*णमोकार महामंत्र*
णमो अरि-हं-ता-णम्
णमो सिद्-धा-णम्
णमो आ-यरि-या-णम्
णमो उवज्-झा-या-णम्
णमो लोए-सव्व-सा-हू-णम्
पढ़िये त, थ, द, ध, न
बतलाईये
जिह्वा कहाँ छू के जा रही है,
दाँतों को
है ना
अब बोलिये
ट, ठ, ड, ढ, ण
देखिये
जिह्वा दाँतों से
कुछ ऊपर वाला हिस्सा छूती है
सो
णमो बोलते वक्त
थोड़ा सा ध्यान रखना है
दाँतों से नहीं,
‘ण’ दाँतों से कुछ ऊपर
ले जाकर जिह्वा को छुवाना है
वरना ‘ण’ की जगह
‘न’ निकलेगा
सुनिये
सिद्ध में आधा ‘द्’ है
फिर बाद में पूरा ‘ध’ है
इसलिए सिध्द न पढ़कर
सिद्ध पढ़ियेगा
अब णमो आय नहीं पढ़ना है
क्यों ?
क्योंकि हम हलन्त वाला ‘य्’ भी
इसी तरह से पढ़ते है
पढ़िये ‘आय्’
इसलिए
शुद्ध उच्चारण करने के लिये
पढ़ियेगा णमो-आ-यरि-या-णम्
अब देखिये
‘ए’ लघु नहीं होता
ये सन्ध्यक्षर है
इसलिए दीर्घ ही है
संस्कृत में
परन्तु प्राकृत में
ए, ऐ, ओ,औ यह सन्ध्यक्ष
हृश्व, दीर्घ, और प्लुत
यथायोग्य होने से यहाँ हृश्व हैं
तभी ५८ मात्राएं होती हैं
इसलिये लोए नहीं
पढ़ते समय ‘लोय’ पढ़िये
लिखिये लोए
अब पेट चिरा ‘ब’ नहीं लिखा है
‘व’ वजनदारी वाला है
सव्व पढ़ियेगा
जरा ध्यान दीजिए
‘ह’ में
बड़े ‘ऊ’ का मात्रा लगी हुई है
सा-हू-णम्
हाँ…
अब सही उच्चारण हुआ
कभी हमनें
दादी-नानी के मुख से सुना होगा
णमोकार मंत्र
आर्या छन्द में लिखा गया है
प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध है
इसलिए
इसे सही ढंग से पढ़ने के लिये
पहले पहला पद,
फिर दूसरा-तीसरा पद एक साथ,
फिर चौथा पद
और अन्त में पाँचवा पद
पढ़ के पूरा मंत्र
चार चरणों में पूर्ण करना होता है
यह पञ्च नमस्कार मंत्र
तीन श्वासोच्छ्वास में
पढ़ना चाहिये
श्वास लेते हुये पहला पद
श्वास छोड़ते हुये दूसरा पद
फिर श्वास लेते हुए
तीसरा पद
अब श्वास छोड़ते हुये
चौथा पद
और श्वास भरते हुये
पांचवे पद का ‘णमो लोए’
पश्चात श्वास छोड़ते ‘सव्व सा-हू-णम्’
पता है,
इस अपराजित मन्त्र में
३५ अक्षर हैं
इस महा मन्त्र के लिए
सर्वप्रथम
ग्रन्थराज षट्खण्डागम जी में
मंगल मन्त्र मानकर
द्वितीय शताब्दी में
लिपिबद्ध किया गया
इसके पहले
इसका पारायण
मौखिक चलता था
तभी इसे आदि मन्त्र कहते हैं
समस्त मन्त्रों का प्रारंभ
इसी मंत्र के
बीजाक्षर स्वरूप ‘ओम्’ से जो होता है
इसलिये ये मूल मंत्र भी है
अर-हंता अ-सरीरा,
आ-इरि-या तह उवज्-झया मुणि-णो ।
पढ-मक्-खर णिप्-पण्-णो,
ओं-कारो पञ्च प-रमेट्-ठी ।।
अरिहंत का ‘अ’
सिद्ध का
दूसरा पर्यायवाची नाम
अशरीरी
सो इसका ‘अ’
मिलकर अ + अ = आ
आचार्य का ‘आ’
सो मिलकर आ + आ = आ
उपाध्याय का ‘उ’
सो मिलकर आ + उ = ओ
अब साधु का
दूसरा पर्यायवाची नाम
मुनि इसका ‘म्’
सो मिलकर ओ + म् = ओम्
इस प्रकार ओम् बनता है
सुनिये,
जब मन न लगे तो
सवार्थसिद्ध इस मंत्र के लिए
कुछ जोर से उच्चारित करते हैं
जिसे बैखरी जाप कहते हैं
मध्यमा या उपांशु जप के लिये
होंठ, जिह्वा हिलें
किन्तु आवाज न आये
तथा जिसमें मन में मंत्र पढ़ना होता है
वह पश्य या पश्यन्ति जाप है
और यथा नाम तथा गुण
सूक्ष्म या परा नाम के जप के लिए
मंत्र का अवलम्बन छोड़कर
भीतरी डूब रूप
गहरे उतरते जाना,
आत्मा में खोते जाना
पर ध्यान रखना
आपा नहीं खोना है
न ही नींद के झोके लेना है
पता है ?
