
मंशा तारण ।
न पुनः जामन, न पुनः मारण ॥ १३३ ॥
ॐ नमः
साधारण शरीर
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
नाम थिर ।
शाम गिर ।
ठाम फिर, न काम सिर ॥ १३४ ॥
ॐ नमः
स्थिर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वाम-थिर ।
नाम झिर ।
धाम चिर, न ग्राम फिर ॥ १३५ ॥
ॐ नमः
अस्थिर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
घात नाम शुभ ‘री ।
ख्यात नाम सुर-भी ॥
पाँत राम शबरी ।
मनो-काम हमरी ॥ १३६ ॥
ॐ नमः
शुभ-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अशुभ नाम घाता ।
अलभ धाम नाता ॥
दाता सुख साता ।
गाता सिध गाथा ॥ १३७ ॥
ॐ नमः
अशुभ-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सुभग विलीन ।
सजग प्रवीण ।
खुद से सिद्ध, ना जग तीन ॥ १३८ ॥
ॐ नमः
सुभग-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दुर्भग हान ।
डग डग भान ।
खुद से सिद्ध, जग जग छान ॥ १३९ ॥
ॐ नमः
दुर्भग-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मैना देखी पिंजरे ।
सपने सुस्वर बिखरे ॥
सविनय ध्या ईश्वर पन ।
ठाड़े कतार विरले ॥ १४० ॥
ॐ नमः
सुस्वर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दुस्वर नाम मिटाया ।
सुर वर माथ झुकाया ॥
समय हृश्व आखर पन ।
सौख्य निराकुल पाया ॥ १४१ ॥
ॐ नमः
दुस्वर-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
न आदेय ।
घृणा जेय ॥
प्रद समृद्ध ।
जयत सिद्ध ॥ १४२ ॥
ॐ नमः
आदेय-प्रकृति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जिना ! जेय, ।
अनादेय ॥
महत बुद्ध ।
जयत सिद्ध ॥ १४३ ॥
ॐ नमः
अनादेय-प्रकृति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
यश कीर्त नाम ।
वश, तीर्थ धाम ॥
चारों सारे ।
तारो…तारे ॥ १४४ ॥
ॐ नमः
यशस्-कीर्ति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन कीर्ति अयश ।
धन ! कीर्ति परस ॥
लोहा लोका ।
सोना मोखा ॥ १४५ ॥
ॐ नमः
अयशस्-कीर्ति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
खोना, नाम कर्म निर्माण ।
खोना आत्म राम निर्-मान ॥
आगत, नागत, सम्प्रति सिद्ध ।
स्वागत करुणा, दया निधान ॥ १४६ ॥
ॐ नमः
निर्माण-नाम-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन तीर्थकर ।
धन ! कीर्तधर ॥
घर शाम शाम ।
सिद्धम् प्रणाम ॥ १४७ ॥
ॐ नमः
तीर्थंकर नाम-कर्म-
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अरे ! क्यों गोता खाना ।
हुआ रज गोत्र विलाना ॥
पार उस नौका लागी ।
मुक्ति वधु पा बड़भागी ॥ १४८ ॥
ॐ नमः
गोत्र-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जगी शुद्धात्म ज्योत है ।
खो चला उच्च गोत्र है ॥
उठ चले ऊँच नीच से ।
कब भिड़े, स्वर्ण कीच से ॥ १४९ ॥
ॐ नमः
उच्च-गोत्र-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
बहा उर दया स्रोत है ।
खो चला नीच गोत्र है
मोति दृग क्यूँ न चढ़ाऊँ ।
ज्योति दृग क्यूँ न बढ़ाऊँ ॥ १५० ॥
ॐ नमः
नीच-गोत्र-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हन्त अन्तराया ।
बल अनन्त पाया ॥
माया विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५१ ॥
ॐ नमः
अन्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दान अन्तराया ।
हान, हन्त माया ॥
काया विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५२ ॥
ॐ नमः
दानान्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लाभ अन्तराया ।
