श्री सिद्ध जी
सार्थक नाम है
सिद्ध भगवान का,
जो जो अभीष्ट था,
वह सिद्ध कर लिया जिन्होंने
वे यथा नाम तथा गुण
सिद्ध भगवन्त हैं
वह क्या ?
तो
‘सु’ यानि ‘कि अच्छा लगे
‘ख’ यानि ‘कि इन्द्रियों के लिए,
वह थोड़ा बहुत नहीं अनन्त, और
फिर बाधा रहित अव्याबाध
सुख पा लिया है
चिच्-चिदानन्द स्वरूप है,
अशरीरी है,
यदि शरीरी कहना ही है,
तो ज्ञान शरीरी हैं
लोक के अग्र भाग में
शाश्वत विराजमान हैं
आठ कर्मों के पूर्णतः क्षय हो जाने पर
क्रमश: आठ गुण से मण्डित हैं
सर्वप्रथम
ज्ञानावरणी नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
लोक अलोक युगपत् यानि ‘कि एक साथ
जानने की सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अनंत ज्ञान नाम का गुण है
दर्शनावरणी नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
समस्त पदार्थों के सामान्य प्रतिभास की
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अनन्त दर्शन नाम का गुण है
वेदनीय नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
बाधा रहित आनन्दमय
अनन्त सुख उपभोग की
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अव्याबाध नाम का गुण है
मोहनीय नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
अटूट आत्म श्रद्धान रूप
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो क्षायिक सम्यक्व नाम का गुण है
आयु नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
एक जीव के अवगाह क्षेत्र में
अनन्त जीव समा जाते है
ऐसी सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अवगाहनत्व नाम का गुण है
‘नाम’ नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
इन्द्रिय गम्य स्थूलता के अभाव रूप
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो सूक्ष्मत्व नाम का गुण है
गोत्र नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
उच्च, निम्नता के अभाव रूप
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अगुरु-लघुत्व नाम का गुण है
अन्तराय नामक कर्म के
पूर्ण क्षय होने से
अनन्त शक्ति रूप
सामर्थ्य प्रकट हो जाती है
जो अनन्त वीर्य नाम का गुण है
सुनो,
सुनते हैं
तेरहवें गुणस्थान के बाद
जब योग निरोध किया जाता है
तब चौदहवाँ गुणस्थान जिसका नाम
अयोग केवली है
उसका समय पाँच हृश्व स्वर
अ, इ, उ, लृ, ऋ बोलने में लगने वाले
समय के बराबर है
फिर बतलाते हैं
‘कि मुक्त जीव एक समय मात्र में
ऋतु गति से ईषत् प्राग्-भार नाम की
सिद्ध शिला पर जाकर के
विराजमान हो जाता है
सादि अनन्त काल के लिये,
वापिस पुर्वजन्म नहीं होता है उसका
एक बात बतलाऊँ,
तीनों लोकों में जो भी उत्तमोत्तम सुख है
उससे अनन्त गुणा सुख
सिद्ध भगवान् एक समय में
अनुभूत करते हैं
पता है,
तिलोय पण्णती नाम के ग्रन्थ से
पता लगता है ‘कि
एक समय में जघन्य से एक
और उत्कृष्ट से १०८ जीव सिद्ध बनते हैं
छः माह और आठ समय में
नियम से ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं
लगातार आठ समयों में
३२, ४२, ६०, ७२, ८४, ९६, १०८,
१०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं
उसके बाद 6 महिने तक
कोई भी जीव सिद्ध नहीं हो सकेगा
अतः जघन्य से एक समय
और उत्कृष्ट से ६ माह के
अंतर से ६०८ जीव मोक्ष पा सकते हैं
