उत्तम आर्जव धर्म विधान
*समर्पण भावना*
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
पंच मेरु पूजन विधान
प्रथम सुदर्शन नाम,
विजय, अचल, मंदर तथा ।
विद्युन्-माल ललाम,
पंच मेरु हरते व्यथा ॥
वन इक-इक दिश चार,
वन-वन जिन गृह एक ।
षोडश अकृतिम न्यार,
नुति सविनय सर टेक ॥
जल दो, ढाई द्वीप,
मिल अस्सी जिन धाम ।
होने वजनी सीप,
डबडब नैन प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमा-समूह !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दोहा
टूट, पलक पीछे जुड़ूँ,
चल जल नक़्शे कद्म ।
जन्म, मृत्यु मेटूँ जरा,
भेटूँ जल पद-पद्म ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन-से महका चलूँ,
घिसने बाले हाथ ।
भेटूँ चन्दन, अपहरूँ
भवाताप जिननाथ ! ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
छिलका फिर लाली हटे,
वच अक्षत दूँ कान ।
भेटूँ अक्षत, पा सकूँ
पद अक्षय भगवान ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी
जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
कहूँ न कुछ, सह लूँ सभी,
हँसें शूल बिच फूल ।
दिव्य पुष्प भेटूँ तुम्हें,
काम चटाने धूल ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
इक दूजे का साथ दे,
सुर-व्यंजन की जीत ।
भेटूँ नेवज हाथ ले,
मेंटूँ क्षुधा अमीत ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
तिल तिल जल रोशन करे,
स्वयं स्याह मुख दीव ।
जगा ‘दीव’ अपना बनूँ,
आने आप क़रीब ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
धूप कहीं भी जा रखो,
दौड़ा आता लोक ।
न-फरत सुन, गुण गुन चलूँ,
भेंट धूप, दे धोक ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
नाम सार्थ विरछा बना,
सफल झुका कुछ डाल ।
भेंटूँ फल, भेंटो मुझे,
मोक्ष महा फल न्यार ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
जल, गन्धा-क्षत, पुष्प, चर,
दीप, धूप, फल, अर्घ ।
भेंटूँ, मेंटूँ अघ-तिमर,
भेंटो स्वर्ग-पवर्ग ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
पंच मेरु अर्घ
वन्दन…अभिनन्दन ।
वन भद्रशाल, नन्दन ॥
सौ-मन-सरू पाण्डुक वन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥
मेरु सुदर्शन प्रथम विशाला ।
उपरि चार वन जिन गृह चारा ॥
मिल षोडश अकृतिम जिनधामा ।
हित शिव धाम अनंत प्रणामा ॥
ले जल, फल, चन्दन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं सुदर्शन-मेरु सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वन्दन…अभिनन्दन ।
वन भद्रशाल, नन्दन ॥
सौ-मन-सरू पाण्डुक वन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥
मेरु विजय अद्वितिय विशाला ।
उपरि चार वन जिनगृह चारा ॥
मिल षोडश अकृतिम जिनधामा ।
हित शिव धाम अनंत प्रणामा ॥
ले जल, फल, चन्दन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं विजय-मेरु सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वन्दन…अभिनन्दन ।
वन भद्रशाल, नन्दन ॥
सौ-मन-सरू पाण्डुक वन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥
मेरु तृतिय अन्वर्थ विशाला ।
उपरि चार वन जिनगृह चारा ॥
मिल षोडश अकृतिम जिनधामा ।
हित शिव धाम अनंत प्रणामा ॥
ले जल, फल, चन्दन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं अचल-मेरु सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वन्दन…अभिनन्दन ।
वन भद्रशाल, नन्दन ॥
सौ-मन-सरू पाण्डुक वन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥
सुमेरु मन्दर तुरिय विशाला ।
उपरि चार वन जिनगृह चारा ॥
मिल षोडश अकृतिम जिनधामा ।
हित शिव धाम अनंत प्रणामा ॥
ले जल, फल, चन्दन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं मन्दर-मेरु सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वन्दन…अभिनन्दन ।
वन भद्रशाल, नन्दन ॥
सौ-मन-सरू पाण्डुक वन ।
वन्दन…अभिनन्दन ॥
रुमेरु विद्युन्माल विशाला ।
उपरि चार वन जिनगृह चारा ॥
मिल षोडश अकृतिम जिनधामा ।
हित शिव धाम अनंत प्रणामा ॥
ले जल, फल, चन्दन ।
वन्दन… अभिनन्दन ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं विद्युन्माली-मेरु सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
सोलह कारण भावना पूजन
भावना षो-डसि अनूठी ।
प्रकृति तीर्थंकर विभूती ॥
आन पड़ती आप झोरी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
करें सविनय आह्-वानन ।
हृदय वेदी करें थापन ॥
और सन्निधिकरण न्यारा ।
करें, ले जुग नयन धारा ॥
रोम पुलकित गात ले के ।
बोल गदगद साथ ले के ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
दूसरे सब काम छोड़ी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणानि !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दिल दुखाना खूब आता ।
जुड़े क्यों कर डूब नाता ॥
डूब विरली हाथ आये ।
गंग गगरी साथ लाये ॥
है मुझे विश्वास पूरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
झूठ जब तब बोल आता ।
रहे रूठी क्यों न साता ॥
निराकुलता हाथ आये ।
गंध कलशा साथ लाये ॥
है मुझे पूरा भरोसा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
चीज इस उस चुरा लाता ।
लगे क्यों ना दुक्ख ताँता ॥
सौख्य शाश्वत हाथ आये ।
सार्थ अक्षत साथ लाये ॥
आश है विश्वास मुझको,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
आँख वश में रख न पाता ।
हाय ! मुँह की खा लजाता ॥
आत्म गौरव हाथ आये ।
सुमन सौरभ साथ लाये ॥