आभ अन्त आया ॥
छाया विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५३ ॥
ॐ नमः
लाभान्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
भोग अन्तराया ।
शोग-छन्द गाया ॥
जाया विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५४ ॥
ॐ नमः
भोगान्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और अन्तराया ।
छोर ‘अन्त’ छाया ॥
‘आया’ विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५५ ॥
ॐ नमः
उप-भोगान्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वीर्य अन्तराया ।
ईर्य हन्त राया ॥
‘हाया’ विदाई ।
मोक्ष ठकुराई ॥ १५६ ॥
ॐ नमः
वीर्यान्तराय-कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दर्श, ज्ञान, अन्तराय, मोहन ।
नाम, गोत्र, हन आयुर् वेदन ॥
गुण दृग, ज्ञान, वीर्य, अवगाहन ।
सूक्ष्म, अगुरुलघु, सुख अबाध धन ! ॥ १५७ ॥
ॐ नमः
कर्माष्टक
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
एक सौ अड़तालीसा ।
कर्म ‘अरि’-हन जगदीशा ॥
अधीशा अष्टम भूमी ।
खुशी से शिव वधु झूमी ॥ १५८ ॥
ॐ नमः
शताष्ट-चत्वारिंशत-कर्म प्रकृति
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अहा ! कह सकें जिन्हें ज़ुबाँ से ।
कर्म भेद संख्यात विनाशे ॥
भा से ज्योतिर्मय जग सारा ।
सिद्ध तिन्हें नित नमन हमारा ॥ १५९ ॥
ॐ नमः
संख्यात कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कहाँ ? कह सकें जिन्हें ज़ुबाँ से ।
कर्म विध असंख्यात विनाशे ॥
प्यासे ना, फूटी उर धारा ।
सिद्ध तिन्हें नित नमन हमारा ॥ १६० ॥
ॐ नमः
असंख्यात कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
फल सापेक्ष नन्त अविभागी ।
कर्म नन्त झुलसा ध्यानागी ॥
पुनः न अब धरना अवतारा ।
सिद्ध तिन्हें नित नमन हमारा ॥ १६१ ॥
ॐ नमः
अनंत कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कर्म रूप परिणत अणु पेक्षा ।
नन्ता-नन्त हन्त, अनुप्रेक्षा ॥
ना इकाध सब भाईं बारा ।
सिद्ध तिन्हें नित नमन हमारा ॥ १६२ ॥
ॐ नमः
अनंतानंत कर्म
वि-मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
भूत वर्तमाँ भावी ।
नित्यानंद स्वभावी ॥
बेताबी छूते ना ।
सिद्ध नमन दिन रैना ॥ १६३ ॥
ॐ नमः
नित्यानंद-स्वभाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
विधूत गोरख धंधा ।
अनूठ धर्मा-नन्दा ॥
पर-निंदा छूते ना ।
सिद्ध नमन दिन रैना ॥ १६४ ॥
ॐ नमः
आनंद-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परमानन्द अनोखा ।
द्वन्द ‘भी’-तरी रोका ॥
छल धोखा छूते ना ।
सिद्ध नमन दिन रैना ॥ १६५ ॥
ॐ नमः
परमानंद-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
छोड़ा बनना उर छाला ।
धन ! साम्य स्वभाव निराला ॥
ढाला ‘साँचे’ अन्वर्था ।
शिव लगे, जगा सामर्था ॥ १६६ ॥
ॐ नमः
साम्यस्-स्वभाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
व्यवहार नदारत कूटा ।
धन ! साम्य स्वरूप अनूठा ॥
कूटा तुष अभिलेखा ना ।
इति-वृत ऐसा देखा ना ॥ १६७ ॥
ॐ नमः
साम्यस्-स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
छोड़ी तोरी मोरी ।
गुण अनन्त हमजोली ॥
ओ ‘री अनन्त सुखिया ।
झोरी वसन्त मुखिया ॥ १६८ ।
ॐ नमः
अनंत-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
चिदानन्द, चिद्रूपा ।
धन ! गुण नन्त स्वरूपा ॥
प्रफुल्ल कूपा रोमा ।
