पाक्षिक प्रतिक्रमण श्रमण
भगवन् ! नमस्कार करता हूँ ।
हृदय प्रतिष्ठापन धरता हूँ ।।
कायोत्सर्ग भक्ति श्री सिद्धा-
चार्य वन्दना आदरता हूॅं ।।
सिद्ध अष्ट गुण दर्शन ज्ञाना ।
वीर्य, सूक्ष्म, अविचल श्रद्धाना ।।
अवगाहन, गुण, अव्या-बाधरु,
शगुन अगुरु लघु सौख्य निधाना |।
सिद्ध हुये जे तप संयम से ।
नय, सम-दृक्, चारित, अवगम से ।।
अभिनन्दित जग सिद्ध अपरिमित,
करें सुशोभित शम-यम-दम से ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम-दृक्, ज्ञान, चरित अधिशासी ।
विगत-कर्म शिव-शैल निवासी ॥
तप, नय, संयम-सिद्ध चरित-सम,
भूत-भावी-सम्प्रति अविनाशी ॥
सिद्ध अनन्त करूँ सुमरण भो ।
लाभ-रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
भगवन् ! नमस्कार करता हूँ ।
हृदय प्रतिष्ठापन धरता हूँ |
कायोत्सर्ग भक्ति श्री श्रुत-
आचार्य वन्दना आदरता हूॅं ।।
कोटी शतक अधि कोटिक बारा ।
लख अशीति त्रय शतक हजारा ।।
पद हजार अट्ठावन अर-पन,
श्रुत प्रमाण तिन नमन हमारा ।
निर्गत मुख अरिहत जिनराया ।
गणपति कण्ठा-हार बनाया ।।
सिन्धु गभीर मात श्रुत सविनय,
तिन्हें भक्ति जुत माथ नवाया ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
द्वादशाङ्ग श्रुत मात ।
आलोचन उसका करूॅं,
हाथ जोड़ नत-माथ ।।
अंग, उपांग, प्रकीर्णक, गाथा |
अर्थ, सूत्र, प्राभृत विख्याता ।।
पूरब-गत, परिकर्म, चूलिका,
श्रुति, अनुयोग, प्रणीत विधाता |।
करूँ मात-श्रुत तिन सुमरण भो ।
त्रयलाभ रतन-सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरिहत,
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ।।
भगवन् ! नमस्कार करता हूँ ।
हृदय प्रतिष्ठापन धरता हूँ |
कायोत्सर्ग भक्ति आचार्या-
चार्य वन्दना आदरता हूॅं ।।
तप-निधान व्रत, रज विहीन हैं ।
स्वपर मत विभावन प्रवीण हैं ।।
गुण गभीर, ‘गुरु’ पार जलधि श्रुत,
तिन्हें समर्पित साँझ तीन हैं ।।
निरत पन विधाचार करण में ।
कुशल शिष्य उपकार करण में ।।
गुण छत्तीस निलय संदर्शक,
‘गुरु’ समर्थ भव-पार करण में ।।
पाप कर्म सारे खिर जाते ।
जन्म किनारा यम कर जाते ।।
कहें कहाँ तक, बन्धु ससंयम,
सिन्धु कृपा ‘गुरु’ भव तिर जाते ।।
निरत होम व्रत मन्त्र भावना ।
क्रिया साधु नित निरत साधना ।।
ध्यान अग्नि होत्रा-कुल तप-धन,
धनिक कर्म रत षटाराधना ।।
वसन शील गुण आयुध कर में ।
कहाँ भा यथा, शशि-दिनकर में ।।
मोक्ष द्वार भट कपाट पाटन,
श्री गुरु वर अनुचरा-नुचर मैं ।।
शिव पथ का करते प्रचार हैं ।
नायक दृक्, अवगम उदार हैं ।।
सिन्धु-चरित गुरु करें कृपा वे,
जोड़ हाथ हम, खड़े द्वार हैं ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सूरि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ॥
सूरि पञ्च आचारज धारी ।
ज्ञान, चरित्र, दृक्-धर अविकारी ।।
उपदेशक श्रुत ज्ञान भान उव-
झाय साधु गुण मणअधिकारी ।।
तिन गुरु-देव करूँ सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण समाधि मरण हो ।।
ज्ञान रूप दर्पण में जिनके ।
सहित अलोक-लोक त्रय झलके ।।
विगत कर्म-रज ‘वर्धमान’ भव,
जलधि जहाज जलज पद उनके ।।
प्रशम भाव जीवों पे रखना ।
संयम लगा टक-टकी तकना ।।
सामायिक दुर्ध्यान छोड़ कर,
अपना आतम राम निरखना ।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
सिद्ध-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
कर्म प्रकृति विहॅंसाने वाले ।
निज स्वभाव विलसाने वाले ।।
नन्त गुणाकर सिद्ध वन्दना,
करूँ कर्म विनशाने काले ।।
उपादान ज्यों मिले सलोना ।
पाहन स्वर्ण बन चले सोना ।।
सिद्ध सिद्धि त्यो कर्म हान से,
लाभ शुद्ध आतम का होना ।।
आत्म अभाव कहाँ ? शिव धामा ।
निज गुण क्षति, शिव तप किस कामा |
नादि बद्ध फल भुक् कृत गत कृत,
कर्म-भाग शिव आतम-रामा ।।
जनन, नाश, थिर स्वभाव वाला |
तन प्रमाण, जुत स्वगुण निराला ।।
जानन-देखन-हार अन्यथा,
साध्य समान पुष्प नभ माला ।।
अन्तर् बहिर हेत अवतरणा ।
सम दृक्, सम अवगम, सम चरणा ।।
शस्त्र इन्हीं से विहॅंस पाप, वह
परम-आतमन् जगदा-भरणा ॥
दृक् वीरज संज्ञान समाया |
‘कर’ सम्यक्त्व लब्धि सुख आया ।।
चॅंवर, दिव्य तरु, छत्रादिक गुण,
विभव परम अद्भुत थिर पाया ।।
लखते हुये यथा जग सारा ।
होते हुये तृप्त सुख द्वारा ॥
मोह खपाते हुये, खिराते,
समवशरण अमि प्रवचन धारा ।
करते हुये स्वामि-पन कर में ।
रमते हुये आत्म निज घर में ।।
करते हुये ज्योति पर हत-प्रभ,
हुये सुशोभित त्रिभुवन भर में ।।
छेद बेड़ दीं चार घातिया |
किया स्वभाव अनन्त साथिया ।।
‘कर’ कीने सूक्ष्मत्व आदि गुण,
शेष पार कर चार घाटिया ।।
हुआ आत्म गुण विभव साथ में ।
ऊर्-ध्वग हुआ स्वभाव हाथ में ।।
फिर क्या, जा पहुँचे श्री भगवन्,
लोक-माथ इक समय मात्र में ॥
हेत अन्य आकार शून हैं ।
देह अखीरी तनिक न्यून हैं ।।
अद्भुत हैं, दैदीप्यमान हैं,
मूरत ज्ञान, अमूर्त ,पून हैं ।।
हुई क्षुदादिक रोग हान भो,
कहाँ जरा अन्तक निशान ओ !
विरहित दुख संसार सिद्ध सुख,
कौन कहें कितने प्रमाण सो !
सिद्ध परम सुख अतिशय-कारी ।
आत्मो-पादानज-अविकारी |।
घटन-बढ़न विरहित स्वाभाविक,
वीत-बाध विस्तृत अति-भारी ।।
अन्य द्रव्य निरपेक्ष अमित है ।
विगत विषय-प्रति-पक्ष रहित है ।।
निरुपम शाश्वत ! काल-जेय वर-
नन्त, सार सुख सिद्ध सहित है ।।
तन में नहिं जब रोग निवासा ।
करें कौन औषध अभिलाषा ।।
दृश्यमान गत तिमिर थान क्या,
नहीं निरर्थक दीप प्रकाशा ।।
क्षुद्-तृष नहिं, क्या अर्थ अशन से ।
शुचि मतलब क्या, गन्ध सुमन से ।।
हुआ अभाव अहा ! निद्रादिक,
लेन-देन क्या मृदुल शयन से ।।
यश जिनका गा रही दिशाएँ ।
देव जिन्हें आ शीश नवाएँ ।।
निकट भव्य कल सिद्ध सभी वे,
जिनकी नित विरदावलीं गाएँ ।।
नय, तप, संयम सिद्ध विधाता ।
सिद्ध ज्ञान, दृक्, वृत, विख्याता ।।
भूत, भविष्यत, सिद्ध वर्तमाँ,
तिन स्वरूप पाने थुति गाता ॥
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम-दृक्, ज्ञान, चरित अधिशासी ।
विगत-कर्म शिव-शैल निवासी ॥
तप, नय, संयम-सिद्ध चरित-सम,
भूत-भावी-सम्प्रति अविनाशी ॥
सिद्ध अनन्त करूँ सुमरण भो ।
लाभ-रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत्-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
चरित-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
कण्ठ जग-मगा रहा हार है ।
माथ मुकुट मणि भा प्रसार है ।।
देख पंच आचार इन्द्र वो,
करता मुनि को नमस्कार है ।।
भेद पञ्च आगम जिन गाये |
विश्व चरण जिन माथ नवाये ।।
दृक्, तप, वीरज, ज्ञान, चरित्र पन
शरण आचरण सविनय आये ।।
अर्थ शुद्ध अवधारण करना ।
शब्द शुद्ध उच्चारण करना ।।
काल, विनय, उप-धान शुद्धियॉं,
शब्दारथ अनुपालन करना ।।
गुरु का कभी न नाम छिपाना ।
गुरु आगम जिन हृदय बिठाना ।।
वसु-विध ज्ञानाचार गहो मन !