सुनो,
ऐसे अद्भुत स्थान पर
पहुँचने का मार्ग भी बताया है ग्रन्थों में,
मोक्ष शास्त्र ही रख दिया नाम उसका
पूर्वजों ने
पहला ही सूत्र है जिसका
‘सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः’
सच्चा आत्म श्रद्वान
यानि ‘कि
सप्त तत्त्व ज्ञान,
यानि ‘कि
निज को निज पर को जानना
और राग को आग मानकर
विरागता से अनुराग रखना
सदाचरण रुप सम्यक् रत्नत्रय
मोक्ष का मिलकर तीनों एक मार्ग है
जैसे अंगुली एक रहती है
पोर गिनते हैं तो,
गिनती तीन आती है
बिलकुल इसी प्रकार,
रतन तीन है मार्ग एक
आचार्य श्री जी
देखिये आचार्य शब्द स्वयं ही कह रहा है
आचार, सदाचार, पंचाचार का
पालन इस तरतीब के साथ,
बड़ी सहजता से करना,
‘कि देखने वाले का मन भी सदाचार
पालन करने के लालायित हो चले
रहित प्रमाद चर्यान् विशेषण से
अलंकित रहते है आचार्य भगवन्
व्यपेत-निद्रान् हैं
सदैव सजग रहते हैं
दूसरी शाला की, दूसरी कक्षा में
शिक्षा जो पा रहे होते हैं
खूब जानते हैं
जगत में रहना ‘कि जगत रहना है
एक नहीं आठ-आठ मुखबिर
दीवाल से कान सटाये हुये हैं
छोटा सा भी छिद्र देखा नहीं ‘कि
मुँह फाड़-फाड़ के चिल्लाते हैं
नरक निगोद तक यात्रा
कर आता है निनाद उनका
भिन्नार्त रौद्र पक्षान् कहा गया है
आचार्यों के लिये,
धरती धरे रहते हैं,
उड़ते नहीं है
आर्त और रौद्र ध्यान के पंख लगाकर के
पहुँचे हुये साधक जो ठहरे
हम लोग करते होंगे आरती
‘कि ध्यान आरत मिट चलें
पर आचार्य भगवन्तों के लिए
आरती करते हुए
सपनों में भी न देख होगा
सच,
छाया उसे जरूरी,
जिस पर हावी हो माया ततूरी
गणस्य संतुष्टि करान्
मतलब गण के लिये गणनीय मानते हैं
आचार्य भगवन् यानि ‘कि
कीमती ही नहीं, बेशकीमती
तभी तो ऐसी कला जानते हैं
‘कि ग्राहक रूठ न पाये,
न आज, न आजकल,
न कल, कभी भी
वात्सल्य ही इतना देते है
‘कि बच्चा, माँ की बात टाल ही न सके
खूब जानते हैं रिश्ते रिसते जो रहते हैं,
धागा ज्यादा खींचने से टूट जो चलता है
फिर गाँठ पड़ चलती है
‘अखण्डित स्वाध्यायान्’
खुल चले अपना अध्याय
ऐसा कुछ पल पल पढ़ते हैं
ज्यादा नहीं आखर ढ़ाई
और क्या ?
यही तो कहता है, शब्द प…ढ़ाई
माँ की सिख…लाई बात भूलते नहीं है
खूब बखूब याद होगा हमें,
कई बार जो देखा है,
‘कि माँ दूध में शक्कर डालती थी
तो चम्मच से चलाना नहीं भूलती थीं
दूसरे हाथ में चम्मच रक्खे रहती थी
और जब कभी
माँ की जगह पापा ने या फिर स्वयं हमनें
दूध तैयार किया होगा
तो दूध खत्म हो चलता था
और शक्कर नीचे जम जाती थी
पता है जम शब्द बड़ा खतरनाक है
ज्ञान भी इसी तरह जम चला
तो ‘रात भर पीसना,
और पारे में उठाना’
ये कहावत चरितार्थ हो चालेगी
सो बोल घोलते रहते हैं आचार्य भगवन्
बहुजन हित कर चर्यान्,
स्वांतः सुखाय नहीं होते हैं
कारज आचारण
सर्वतोभद्र,
किसी को कह सकते हैं वर्तमान में
तो आचार्य परमेष्ठी ही हैं
जिन के मुट्ठी भर हृदय में
सारी सृष्टि झूलती रहती है
शोभन व्यवहारान् विशेषण भी
आचार्य महाराज का है
लोक व्यवहार विद् होते हैं
और पारलौकिक भी यही हैं
यही सामांजस तो
अनेकान्त देव की सेव का परिणाम है
और सुनिये,
इतना ही नहीं,
एक बड़ा प्यारा विशेषण आता है,
आगम में आचार्यों का
‘गुण मणि विरचित वपुषः’
मतलब गुण रूपी मणियों से
रचना की गई है
आचार्य भगवन् के शरीर की
धन्य !