दौड़ धूप जो ओमा ॥ १६९ ॥
ॐ नमः
अनंत-गुण स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अनेकान्त कर्म ।
सिद्ध नन्त धर्म ॥
शैल स्याद्-वाद ।
गैल यम विवाद ॥ १७० ॥
ॐ नमः
अनंत-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
एक तुम, अनेक तुम ।
भेद तुम, अभेद तुम ।
दृष्टि टिकी एक सिध,
आप आप भेद गुम ॥ १७१ ॥
ॐ नमः
अनंत-धर्म-स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
हीना-धिकता गुम ।
मंजिल छुये कदम ॥
सम स्वभाव न्यारा ।
जनम न दोबारा ॥ १७२ ॥
ॐ नमः
समस्-स्वभाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
बना देह दूरी ।
पाई कस्तूरी ॥
पूरी शिव आशा ।
प्यास न अवकाशा ॥१७३ ॥
ॐ नमः
समतुष्ट-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परिणति सन्तों सी ।
प्रति-कृति संतोषी ॥
निर्दोषी एका ।
सिद्ध शुद्ध लेखा ॥ १७४ ॥
ॐ नमः
सम-संतोष
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
जी भर सुधा चखें ।
भीतर सदा दिखें ॥
केन्द्र बिन्दु आस्था ।
धन ! धन ! साम्यस्था ॥ १७५ ॥
ॐ नमः
साम्यस्थ
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
ममता खो चाले ।
समता बो चाले ॥
बाले ज्योत क्षमा ।
सिद्धम् नमो नमः ॥ १७६ ॥
ॐ नमः
साम्य-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
यश शम, यम, दम गा ।
कृत-कृत्या तमगा ॥
प्रमुदित शिव राधा ।
मिल दिव आराधा ॥ १७७ ॥
ॐ नमः
साम्य-कृत-कृत्य
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
विष बुझे हाथ शर…ना ।
विश्वेक पाँत शरणा ॥
इक करुणा, दया निधान ।
जय जयतु सिद्ध भगवान् ॥ १७८ ॥
ॐ नमः
अनन्य-शरण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
चित् चिदानंद गुण एक ।
भारी, गुण द्रव्य अनेक ॥
धन ! महिमा आप समान ।
जय जयतु सिद्ध भगवान् ॥ १७९ ॥
ॐ नमः
अनन्य-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
धन ! स्व चतुष्टय आवास ।
अष्टक खिल कर्म विनाश ॥
साहस अदम्य पहचान ।
जय जयतु सिद्ध भगवान् ॥ १८० ॥
ॐ नमः
अनन्यप्-प्रमा
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
पर मान लिया पर को ।
परिमाण कहाँ ? निरखो ॥
सम चरित ज्ञान श्रद्धान ।
जय जयतु सिद्ध भगवान् ॥ १८१ ॥
ॐ नमः
प्रमाण-मुक्त
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परमात्म शरण जय हो ।
शुद्धात्म रमण जय हो ।
जय जय हो ब्रह्म स्वरूप,
अध्यात्म किरण जय हो ॥ १८२ ॥
ॐ नमः
ब्रह्म स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
उत्कृष्ट ज्योति जय हो ।
सम-दृष्टि मोति जय हो ।
जय जयतु जयतु गुण ब्रह्म,
खिल सृष्टि गोद जय हो ॥ १८३ ॥
ॐ नमः
ब्रह्म गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
गत नया बंध जय हो ।
हत पुरा बंध जय हो ।
जय जयतु ब्रह्म चैतन्य,
चित् चिदानंद जय हो ॥ १८४ ॥
ॐ नमः
ब्रह्म चैतन्य
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
हर शाम संभाले हैं ।
परिणाम निराले हैं ॥
पर नाम न कीने हैं ।
परिणाम नवीने हैं ॥ १८५ ॥
ॐ नमः
शुद्ध-पारि-णामिक-
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अलगाव भाव रीते ।
वैभाव भाव जीते ॥
तीते स्वभाव शुद्धा ।
बीते अभाव, बुद्धा ! ॥ १८६ ॥
ॐ नमः
शुद्ध-स्व-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परिणति अशुद्ध घाती ।
सम्पत विशुद्ध थाती ॥
गाती परिपाट दया ।
आराती आठ क्षया ॥ १८७ ॥
ॐ नमः