अगर कर्म-अरि मार गिराना ।।
जिन प्रवचन सन्देह विसरना ।
अन्य-दृष्टि संस्तव अपहरना ।।
स्व-शक्तिशः करना प्रभावना,
जिन मत धर्म वृद्धि आदरना ।।
हित-पथ-च्युत पुनि पन्थ दिखाना ।
मन नहिं भोगा-सक्त बनाना ।।
विगत-ग्लानि, वात्सल्य, विनय तिन,
दृगाचार मन भूल न जाना ॥
शयना-सन करना निर्जन में ।
रखना रुचि अपनी अनशन में ।।
तन संताप उठाना, करना-
नेह नहीं नश्वर जड़-तन में । ।
कम आहार भूख से करना |
वृत्ति परि संख्यान सुमरना ।
रस परित्याग, बहिर तप शिव-गति,
हेत न इनसे कभी मुकरना ।।
आदरना स्वाध्याय हमेशा ।
तजना देह-सनेह अशेषा ।।
पतित-काज-शुभ करना निज को,
सुथिर, यशोचित रीति-विशेषा ।।
सेव वृद्ध यति शिशु उर धरना ।
धर्मरु ध्यान शुक्ल आदरना ।।
करना विनय सदा तप अन्तर्,
अगर शत्रु अन्तर् सन्हरना ।।
किये सुलोचन ज्ञान जिन्होंने ।
श्रद्धा जिन-मत लगे सजोंने ।।
शक्ति छिपा नहिं सयत्न आतुर,
तप से एक मेक से होने ।।
यति प्रवृत्ति वह भव जल तरणी ।
लघु अछिद्र नौका अघ-हरणी ।।
वीर्या चार सगुण बुध-नुत नुति,
इक करने कथनी अर करनी ।।
योग जन्य त्रय श्रेष्ठ गुप्तियाँ |
पन ईर्यादिक जन्य समितियाँ ।।
पञ्च अहिंसा-दिक व्रत चारित,
विध तेरह आचार-प्रवृतियाँ ।।
वीर प्रभो ! से पहले जिनका ।
वरण अपूर्व निराकुल मन था ।
चरिताचार हृदय गद-गद ले
नित आदरता वन्दन उनका ।।
अखर आतमा श्रित सुख राशी ।
अनुपम अपर दिव्य अविनाशी ॥
केवल ज्ञान ‘अपरिमित’ दर्शन,
रूप धवल उत्कृष्ट प्रकाशी ।।
शिव श्री तिस धर नेह हृदय में ।
धारूँ उर आचार विनय मैं ।।
सच्चरित्र निर्ग्रन्थ महत् मुनि,
चरणों का लेता आश्रय में ।।
मन मेरे हा पाप समाया ।
आप अन्यथा चला चलाया ।।
इमि आगम अन्यथा प्रवर्तन,
हो जावे मिथ्या जिन-राया ॥
पाप पुरातन, नव अपहारी ।
निधि ऋद्धिद ऋषि अतिशय कारी ।।
होय चरित अन्यथा प्रवर्तन,
रूप भूल निर्मूल हमारी ।।
विचलित जे भव दुख प्रहार से ।
विगलित मति-दूषित विचार से ।।
अनघ ! मोक्ष-प्रार्थिन् ! ओजस्विन् !
दूर कहॉं अब मुक्ति द्वार से ।।
भवि वे, जो शिव हित निर्मापी ।
विस्तृत अनुपम, उन्नत काफी ।।
हों आ-रूढ़ चरित सोपाना,
सारे जग से ले-दे माफी ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति चरित जिन नाथ |
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नव-माथ ।।
ज्ञान ज्योति दर्शन अधिठाना ।
सम-प्रवेश मग मुक्ति प्रधाना ।।
करण-ध्यान जुत समिति गुप्ति, गृह-
क्षमा, निर्जरा फल अघ नाना ।।
करूँ चरित तिस धर सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण समाधि-मरण हो ।
निशि पन-दश इक पक्ष गिनाये ।
पक्षिक दिन उतने ही गाये ।।
( पक्ष अष्ट चौ-मास गिनाये ।
इक सौ बीस रात-दिन गाये ।
बर्षिक द्वादश माह गिनाये ।
त्रिशत छियासठ निशि-दिन गाये )
दृक्, वृत, ज्ञान, वीर्य, तप, पञ्चा-
चार विशोधन अब मन भाये ।।
भेद अष्ट-विध ज्ञानाचारा ।
काल, विनय, उपधाना-चारा ।।
व्यञ्जन, अर्थाचार, अनिह्नव,
उभय तथा बहु माना-चारा ॥
तिनकी श्रुति, थव, गुण गानों में |
अनुयोगों में, आख्यानों में ।।
ग्रन्थ, अर्थ, स्वर, व्यञ्जन, अक्षर,
पद अनुयोग द्वार थानों में ।।
त्रुटि का रख नहिं सका ख्याल में ।
किया न गर स्वाध्याय काल में ।।
की करवाई दीनी अनुमति,
श्रुति रति करने की अकाल में ।।
स्वर, अक्षर, पद असत् मिलाये ।
ऊन, मन्द, स्वर, पञ्चम गाये ।।
पढ़े शीघ्र या सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ॥
निःशंकित थीति-करणाचारा |
निःकांक्षित उपवृह्णाचारा ।।
दृष्टि-अमूढ प्रभावन वत्सल,
निर्विचिकित्स दर्शनाचारा ।।
शङ्का अगर जिनागम कीनी ।
रुचि विष विषया-कांक्षा लीनी ॥
पर पाषण्ड प्रशंसा विमतिन् –
सेवा षट् अनायतन दीनी ।।
की विचिकित्सा, अप् प्रभावना |
अवत्सल्य कीनी उपासना ।।
अष्टक दोष दर्शनाचारा,
हों मिथ्या इक यही प्रार्थना ।।
विभाग द्वादश तपाचार के |
तप अभ्यन्तर षट् प्रकार के ।।
रस परित्याग वृत्ति परिसंख्या,
रहना अल्परु, बिन आहार के ।।
शैय्यासन विविक्त, तन क्लेशा ।
बहि षड-नुपाल्-नीय हमेशा ॥
विनय, ध्यान, वैयावृत, श्रुत रति,
प्रायश्चित, व्युत्सर्ग विशेषा ॥
इनमें अगर न मन विहराया |
इन्हें छोड़ गर मन भटकाया ।।
तपाचार सम्बन्ध विराधन,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
विधिवत् पालन करना व्रत का ।
क्रम उत्कृष्ट सुमरना व्रत का ।।
यथा आत्म बल, यथा देह बल,
सोत्साह आदरना व्रत का ।।
वीर्याचार भेद इमि पंचा ।
छिपा शक्ति इनमें गर रंचा ।।
किया विराधन, परिषह पीड़ित,
तजा, दोष हो दूर विरंचा ।।
समिति, गुप्ति, व्रत, चरिताचारा ।
मुख प्रमाद हा ! तहाँ निहारा ॥
हुआ-विराधन आलोचन अब,
करूँ नाथ ! ले आप सहारा ।।
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ॥
नन्ता-नन्त वनस्पति जीवा |
छिन्न-भिन्न, हरि, अङ्कुर बीजा ।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुःखी, पीड़ित भयभीता ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव-आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
जीव असंख्या-संख्या साथी ।
विन्द्रिय सीप-शंख, कृमि आदि ॥
इन्हें विघाता, क्षमा कीजिये,
परिणति अब रह-रह पछताती ।।
जीव असंख्या-संख्या भ्राता ।
तिन्द्रिय चिवटि आद विख्याता ।।
क्षमा कीजिये, हा ! कृत, कारित,
दे अनुमति, यूँ इन्हें विघाता ।।
जीव असंख्या-संख्या ज्ञानी ।
श्रुति जिन चउ इन्द्रियाँ बखानी ॥
डाँस, आद दुख दिया इन्हें हा !
क्षमा कीजिये, सम रस सानी ॥
जीव असंख्या-संख्या जगती ।
जर-रस-श्वेद परसते धरती ।।
पोत-समूर्च्छन उद्भेदिज उप-
पादिज अण्डजादि पञ्चेन्द्री ॥
योनि लाख चउरासी में से ।
लाख-बीस छह योनिज ऐसे ॥
जीव विघाते, विघटे दुष्कृत,
निकट भान तुम, तम के जैसे ॥
द्वितिय महाव्रत विरति झूठ से ।
क्रोध, लोभ, व्यवहार-कूट से ॥
राग, द्वेष, भय, मोह हास, मद,
नेह, लाज, गृद्धि अटटू से ॥
गारव इक ऋद्धि रस साता ।
विध पन-दश प्रमाद विख्याता ॥
नादर तथा प्रदोष किसी अर,
कारण से ‘व्रत सत्य’ विघाता ।।
मन यूँ भाषण असत् रमाया ।
हा ! मिथ्या-भाषण करवाया ॥
की श्लाघा मिथ्या भाषिन् हा !
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
तृतिय महाव्रत चौर्य विरति में ।
ग्राम, खेट, पत्तन, कर्वट में ।।
सन्निवेश सम्-वाह द्रोण-मुख,
घोष, मडम्ब सभा पुर-मठ में ।।
काष्ठ विकृति तृण आदि उठाया ।
बिना दिया हा ! ग्रहण कराया ।।
हा ! अदत्त ग्राहक अनुमोदन,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
तुरिय महाव्रत बिन रति-पति के ।
तिय सुर-नर-पशु तिय प्रतिकृति के ॥
इन्द्रिय इष्टानिष्ट विषय-वश,
निभा सका कर्त्तव्य न यति के ॥
आ आमर्श न कर विमर्श मैं ।
पशेन्द्रिय परिणाम पर्श मे ॥
धिक् ! धिक् ! हन्त ! हन्त ! हा ! मा ! धिक् !
नेत्रेन्द्रिय परिणाम दर्श में ।।
कर्णन्द्रिय परिणाम शब्द में ।
घ्राणेन्द्रिय परिणाम गन्ध में ।।
रसनेन्द्रिय परिणाम रस तथा,
मन अनियत परिणाम नन्त में ।।
पाया बचा न मन वच काया ।
ब्रह्म बाढ़ नव, रख नहिं पाया ॥
कारित अनुमति आद कोटि नव,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
पञ्चम व्रत मुनि त्याग भार का ।
है परिग्रह वह दो प्रकार का ॥
नाम बाह्य अन्तरंग परिग्रह,
हेत जुगल यही श्वभ्र द्वार का ॥
अन्तर् परिग्रह नाम वेदनी ।
ज्ञान-दर्शनावरण मोहनी ॥
आयु गोत्र अरु अंतराय मिल,
भेद अष्ट शिव सुख निरोधनी ॥
परिग्रह बाह्य पीठ, उपशैय्या ।
फलक, कमण्डलु, संस्तर, शैय्या ॥
अशन-पान उपकरणादिक बहु-
भेद विवर्णित जिन श्रुत मैय्या ॥
कर्म बंध कर तिन से आया |
या बन्धन अधीनस्थ कराया ॥
कर्म विबन्धक अनुमोदन धिक्,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
मुनि षष्टम अणुव्रत निशि अनशन |
अशन पान अरु खाद्य, स्वाद्य इन ॥
आहारों में तिक्त, अम्ल, मधु,
लोन-अलोन कषायल कटु-पन ॥
तिन्हें रात्रि-गर चाहा मन से ।
निशि स्वीकार क्रिया गर तन से ॥
किया स्वप्न आहार, कहा हा !
निशि कर लें आहार वचन से ॥
इमि निशि अशन स्वयं मन भाया ।
दूजों को निशी-अशन कराया ॥
हा ! कीनी श्लाघा निशि-भोजिन्,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
समिति विवर्णित-आगम जिन-पन ।
समिति ईर्या, भाषा, ऐषण ।।
समिति प्रतिष्ठापन भव अपहर,
शिवद समिति आदाँ निक्षेपण ।।
समिति ईर्ष्या तिन में नुत्तर ।
पूरब, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर ।।
चउ दिश्, विदिश्, गमन पल सम्यक्,
गमन देख भवि ! भूमि जुगन्तर ।।
पर अति शीघ्र गमन अपनाया ।
पग षट् जीव निकाय दबाया ।।
दुःखी कराया, दीनी अनुमति,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
भगवन् ! भाषा समिति शोभनी ।
कर्कश, निष्ठुर, मर्म-भेदनी ॥
कटु, पर-कोपिन्, परुष, विरोधिन,
वध-करि, छेयंकर-ति-मानिनी ॥
भाषा दश तिन मन विहराया ।
भाषण-भाषा अशुभ कराया ॥
श्लाघा भाषा अशुभ-भाषि हा !
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
समिति ऐषणा तिन अन्तर्गत ।
अधः कर्म, पश्चात् कर्म कृत ।।
उद्देशित निर्देशित कृत हा !