और मन कह रहा मेरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द ‘परि-ग्रह’ मौन बोले ।
सुन, समझ हम बने भोले ॥
हंस बुद्धी हाथ आये ।
नव्य चरु घी साथ लाये ॥
कई बारी कहा माँ ने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द जब तब गरम बोलूँ ।
नीर कम, मैं अधिक खौलूँ ॥
सीप अद्भुत हाथ आये ।
दीप अनबुझ साथ लाये ॥
मुख सुना हर-बोल मैंने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
बर्फ बनता, जल दबाता ।
ऊँट नीचे ‘गिर’ दिखाता ॥
नूप सरगम हाथ आये ।
धूप अनुपम साथ लाये ॥
वेद, शास्त्र, पुराण कहते,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
मुखौटे ऊपर मुखौटा ।
तन अनोखे मनस् खोटा ॥
सरलता चित हाथ आये ।
फल सभी ऋत साथ लये ॥
वचन दैगम्बर न झूठे,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
लोभ लालच गृद्धता मन ।
रहे कैसे स्वच्छ दामन ॥
भव्य पगड़ी हाथ आये ।
द्रव्य शबरी साथ लाये ॥
सभा शच-पत साँच खोले,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना
विधान अर्घ
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाये बिना न मोख ।
गाढ़ा पुण्य कि हो चले,
अलग अलग दूं धोक ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
भजो भावना सोलह कारण ।
भव का होता नाश है ॥
दरश विशुद्धि भावना भाई ।
झोरी प्रकृति तीर्थ-कर आई ।
शचि-पति होता दास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
भा…वन सम्पन्-नता विनय चुन ।
चुनर सितार जड़े सतिशय पुन ।
कर्मन होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
भा…वन निरति-चार व्रत शीला ।
कर्म निरंकुश पाँव नकीला ।
तट हट होता पास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
भा…वन ज्ञान अभीक्ष्ण धारी ।
निकट भव्य ! दिव-शिव अधिकारी ।
अनुभव होता खास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
आ संवेग भावना भाते ।
भव सागर, खुर-गाय बनाते ।
भी…तर होता वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
त्याग शाक्तिश: भा…वन सीझी ।
नगरी मुक्ति राधिका रीझी ।
टूकन होता पाश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
भव्य शक्तिश: तप भा…वन भा ।
लो सार्थक अन्-तरंग मनवा ।
झोरी होता पार्स है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
साध समाध अनूठी भा…वन ।
गद हर मृतु, ‘जर’-बूटी जामन ।
दल खल होता ग्रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
भा…वन वैय्या-वृत्त कारणी ।
सुख प्रदायनी ! दुख निवारणी ! ।
सुरभित होता श्वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अर्हत् भक्ति भावना साधो ! ।
आती आपद के पग बाँधो ।
नियोग होता रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
भा आचार्य भक्ति भा…वन तुम ।
माथ धरो शिव राजन् कुमकुम ।
मा…रग होता आर्ष है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
बहु श्रुत भक्ति भावना ज्योती ।
पूर्ण-प्रबुद्धि-भावना होती ।
मनहर होता पार्श्व है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
प्रवचन भक्ति भावना विरली ।
गिरी नारियल सार्थक गिर ली ।
शत्तुर होता ताश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
भा…वन अपरि-हाणि आवश्यक ।
प्रद संज्ञान, चरित, दृग सम्यक् ।
कभी न होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
भा…वन मार्ग प्रभावन ध्यायो
विभव स्वर्ग मन भावन पाओ
‘पर’ धन होता घास है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
प्रवचन वत्सल भा…वन ओ ‘री
‘सहज-निराकुल’ परिणति गोरी
मिसरी होता भाष है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाने की बस देर
हाथ हाथ सौधर्म के,
महाभिषेक सुमेर
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश लक्षण धर्म पूजन
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ ।।
हृदय वेदिका शुद्ध बनाओ ।
धर्म क्षमादिक दश पधराओ ।
आह्वानन संस्थापन सन्-निधी,
करके हरषाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्म !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
कड़वी तुमड़ी भले नहाओ,
कब मीठी होती ।
धर्म क्षमाद सिन्धु अवगाहो,
जगा आत्म ज्योति ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
गंग सिंध नदियों का पानी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
दिशा दिशा महकाता चन्दन,
पर कड़वा होता ।
दो पाण्डव रख राग जरा सा,
लगा रहे गोता ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
पर्वत मलय सुगंधित चन्दन,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
हटा ललाई, धान हो चली,
अपने सी धौरी ।
दौड़ा मृग कस्तूरी पीछे,
आखिर दम तोड़ी ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
धान कटोरे कण अनटूटे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
धन ! कांटों के बीच फूल ये,
हॅंसी खुशी रहते ।
धन्य ! भरत, जल भिन्न कमल जग,
हम भी रह सकते ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
नन्दन-वन से पुष्प अनोखे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
आटे ने घी गुड़ से मिल के,
रंग जमा लीना ।
सजग ना रहा, रहा स्वप्न बस,
वर्ष शंख जीना ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
छप्पन भोग सजा के थरिया,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
तिल तिल जल के स्वयं दिया ने,