अशुद्धि रहित
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
नय द्रव्यार्थिक रूठा ।
पर्या-यार्थिक छूटा ॥
फूटा भीतर स्रोता ।
चोखा न भाव खोटा ॥ १८८ ॥
ॐ नमः
शुद्धाशुद्ध-रहित
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
खाली भींजी आँख ।
पा ली तीजी आँख ॥
अनंत दृक् सिद्धा ।
वन्दन रख श्रद्धा ॥ १८९ ॥
ॐ नमः
अनंत-दृक्
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
कल्मष-दर्प न भ्रात ! ।
अन्तस् दर्पण भाँत ॥
नन्त दृक् स्वरूपा ।
चिन्मय चिद्रूपा ॥ १९० ॥
ॐ नमः
अनंत-दृक् स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
विघटित तव-मम क्रूर ।
प्रकटित अवगम सूर ॥
नन्त दृगा-नन्दा ।
हन्त मृगा पन्था ॥ १९१ ॥
ॐ नमः
अनंत-दृगानंद स्वभाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
व्ययी, ध्रौव्य, उत्पाद ।
झलकन ज्ञान अबाध ॥
दृगुत्-पाद नन्ता ! ।
नन्त सिध जयन्ता ॥ १९२ ॥
ॐ नमः
अनंत-दृगुत्-पादक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अविचल काल अनंत ।
पतझड़ भले वसंत ॥
अनंत ध्रुव धारा ।
जयंत ध्रुव-तारा ॥ १९३ ॥
ॐ नमः
अनंतध्-ध्रुव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
घृत कब दूध बना ।
सिद्ध न जन्म पुन: ॥
अव्यय नन्त तभी ।
सविनय खड़े सभी ॥ १९४ ॥
ॐ नमः
अनंताव्-व्यय-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
घर ना माटी का ।
अखर माथ टीका ॥
निलय अनन्त तभी ।
सविनय खड़े सभी ॥ १९५ ॥
ॐ नमः
अनन्त निलय
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
पद थिर प्राप्त हुआ ।
खेल समाप्त हुआ ॥
काल अनन्त तभी ।
सविनय खड़े सभी ॥ १९६ ॥
ॐ नमः
अनंत-काल
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भाव ‘बाल’ भाँती ।
नाव ‘पाल’ साथी ॥
भाव अनन्त तभी ।
सविनय खड़े सभी ॥ १९७ ॥
ॐ नमः
अनंत-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
तन मृणमय काम तमाम ।
चिच् चिन्मय आतम राम ॥
इक जाग अनूठी हाथ ।
दोपहर, साँझ क्या प्रात ? ॥ १९८ ॥
ॐ नमः
चिन्मयस्-स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
स्व चतुष्टय निरत अनूप ।
चिच् चिदानन्द चिद्रूप ॥
इक डूब अनोखी साथ ।
दुपहर हो दिन या रात ॥ १९९ ॥
ॐ नमः
चिद्रूपस्-स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
नित चिच् चैतन्य विलास ।
उल्लास वगैर प्रयास ॥
आनन्द एक हट नाम ।
दुपहर क्या सुबहो शाम ॥ २०० ॥
ॐ नमः
चिद्रूप-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
स्वात्मोपलब्धि धन ! ।
परिणाम शुद्धि धन ! ॥
जय जयतु सिद्ध-गण ! ।
शिव सौख्य सिद्धि धन ! ॥ २०१ ॥
ॐ नमः
स्वात्मोप-लब्धि रत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
रत स्वानुभूत धन ! ।
गत श्वा अभूत क्षण ! ॥
जय जयतु सिद्ध-गण ! ।
शाश्वत विभूत धन ! ॥ २०२ ॥
ॐ नमः
स्वानुभूति-रत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परमामृत रस पान ।
कर्मा कृत अवसान ॥
जयतु सिद्ध-भगवान् ।
धर्मामृत दश प्राण ॥ २०३ ॥
ॐ नमः
परमामृत-रत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
रस परमामृत तुष्ट ।
जश धर्मामृत पुष्ट ॥
जयतु सिद्ध-परमेष्ट ।
वस कर्मा मृत दुष्ट ॥ २०४ ॥
ॐ नमः
परमामृत तुष्ट
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परम राधिका प्रीत ।
चरम साधिका गीत ॥
जयतु सिद्ध जप मीत ! ।
करम बाधिका जीत ॥ २०५ ॥
ॐ नमः