पुरा कर्म हा ! क्रीत आदि कृत ।।
इष्ट सरस भोजन अभिलाषा ।
दाता-शन निन्दन ढिंग वासा ॥
अति गृद्धि वध जीव अग्निवत्,
अपरि-शुद्ध गोचरि बन दासा ॥
इमि मन अशन अयोग्य भ्रमाया ।
अशन अयोग्य ग्रहण करवाया ॥
की श्लाघा हा ! अभक्ष्य भक्षिन्,
शीघ्र होम मिथ्या जिन राया ।।
समिति तुरिय आदाँ-निक्षेपण ।
विकृति फलक मणि उपकरणासन ॥
लेते रखते हुये इन्हें वश,
प्रमाद कर ओझल प्रतिलेखन ।।
जीव प्राण सत् भूत सताया ।
पीड़ित इन्हें करो समझाया ॥
कीना पर पीड़न अनुमोदन,
शीघ्र होय मिथ्या जिनराया ॥
समिति प्रतिष्ठापन फिर तिन में ।
अदृश थान संध्या निशि छिन में ।।
हरित, बीज, अभ्रावकाश भू-
खण्ड अप्रासुक थल आर्द्रन में ॥
बिन देखे शोधे मल क्षेपा ।
बिन देखे शोधे कफ फेका ।।
क्षेपण मल-नासिका पस्-स्रवण,
विकृति पूर्व हा ! नहिं प्रतिलेखा ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
जीवों को दुख दिया सताया ॥
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ॥
गुप्ति लगाम त्रियोग लगाना |
मनो-गुप्ति निरसक दुर्ध्याना ।।
संज्ञा भय आहाररु मैथुन,
परिग्रह इह जग अपर जहाना ॥
रख मन गुप्ति न इनमें पाया ।
रखा गुप्ति नहिं अपर छलाया ।।
गुप्ति न राखें की अनुमोदन,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ॥
भोजन, पर-पाखण्ड कथा धन ।
राज, चौर, तिय, वैर कथा इन ।।
रखी कृतादिक गुप्ति वचन नहिं,
दोष सर्व मिथ्या हो भगवन् ।।
पत्र, चित्र, तिय, पट-कठ-पुतलिन ।
भित्ति चित्र पाषाण अन्य इन ।।
रखी कृतादिक गुप्ति काय नहिं,
दोष सभी मिथ्या हो भगवन् ।।
भावन किरियाएँ पन बीसा ।
अठ-दश शील सहस्र मुनीशा ॥
गुण लख चौरासी कषाय नो,
गुप्ति ब्रह्म नव जिन चौबीसा ।।
शुद्धि कर्म वसु प्रवचन माता ।
चरित, समिति व्रत पन विख्याता ॥
चउ संज्ञा प्रत्यय तप संयम ।
द्वादश अंग धर्म जिन गाथा |
धर्म मुण्ड दश सुधर्म ध्याना ।
चउ-दह पूर्व सप्त भय ठाना ।।
जीव निकाय षट्क आवश्यक,
मूलोत्तर गुग सप्त जहाना ॥
आर्त रौद्र संकलेश ध्यान से ।
मिथ्या दृक्, चारित्र ज्ञान से ।।
तिय कुत्सित परिणाम हन्त !
माया मिथ्या वा निदान से ॥
हुये पक्ष इक जो अतिचारा |
अति व्यति क्रम हा ! हा ! नाचारा ।।
इमि उत्पन्न दोष निरसन हित,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
किया दुष्कृतन् प्रतिक्रमण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
सिद्ध-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
सिद्ध अष्ट गुण दर्शन ज्ञाना ।
वीर्य, सूक्ष्म, अविचल श्रद्धाना ।।
अवगाहन, गुण, अव्या-बाधरु,
शगुन अगुरु लघु सौख्य निधाना |।
सिद्ध हुये जे तप संयम से ।
नय, सम-दृक्, चारित, अवगम से ।।
अभिनन्दित जग सिद्ध अपरिमित,
करें सुशोभित शम-यम-दम से ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम-दृक्, ज्ञान, चरित अधिशासी ।
विगत-कर्म शिव-शैल निवासी ॥
तप, नय, संयम-सिद्ध चरित-सम,
भूत-भावी-सम्प्रति अविनाशी ॥
सिद्ध अनन्त करूँ सुमरण भो ।
लाभ-रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत्-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
योगि-भक्ति का, कर्म विनशने ॥
मूसल सी गिरती जल धारा ।
देख सहज तरु मूल निहारा ।।
दिया काष्टवत् तज शरीर निश,
शिशिर किनारे कर भय सारा ।।
उगले भान अग्नि जब ज्याला ।
रवि सम्मुख गिरि ध्यान सम्हाला ।।
मुनि पुंगव सोपान मुक्ति वे,
करें कृपा, दें धर्म निराला ।।
ग्रीष्म शिखर गिरि ध्यान लगाते ।
ऋतु बर्षा तरु मूल बिताते ।।
खुले आसमाँ रहें शिशिर मुनि,
महा तिन्हें हम शीश नवाते ।।
अहा ! वस्त्र जिन दिश-विदिशाएँ ।
मन गिरि कन्दर दुर्ग लुभाएँ ।।
पाणि पात्र पुट आहारी वे,
साधु शीघ्र गति परम पठाएँ ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति योगि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ।।
जम्बू धातकी पुष्करार्ध में ।
लवणरु कालोदधि अगाध में ।।
भरतै-रावत विदेह पन-दश,
भूमि-कर्म जे तिनमें जनमें ।।
योग अभ्र-अवकाश-तप रहे ।
कब तरु मूला-तपन कॅंप रहे ।।
मौन पार्श्वइक वीरासन अर,
अनशनाद भज कर्म खप रहे ।।
करुँ जोगि राग तिन सुमरण भो ।
लाभ रतन त्रय, सुमति मरण हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरिहंत,
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ।।
समिति, गुप्ति, व्रत, चरिताचारा ।
मुख प्रमाद हा ! तहाँ निहारा ॥
हुआ-विराधन आलोचन अब,
करूँ नाथ ! ले आप सहारा ।।
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ॥
नन्ता-नन्त वनस्पति जीवा |
छिन्न-भिन्न, हरि, अङ्कुर बीजा ।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुःखी, पीड़ित भयभीता ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव-आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
जीव असंख्या-संख्या साथी ।
विन्द्रिय सीप-शंख, कृमि आदि ॥
इन्हें विघाता, क्षमा कीजिये,
परिणति अब रह-रह पछताती ।।
जीव असंख्या-संख्या भ्राता ।
तिन्द्रिय चिवटि आद विख्याता ।।
क्षमा कीजिये, हा ! कृत, कारित,
दे अनुमति, यूँ इन्हें विघाता ।।
जीव असंख्या-संख्या ज्ञानी ।
श्रुति जिन चउ इन्द्रियाँ बखानी ॥
डाँस, आद दुख दिया इन्हें हा !
क्षमा कीजिये, सम रस सानी ॥
जीव असंख्या-संख्या जगती ।
जर-रस-श्वेद परसते धरती ।।
पोत-समूर्च्छन उद्भेदिज उप-
पादिज अण्डजादि पञ्चेन्द्री ॥
योनि लाख चउरासी में से ।
लाख-बीस छह योनिज ऐसे ॥
जीव विघाते, विघटे दुष्कृत,
निकट भान तुम, तम के जैसे ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ।।
रहे मूल गुण आठ बीस भो !
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन-ऋषीश हो ॥
चरित त्रयोदश तारण तरणा ।
श्रमण धर्म दश शख्य शरणा ।।
पाद मूल गुरु शील उभय-मुनि,
गुण तप द्वादश कर दें करुणा ।।
भगवन् ! नमस्कार करता हूँ ।
निष्ठापना हृदय धरता हूँ ।।
कायोत्सर्ग भक्ति-आचार्या,
चार्य वन्दना आदरता हूँ ॥
तप-निधान व्रत, रज विहीन हैं ।
स्वपर मत विभावन प्रवीण हैं ।।
गुण गभीर, ‘गुरु’ पार जलधि श्रुत,
तिन्हें समर्पित साँझ तीन हैं ।।
निरत पन विधाचार करण में ।
कुशल शिष्य उपकार करण में ।।
गुण छत्तीस निलय संदर्शक,
‘गुरु’ समर्थ भव-पार करण में ।।
पाप कर्म सारे खिर जाते ।
जन्म किनारा यम कर जाते ।।
कहें कहाँ तक, बन्धु ससंयम,
सिन्धु कृपा ‘गुरु’ भव तिर जाते ।।
निरत होम व्रत मन्त्र भावना ।
क्रिया साधु नित निरत साधना ।।
ध्यान अग्नि होत्रा-कुल तप-धन,
धनिक कर्म रत षटाराधना ।।
वसन शील गुण आयुध कर में ।
कहाँ भा यथा, शशि-दिनकर में ।।
मोक्ष द्वार भट कपाट पाटन,
श्री गुरु वर अनुचरा-नुचर मैं ।।
शिव पथ का करते प्रचार हैं ।
नायक दृक्, अवगम उदार हैं ।।
सिन्धु-चरित गुरु करें कृपा वे,
जोड़ हाथ हम, खड़े द्वार हैं ।।
व्रत पन, प्रथम अहिंसा प्यारा ।
त्याग, असत्, चोरी, व्यभिचारा ।।
पञ्चम विरति संग व्रत षष्टम्,
व्रत अणु विरमण निशि आहारा ॥
समिति, ईरिया भाषा नामी ।
आदाँ-निक्षेपण अभिरामी ।।
समिति-प्रतिष्ठा-पन वा ऐषण,
गुप्ति, ज्ञान, व्रत, दृक् सुखधामी ॥
भावन किरियाएँ पन बीसा ।
अठ-दश शील सहस्र मुनीशा ।।
गुण लख-चौरासी कषाय नौ,
गुप्ति ब्रह्म नौ, जिन चौबीसा ।।
शुद्धि कर्म वसु प्रवचन माता ।
चरित, समिति व्रत पन विख्याता ॥
चउ संज्ञा प्रत्यय तप संयम,
द्वादश अङ्ग धर्म जिन-गाथा ॥
धर्म मुण्ड दश, सुधर्म ध्याना |
चौदह पूर्व सप्त भय ठाना ॥
आवश्यक षट् जीव-निकाया,
गुण मूलोत्तर तन मन वाणा ।।
गारव तिय ऋद्धि रस साता ।
द्विविध त्रिविध परिणाम असाता ॥
मिथ्या दृक् व्रत ज्ञान दण्ड तिय,
कृष्ण नील लेश्या-कापोता ।।
हा ! प्रयोग मिथ्यात्व कषाया ।
योग प्रयोग अव्रत मन भाया ॥
श्रमण अयोग्य क्रिया विहरा मन,
हा ! मुनि योग्य क्रिया गर्हाया ।।
इनमें अरु कुत्सित पर्शन में |
वशि अनुराग अदृश-दर्शन में ॥
क्रिया प्रदोष, क्रिया परितापन,
आद क्रियावन आकर्षण में ॥
क्रोध, मान, भय, मोह हास से ।
राग, द्वेष, विषयाभिलाष से ॥
हुआ विराधन, विघटे दिन हा !