ऐसे सार्थक नाम
महात्मन् के चरणों में कोशिश: नमोस्तु
पता है, आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण हैं
१२ तप, १० धर्म, ५ आचार,
६ आवश्यक और ३ गुप्तियाँ
हाई…को
‘अशन शून,
वृत्ति परिसंख्यान,
उदर ऊन’
‘रस का त्याग,
विविक्त शय्यासन,
व कायक्लेश’
‘बहिरंग छ: व तप
अंतरंग छः प्रायश्चित्त,
‘विनय, ध्यान, स्व…ध्याय
व्यत्सर्ग व वैय्यावृत्त’
‘क्षमा, मार्दव,
आर्जव, शौच, सत्य,
संयम, तप’
त्याग, सद्धर्म,
उत्तम आकिंचन्य व ब्रह्मचर्य’
आचार पन,
चारित्र, ज्ञान, तप,
वीर्य दर्शन’
‘षडावश्यक
स्तुति, समता यानि ‘कि सामासिक’
‘प्रतिक्रमण,
वन्दना, प्रत्याख्यान व कायोत्सर्ग’
‘पहली मन,
दूजी काय,
तीसरी गुप्ति वचन’
श्री उपाध्याय परमेष्ठी जी
सुनो,
यह उपाध्याय परमेष्ठी
और इसी शब्द की तुकबन्दी को
पूर्ण करता हुआ एक शब्द और है
स्वाध्याय,
अर्थात्
उप यानि ‘कि समीप
सो जिनके समीप
स्व यानि ‘कि अपना अध्याय
खुलने का जोग बैठ सके
उन्हें उपाध्याय भगवन् के नाम से
जाना जाता है
आचार्य संघ में यह
आचरण आदर्श कहे जाते हैं
आदर्श यानि ‘कि आईना,
दर्पण,
हाँ हाँ दर्प…न
जिन्हें अपने सागर जैसे असीम
ज्ञान का रत्ती मात्र भी घमण्ड नहीं होता है
जिस प्रकार आईने में चेहरा देखकर के
लोक-बाग अपने चेहरे की
कालिख दूर करते हैं
वैसे ही संघस्थ और साधु गण
इन्हें देख-देख चारित्र चूलिका छू लेते हैं
इनके मूल गुण २५ हैं
ग्यारह अंग और चौदह पूर्व
इन्हें पाठक भी कहते हैं
पाठ ऐसे कर्ण द्वारों से मिसरी घुरे
स्वरों के माध्यम से प्रवेश कराते हैं
‘कि सीधे जाकर
हृदय पटल पर दस्तक देते है
सो पाठी,
पाठक नाम से जगत्प्रसिद्ध हैं
उपदेशक कोई है तो यही हैं
जो वगैर लाग-लपेट के
अज्ञान अंधकार दूर कर देते हैं
सब कुछ देने के बाद भी
कुछ पाने की आशा से
सामने वाले का मुँह तॉंकना
इन्हें स्वप्न के भी नसीब नहीं होता है
देशक,
देशना कर्ता,
उपदेष्टा कुछ भी कह दो
पाती जाके सीधी इन्हीं के
सांचे द्वारे पर जाकर दस्तक देगी
साधु परमेष्ठी
बड़ा प्यारा शब्द है साध
देव, शास्त्र, गुरुओं ने
जो दिया है कृपा करके
न सिर्फ सर्वार्थ सिद्धि,
बल्कि सिद्ध शिला
जहाँ तक रास्ता है,
वह साध लो,
देर मत करो,
अपने साथी कई,
तरंगे मन की मार के
लग चले अपने देश
हाँ ! हाँ ! !