किया उजाला है ।
ग्वाला सरसुत मात माथ रख,
मुनि बन चाला है ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
स्वर्ण दीप कर्पूरी बाती,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चूरी धूप उन्हीं हाथों में,
खुशबू दे चाली ।
फल आये जैसे, वैसे ही,
झुक चाली डाली ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
चन्दन चूर अगर कस्तूरी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सार्थक नाम गिरी सुन श्रीफल,
महंगा हो चाला ।
मृत बिन भंवर कमल बिच भँवरा,
मदिर मोह हाला ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
जगत अकेला श्रीफल भेला,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
गंगा जल, मलयागिर चंदन,
अक्षत अनटूटे ।
दिव्य पुष्प, अरु चरु, मण दीपक,
गंध दश अनूठे ।।
श्री फल मिला द्रव्य सब आठों,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
दोहा
हैं स्वभाव अपने सखे,
उत्तम क्षमादि धर्म ।
बनती कोशिश पाल के,
पा लो दिव-शिव शर्म ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जयमाला
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।
किस ग्रन्थ न विस्तारे हैं ।।
दे क्रोध तसल्ली झूठी ।
है उत्तम क्षमा अनूठी ।।
करबद्ध देव ठाड़े हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
रख मान, ज्ञान सपने सा ।
उत्तम मार्दव अपने सा ।।
जश वांचे ऋषि सारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
छल छीनी शिव रजधानी ।
उत्तम आर्जव वरदानी ।।
नभ गूंजे जयकारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
पड़ लोभ नारकी जोना ।
है उत्तम शौच सलोना ।।
टकते चुनरी तारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
कह झूठ टूक विश्वासा ।
सत्-धर्म पूर्ण मन आशा ।।
प्रद चक्र सहस आरे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
वश आलस निज-निध दूरी ।
उत्तम संयम कस्तूरी ।।
करते वारे न्यारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
व्रत विरत जीव जग डोला ।
उत्तम तप धर्म अमोला ।।
मण अक्षर उजियाले हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
विष ‘विष’य शब्द इठलाता ।
धन ! त्याग धर्म एक त्राता ।।
भव जल तारण हारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
ग्रह परि-ग्रह रिश्तेदारी ।
आकिंचन धर्म प्रभारी ।।
अलकापुर गलियारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
बाहर कछु…आ, बहु धोखा ।
उत्तम ब्रम-चर्य अनोखा ।।
सुख ‘निराकुलम्’ द्वारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
दोहा
दश धर्मों को पाल के,
सूर बनें अरिहन्त ।
सिद्ध शिला फिर जा वसें,
वन्दन कोटि अनन्त ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश धर्म अर्घ्य
उत्तम क्षमा धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
उत्तम मार्दव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
उत्तम आर्जव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
उत्तम शौच धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
उत्तम सत्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
उत्तम संयम धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सयंम धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
उत्तम तप धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम त्याग धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
उत्तम आकिंचन धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ॥ ९ ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
आर्जव धर्म धारी
आचार्य छत्तीस अर्घ
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
नाम गोत…माँ पाँत ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री गणी गौतम मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
नाम सुधर…माँ ख्यात ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री सुधर्म स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
बीच नाम माँ नाम ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
विनय समेत प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जम्बू स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
माँ धरणी धर सेन ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन रातरि रैन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य धरसेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
पुष्पदंत नव जात ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पुष्पदंत स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
माँ भू…तः बल नाम ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
विनय समेत प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भूतबली मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सार्थ ‘बाह’ म…भ-भद्र ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन हित वृत अद्र ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भद्रबाहु स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
नामरु पद…माँ नन्द ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य कुंदकुंद मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