खड़े द्वार तुम, इसी आश से ॥
कीनी कर प्रतिक्रमण शरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन होता ॥
क्षय-दुख, नाश-कर्म,गुण अरिहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त-धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो |
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन, भूल भूल मम
क्षेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
चरित त्रयोदश तारण तरणा ।
श्रमण धर्म दश शख्य शरणा ।।
पाद मूल गुरु शील उभय-मुनि,
गुण तप द्वादश कर दें करुणा ।।
शुद्धि सर्व अतिचार परसने
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्त-प्रति-क्रमण, कर्म विनशने ॥
कायोत्सर्गम्
नमन नन्त-नित् अरिहन्तों को ।
सिद्ध, सूरि, पाठक वृन्दों को ।।
नापे बिन वैशाखी शिव पथ,
उन समस्त साधु सन्तों को ॥
मंगल उत्तम शरण चार हैं ।
अरिहत जामन-मरण हार हैं ॥
सिद्ध-साधु-गण धर्म-अहिंसा,
एक जलधि भव करण-धार हैं ।।
सागर-जुगल सुद्वीप अढ़ाई ।
पनदश कर्म-भूमि शिव-दाई ।।
अरिहत जितने जिन परि-निर्वृत,
तीर्थक, सिद्ध, बुद्ध जिन राई ॥
धर्माचार्य, धर्म ध्वज धारी ।
चमु चतु-रङ्ग धर्म अधिकारी ।।
देव-देव, दृक्, ज्ञान, चरित कृति-
कर्म करुँ बनने अविकारी ॥
प्रभु ! अब समता भाव धर रहा ।
त्याग सर्व सावद्य कर रहा ।।
जब तक करता पर्यु-पासना,
करने से दुश्चरित डर रहा ॥
(कायोत्सर्गम्)
संस्तवन जिनवर आदरता हूँ ।
जिन अनन्त वन्दन करता हूँ ।।
पुरुषोत्तम ! जग महित, रहित रज-
हृदय तीर्थ-कर पद धरता हूँ ॥
जग जगमग जगमग उजियारा ।
वन्दन ज्ञान अलौकिक धारा ॥
आद-आद भव तीर वीर जिन,
वन्दन धर्म तीर्थ करतारा ।।
वृषभ प्रणुत, जित-शत्रु-नन्दना |
नुत सम्भव, अभिनन्द वन्दना ॥
सुमत प्रणुत, नुत पद्म-सुपारस,
नमन चन्द्र-प्रभ विहर-क्रन्दना ।।
प्रणुत सुविध, नुत शीतल स्वामी ।
श्रेयस प्रणुत, पूज्य-जिन नामी ॥
प्रणुत विमल जिन नन्त धर्म नुत,
प्रणुत शान्ति जिन अन्तर्यामी ॥
प्रणुत कुन्थ जिन अर भगवन्ता ।
मल्लि, सुव्रत मुनि प्रणुत अनन्ता ॥
नमि नुत, नेमि, पार्श्व नुत सन्मति,
बनने निरति-चारी निर्ग्रन्था ॥
मैं अनन्य इक आप पुजारी ।
विगत रजो-मल पाप-प्रहारी ॥
मरण विहीन, क्षीण-जर जिनवर !
करें दृष्टि अब ओर हमारी ।।
कीर्तन मैंने किया वचन से ।
पूजन तन से, वन्दन मन से ।।
करें विभूषित सिद्ध नन्त वे,
हमें समाध-बोध जिन-गुण से ।।।
चन्दा दागदार, तुम बढ़ के ।
सूरज आग, न्यार तुम बढ़ के ।।
निर्मल, तेजोमय, गभीर तुम,
सागर झाग क्षार तुम बढ़ के ।।
गो-खुर सा जग जिन्हें झलकता ।
जिन ढ़िग अरि कब टिका पलक था ॥
श्री मत वीर करें करुणा वे,
नीर-नैन-निर्झरन छलकता ॥
गणधर वलय
गुण गरिष्ट जित-अरि अविकारी ।
देश सर्व परमावधि-धारी ।।
कोष्ट-बीज पद अनुसारिन् रिध,
गणि गुण पाने बना पुजारी ।।
ऋद्धि श्रोतृ संभिन्न निधाना ।
धर्म मुक्ति मग श्रमण प्रधाना ॥
बुध बोधित प्रत्येक स्वयं बुध,
गाऊँ थुति पाने दिग्-वाना ।।
द्विविध मनःपर्यय सन्ज्ञानी ।
पूर्व चतु-र्दश-दश धर ध्यानी ।।
नैमित्तिक अष्टांग शास्त्र विद्,
गणि अर्पित तिन तन मन वाणी ।।
ऋद्धि प्राप्त चारण नभ-गामी ।
ऋद्धि विक्रिया धर अभिरामी ।।
विद्याधर प्रज्ञा श्रित वन्दन,
बनने गणि तिन गुण आसामी ॥
ऋद्धि दृष्टि विष धर विष आशी ।
दीप्त तप्त-तप-धर वनवासी ।।
महा घोर अति उग्र प्रतप धर,
गणि नुति बन तिन गुण अभिलाषी ।।
गुण धर घोर महित वैरागी ।
बुध नुत घोर पराक्रम भागी ।।
गुण धर घोर ब्रह्म चर्यादिक,
पाने गुण गणि अब अनुरागी ।।
ऋद्धि युक्त बल, मन, वच, काया ।
व्यथा आदि हन्तृन् ऋषि राया ॥
आम, खेल, विड् सर्व-जल्ल धर,
ऋद्धि शरण गणि गुण हित आया ।।
घृत धर क्षीर, अमृत मधु स्रावी ।
यतिवर जग वन्दित मेधावी ।।
लसित ऋद्धि अक्षीण महानस,
नुति गणि गण तिन होने भावी ।।
सिद्ध निलय श्री मत अतिवारा ।
दक्ष विशुद्धि ऋद्धि गम्भीरा ।।
वर्धमान वर मुक्ति श्रमण ऋषि,
गणि तिन शरण जलधि भव तीरा ।।
ऋद्धि विभूषित सिंह गज कामा ।
भव जल-पोत विविध गुण धामा ।।
सुर समर्च्य नर खचर सिद्ध पद,
दें गणि अविरल तिन्हें प्रणामा ॥
अरिहत भगवन् ! वन्दन मेरा ।
भगवन् सिद्ध आपका चेरा ।।
आचारण उवझाय साधु मम,
मैंट दीजिये भव-वन-फेरा ॥
जिन वन्दन, जिन अवधि वन्दना ।
परम सर्व जिन, अवधि वन्दना ।।
कोष्ठ बुद्धि धर, बीज बुद्धि धर,
नमन नन्त जिन अवधि वन्दना ॥
बुध बोधित नुति पद अनुसारी ।
बुध-प्रत्येक स्वयं नभ-चारी ।।
पूर्व चतुर्दश दश संभिन्नन्,
श्रोतृ विपुल मति मति ऋजु धारी ॥
आशि-दृष्टि विष श्रमण वन्दना ।
विद्या-धर मन हरण वन्दना ।।
विद्-निमित्त अष्टाङ्ग विक्रिया,
चारण प्रज्ञा श्रमण वन्दना ।।
उग्र-दीप्त तप मन बल-वाना |
महा तप्त तप, तन बल-वाना ।।
घोर पराक्रम, घोर ब्रह्मचर,
गुण-तप घोर, वचन बलवाना ।।
आमोषधि जल्लौषधि वन्दन ।
खेलोषधि विप्पौषधि वन्दन ।।
वर्धमान अक्षीण महा-नस,
सर्व सिद्ध सर्वोपाधि वन्दन ।।
खीर स्रावी, घृत स्रावी जै जै ।
अमृत स्रावि, मधु स्रावी जै जै ।।
वर्धमान भगवन्त महति ऋषि,
महावीर मेधावी जै जै ।।
जिन नजदीक धर्म मग पाया ।
कर विनीत नित मन वच काया ।।
वर्धमान नजदीक इसलिये,
मस्तक पञ्चम अंग नवाया ।।
थिति, द्युति, गति, आ गति अनुभागा ।
‘अजि’ अवतरण प्राण परित्यागा ।।
कृत पुनि सेवित, भुक्त मानसिक,
अरुह आदि षट् कर्म विभागा ।।
ऋद्धि, तर्क, शिव बन्ध कलाएँ ।
जीव भाव, भव सब पर्यायाएँ ।।
करते हुये विहार जिन्हें इह,
युगपत् दर्पणवत् दिखलाएँ ।।
तिलक गोत्र कश्यप संंज्ञानी ।
महावीर सुन तिन अमि-वाणी ॥
समातृ-भावन पद उत्तर मुनि,
धर्म तथा कहता भवि प्राणी ।।
प्रथम अहिंसा व्रत विख्याता ।
सत्य द्वितिय फिर अचौर्य आता ।
तुरिय ब्रह्मचर बाद अपरिग्रह ।
निशि अनशन पद षष्टम पाता ।।
प्रथम व्रत अहिंसा आदरता ।
गहल मन वचन काय विहरता ।।
आजीवन नहिं किसी जीव का,
घात करूँगा प्रण ये करता ।।
ए, इन्द्रियादि पन षट् काया ।
अण्ड, स्वेद, जिन जीवन पाया ।।
सम्मूर्च्छन उपपादि-भेदि उद्,
जर, रस, जिन जीवन ‘कर’ आया ।|
पोत सूक्ष्म पर्याप्तक वादर |
जीव अपर्याप्तक त्रस-थावर |
जीव, भूत जे प्राण, सत्त्व लख,
योनि चुरासी पाते आदर ।।
स्वयं घात नहिं तिन आदरना ।
घात-हेत नहिं प्रेरित करना ।।
करते प्राण-घात जो उनकी,
हृदय रञ्च नहिं श्लाघा धरना ।।
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन गर्हण आदरता ।।
पूर्वो-पार्जित कृत कारित अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
मद, माया, अज्ञान, क्रोध से ।
लोभ, असंयम, भय, अबोध से ।।
राग, द्वेष, गारव, प्रमाद, अति,
विषय गृहि, आलस, प्रमोद से ।।
हास, अदर्शन, अप्रति-ग्रहण से |
कर्म तीव्र पन दुराचरण से ।।
मोह, अवीरज, प्रदोष, नादर,
लाज, अश्रृद्धा, श्रुताल्प पन से ।।
गत परमार्थ ज्ञान अविचारे ।
कर्म शक्ति बाहुल्य सहारे ।।
पापाचरण इनादिक दुष्कृत,
कृपा आप, हों एक किनारे ।।
प्रत्याख्यान करुँ आगामी ।
आलोचन नालोचित स्वामी ।।
निन्दन करुँ अनिन्दित, गर्हण-
करूँ अगर्हित, अन्तर्-यामी ।।
प्रतिक्रमणा ऽप्रतिक्रमण उर धरूँ ।
तज विराधना ऽऽराधना भजूँ ।।
अतप-कुतप तज, सुतप विभज, तज-
असमाधानित, सम समाधिन् जजूँ |।
तज मिथ्यात्व, भजू सम-दर्शन ।
तज निशि-अशन, भनूँ अह्-निक-शन ।।
अकृत त्याग, कृत ग्रहण, तज सकल-
मिथ्या-चरण भजूँ, सम चरणन ।।
हिंसा विसर, अहिंसा चाहूँ ।
तज असत्य, सत्य अवगाहूँ ।।
त्याग अदत्तादान दत्त ‘कर’-
कर कुशील तज, शील लहाहूँ ।।
संंग विभज निःसंग भज रहा ।
तजा-रम्भ, नारम्भ भज रहा ।।
अन्य पात्र तज, पाणि पात्र भज,
तज स…ग्रन्थ, निर्ग्रन्थ भज रहा ।।
आर्त-रौद्र दुर्ध्यान त्यागता ।
धर्म शुक्ल मन ध्यान पागता ।।
सुप्त अशुभ लेश्या बन, लेश्या,
पीत, पद्य, शुभ, शुक्ल जागता ।।
त्याग असंयम, संयम धरता |
नह्वन त्याग, अनह्वना-दरता ।।
तज अलोंच, भज लोंच विसर हा !