साँझ से पहले पहले
अब हमारी बारी है
कुछ कर दिखाने की
चलो उठो बांधो कमर
सुनो,
ये ज्यादा बोलने में विश्वास न रख करके
दिखाने में भरोसा रखते हैं
सो मौन रहने से मुनि नाम से चर्चित है
एक नाम इनका श्रमण भी है
श्रम…न
यानि ‘कि भाग-दौड़ से
पीछा छुड़ा चुके हैं
होड़ में भाग लेने का
मन ही नहीं करता है इनका अब
इन्द्रियों को अपने वेश में रखते हैं
सो संयत, संयमी कहलाते हैं
आगार यानि ‘कि घर
अब इनका घर, परिवार जो नहीं साथ में
सो अनगारों में गणना होती है इनकी
दिग् यानि ‘कि दिशाएँ ही
इनकी अम्बर यानि ‘कि वस्त्र हैं
सो दिगम्बर भी कहलाते हैं
निर्ग्रन्थ भी यहीं है,
ग्रन्थ यानि ‘कि गाँठ सिर पर नहीं रखते हैं
और रिश्ते रूपी धागे में भी
कैंची ही नहीं चलाते हैं
गाँठ तो बाद की प्रक्रिया है
सो निर्ग्रन्थ सन्त हैं
मूल गुण २८ है इनके
जो इनकी चर्या में
चार चांद लगाते हैं
हाई…को
‘अहिंसा, सत्य,
अचौर्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह’
‘ईर्या, आदान निक्षेपण,
एषणा, भाषा, उत्सर्ग’
‘इन्द्रिय रोध,
रसना, घ्राण, चक्षु, स्पर्शन, श्रोत्र’
‘भूमि शयन,
नगन अन्हवन
केश लुंचन’
‘संस्थित भुक्ति,
अदन्त धावन,
व सकृत भुक्ति’
श्री जिन धर्म जी
सुनिये,
करुणा करना
आये हुये शरणागत के लिये शरणा देना
अहिंसा पालना,
मति हंसी राखना
क्षमा भाव, सहज स्वभाव
इन सभी को
जिन धरम के नाम से जाना जाता है
इतना सुनते ही,
सहसा एक प्रश्न दिमाग में कौंध चलता है
‘कि इन्हें नव देवता में गिना हैं
और गुणात्मक प्रारूप खींच रहे हैं आप
यह देवता हैं कौन ?
रंग-रूप क्या है इनका ?
दिखाई भी देते हैं या नहीं ?
दर्शन नव देवता के करना चाहिए,
पर यह कौन हैं ?
यदि धर्म-चक्र मानें
तो वह तो तीर्थकर भगवन्त के
विहार के समय आगे आगे चलता है
१००८ आरे हैं जिसके
सो वर्तमान में तो दिखाई ही नहीं देता है
सो सिर्फ अपने अपने
ज्ञान में झलका लेना है क्या ?
या फिर कोई और ही प्रारूप
देव, शास्त्र, गुरुओं ने
कृपा करके बतलाया है
सो कहिये ?
देखिये,
भले कुछ कुछ नहीं
सभी के सभी
अक्षर यही के यही हैं
अ…ध…र
लेकिन बड़ा अन्तर है
कोई गुण अधर में नहीं लटका करते हैं
कोई न कोई आ…धा…र तो
रहता ही है ना
बस,
तो ये गुण जिसमें चरितार्थ हो चलें
यानि ‘कि मतलब सीधा सीधा है
इन गुणों से मण्डित
अपना अपना आतम राम
वह देव है
और ऐसा वैसा भी नहीं
क्रमश: क्रमांक ही कह रहा है
छटा छटाया देव है यह
सो यह ऐसा ही मानिये
‘कि नील कमल लिखिये
या फिर कागज़ पर
नीला कमल बना दीजिये
फिर लिखना
कोई काम का नहीं रह जाता है
है ना
वैसे ही
जब हम किसी ऐसी महामारी की
चपेट में आ जाते हैं
जो पूरे देश को तबाह करने पर तुली हो
तब राजाज्ञा के अनुसार
घर से बाहर जाने की सख्त मनाही हो
या फिर माता बहिनें
जब अशुद्धि से रहती हैं
तब देव-दर्शन नहीं मिलें
उस समय का वैकल्पिक देव है यह
छटा छटाया देवता
पर ध्यान रक्खे हम
