श्रावक प्रतिक्रमण हाईकू
*संकल्प*
प्रति कम न,
सुमन !
क्यों दुखाना किसी का मन ।।१।।
भूल करने निर्मूल,
पाद-मूल-गुरु खड़ा मैं ।।२।।
क्षमा सभी से,
क्षमा सभी को,
नहीं किसी से वैर ।।३।।
आग से राग द्वेष,
त्याग, सो जाग के कर रहा है ।।४।।
करके पाप,
लिया नाप उत्पथ, अब काँपता ।।५।।
प्रतिक्रमण करता मैं,
दो भूलों की क्षमा हमें ।।६।।
स्थावर त्रस-काइय,
ए, वे, ते, चौ, पञ्च इन्द्रिय ।।७।।
कृत कारित अनुमत,
हहा ! जो भी विराधना ।।८।।
यही प्रार्थना,
होवें मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।९।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।।१०।।
ब्रह्म, आरंभ, परिग्रहा-नुमत,
उदिष्ट प्रमुक् ।।११।।
गृही ग्यारह प्रतिमा ये,
प्रकटीं जिनानन जो ।।१२।।
विघटीं त्रुटिं विघटें,
पुनः छेदो-पस्थापन हो ।।१३।।
दृढ़ता पाऊॅं,
असिआ, उसा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।१४।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।।१५।।
कर्म क्षयार्थ, पूर्वा-चार्या-नुसार,
स्तव-समेत ।।१६।।
करता हूँ,
श्री भक्ति सिद्धालोचना का कायोत्सर्ग ।।१७।।
अरिहंताणं, सिद्धाणं
णमो लोए सव्व साहूणं ।।१८।।
मङ्गल चार,
अहिंसा, अर्हन्, सिद्ध, व अनगार ।।१९।।
उत्तम चार,
अहिंसा, अर्हन्, सिद्ध, व अनगार ।।२०।।
शरण चार,
अहिंसा, अर्हन्, सिद्ध, व अनगार ।।२१।।
जन्मे, सिन्धु दो, द्वीप अढ़ाई,
कर्म-भू पन्द्रहों में ।।२२।।
तीर्थक, अर्हन्,
आदियर, भगवन् जिन जिनेश ।।२३।।
बुध, केवलि, अन्तकृत,
पारग, परिनिर्वृत ।।२४।।
देवाधिदेव,
आचार्य-उपाध्याय, दृक्, ज्ञान, व्रत ।।२५।।
चक्री सद्धर्म,
इनका मैं करता हूँ कृतिकर्म ।।२६।।
भगवन् करूँ सामायिक,
विसरूँ सावद्य जोग ।।२७।।
कृत कारिता-नुमत,
आजीवन साथ त्रियोग ।।२८।।
प्रतिक्रमण अतिचारों का,
करूँ पाप-गर्हा भी ।।२९।।
जब तलक भजूँ आपको,
तजूँ पाप चर्चा भी ।।३०।।
*कार्यात्सर्गम्*
श्री मन् !
नृसिंह ! महामना !
तीर्थंक ! जिन ! वन्दना ।।३१।।
लोक-आलोक,
ऋषीश चार-बीस अभिनन्दना ।।३२।।
आदि, अजित,
सम्भौ-अभिनन्दन,
सुमति, पद्म ।।३३।।
सुपार्श्व,चन्द्र,
पुष्पदन्त, शीतल
श्रेयांस, पूज्य ।।३४।।
विमल, नन्त,
धरम, शान्ति, कुन्थ,
अरह, मल्लि ।।३५।।
मुनि-सुव्रत,
नमि, अरिष्ट नेमि,
पार्श्व, सन्मति ।।३६।।
होंय प्रसन्न
भक्त अनन्य मुझ पे, तीर्थक ये ।।३७।।
केवल ज्ञान, समाधि, बोधि
करें प्रदान मुझे ।।३८।।
दें सिद्धि
‘इन्दु’ जेय कमल-बन्धु, ‘गंभीर-सिन्धु’ ।।३९।।
झलके, ज्ञान जिनके
लोकालोक मानिन्द बिन्दु ।।४०।।
सम्यक्त्व, ज्ञान,
वीरज, दृक्, सूक्ष्मत्व, अवगाहना ।।४१।।
अगुरु-लघु, अव्याबाध,
गुणाष्ट सिद्ध पावना ।।४२।।
तप-संयम, ज्ञान, दर्शन,
नय सिद्ध वन्दना ।।४३।।
कायोत्सर्ग श्री भक्ति-सिद्ध
उसकी करूँ निन्दना ।।४४।।
पत गुणाष्ट, हत कर्माष्ट,
ज्ञान, दृक्, व्रत साथ ।।४५।।
चरित-सिद्ध-संयम,
थित ऊर्ध्व-भुवन-माथ ।।४६।।
भूत-भविष्यत्, वर्तमाँ,
सभी सिद्धों को नमो नमः ।।४७।।
कमों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।।४८।।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।४९।।
हा ! हहा ! दिन सम्बन्धी समस्त,
जो भी विराधना ।।५०।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।५१।।
दर्शन प्रतिमा
बड़, पीपल,
ऊमर, कटुमर, पाकर फल ।।५२।।
जुआ खेलना
शिकार, सुरापान, आमिषाहार ।।५३।।
चोरी करना,
सेवन पर-नार, नगर-नार ।।५४।।
इनका त्यागी,
‘दार्शनिक श्रावक’ दृगानुरागी ।।५५।।
*व्रत प्रतिमा*
पंचा-णुव्रत, गुण-व्रत तीन,
औ शिक्षा-व्रत चौ ।।५६।।