अछिति शयन, क्षिति-शयन सुमरता ।।
त्याग कोध कर, क्षमा धर रहा ।
मद तज, मार्दव ग्रहण कर रहा ।।
तज सचेल, भज अचेल, भोजन,
अठिदि विसर, ठिदि अशन वर रहा ।।
तज माया, आर्जव स्वीकारुँ ।
लोभ त्याग, सन्तोष सम्हारूँ ।।
तज अज्ञान, ज्ञान भज, शोधन,
दन्त विहस, अदन्तवन धारूँ ।।
तज अगुप्ति, भज गुप्ति रहा इक ।
तज अमुक्ति, भज मुक्ति रहा इक ।।
तज ममता, निर्ममता भज, तज-
नेक भुक्ति, भज भुक्ति रहा इक ।।
तज त्रिशल्य, निःशल्य कहाता ।
तज उत्पध, गुण जिन-पथ गाता ।।
तज अविनय, भज विनय, अभावित-
भाता, भावित हा ! विसराता ।।
पद निर्ग्रन्थ हमें अभिलाषा ।
करुणा क्षमा धर्म परिभाषा ॥
नैकायिक नुत्तर प्रति-पादित,
केवली पूर्ण विशुद्ध प्रकाशा ॥
सामायिक त्रिक् शल्य विघाता ।
सिद्ध मार्ग श्रेणी जग त्राता ॥
मग निर्याण, प्रमुक्ति मुक्ति मग,
मग निर्वाण, मार्ग शिव-दाता ॥
उत्तम अवितथ शरण यही है ।
दृक्, श्रुत, अवगम, चरण यही है ।।
हुआ न होगा, आज न कल भी,
इस सा तारण तरण यही है ॥
शील यही, गुण यही कहाता ।
नियम यही, तप व्रत विख्याता ।।
निलय-विहार यही इक आर्जव,
लाघव वीर्य, अपर पद दाता ।।
जीव इसे पा बुध हो जाते ।
सिद्ध मुक्त कृतकृत हो जाते ॥
दुख का कर विध्वंस निरख जग,
युगपत् परि-निर्वृत हो जाते ॥
इसे पर्श करता रुचि करता |
इस प्रतीति श्रद्धा आदरता ॥
करता ग्रहण ज्ञान-दृक व्रत-सम,
मिथ्या-दृक्-व्रत-ज्ञान विहरता ॥
विषयों से मुख मोड़ रहा हूँ ।
प्रशम दुशाला ओड़ रहा हूँ ॥
श्रमण हो रहा, मद, छल, मूर्च्छा,
उपधि, असत्, रति तोड़ रहा है ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
प्रथम महाव्रत अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
आजीवन मन, वचन, गात से ।
विरति द्वितिय व्रत मृषावाद से ।।
राग, द्वेष, भय, मोह, पिपासा,
हास, प्रेम, लज्जा, प्रमाद से ।।
लोभ, अनादर, मान क्रोध से ।
छल, प्रदोष, गारव, अबोध से ।।
असत् कहलवाना ना कहना,
देना ना अनुमति त्रियोग से ।।
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन गर्हण आदरता ।।
पूर्वो-पार्जित कृत कारित अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
द्वितिय महाव्रत अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
व्रत अचौर्य तीजा आदरता ।
गहल मन, वचन, काय, विहरता ।।
आजीवन बिन दिये न कुछ भी,
ग्रहण करूँगा प्रण ये करता ।।
मड़म्ब, मण्डल, नगर खेट में |
घोष, द्रोण-मुख, ग्राम, खेत में ।।
आसन, कर्वट, सन्निवेश, सं-
वाह, सभा, पथ, कुपथ देश में ।।
जल, थल, रण, वन, नष्ट पतित जो ।
अल्प, स्थूल, कृश, बहु, अपतित जो ॥
गृह-थित, गृह-बहि थित अचित्त दुर्-
निहित, प्रमुष्ट सचित् सुनिहित वो ॥
दन्त शुद्धि हित भी तृण कणिका ।
काष्ट विकृति वा माणिक मणिका ।।
कृत, कारित, अनुमत, अदत्त ‘कर’-
कर नहिं संयम खोना मन का ॥
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन गर्हण आदरता ।।
पूर्वो-पार्जित कृत कारित अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
तृतिय महाव्रत अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
तुरिय ब्रह्मचर व्रत आदरता ।
गहल मन, वचन, काय, विहरता ।।
परसूँगा अब्रह्म नहिं अब,
आजीवन ऐसा प्रण करता ।
सुर, नर, पशु, तिय चित्र-कर्म में ।
काष्ट, लेप्य, लय, वस्त्र-कर्म में ।।
भेद भण्ड, गृह, धातु कर्म वा,
शिला, दन्त वा भित्ति कर्म में ॥
उभय अचेतन चेतन तिय में ।
कर, पग, मन, संघर्षण क्रिय में ।।
इन्द्रिय इष्टानिष्ट विषय हित,
वशीभूत नहिं करके जिय में ।।
आ आमर्श न कर विमर्श मैं ।
विकृत पर्श परिणाम पर्श मे ॥
धिक् ! धिक् ! हन्त ! हन्त ! हा ! मा ! धिक् !
विकृत नेत्र परिणाम दर्श में ।।
विकृत कर्ण परिणाम शब्द में ।
विकृत घ्राण परिणाम गन्ध में ।।
विकृत जिह्व परिणाम रस तथा,
मन अनियत परिणाम नन्त में ।।
कर न संवरण मन, वच, तन, का ।
स्वैर भाव वर इन्द्रिय पन का ।।
कृत, कारित, अनुमत, अब्रह्म ‘कर’-
कर नहिं संयम खोना मन का ॥
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन गर्हण आदरता ।।
पूर्वो-पार्जित कृत कारित अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
तुरिय महाव्रत अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
व्रत असंग पञ्चम आदरता ।
गहल मन, वचन, काय विहरता ।।
बहि-रन्तर परिग्रह आजीवन,
नहिं छुऊँगा प्रण ये करता ।।
पुं, तिय, षड्, नो वेद कषाया |
क्रोध, लोभ, भय, रति, मद, माया ।।
हास, जुगुप्सा, अरति, शोक, मिथ्-
यात्व, ग्रन्थ अभ्यन्तर गाया ।।
स्वर्ण वास्तु, धन, वाहन चाँदी ।
खेत, कोश, खल-बल जुग, गादी ।।
पुर, रनिवास, प्रकोष्ठ, यान, रथ,
स्यंदन, शिविका, घोड़ा-गाड़ी ।।
बर्तन, स्वर्ण, मणी चाँदी के ।
अयस्, ताम्र,पीतल, आदी के ।।
वस्त्र, रेशमी, सूती, ऊनी,
पट पशु चर्म, दास, दासी ये ।।
सचित् अचित् हल्के या भारी ।
कीमत अत्-यल्पा-धिक न्यारी ॥
गृह-थित, बहि धित, बाल अग्र शिशु-
मेष कोटि इक अंशा-धारी ।।
श्रमण अयोग्य न परिग्रह लेना ।
परिग्रह रखने की नहिं कहना ।।
श्रमण अयोग्य करे जो परिग्रह,
ग्रहण न तिस अनुमति मन ! देना ।।
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन गर्हण आदरता ।।
पूर्वो-पार्जित कृत कारित अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
व्रत पंचम मुनि अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
अणुव्रत मुनि षष्टम आदरता |
गहल मन वचन, काय, विहरता ।।
कभी न जीवन भर निशि भोजन,
ग्रहण करुँगा प्रण से करता ।।
अशनादिक चउ-विध आहारा |
अम्ल, अचित्, चित्, कटु, मधु, खारा ।।
बोझ पीठ क्यूँ रखना, भोजन,
निशि कर करा-रु अनुमति द्वारा ।।
तिस अतिचार त्याग उर धरता ।
निज निन्दन। गर्हण आदरता ।।
पूर्वो पार्जित कृत, कारित, अनु-
मोदित दोष सभी अपहरता ।।
पद निर्ग्रन्थ अनुत्तर जग में ।
धर्म अहिंसा लखन त्रिजग में ।।
‘विनय मूल’ केवली केवलि-प्रति-
पादित प्रवचन शिव सुख मग में ।।
मण्डित शील सहस्र अठारा |
फल-परित्याग सत्य आधारा ।।
नियत लखन, बल क्षमा अलङ्कृत,
गुुण चौरासिन् शतक हजारा ।।
प्रशम प्रधान, क्षमा मग-भाषी ।
अहा ! मुक्ति मग, अपर प्रकाशी ।।
गुप्त ब्रह्मचर, नव सुसिद्धि मग,
पञ्चम चरित शिखर अधिशासी ।।
कथित जिनेन्द्र धर्म यह प्यारा ।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा ।।
पंथ-लोंच संथार आदि का,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
व्रत षष्टम अणु अतिशय कारी ।
श्री मन् ! महा अर्थ गुणधारी ।।
सुजश महा पुरु-षानु-चिन्ह तिस,
उपथापन अभिलाष हमारी ।।
सिद्ध साक्षी पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षी पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षी महन्ता ।।
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को |
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना |
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय विनत निर्ग्रन्थ चरण में ॥
कहे महाव्रत पन जगदीशा ।
तिन पन-पन भावन पन बीसा ।।
कह मैं रहा चुलिका तिन भो !