यदि इस समय हम करुणा,
दया, क्षमा, सहजता,
अहिंसा भुला देंगे
तो दर्शन यानि ‘कि
सम्यक्-दर्शन को ही भुला देंगे
सो बड़ा आसान सा लग रहा होगा
यह देव दर्शन ‘कि अच्छा है
‘हर्र लगे न फिटकरी
और रंग चोखा’
न किसी को नमस्कार करना,
न कहीं आना जाना
नेत्र झुकाये
और कर लिये निज दर्शन
और बन चला काम
पर ध्यान रखना
दूसरों की परीक्षा लेना
बड़ा सरल है
खुद को कितने अंक दिये जाये
सच्चा मन, बड़े असमंजस में पड़ जाता है
इसलिये अच्छा है
इसे लाईफ लाईन सा
उपयोग में लाईयेगा
और फिर आपके अपने मन की
स्थिरता पर निर्भर करता है
अध्यात्म ग्रन्थ तो कहते ही है
जयतु जय भगवान्
स्व देह देवालय विराजमान
जय जयतु जय भगवान्
श्री जिनागम जी
बड़ा प्यारा शब्द है आगम
मतलब आया हुआ
तरंग क्रम से
ओंकार रूप जिनवाणी
जिसे गणधरों ने झेल करके
जन-सामान्य गम्य बना करके
दिया सार्थक रूप ‘दीया’
हमने एक नाम और सुना होगा
जिनागम का
‘श्रुत’ जिसका तात्पर्य है
‘सुना हुआ’
सो वह यहीं है
आचार्य भगवन्
अपने शिष्यों के लिए
और भव्य श्रावकों के लिए
धर्मोपदेश देते थे
और तब लोग भी
एक पाठी,
जिन्हें एक बार सुनते ही याद हो चले
और वह दो पाठी
जो दूसरी बार किसी चीज को सुन लें,
तो फिर
जीवन पर्यन्त कभी नहीं भूलते थे
शतावधानी भी रहते थे कुछ शिष्य
‘के एक से लेकर सौ तक
चीज बता दीं जिन्हें,
और वह फिर उन्हें
उसी क्रम में
सहजता से बतलाने की मेधा रखते हैं
सुनते हैं,
निकलंक के लिए दो बार,
और अकलंक के लिए
एक बार सुनते ही
पाठ याद हो जाता था
पर, हा ! हाय ! बलिहारी समय की,
धीरे धीरे बुद्धि क्षीण होती चली गई
लोग-बाग भूलने के फेरे में आ चले
तब जिनागम लिपिबद्ध हो चला
लगभग २००० वर्ष पूर्व
प्रथम शताब्दी में
आचार्य पुष्पदन्त जी
व आचार्य भूतबली जी के द्वारा
सिद्धांत ग्रन्थराज
षट्खण्डागम विरचा गया
जिसमे मंगलाचरण रूप
णमोकार मंत्र टंकोत्कीर्ण है
आगम में ‘अ’ अहिंसा का है,
‘ग’ गत-विगत-विरहित हिंसा का है
‘म’ मत करो हिंसा का है
यानि ‘कि
मतलब सीधा सीधा है
‘कि हिंसा का समर्थन करने वाले
गद्य, पद्म, वाक्य, शब्द,
अक्षर, मात्रा सभी के सभी
आगम विपरीत है
रीत सिर्फ एक अहिंसा है
देखिये,
आगम को चार भागों में
विभक्त किया गया है
प्रथमानुयोग
प्रथम है
ऐसा कहना ही नहीं पड़ता है
चूंकि शब्द स्वयं ही बतलाता है
सो जो प्राथमिक ज्ञान है
वह प्रथमानुयोग
इसमें कथा रहती है
जो कहती है
‘के कल ‘क्या था’
कैसे लोगों ने समस्या से
निजात पाई थी
Not को कैसे
वगैर रबर के yes किया था
आप ही बताईये ?
हो सकता है ना
हाँ… रबर नहीं है
पेंसिल हो है ना,
चलो ed जोड़कर
जीत हासिल कर लेते है ।
सो कहानी कहती है
क्या…हानि ?
पढ़ लीजिये ना
जायेगा कुछ नहीं,
कुछ नया मिल ही जायेगा
सुनते हैं,
सूरज जहाँ नहीं पहुँचता है
वहाँ छोटा सा
दीपक बाजी मार जाता है
इसलिये किस्से
शब्द प्रश्नवाचक लगते ही
बड़ा मार्मिक अर्थ देते हैं
‘कि किससे ?