उ…मा स्वा…म विख्यात ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य उमा स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सार्थक भद्र स…मन्त ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समन्त भद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
‘सेन’ देव, गुरु, मात ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य देव सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
स्वा…म पूज्या पाद ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन सत् नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पूज्य पाद स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
जल जो…गिर्-माँ इन्द ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य योगीन्दु देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सिध…‘म’ पूर्व-सुत सेन ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन रातरि रैन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
‘अंक’ ‘मात’ अकलंक ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन लाख असंख ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अकलंक देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
मुन, माँ धुन जिन सेन ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन रातरि रैन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जिन सेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
माँ भद्रा गुणकार ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बारम्बार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणभद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सार्थक ‘विद्या नन्द’ ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या नन्द स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
शब्द ‘म’ सिंह इ…भ बाद ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन, मय जय नाद ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादीभ सिंह सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
‘चन्द’ अमृत माँ बोल ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन, अन्तर् खोल ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अमृत चंद्र सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
वीर नन्द जिन वाण ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन हित कल्…यान ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर नन्दी स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सगुण ‘धरा’ माँ भाँत ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन शत नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणधर स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
‘शश ने माँ’ ली माँग ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
नमन झुका उत्तमाँग ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य नेमिचंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
‘वर…सभ’ यत श्रुत पुत्र ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन पुण्य निमित्त ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य यति वृषभ सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २४ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
चरित तुंग माँ-मान ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन हित कल्…यान ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य मानतुंग देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २५ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
जन…‘मा’ मूला-चार ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बारम्बार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वट्टकेर सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २६ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सार्थक मा…नक नन्द ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य माणिक्य नन्दी देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २७ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सेना रव धुन ओ…म् ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन छूने व्योम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य रविषेण स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २८ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
शुभः चंद्र…मा ‘स्यात्’ ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन शत नत माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शुभ चंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २९ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
वा…आदी श्रुत सन्त ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादि राज सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३० ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
सिन्ध शांति नेकान्त ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
नुति हित परिणति शांत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शांति सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३१ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