संभलो रह जागृत निशि-दीसा ॥
हमें महाव्रत प्रथम सहारा |
वाना संयत काय हमारा ।।
गुप्ति वचन, मन, समिति ईर्या,
समिति ऐषणा मग शिव द्वारा ॥
हमें महाव्रत द्वितिय शरण है ।
जहाँ क्रोध यम लोक गमन है ।।
गत भय, लोभ, हास अनुवीची-
भाष कुशल भव जलधि तरण है ।।
तृतिय महा-व्रत शरण्य शरणा ।
देह अशुचि है, शरीर धन ना ।।
उपरत भावन उभय ग्रन्थ-रत
गृद्धि पान न ग्रद्धि अशन न ॥
सहज महाव्रत तुरिय भज रहा ।
कीड़ा तिय संसर्ग तज रहा ।।
हास कथा अवलोकन तिय तज
कर जर्जर अघ कर्म रज रहा ।।
शरण महाव्रत पञ्चम जग में ।
द्रव्य सचित्ता-चित्त त्रिजग में ।।
वहि-रन्तर खिल परिग्रह होऊँ,
विरत, निरत होने शिव मग में ।।
क्षमावान जो धीर-वीर हैं ।
ध्यान जोग थित गुण गभीर हैं ।।
उत्तम व्रत धर, वही वही ‘कर’-
करते भव दुख जलधि तीर हैं ।।
सार-भूत क्या भव जल तरणा ।
गौतम सार-भूत आचरणा ।।
कहा विबुध जन सार-ध्यान अर,
बने करें आचरणा-भरणा ।।
सहित भावना इमि पन बीसा ।
समातृ-पद-उत्तर निशि दीसा ।।
पाल महाव्रत व्रत षष्टम अणु-
करें प्रयाग लोक त्रय शीशा ॥
तज असत्य, चोरी, व्यभिचारा ।
हिंसा तज, परिग्रह तज सारा ।।
व्रत समिचीन पाल वे पाते,
श्रमण जन्म-जर जलधि किनारा ।।
जिन मत गर्हित जिन्हें बखाना ।
माया, मिश्या, शल्य निदाना ॥
छोड़ तिन्हें निःशल्य निलय निज,
विहरूँ तज विकल्प बहि नाना ।।
इक उत्पन्न-रु दूजी माया ।
अनुत्पन्न शासन जिन गाया ॥
निन्दन गर्हण, आलोचन प्रति-
क्रमण विहँसने तिन अपनाया ।।
माया जिस जिस समय अवतरे ।
करें नाश तिस-तिस समय अरे ।।
भाव यही प्रतिक्रमण भाव प्रति-
क्रमण द्रव्य अवशेष कर करे ।।
विधि प्रतिक्रमण द्रव्य अरु भावा ।
संस्थित जे तप संयम नावा ।।
ऋषि निर्ग्रन्थ तिन्हें पहुँचाने,
कही तीर्थ-कर ने शिव गाँवा ।।
कहा हीन पद, अर्थ, अखर हो ।
विस्तृत मात्रा हुई अगर हो ।
क्षमा देव-श्रुत कर दें, दें वर,
हाथ रतन त्रय, मुक्ति डगर हो ।।
वन्दन करके अरिहन्तों का ।
करके नमन सिध्द नन्तों का |।
शत शत अभिनन्दन करके मुनि-
नायक, उपदेशक, सन्तों का ।।
की जो सूत्र मूल पद भूलें ।
पद उत्तर भूले जो झूलें ।।
कर प्रतिक्रमण रहा कृपया जिन-
देव सभी वे भूले भूलें ।।
पद अरिहन्त सिद्ध पद श्रमणा ।
पद उवझाया ऽऽचारज शरणा ।।
मंगल उत्तम सामायिक चउ,
बीस तीर्थ कर पद नुति चरणा ।।
पद, प्राभृत, प्राभृत प्रतिक्रमणा ।
पद असीहि, पद अंग प्रकीर्णा ।।
कायोत्सर्ग निसीहि पूर्व पद,
विगत कर्म कृत प्रत्याख्याना ।।
आसादन हा ! सम दर्शन की ।
आसादन सम्यक् चरणन की ।।
आसादन हा ! अवगम वीरज,
आसादन द्वादश तप धन की ।।
तिनकी थुति थव गुण गानों में ।
अनुयोगों में, आख्यानों में ।।
ग्रन्थ, अर्थ, स्वर, व्यन्जन, अक्षर,
पद, अनुयोग द्वार थानों में ।।
निकट भावि अधिपति शिव गाँवा ।
वाहक धर्म अहिंसा नावा ।।
त्रिजग-दर्शी बुध अरहत स्वामिन्,
कहें जीव आदिक जे भावा ।।
उन सबकी उर श्रद्धा धरता ।
प्राप्त उन सभी को अब करता ।।
उनका करता पर्श सहज मैं,
उनकी अविरल रूचि आदरता ।।
इस विध तिन श्रद्धानी मुझसे ।
तिन रूचि कर संंज्ञानी मुझसे ।।
संस्पर्शक तिन, तिन उपलब्धक,
व्रत धर सम रस सानी मुझसे ।।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा |
अति व्यति क्रम हा ! हा ! नाचारा ।।
इमि उत्पन्न दोष निरसन हित,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
त्रुटि का रख नहिं सका ख्याल मैं ।
किया न गर स्वाध्याय काल में ।।
की करवाई, दीनी अनुमति,
श्रुति-रति करने की अकाल में ।।
स्वर, अक्षर, पद, असत् मिलाये ।
ऊन, मन्द, स्वर पञ्चम गाये ।।
पढ़े शीघ्र हा ! सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ॥
इकम्, दोज, तिज, चौथ, पञ्चमी ।
छट्, सप्तमी, अष्टमी, नवमी ।।
दशि, एकादशि, द्वादशि, तेरास,
चतु-र्दशी मावस्य, पूरणमी ।।
निशि पन-दश इक पक्ष गिनाये ।
पाक्षिक दिन उतने ही गाये ।।
( पक्ष अष्ट चौ मास गिनाये ।
इक सौ बीस रात-दिन गाये ॥
बर्षिक द्वादश मास गिनाये ।
त्रि शत छियासठ निशि दिन गाये )
किये भाव संक्लेश द्विविध, सन्-
क्लेश भाव मन त्रिविध लुभाये ।।
भावन किरियाएँ पन बीसा ।
अठ-दश शील सहस्र मुनीशा ।।
गुण लख-चौरासी कषाय नौ,
गुप्ति ब्रह्म नौ, जिन चौबीसा ।।
शुद्धि कर्म वसु प्रवचन माता ।
चरित, समिति व्रत पन विख्याता ॥
चउ संज्ञा प्रत्यय तप संयम,
द्वादश अङ्ग धर्म जिन-गाथा ॥
धर्म मुण्ड दश, सुधर्म ध्याना |
चउ-दह पूर्व सप्त भय ठाना ॥
जीव निकाय षट्क आवश्यक,
मूलोत्तर गुण सप्त जहाना ।।
हुये पक्ष इक जो अतिचारा |
अति व्यति क्रम हा ! हा ! नाचारा ।।
इमि उत्पन्न दोष निरसन हित,
कर प्रतिक्रमण होऊँ निर्भारा ।।
नित नमोस्तु अरिहत जिन स्वामी ।
ईषत् प्राग-भार-विश्रामी ।।
गण नायक, प्रद संघ चतुर्विध,
ज्ञान श्रमण भावी शिवधामी ।।
तिलक गोत्र कश्यप संंज्ञानी ।
महावीर सुन तिन अमिवाणी ।।
अणु-गुण, व्रत शिक्षा स्वरूप गृही,
धर्म तथा कहता भवि-प्राणी ।।
अणु व्रत पन तिन प्रथम थूलतः ।
विरमण हिंसा द्वितिय थूलतः ।।
मृषावाद परित्याग तृतिय परि-
त्याग अदत्ता दान थूलत: ॥
अणुवत तुरिय स्वतिय सन्तोषी ।
‘गत-पर दार गमन’ निर्दोषी ।।
व्रत पञ्चम अणु थूल रूप से,
बनना इच्छा कृत अवशोषी ॥
गुण व्रत प्रथम विदिश् दिश् त्यागा ।
द्वितिम अनर्थ दण्ड परित्यागा ।।
तृतिय भोग-परिभोग वस्तु परि-
संख्यानन करना अनुरागा ॥
व्रत शिक्षा सामायिक न्यारा ।
व्रत प्रोषध भव जलधि किनारा ।।
तृतिय अतिथि संविभाग व्रत, व्रत-
तुरिय मरण सल्लेखन प्यारा ॥
सम्वर, निर्जर, मोक्ष, अजीवा ।
पुण्य, पाप, बंधास्रव जीवा ।।
यही श्रेष्ठ निर्ग्रन्थ अनुत्तर,
प्रवचन सेवन योग्य सदीवा ।।
तत्त्व यही इमि जे श्रद्धानी ।
जे इन ग्रहीतार्थ ऽनुष्ठानी ।।
अर्थ यथावत् रक्षक जे तिन,
आश्रित अन्य अर्थ विज्ञानी ।।
बुध जे इनमें श्रद्धा रखते ।
धर्म प्रेम अनुराग सुमरते ।।
राग अस्थि-मज्जा रत वे पग,
शिव पथ थाप महल शिव दिखते ।।
निःशंकित थिति-करणाचारा ।
निःकांक्षित, उप वृहणाचारा ।।
दृष्टि अमूढ़, प्रभावन, वत्सल,
निर्वािचिकित्स दर्शनाचारा ।।
अणुव्रत पन त्रय गुण व्रत न्यारे ।
चउ शिक्षा व्रत द्वादश सारे ।।
परम्परा से श्रावक जन को,
दिखलाते भव जलधि किनारे ।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमति,
उद्-दिठ त्याग नाम इक प्रतिमा ।।
जो मधु, मद्य, द्यूत ‘पल’ त्यागी ।
विगत व्यसन वेश्यादि विरागी ।।
गुण व्रत-शिक्षा रूप शील परि-
पूर्ण वही श्रावक बढ़भागी ।।
इन व्रत का जो पालन करते ।
पग नहिं भवि भवनत्रिक धरते ।।
व्यतिक्रम कर सौधर्म युगल तिय,
उपरिम स्वर्गों में अवतरते ॥
कल्प जुगल सौधर्म अवतरें ।
जुग सानत जुग ब्रह्म पग धरें ।।
लान्तव शुक शतार जुगल जुग-
आनत, आरण-जुगल ‘कर’ करें ॥
वस्त्र उत्तमोत्तम जे पहनें ।
दुगुणित करें कान्ति तन गहनें ।
व्रति जा होते देव मह्-रिद्धिक,
वैभव तिन महिमा क्या कहनें ।।
दो भव, तीन ग्रहण वे करते ।
सात, आठ या भव अवतरते ।।
इमि सुमनुज से सुदेव-पन पुनि,
सुदेव से सुमनुज-पन धरते ॥
तज पद फिर अहमिन्द्र श्रमण हो ।
सिद्ध बुद्ध लख तीन भुवन को ।।
छूट कर्म से जाते, पाते-
शिव, दुख का कर पूर्ण हनन वो ॥
शुद्धि सर्व अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग चन्द्र, सन्मति थुति,
करता सकल कर्म क्षय करने ।।
गौर रश्मि शशि अर अभिरामा ।
जिन जन-गण अभिनन्दन धामा ।।
बंध कषाय स्वान्त अभिजित ऋषि,
राज चन्द्र प्रभ कोटि प्रणामा ॥
भिन्न दीप मानस तम ध्याना ।
तम विभिन्न रवि रश्मि समाना ।।
दिव्य प्रभा भण्डल शरीर जिन,
तिमिर विदारित बहिर गुमाना ।।
आर्द्र-गण्ड-थल मद जल कण से ।
यथा विमद गज सिंह गर्जन से ।।
गर्वित निज मत जन प्रवादि जिन,
तथा विमद सिंह नाद वचन से ।।
तेज अचिन्त्य कर्म अविकारी ।
पन परमेष्टि अपर पद धारी ।।
नन्त ज्ञान जग चक्षु अछर जिन,
शासन दुख समन्त क्षय कारी ।।
भव्य कुमुद विकसन शशि न्यारे ।
विगत दोष घन कलंक सारे ।।
न्याय रश्मि वच माल करे वे,
भगवन् शुचि परिणाम हमारे ।।
भूत-भावी सम्प्रति पर्यायें ।
जिन्हें द्रव्य गुण सर्व दिखायें ।।
प्रभु सर्वग वे महावीर जिन !