परमप्-प्रीति
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भाव वल्लभं दिवम् ।
नाव पत्तनं शिवम् ॥
जयतु सिद्ध-मंगलम् ।
दॉंव न कर्मम् नवम् ॥ २०६ ॥
ॐ नमः
परम-वल्लभ-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
शब्द, गन्ध, रस, फरस ।
वर्ण भाव अपकरष ॥
सिद्ध अव्यक्त झूम ।
शुद्ध सम्यक्त्व भूम ॥ २०७ ॥
ॐ नमः
अव्यक्-तस्-स्वभाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
पूर्ण-तया भिन दरब ।
एक नाहिं मिल सरब ॥
सिध एकत्व स्वरूप ।
बुध अनेकत्व रूप ॥ २०८ ॥
ॐ नमः
एकत्वस्-स्वरूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
शून गरब मान्यता ।
पून दरब भिन्नता ॥
गुण एकत्व विधान ।
सिद्ध सिध खुद समान ॥ २०९ ॥
ॐ नमः
एकत्व गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
द्रव्य निरत परिणमन ।
द्रव्य विगत पर रमण ॥
सिद्ध एकत्व भाव ।
शिव अन्यथा अभाव ॥ २१० ॥
ॐ नमः
एकत्व भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
द्वेत भाव झर चला ।
छेद नाव भर चला ॥
दिख चला किनार धन ! ।
जयतु जयतु सिद्ध गण ॥ २११ ॥
ॐ नमः
द्वित्व-वि-नाशक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
खो चली मानवत्ता ।
पाई शाश्वत सत्ता ॥
लख भगवत्ता जन जन ।
शिव वधु भर्ता धन ! धन ! ॥ २१२ ॥
ॐ नमः
शाश्वत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अब ना प्रकाश खोना ।
अर क्या ? सुगंध सोना ॥
‘दो ना’ जो ना बोला ।
शिव दरवाज़ा खोला ॥ २१३ ॥
ॐ नमः
शाश्वतप्-प्रकाश
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
उद्योत दूज मानो ।
थिर ज्योत दूज भानो ॥
आनो जानो छूटो ।
शाश्वत झिरनो फूटो ॥ २१४ ॥
ॐ नमः
शाश्वतोद्योत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
मति जल भिन अरविन्दा ।
आनन्द अमृत चन्दा ॥
भव फन्दा टूका दो ।
सिध नन्ता आराधो ॥ २१५ ॥
ॐ नमः
शाश्वतामृत-चंद्र
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
मूरत अमि अविनाशी ।
प्रतिभारत गुण राशी ॥
घट घट वासी बाजे ।
नत राजे महराजे ॥ २१६ ॥
ॐ नमः
शाश्वतामृत-मूर्तये
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
इन्द्रिय पन की ।
‘पहुँच’ न मन की ।
जय जय परम सूक्ष्म सिद्धन की ॥ २१७ ॥
ॐ नमः
परम-सूक्ष्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान मतिन की ।
भान श्रुतिन की ।
इन्द्रिय पन की ।
‘पहुँच’ न मन की ।
जय अवकाश सूक्ष्म सिद्धन की ॥ २१८ ॥
ॐ नमः
सूक्ष्मा-वकाश
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परमानन की ।
नय आंखन की ।
इन्द्रिय पन की ।
‘पहुँच’ न मन की ।
जय सूक्षम गुणमय सिद्धन की ॥ २१९ ॥
ॐ नमः
सूक्ष्म-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अवधि नयन की ।
मन-पर्यन की ।
इन्द्रिय पन की ।
‘पहुँच’ न मन की ।
जय प्रगुप्त स्वरूप सिद्धन की ॥ २२० ॥
ॐ नमः
परमस्-स्व-रूप-गुप्त
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सीमा सुख अहमिन्दर ।
सिध आनन्द समुन्दर ॥
अथाह आप समान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ॥ २२१ ॥
ॐ नमः
नि-रवधि-सुख
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
ससीम मेर पहाड़ा ।
सीम घेर जल खारा ॥
गुण तुम पार जहान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ॥ २२२ ॥
ॐ नमः
नि-रवधि-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भाव विकार नदारत ।