गुरु माँ भारति वीर ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन उड़ा अबीर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३२ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
रति स्वर-श्रुति शिव पोत ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन हित दिव ज्योत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शिव सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३३ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
फिरके फिर के ज्ञान ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन हित कल्…यान ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य ज्ञान सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३४ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
पाया विद्या नाम ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
विलय समेत प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३५ ॥
सुन ‘मा…या’, माई चुना,
समय सार…गा-ग्रन्थ ।
कोटि कोटि वन्दन पुनः,
वन्दन बार अनंत ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३६ ॥
घट जल, चन्दन, अक्षत दाने ।
चुन वन नन्दन पुष्प सुहाने ॥
व्यञ्जन, दीप, धूप, फल भेंटूँ ।
सूर आप जैसा तम मेंटूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्वा-चार्य परमेष्ठि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३७ ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
उत्तम आर्जव धर्म जयमाला
महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।
शकुनी हाथ थमा के गादी ।
पिता निभा परिपाट अनादी ।।
पट उतार देते जा वन में ।
लट उखाड़ लेते इक छिन में ।।
साधा सुमरण सुमर मंत्र नवकार ।
महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।।१।।
राजा बन शकुनी हुंकारा ।
कहो शत्रु जग कौन हमारा ।।
मंत्री-गण बोले इक सुर में ।
चुभें फॉंस कुरु-वंशी उर में ।।
कल नासूर बनें, दो फेंक उखाड़ ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।२।।
बे-लगाम मति रूपी घोड़ा ।
‘दीना’ नृप शकुनी ने दौड़ा ।।
वह जा रुका जगह अनजानी ।
मन मानी हिस्से मनमानी ।।
बुन चाला मकड़ी के जैसा जाल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।३।।
कुरु वंशी धृत-राष्टर राजा ।
दिशा दिशा जश जिनका गाजा ।।
पर न आँख में उनके ज्योती ।
भेंट रहे प्रभु-पद दृग मोती ।।
उन्हें बहिन दे, क्यूँ न करूँ उपकार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़।।४।।
अर मैना सुन्दर, गांधारी ।
प्रतिभारत प्रति-भारत नारी ।।
ना अधिकांगन, मैं अर्धागंन ।
बांध चली कह पाटी आँखन ।।
शकुनी आया साथ बहिन ससुराल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।५।।
प्यारा भांजा, मामा प्यारे ।
रहा न ‘बच्चा’ विष घोला ‘रे ।।
भरसक पट्टी उलट पढ़ाई ।
भाई-भाई ठान लड़ाई ।।
युद्ध महाभारत उतरे बन काल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।६।।
सौ भांजे सोये चिर निद्रा ।
मामा मन उमडे़ आनन्दा ।।
अहा ! शत्रु जड़ मूल मिटाया ।
छला किसे ? पर, समझ न आया ।।
खुश जो अपने पैर कुल्हाड़ी मार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्माय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री स्वर-श्रुति मंत्र
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ॥
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ॥
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ॥
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ॥
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ॥
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ॥
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दिस ॥
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।
क्षमा धर्म की आरती पहली ।
सक्षम जिसने गुस्सा सह ली ।।
बोध जगाओ ।
क्रोध नशाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१
उत्तम मार्दव आरती दूजी ।
छीने मान ज्ञान की पूँजी ।।
बुध कहलाओ ।
मद विहसाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।२
उत्तम आर्जव आरति तीजी ।
बस माया वश अँखियां भींजी ।
सुभट कहाओ ।
कपट मिटाओ ।।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।३।।
शौच धर्म की आरती चौधी ।
घटा न लोभ, रटी बस पौथी ।
लोभ घटाओ ।
लौं प्रकटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।४।।
सत्य धर्म की आरती पंचा ।
झूठ बोल पद दूर विरंचा ।
सत कह जाओ ।
चित्त चुराओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।५।।
उत्तम संयम आरति छट्टी ।
आंख असंयम मोहन पट्टी ।
अलस हटाओ ।
दरश रिझाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।६।।
परमोत्तम तप आरति सप्तम ।
कर इच्छा निरोध गढ़ परचम ।
लगन लगाओ ।
तपन मिटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।७।।
त्याग धर्म की आरति अष्टा ।
परिग्रह पीछे अरि ग्रह दुष्टा ।
राग मिटाओ ।
फाग मनाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।८।।
धर्म अकिंचन आरति नौवी ।
मेरा कुछ ना कह देखो भी ।
आतम ध्याओ ।
तम विघटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।९।।
धर्म ब्रह्मचर आरति दशमी ।
छव ब्रह्मचर बढ़ सहस्र रशमी ।
भीतर आओ ।
जी’ तर आओ ।।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१०।।
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