अर्थात् किसी से नहीं,
स्वयं स्वयं जैसे है
सुनते हैं,
बोधि मतलब
रत्नत्रय और
समाधि यानि ‘कि
समता के निधान
मतलब भण्डार हैं
प्रथमानुयोग
६३ शलाका पुरुष
१६९ महापुरुष
इन सबका कर्मठ चरित्र
पुण्य पाप का फल
बताने वाला है यह प्रथमानुयोग
उदाहरण बड़े उदार रहते हैं
आनन फानन में
ऐसे अनुभव दे जाते हैं
जो अन…भव में स्वप्न में भी
नसीब नहीं होते हैं
आगम का दूसरा भेद है
करणानुयोग
बड़ा प्यारा शब्द है
अपने आपको परिभाषित करने का
सारा का सारा शब्द भण्डार
अपने अन्दर समाहित किये हुये है
देखिये,
करण
इन्द्रियों को कहते हैं,
और जिनागम में करण नाम से
तीन चीजें विवर्णित की गई है
तन, मन, वचन
और इन्हीं के निमित्त से
कर्मों का आगमन होता है
सो भाव कहिये
या परिणाम एक ही बात है
इनका तारतम्य, उतार चढ़ाव
इस अनुयोग में वर्णित रहता है
अब देखिये,
शब्द करण के
पीछे का अक्षर हटाते ही
नया शब्द निर्मित होता है
कण
जो बतलाता है
‘के
करणानुयोग में
कण-कण कैसा व्यवस्थित है
अर्थात्
लोक संरचना कहाँ क्या है
पर्वत, नदियाँ,
क्षेत्र, समुद्र इनका विस्तृत वर्णन
इसमें व्याख्यायित रहता है
अब देखिये,
शब्द क…र…न
अक्षर पलटाते ही
नया शब्द तैयार होता है
न…र…क
मतलब सीधा सीधा है
नरक, तिर्यंच, देव
और मनुष्य गतियों की क्या व्यवस्था है
यह सब कुछ
करणानुयोग के ग्रन्थों में
नख-शिख संग्रहीत रहता है
सच,
अद्भुत ग्रन्थ हैं यह
करुणा के योग के
आगम का
तीसरा भेद है
चरणानुयोग
इसे समझने के लिये
ज्यादा कुछ नहीं करना
सिर्फ अक्षर ‘आ’
शब्द चरण के पहले लगाना है
आ + चरण
मतलब आचरण संबंधी
सारी आगमिक व्यवस्था सांगोपांग
इस अनुयोग में
विवर्णित रहती है
यह चरण शब्द
अपने अक्षर पलटाकर
कुछ कुछ कहता है
‘के
च…र…न
न…र…च
न रचो पचो
किसी प्रकार से भी
माया, प्रपंच में
बनती कोशिश
संयम धारण करो
सं मतलब सु
यम मतलब मरण
हॉं ! हॉं ! !
सु…मरण करने के लिये
संयम धारण करो
आगम का चौथा भेद
द्रव्यानुयोग
द्रव्य मतलब धन
कीमती चीज
सो एक आत्मा ही है
जो वेशकीमत रखती है
उसी की चर्चा
इस अनुयोग में रहती है
अर्थात्
द्रव्यानुयोग
६ द्रव्य, ७ तत्त्व, ९ पदार्थों
की चर्चा है
जीव, अजीव, आस्रव,
बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष
यह ७ तत्त्व है
पुण्य, पाप मिल करके
यही ७ तत्त्व
९ पदार्थों कहलाते हैं
जीव, पुद्-गल, धर्म, अधर्म,
आकाश और काल
यह ६ द्रव्य हैं
हॉं !
एक बात और
इन्हें सिद्धान्त
कहते हैं
अन्त सिद्ध है जिनका
अर्थात्
इनके बारे में
मन-गढ़ंत कुछ भी
जोड़-तोड़ नहीं करनी है
सब स्वयं सिद्ध है
सच,
शब्द द…र…ब
अक्षर पलटाकर
व…र…द
मतलब वरदानी बन जाता है
श्री जिन-चैत्य जी
जिन-चैत्य,
जिन-बिम्ब,
जिन-प्रतिमा जिनेन्द्र देव की
मूरत ही नहीं
रुप शुभ मुहूरत भी है
इन्हें पाषाण मानते ही पास…ना
सम्यक् दर्शन पास नहीं ठहरता
‘पास’ नहीं
फेल हो जाते हैं
और इन्हें पत्थर मानते ही
पतझर लग जाता है
पुण्य कल्पद्रुम में
सच
दृढ़ निमित्त है यह
सम्यक् दर्शन के
इनके दर्शन मात्र से
निधत्ति-निकाचित कर्म भी
निर्जीर्ण हो जाते हैं
श्री जिन चैत्यालय जी
जिन चैत्यालय,
जिन मंदिर,
जिनालय जिनगृह,
देवालय सभी एकार्थ-वाची नाम हैं
चैत्यालय सार्थक नाम है यह
चित्त की चंचलता का
लय विलय करने के लिए
अन्तरंग
अन…तरंग बनाने के लिए
मन की तरंगें यहाँ
सहजो-शान्त हो जातीं हैं
इन मन्दिर की शिखर पर
चढ़ा कलशा
व्रत रूप मंदिर पर
कलश चढ़ाने की
याद दिलाता रहता है
इन मन्दिर की
गगन चूमती हुई पताका
पता….का है ?
जिनेन्द्र भगवान् का
पता देती रहती है
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