रत स्वरूप निश्वारथ ॥
नन्त स्वरूप निधान ।
जयतु सिद्ध भगवान् ॥ २२३ ॥
ॐ नमः
नि-रवधिस्-स्व-रूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
हुआ भीतर आना ।
छुआ भीतर ज्ञाना ॥
अतुल अवगम धारी ।
सिद्ध जय हो थारी ॥ २२४ ॥
ॐ नमः
अतुल-ज्ञान
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
झरा मोहन माया ।
निराकुल सुख पाया ॥
अतुल सुख अधिकारी ।
सिद्ध जय हो थारी ॥ २२५ ॥
ॐ नमः
अतुल-सुख
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
कामना शिव नाशी ।
भावना भव नाशी ॥
अतुल भावन न्यारी ।
सिद्ध जय हो थारी ॥ २२६ ॥
ॐ नमः
अतुल-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
एक से इक बढ़ के ।
नेक गुण बढ़ चढ़ के ॥
अतुल गुण भण्डारी ।
सिद्ध जय हो थारी ॥ २२७ ॥
ॐ नमः
अतुल-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भान कोटिक ज्योती ।
ज्ञान मौलिक मोती ॥
अतुल-भा बलिहारी ।
सिद्ध जय हो थारी ॥ २२८ ॥
ॐ नमः
अतुलप्-प्रकाश
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
यम जरा जनम ।
सिल-सिला खतम ।
सिध शिला अचल,
लहरे परचम ॥ २२९ ॥
ॐ नमः
अचल
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सद्-गुण सारे ।
दस्तक द्वारे ।
‘सिद्धम् सिद्धम्’, अविचल न्यारे ॥ २३० ॥
ॐ नमः
अचल-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
ज्ञायक ठावा ।
क्षायिक भावा ॥
‘सिद्धम् सिद्धम्’ ।
पारिक नावा ॥ २३१ ॥
ॐ नमः
अचलस्-स्व-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सजल लोचना ।
रत अलोचना ॥
‘सिद्धम् सिद्धम्’ ।
अचल, लोच ना ॥ २३२ ॥
ॐ नमः
अचलस्-स्व-रूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भुला रखी वैशाखी ।
ना कहते ना हाँ की ।
निरालम्ब सिद्धों ने,
बनती लज्जा राखी ॥ २३३ ॥
ॐ नमः
निरालंब
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
परिग्रह पोट उतारी ।
सयत्न खोट विडारी ।
अनालंब सिद्धों ने,
बननी गोट बिठाली ॥ २३४ ॥
ॐ नमः
अनालंब
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
नचे न नाच नचाया ।
बचे, न तेल लगाया ।
निर्लेपी सिद्धों ने,
घोड़ा-मन न भगाया ॥ २३५ ॥
ॐ नमः
निर्लेप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
वश में राखे नैना ।
रस-मय राखे बैना ।
निष्कलंक सिद्धों ने,
चश्मे राखे छै ना ॥ २३६ ॥
ॐ नमः
निष्कलंक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
विलखे ना ही हरषे ।
भीतर कछु…आ परसे ।
निरत स्वात्म सिद्धों ने,
नेह न जोड़ा जड़ से ॥ २३७ ॥
ॐ नमः
आत्म-रत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
लवण घुल चला जल में ।
स्वलीन संध्या पल में ।
स्वात्म गुप्त सिद्धों ने,
आश रखी मंजिल में ॥ २३८ ॥
ॐ नमः
स्व-रूप-गुप्त
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सोऽहम् रटना लागी ।
निद्रा देवी भागी ।
शुद्ध द्रव्य सिद्धों ने,
राखी परिणति जागी ॥ २३९ ॥
ॐ नमः
शुद्ध द्रव्य
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भव संतति दो टूका ।
दीया श्वास न फूँका ।
असंसार सिद्धों ने,
दिया जबाव न रूखा ॥ २४० ॥
ॐ नमः
असंसार
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
पर को पर जाना ।
निज को पहिचाना ॥
आना जाना गुम ।
‘माथ-राध’ कुमकुम ॥ २४१ ॥
ॐ नमः
स्वानन्द-रत
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