चरणन सविनय शीश झुकायें ॥
वीर तीर्थ यह बुध जन शरणा ।
अभिहत कर्म महित-सुर-चरणा ।।
कान्ति,कीर्ति,श्री,द्युति,धृति,तप-धर,
वीर जलधि-भव तारण तरणा ॥
संयत सतत ध्यान कर करके ।
करें वीर नुति ‘कर’ सर धरके ॥
सघन विषम संसार सिन्धु वे,
करें पार दुख शोक विहर के ।।
संयम-कंध मूल व्रत सारे ।
बढ़ता यम जल नियम सहारे ॥
शील शाख कलि समिति, गुप्ति-पल्-
लव तप-दल-गुण कुसुम अहा ‘रे ॥
शिव सुख फलद छाँव जिस करुणा ।
शुभ जन पथिक बिन्दु-श्रम-हरणा ।।
दुरित रविज संताप विहर तरु-
चरित हरे वह जामन मरणा ॥
किया सर्व जिन चरिताचरणा ।
किये शिष्य युत चरिताभरणा ।।
लाभ चरित पञ्चम हित वन्दन,
करुँ भेद पन चरिता-मरणा ॥
अपर मित्र ! जिस दया मूल है ।
दिला रहा भव जलधि कूल है ॥
हितकर ! बुध ! सञ्चित शरण्य जिन-
धर्म, शीश तिन चरण धूल है ॥
संयम तप आभूषण धारी ।
धर्म अहिंसा मंगलकारी ॥
देव करें नित नमन उन्हें मन,
जिनका अविरल धर्म पुजारी ॥
भक्ति वीर आलोचन करता ।
पञ्चाचार-तिचार विहरता ॥
शील-नियम-यम संयम-गुण-
अतिचार जोग सावध विसरता ॥
क्रिया जोग अप्रशस्त कषाया ।
थान असंख्या अध्यव-साया ॥
कृत-कषाय संज्ञा इन्द्रिय वश,
दुष्प्रणिधान वचन, मन, काया ॥
विकथा, लेश्या अशुभ हाथ की ।
मन मे कुछ, कुछ और बात की ।।
वेद, शोक, भय, हास, जुगुप्सा,
अरति कुपथ-रति, आत्म-सात की ॥
आर्त-रौद्र परिणाम सुमरके ।
पग जुग हस्त चपलपन धरके ॥
अति-प्रवृत्ति इन्द्रिय मन, वच, तन,
अपरि-पूर्णता हा ! कर करके ॥
स्वर, अक्षर, पद, असत् मिलाये ।
ऊन-मन्द स्वर पञ्चम गाये ॥
पढ़े शीघ्र, हा ! सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ।।
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय रोधन |
आवश्यक षट्, अ-दन्त धोवन ।
एक भक्त, अस्नान,शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो !
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन भूल-भूल मम,
छेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
शान्ति तीर्थ थुति, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
प्रजा-पाल अरि जित जग त्राता ।
अतुल प्रतापी नृप विख्याता ।।
दया मूर्ति ! उप-शान्त पाप जे,
श्रमण स्वयम्भू शान्ति प्रदाता ।।
श्री मन ! चक्र रतन निधि धारी ।
जित नृप चक्र शत्रु भयकारी ।।
घृत समाधि सित ध्यान चक्र रिपु,
मोह चक्र अभिजित त्रिपुरारी ।।
धृत सुभोग नृप नृप सिंह नामी ।
नव निधि रत्न चतुर्दश स्वामी ।।
आत्म तन्त्र सम-शरण सभा श्री,
अरहत लसित धर्म आसामी ।।
विजित विश्व नत राज समाजा ।
अभिजित धर्म चक्र मुनिराजा ।।
अर्चित सुर, सुर चक्र प्रनत नत,
कर्म चक्र भव जलधि जहाजा ॥
गत स्वदोष शरणागत शरणा ।
भगवन् आत्म शान्ति आभरणा ।।
शान्ति विधाता शान्ति नाथ उप-
शान्त करें, मम जामन मरणा ॥
नाथ सगण गणधर निष्कामा |
जीवन मुक्त कन्त शिवरामा ॥
‘आद’ आद जिन सन्मत अंतिम,
तीर्थंकर चौबीस प्रणामा ॥
लखन हजार आठ विख्याता |
मथित जाल भव भाग-विधाता ।।
सुर, नर, नाग महित, जगदीश्वर,
चार-बीस गाऊँ गुण गाथा ॥
वृषभ सुरासुर नमित वन्दना ।
दीप सर्व-जग अजित वन्दना ॥
जिन सम्भव, सर्वग-अभिनन्दन,
देव-देव नित-अमित वन्दना ॥
सुमति कर्म शत्रुघ्न वन्दना |
पद्म-पद्म-प्रभ-गन्ध वन्दना ।।
क्षान्त, दान्त जिन सुपार्श्व वन्दन,
पून चन्द्र-प्रभ चन्द्र वन्दना ॥
पुष्प-दन्त जग विदित-वन्दना ।
शीतल भव-भय मथित-वन्दना ।
श्रेय जगाधिप, वासु-पूज्य वर-
शील-कोश बुध-महित वन्दना ॥
ऋषि-पति विमल जिनेश वन्दना ।
यति-पति ‘नन्त’ अशेष वन्दना ।।
धर्म-केतु सद्-धर्म शान्ति जिन,
शम-यम निलय विशेष वन्दना ॥
कुन्थ लब्ध वधु मुक्त वन्दना ।
भोग-चक्र अर-व्यक्त वन्दना ॥
मल्ल-गोत्र विख्यात खचर-नुत
सौख्य-राशि मुनि-सुव्रत वन्दना ॥
महित सुरेन्द्र नमीश वन्दना ।
ध्वज-हरि-कुल नेमीश वन्दना ॥
पार्श्व वन्द्य-नागेन्द्र शरण-इक,
वर्ध-मान जग-दीश वन्दना | |
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति तीर्थक जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ।।
प्रातिहार्य वसु पन कल्याणा ।
महित-इन्द्र बत्तीस प्रधाना ॥
युत-अतिशय चउ-तीस चतुर्विध-
संघ-शरण लख थवन निधाना ॥
तीर्थक तिन करता सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति मरण हो ॥
क्षय दुख, नाश कर्म गुण अरहत-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति-भोजन ।।
रहे मूल गुण आठ बीस भो !
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन-ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमण विहँसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
वृहद सूरि थुति, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
सिद्धों का कर थवन रहे हैं ।
कर कषाय उप शमन रहे हैं
गुप्ति मुक्ति जुत परिचय प्राञ्चल
मन का दे सत बचन रहे हैं
मुनि पुगंव शिव सुख अभिलाषी ।
मत प्रदीप जित देह प्रकाशी ।।
कुशल वह रज मूल विघातन,
सूरि चरण तिन पाप विनाशी ।।
गुण-मणि रचित देह दृग्-धारी |
विबुध द्रव्य षट् गण मनहारी |।
चर्या रहित प्रमाद सूरि तिन,
चरण वन्दना मङ्गल कारी ।।
प्रासुक निलय कुशल व्यवहारा ।
मृग-तृष्णा चित् नाशन-हारा ॥
अनघ-मोह-छिद्-तप, हत-उत्पथ,
सूरि चरण तिन नमन हमारा ।।
लसित मुण्ड दश सजग गभीरा ।
गत बहु-दण्ड-पिण्ड गण, धीरा ।।
अभिजित परिषह सकल सूरि तिन,
‘पद वारिज’ रज भव जल तीरा ।।
विगत अशुभ लेश्या संंज्ञानी ।
तन अलिप्त जिन, अविचल ध्यानी ।।
कायोत्सर्ग वास गिरि कन्दर,
सूरि जितेन्द्रिय शम-रस सानी ॥
रत स्वाध्याय सतत अभिरामी |
आसन सिद्ध, सरल परिणामी ।।
अतुल, अमल, अपगत, मद माया,
राग-लोभ भावी शिव गामी ॥
भिन्न पक्ष दुर्ध्यान विरागी ।
पुण्य ! पिधान-कुगति बड़भागी ।।
निरत ध्यान शुभ विगलित गारव,
सूरि चरण तिन मन अनुरागी ।।
विभव समेत पाप भयभीता ।
बहु हितकर चर्या भय-रीता ।।
समय मूल-तरु आतप तप-तप
योग अभ्र अवकाश व्यतीता ॥
नेतृ-श्रमण थिर मन वच काया ।
रहित त्रिगद किल्विष मति जाया ।।
पग दें पथ-पाथेय मुझे आ-
चार्य हेत इस थवन उपाया ॥
समिति, गुप्ति, व्रत, चरिताचारा ।
मुख प्रमाद हा ! तहाँ निहारा ॥
हुआ-विराधन आलोचन अब,
करूँ नाथ ! ले आप सहारा ।।
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ॥
नन्ता-नन्त वनस्पति जीवा |
छिन्न-भिन्न, हरि, अङ्कुर बीजा ।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुःखी, पीड़ित भयभीता ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव-आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
जीव असंख्या-संख्या साथी ।
विन्द्रिय सीप-शंख, कृमि आदि ॥
इन्हें विघाता, क्षमा कीजिये,
परिणति अब रह-रह पछताती ।।
जीव असंख्या-संख्या भ्राता ।
तिन्द्रिय चिवटि आद विख्याता ।।
क्षमा कीजिये, हा ! कृत, कारित,
दे अनुमति, यूँ इन्हें विघाता ।।
जीव असंख्या-संख्या ज्ञानी ।
श्रुति जिन चउ इन्द्रियाँ बखानी ॥
डाँस, आद दुख दिया इन्हें हा !