९ बार इसलिये पढ़ते हैं
इस मृत्युंजयी मंत्र को
‘कि ९ का अंक
अखण्ड माना जाता है
कितनी ही संख्या का
गुणा करियेगा
गुणनफल का जोड़ ९ ही आता है
और कर्मों का आस्रव
१०८ तरह से जो होता है
आलोचना पाठ में
पढ़ते हैं ना हम लोग
संरंभ समारंभ आरंभ
मन वच तन कीने प्रारंभ ।
कृत कारित मोदन करिके
क्रोधादि चतुष्टय धरिके ।।
संरंभ समारंभ आरंभ यह तीन
मन वच तन यह भी तीन
गुणक्रम से मिलकर हुए नौ
कृत कारित अनुमोदन यह तीन
वह नौ और यह तीन
गुणक्रम से मिलकर हुए सत्ताईस
अब क्रोधादि चतुष्टय
मतलब
क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार
वह सत्ताईस और यह चार
गुणक्रम से मिलकर हुए
एक सौ आठ
सो इन पापों के प्रायश्चित स्वरूप
इसे १०८ बार भी पढ़ते हैं
अंगूठे को
दायें हाथ की
मध्यमा अंगुली की
सार्थकता प्रदान करते हुए
मध्य पोर से
ऊपर उठकरके
तर्जनी कर तर्जन दबाते हुए
अनामिका के छोर तक
ले जाते हैं
और बायें हाथ की अंगुलिंयों के
१२ पोर
सो
९ x १२ = १०८ पूर्ण हुए
कि एक माला पूर्ण
फिर माला दूजी दूसरी
यानि ‘कि मालामाल
पूरी माला होने के पूर्व ही
सुनिये,
णवकार महामंत्र का ध्यान
रंगों के माध्यम से भी किया जाता है
अरिहन्त परमेष्ठी का रंग
बाल-सूर्य के जैसा
ललाई लिये हुये है
आँखों का न चुभे
ऐसा लाल रंग
जो शौर्य का प्रतीक है
अरि
यानि ‘कि शत्रुओं को भगाया है ना
अरिहन्तों ने
तभी तो नाम दिया गया है अरिहन्त
सिद्धों का चाँदी के जैसा
धवल वर्ण है,
कर्म कालिमा पूर्ण रूप से
शुक्ल ध्यान रुप अग्नि में
जो जल चुकी है
आचार्यों का पीला रंग
ज्ञान-विद्या का प्रतीक है
आचार्य
यानि ‘कि गुरु महाराज
जीवन में सुख-समृद्धि
मुक्ति के बीजांकुरित करते हैं
देखा होगा हमनें
किसी को आमंत्रित करते समय
पीले चावल
उसके घर पर रखके जाते हैं
सो ‘मोक्ष-द्वार कपाट पाटन भटा:’
जो है आचार्य भगवन्
उपाध्याय परमेष्ठियों का हरा रंग
प्रकृति का प्रतीक है
अज्ञान की विकृति निकाल कर के
संज्ञान का दीया प्रकटाते हैं
स्वस्थ्य स्व’स्थ कर देते हैं
देखा नहीं
हॉस्पिटल में हरे रंग पर्दे लगे रहते हैं
जो स्वास्थ्य लाभ देने में सहायक हैं
और सन्तों का काला रंग
सहजता, सरलता, ठण्डक का प्रतीक है
राग को आग कहा है
विषय में विष भरा है
जैसे ही इससे नाता टूटा
‘के एक अनूठा-सुख मिलता है
हृदय में एक
हटके कुछ ठंडक सी महसूस होती है
सुनो,
णमोकार मन्त व्रत भी होता है
जो किसी भी माह की
पञ्चमी, सप्तमी, नवमी
या चतुर्दशी से लिया जाता है
५ पञ्चमी
७ सप्तमी
९ नवमी
१४ चौदस
कुल मिला करके
३५ उपवास
या फिर यथाशक्ति एकासन
जैसा भी बने
प्रत्येक श्रावक को अनुपालनीय है
सो जानवी
सच सार्थक नाम ‘किस्से’
किस्से ?
और कहानी
क…हानि कहते है
महिमा नवकार
१. पार्श्व कुमार ने
मरणासन्न नाग-नागिन को सुनाया
वह धरणेन्द्र पद्मावती बने
२. रामचन्द्र जी ने
मरणासन्न जटायु गिद्ध पक्षी को सुनाया
वह सुग्रीव बना
३. पद्म रुचि सेठ ने
मरणासन्न बैल को सुनाया
वह सुग्रीव हुआ
४. जीवनधर कुमार ने
मरणासन्न कुत्ते को सुनाया
वह यक्षेन्द्र हुआ
५. अञ्जन चोर ने
इसी मन्त्र पर अटूट श्रद्धा करके
आकाशगामी विद्या सिद्ध की
अनंत महिमा है इसकी
धन्य !
हा ! हाह !
हा ! मा ! धिक् !
चक्रवर्ती होने के बाद भी
सुभौम नाम एक भूले मानस ने
पानी पर णवकार लिखकर
पैर से मिटाया
भले बहती धारा थी
आप मिटता गया
पर भाव थे
मंत्र अपमान के
सो जाकरके
रौरव नरक में पड़ा,
अस्तु,
मंत्र णवकार बारम्बार नमोऽस्तु
*महामंत्र णवकार
हाईकू*
*अरिहंताणं,
सिद्धाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं*
*अरिहंताणं णमो,
सिद्धाणं णमो
साहूणं णमो*
*णमो सिद्धाणं,
णमो अरिहंताणं,
णमो साहूणं*
*अ नमो नमः
सि नमो नमः
आ-उसा नमो नमः*
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