भाव विभाव तजा ।
छाँव स्वभाव भजा ॥
मजा रजा-विध, थम ।
हिरणी दौड़ खतम ॥ २४२ ॥
ॐ नमः
स्वानंद-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
गंधिक दुर्गंधा ।
स्वरूप आनन्दा ॥
द्वन्दा द्वारे यम ।
छिन्दा सारे भ्रम ॥ २४३ ॥
ॐ नमः
स्वा-नंदस्-स्व-रूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सुन ‘औ-गुन’ छोड़े ।
‘गुन’ सो गुण जोड़े ॥
ओ ‘रे मर मरहम ।
छेड़ चले सरगम ॥ २४४ ॥
ॐ नमः
स्वा-नंद-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
‘रे ‘जड़’ विष फल जड़ की ।
देती दुख बढ़ चढ़ ही ॥
तुमने संतोष रखा ।
धन ! थारा होश सखा ॥ २४५ ॥
ॐ नमः
स्वा-नंद-संतोष
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
राग-द्वेष छोड़े के ।
त्याग भेष ओढ़ के ॥
शुद्ध भावना रखी ।
सिद्ध गाँव नौ दिखी ॥ २४६ ॥
ॐ नमः
शुद्ध-भाव पर्याय
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सुख न पराधीनता ।
दुख भरा रु दीनता ॥
धर्म छू स्वतंत्र सो ।
कर्म तंत्र धू अहो ॥ २४७ ॥
ॐ नमः
स्वतंत्र-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
लखी नासिका अणी ।
तकी आतमा घनी ॥
चिन्त मणी हाथ में ।
आज बात-बात में ॥ २४८ ॥
ॐ नमः
आत्मस्-स्व-भाव
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
लाठी ठुकराई ।
माटी विसराई ।
चित् परिणाम सदा,
पाँती शिवराई ॥ २४९ ॥
ॐ नमः
परम-चित्-परिणाम
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
खोली दृग पाटी ।
नापी डग घाटी ।
स्वरूप चिद्रूपा,
शिव राधा साथी ॥ २५० ॥
ॐ नमः
चिद्रूपस्-स्व-रूप
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
राती जग बीते ।
थाती दृग तीते ।
गुण चिद्रूप अहा,
भरम करम रीते ॥ २५१ ॥
ॐ नमः
चिद्रूप-गुण
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
आत्मा आखर ढ़ाई ।
पढ़े, पूरण पढ़ाई ॥
स्नातक आप अकेले ।
साधक इक अलबेले ॥ २५२ ॥
ॐ नमः
परमस्-नातक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
सार्थ ‘अ’ ज्ञा तक आखर ।
साध आज्ञा जिन सादर ॥
आख़िर शिव जा लागे ।
चाकर दिव बढ़भागे ॥ २५३ ॥
ॐ नमः
स्नातक-धर्म
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
अबकी ठाना ।
अब जग जाना ।
सिद्धम् सिद्धम्,
सब जग जाना ॥ २५४ ॥
ॐ नमः
सर्वा-वलोक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
आगे दिव से ।
शिव जा निवसे ।
सिद्धम् सिद्धम्,
भुव दिव हरषे ॥ २५५ ॥
ॐ नमः
लोकाग्-ग्रस्-थित
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
कण कण किरणों से छूता ।
रवि तुम संज्ञान अनूठा ॥
तुम व्यापक लोक अलोका ।
हित सौख्य निराकुल ढोका ॥ २५६ ॥
ॐ नमः
लोका-लोकव्-व्यापक
सिद्धा-यस्-स्वाहा ।
महा अर्घ
जा सिद्धालय बैठे हैं ।
भीतर गहरे पैठे हैं ॥
आ सकने भीतर अपने ।
अपने कर सकने सपने ।
जल, गंधाक्षत, दिव्य पुष्प, चरु,
दीप, धूप, फल भेंटे हैं ॥
भीतर गहरे पैठे हैं ।
जा सिद्धालय बैठे हैं ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाप
असि आ उसा नमः
(मंत्र का 108 जाप करें।)
जयमाला
आओ सिद्धों की जय बोलो ।
अपना मैला दामन धो लो ॥
जैसे कंचन पाहन सोना ।
जीव अपावन पावन होना ।
बचने लख चौरासी जोना ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ १ ॥
कर्म शुभाशुभ भोगे प्राणी ।
नाश कर्म, नृप शिव रजधानी ।
लाने दृग खुशियों का पानी ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ २ ॥