क्षमा कीजिये, सम रस सानी ॥
जीव असंख्या-संख्या जगती ।
जर-रस-श्वेद परसते धरती ।।
पोत-समूर्च्छन उद्भेदिज उप-
पादिज अण्डजादि पञ्चेन्द्री ॥
योनि लाख चउरासी में से ।
लाख-बीस छह योनिज ऐसे ॥
जीव विघाते, विघटे दुष्कृत,
निकट भान तुम, तम के जैसे ॥
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सूरि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ॥
सूरि पञ्च आचारज धारी ।
ज्ञान, चरित्र, दृक्-धर अविकारी ।।
उपदेशक श्रुत ज्ञान भान उव-
झाय साधु गुण मण अधिकारी ।।
तिन गुरु-देव करूँ सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण समाधि मरण हो ।।
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त-धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो |
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन, भूल भूल मम
क्षेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमम विहसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
गुरु मध्यम थुति, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
जाति, देश, कुल शुद्ध अनूपा |
मन वच काय विशुद्ध स्वरूपा ।।
चरण कमल गुरु देव आपके,
नित्य हमें हो मंगल रूपा ॥
समय स्वपर ऽपर जाननहारे ।
नयन हेतु आगम जुग न्यारे ।।
नम्र विनीत कुशल जिन प्रवचन,
गण नायक भव जलधि किनारे ।
शिशु-गुरु शैक्ष्य वृद्ध थिर-रोगी ।
क्षमा समेत विषय तिन जोगी ।।
शिष्य दुशील विबुध सत्पध सम्-
प्रेरक आत्म स्व रस उपभोगी ।।
उपाध्याय गुण थान विशेषा ।
थान साधु गुण अपर अशेषा ।।
गुप्ति समिति व्रत निलय मुक्ति मग,
निर्देशक माहन परि-वेषा ॥
भूमि समान क्षमा शुभ धन त : ।
सदृश अमल जल निर्मल मन तः ।।
वायु भांति निःसंग अग्नि सम,
आहा ! इन्धन कर्म दहन तः ॥
इक निर्लेप त्रिजग अम्बर से ।
त्रिजग अक्षोभिक रत्नाकर से ।।
मुनि केशरि गृह गुण गण नायक,
चरण वन्दना सविनय सर से ॥
जग अटवी अतिशय भयकारी ।
भटक रहे जिसमें नर नारी ॥
आप प्रसाद बिना शिव पथ का,
हुआ कौन अब तक अधिकारी ।।
कृष्ण, नील, कापोत गन्ध ना ।
रञ्च हृदय दुर्ध्यान सन्ध ना ॥
धर्म ध्यान जुत पीत पद्म अरु,
शुक्ल सूरि तिन चरण वन्दना |
अव-ग्रह, ईहा-वाय धारणा |
सुत-गुण निधि तिन निरत साधना ।।
अर्थ भावना आगम जुत आ-
चार्य करुँ तिन पर्युपासना ।।
अविदित गुण गण थुति तव बाला ।
भक्ति वशात् तदपि वाचाला |।
युक्त भक्ति गुरु थुति यह दिन-दिन,
लाभ बोधि दे, करे निहाला ॥
निशि पन-दश इक पक्ष गिनाये ।
पक्षिक दिन उतने ही गाये ।।
( पक्ष अष्ट चौ-मास गिनाये ।
इक सौ बीस रात-दिन गाये ।
बर्षिक द्वादश माह गिनाये ।
त्रिशत छियासठ निशि-दिन गाये )
दृक्, वृत, ज्ञान, वीर्य, तप, पञ्चा-
चार विशोधन अब मन भाये ।।
भेद अष्ट-विध ज्ञानाचारा ।
काल, विनय, उपधाना-चारा ।।
व्यञ्जन, अर्थाचार, अनिह्नव,
उभय तथा बहु माना-चारा ॥
तिनकी श्रुति, थव, गुण गानों में |
अनुयोगों में, आख्यानों में ।।
ग्रन्थ, अर्थ, स्वर, व्यञ्जन, अक्षर,
पद अनुयोग द्वार थानों में ।।
त्रुटि का रख नहिं सका ख्याल में ।
किया न गर स्वाध्याय काल में ।।
की करवाई दीनी अनुमति,
श्रुति रति करने की अकाल में ।।
स्वर, अक्षर, पद असत् मिलाये ।
ऊन, मन्द, स्वर, पञ्चम गाये ।।
पढ़े शीघ्र या सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ॥
निःशंकित थीति-करणाचारा |
निःकांक्षित उपवृह्णाचारा ।।
दृष्टि-अमूढ प्रभावन वत्सल,
निर्विचिकित्स दर्शनाचारा ।।
शङ्का अगर जिनागम कीनी ।
रुचि विष विषया-कांक्षा लीनी ॥
पर पाषण्ड प्रशंसा विमतिन् –
सेवा षट् अनायतन दीनी ।।
की विचिकित्सा, अप् प्रभावना |
अवत्सल्य कीनी उपासना ।।
अष्टक दोष दर्शनाचारा,
हों मिथ्या इक यही प्रार्थना ।।
विभाग द्वादश तपाचार के |
तप अभ्यन्तर षट् प्रकार के ।।
रस परित्याग वृत्ति परिसंख्या,
रहना अल्परु, बिन आहार के ।।
शैय्यासन विविक्त, तन क्लेशा ।
बहि षड-नुपाल्-नीय हमेशा ॥
विनय, ध्यान, वैयावृत, श्रुत रति,
प्रायश्चित, व्युत्सर्ग विशेषा ॥
इनमें अगर न मन विहराया |
इन्हें छोड़ गर मन भटकाया ।।
तपाचार सम्बन्ध विराधन,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
विधिवत् पालन करना व्रत का ।
क्रम उत्कृष्ट सुमरना व्रत का ।।
यथा आत्म बल, यथा देह बल,
सोत्साह आदरना व्रत का ।।
वीर्याचार भेद इमि पंचा ।
छिपा शक्ति इनमें गर रंचा ।।
किया विराधन, परिषह पीड़ित,
तजा, दोष हो दूर विरंचा ।।
समिति, गुप्ति, व्रत, चरिताचारा ।
मुख प्रमाद हा ! तहाँ निहारा ॥
हुआ-विराधन आलोचन अब,
करूँ नाथ ! ले आप सहारा ।।
प्रथम अहिंसा व्रत मुनिराई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ॥
नन्ता-नन्त वनस्पति जीवा |
छिन्न-भिन्न, हरि, अङ्कुर बीजा ।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुःखी, पीड़ित भयभीता ॥
आदि क्रिया इन पाप कमाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव-आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।
जीव असंख्या-संख्या साथी ।
विन्द्रिय सीप-शंख, कृमि आदि ॥
इन्हें विघाता, क्षमा कीजिये,
परिणति अब रह-रह पछताती ।।
जीव असंख्या-संख्या भ्राता ।
तिन्द्रिय चिवटि आद विख्याता ।।
क्षमा कीजिये, हा ! कृत, कारित,
दे अनुमति, यूँ इन्हें विघाता ।।
जीव असंख्या-संख्या ज्ञानी ।
श्रुति जिन चउ इन्द्रियाँ बखानी ॥
डाँस, आद दुख दिया इन्हें हा !
क्षमा कीजिये, सम रस सानी ॥
जीव असंख्या-संख्या जगती ।
जर-रस-श्वेद परसते धरती ।।
पोत-समूर्च्छन उद्भेदिज उप-
पादिज अण्डजादि पञ्चेन्द्री ॥
योनि लाख चउरासी में से ।
लाख-बीस छह योनिज ऐसे ॥
जीव विघाते, विघटे दुष्कृत,
निकट भान तुम, तम के जैसे ॥
समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-रोधन ।
आवश्यक षट्, अदन्त-धोवन ॥
एक भक्त, अस्नान, शयन-भू,
अचेल, कच-लुञ्चन, थिति भोजन ॥
रहे मूल-गुण आठ बीस भो |
कहे श्रमण हित त्रिलोकीश जो ॥
कृत प्रमाद तिन, भूल भूल मम
क्षेदो-पस्थापन ऋषीश हो ॥
शुद्धि सर्व अतिचार परसने
दोष पक्ष प्रतिक्रमम विहसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
गुरु क्षुल्लक थुति, कर्म विनशने ॥
(कायोत्सर्गम्)
प्राप्त हृदय श्रुत प्रतिभाशाली ।
प्रशम प्राप्त मति हंस निराली ।।
विदित लोक थिति पूर्व दृशोत्तर,
विहत आश लौकिक वैताली ।।
प्रभो प्रश्न सह पर मनहारी ।
गुण निधि पर निन्दा अपहारी ।।
हित मित वचनस्-पष्ट देव आ-
चार्य विहर लें पीर हमारी ।।
वृत्ति विशुद्ध वचन, मन, काया ।
हृदय ज्ञान खिल ग्रन्थ समाया ।।
पन्थ प्रवर्तन सद्-विधि रत मन,
जिनका पर प्रतिबोधन आया ।।
विद् व्यवहार लोक गृह करुणा ।
निस्पृह निर्मद मृदुता-भरणा ।।
यति पति सिंह आचार्य सुजन जन,
गुरु भव जल वे तारण-तरणा ।।
तप-निधान व्रत, रज विहीन हैं ।
स्वपर मत विभावन प्रवीण हैं ।।
गुण गभीर, ‘गुरु’ पार जलधि श्रुत,
तिन्हें समर्पित साँझ तीन हैं ।।
निरत पन विधाचार करण में ।
कुशल शिष्य उपकार करण में ।।
गुण छत्तीस निलय संदर्शक,
‘गुरु’ समर्थ भव-पार करण में ।।
पाप कर्म सारे खिर जाते ।
जन्म किनारा यम कर जाते ।।
कहें कहाँ तक, बन्धु ससंयम,
सिन्धु कृपा ‘गुरु’ भव तिर जाते ।।
निरत होम व्रत मन्त्र भावना ।
क्रिया साधु नित निरत साधना ।।
ध्यान अग्नि होत्रा-कुल तप-धन,
धनिक कर्म रत षटाराधना ।।
वसन शील गुण आयुध कर में ।
कहाँ भा यथा, शशि-दिनकर में ।।
मोक्ष द्वार भट कपाट पाटन,
श्री गुरु वर अनुचरा-नुचर मैं ।।
शिव पथ का करते प्रचार हैं ।
नायक दृक्, अवगम उदार हैं ।।
सिन्धु-चरित गुरु करें कृपा वे,
जोड़ हाथ हम, खड़े द्वार हैं ।।
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सूरि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ॥
सूरि पञ्च आचारज धारी ।
ज्ञान, चरित्र, दृक्-धर अविकारी ।।
उपदेशक श्रुत ज्ञान भान उव-
झाय साधु गुण मण अधिकारी ।।
तिन गुरु-देव करूँ सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत-
सम्पद वरण समाधि मरण हो ।।
शुद्धि सर्व अतिचार परसने ।
दोष पक्ष प्रतिक्रमम विहसने ।।
चन्द्र, शान्ति रज चरितालोचन,
त्रिधा-लोचना चार्य विनशने ।
शुद्धि सिद्ध प्रतिक्रमग सुमरने |
अद्य तीर्थक थुति वीर विसरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
थुति समाध का, कर्म विनशने ॥
नमस्कार प्रथमानुयोग श्री ।
नमस्कार करणानुयोग जी ।।
नमस्कार चरणानुयोग नित,
नमस्कार द्रव्यानुयोग भी ॥।
श्रुताभ्यास सत्संग सुमन का ।
दोष-मौन कीर्तन गुण-धन का ॥
शिव-तक होवे प्राप्त भावना-
आत्म, थवन-जिन, विभव-वचन का ।।
शिव सुख नहिं जब तलक चख रहा ।
चरण हृदय तब तलक रख रहा ॥
नाथ ! हृदय मम, चरण आप जुग,
लगा टक-टकी अथक तक रहा ॥
कहा हीन पद अर्थ, अखर हो !
विस्मृत मात्रा हुई अगर हो ॥
क्षमा देव-श्रुत ! कर दें, दें वर,
हाथ रतन त्रय मुकति डगर हो ॥
दोहा=
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति समाध जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥
सम दर्शन है जिसका वाना ।
स्वरूप सम चारित संज्ञाना ॥
लखन परम ब्रह्मन परमातम,
अविरल निर्-विकल्प तिस ध्याना ॥
करता तिस समाधि सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय सुगति गमन हो ॥
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण-अरहत्
सम्पद् वरण, समाधि मरण हो ॥
ओम्…
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