खड़ग रतन त्रय पाप प्रहारा ।
सार्थ ‘लब्ध’ नव, गुण श्रृंगारा ।
शिव वधु से करने दृग चारा ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ३ ॥
नूर सूर चन्दा बढ़ पाया ।
युगपत् लोका-लोक दिखाया ।
करने एक किनारे माया ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ४ ॥
समय एक ले ऋजु गति चाले ।
जा शिव लगे, न फिरने वाले ।
हित शिव बनने भोले भाले ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ५ ॥
सिद्ध अमूरत ज्ञान शरीरी ।
किंचित् न्यून शरीर अख़ीरी ।
पाने परिणति धौरी-क्षीरी ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ६ ॥
अक्ष विषय से हट सुख दूजा ।
सुख निर्बाध सिद्ध नभ गूँजा ।
शिव तक यूँहि रचाने पूजा ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ७ ॥
भूख न प्यास निरर्थक भोगा ।
औषध विरथा काँस न रोगा ।
हित विमुक्ति दुख प्रद संयोगा ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ८ ॥
जयतु भूत, भावित, संभावित ।
सिद्ध ज्ञान, दृग्, तप, नय, चारित ।
हित वृत शुचि अनुमत, कृत, कारित ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ ९ ॥
सद्-गति कर्मों का क्षय होवे ।
दुख क्षय, लाभ रतन त्रय होवे ।
सुमरण जिन गुण सञ्चय होवे ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥
अपना मैला दामन धो लो ।
आओ सिद्धों की जय बोलो ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
*श्री सरसुति-मंत्र*
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षूम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
आओ भक्ता आओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।
दीवा घृत भर लाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
आओ भक्ता आओ ‘रे ।।
दुखियारिन रानी मैना ।
चैन-करार न दिन-रैना ।
देख-देख पति की पीड़ा,
बस ढोले पानी नैना ।।१।।
जा पहुंची जिन मन्दरिया ।
दिखे साधु जिन मन-दरिया ।
मिल चाला कोई अपना,
झल चाला नयनन दरिया ।।२।।
अपना पुण्य करो गाढ़ा ।
मुनि बोले अशीष म्हारा ।
धारा सिद्ध-यंत्र ढारो,
कार्तिक, फागुन, आसाढ़ा ।।३।।
आया पर्व अठाई है ।
पूजन सिद्ध रचाई है ।
गन्धोदक ले सिर माथे,
कर्म निकाच विदाई है ।।४।।
पापोदय पलटी खाया ।
काम-देव कंचन काया ।
गूँजा ‘सति मैना सुन्दर’,
धरती-अम्बर जयकारा ।।५।।
मोती नयन झिराओ ‘रे ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ‘रे ।
मिलकर कीरति गाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।।६।।
सर्व-विघ्न-शान्ति मंत्र
नमोर्-ऽहते भग-वते
प्र(क्)-क्षी-णाशेष दोष कल्-मषाय
दिव्य तेजो मूर्-तये
श्री शान्ति-नाथाय शान्ति-कराय
सर्व विघ्न(प्) प्र-णा-शनाय
सर्व रोगाप मृत्यु वि-ना-शनाय
सर्व पर कृच्-छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव वि-ना-शनाय
सर्वा-रिष्ट शान्ति-कराय
ॐ ह्राम् ह्रीम् ह्रूम् ह्रौम् ह्रः
अ, सि, आ, उ, सा नमः
मम सर्व विघ्न शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व रोगाप-मृत्यु शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व पर कृच्-
छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्वा-रिष्ट-शान्तिम्
कुरु कुरु
मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा
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