चीन,
निरत अद्वितीय द्वितीय प्रतिमा व्रत ।।५७।।
*सामायिक प्रतिमा*
जिन वचन,
चैत्य, चैत्यालय, सद्-धर्म अहिंसा ।।५८।।
श्री अर्हन्, सिद्ध, आचार्य,
उपाध्याय, साधु महन्ता ।।५९।।
इनकी प्रति-दिन
साँझन-तीन जो करता थुति ।।६०।।
चीन,
निश्चय से वह सामायिक प्रतिमा व्रति ।।६१।।
*प्रोषध प्रतिमा*
चतुर्दशी ‘दो’ अष्टमी,
साधो ! पर्व माह में चार ।।६२।।
उत्तम, मध्यं व जघन्य,
प्रोषध तीन प्रकार ।।६३।।
*सचित्त त्याग प्रतिमा*
अंकुर, कन्द, मूल, फल,
प्रवाल, सचित्त जल ।।६४।।
इनका कब अनुरागी,
प्रतिमा सचित्त त्यागी ।।६५।।
*रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा*
मन, वचन, काय,
कृत, कारित, अनुमादना ।।६६।।
नव कोटि,
भो-जन रात्रि छोड़ना प्रतिमा छटी ।।६७।।
*ब्रह्मचर्य प्रतिमा*
सदा सर्वदा, नव कोटि,
स्त्री मात्र का परित्याग ।।६८।।
प्रतिमा ब्रह्म-चर्य,
स्त्री कथा आद का त्याग ।।६९।।
*आरंभ त्याग प्रतिमा*
आरंभ असि, मसि, कृषि,
वाणिज्य, शिल्प, षट् ।।७०।।
पूर्णतः परि-हारी,
प्रतिमा धारी अष्टमम् भट ।।७१।।
*परिग्रह त्याग प्रतिमा*
वस्त्र मात्र को छोड़ के,
परिग्रह त्याग अशेष ।।७२।।
प्रतिमा नवीं,
उन वस्त्रों में भी न राग विशेष ।।७३।।
*अनुमति त्याग प्रतिमा*
स्वपर काज घर,
पूछने या न पूछने पर ।।७४।।
अनुमति न दे सम्मति,
दशम प्रतिमा व्रति ।।७५।।
*उद्-दिष्ट त्याग प्रतिमा*
भिक्षा व्रत नौ कोटि विशुद्ध
हीन भावना दीन ।।७६।।
प्रतिमा त्याग उद्-दिष्ट ग्यारहवीं,
द्विविध कही ।।७७।।
प्रथम खण्ड वस्त्र-धारी,
द्वितीय कोपीन-धारी ।।७८।।
धर्म ध्यानी, षट् आवश्यक,
लोंच, द्वादशानु-पेक्ष ।।७९।।
निरत तप, नियम, व्रत,
पातृ-पाणि, सपिच्छ ।।८०।।
दिन आभोग, नाभोग
अतिचार, नाचार तथा ।।८१।।
सर्वातिक्रम व्यतिक्रम हों मृषा,
पा आप कृपा ।।८२।।
कर्मों का क्षय
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।।८३।।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।८४।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।।८५।।
ब्रह्म, आरंभ, परिग्रहा-नुमत,
उदिष्ट प्रमुक् ।।८६।।
गृही ग्यारह प्रतिमा ये,
प्रकटीं जिनानन जो ।।८७।।
विघटीं त्रुटिं विघटें,
पुनः छेदो-पस्थापन हो ।।८८।।
दृढ़ता पाऊॅं,
असिआ, उसा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।८९।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।।९०।।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।९१।।
करता हूँ,
श्री भक्ति प्रतिक्रमण का कायोत्सर्ग ।।९२।।
अरिहंताणं, सिद्धाणं
णमो लोए सव्व साहूणं ।।९३।।
अरिहंताण, सिद्धाणं
णमो लोए सव्व साहूणं ।।९४।।
अरिहंताणं, सिद्धाणं
णमो लोए सव्व साहूणं ।।९५।।
णमो जिणाणं
जिणाणं णमो णमो, णमो जिणाणं ।।९६।।
जै निस्सीहिए,
जै निस्सीहिए, जै जै जै निस्सीहिए ।।९७।।
नन्त नमोऽस्तु
नमोऽस्तु नन्त, सिद्ध नन्त नमोस्तु ।।९८।।
अर्हन्, समर्थ,
सममन, सुमन, विशुद्ध, बुद्ध ! ।।९९।।
योग, प्रशम, भाव-सम,
निः संग, नि:शल्य, नन्त ! ।।१००।।
ममत्व, रोष,
घमण्ड, माया, मोष, भयादि हन्त ! ।।१०१।।
गुण गागर, अप्रमेय,
सागर-शील महर्षिन् ।।१०२।।
तपस्विन्, बुद्धि-ऋर्षिन् !
नमो नम: श्री वीर वर्धमाँ ! ।।१०३।।
केवलि, बुद्ध,
अर्हन्, सिद्ध, पूर्वज्ञ श्रुत-समृद्ध ।।१०४।।
ज्ञानी अवधि,
मनः पर्यय ज्ञानी, ज्ञान, विज्ञानी ।।१०५।।
तप, तपस्वी,
गुण, गुणी, महर्षि, गुप्ति, प्रगुप्त ।।१०६।।
दृक्, दर्शनी,
प्र-वचन, प्रवचनी, मुक्ति, प्रमुक्त ।।१०७।।
तीर्थ, तीर्थक,
ब्रह्मचर्य, विहारी-ब्रह्म, प्रबुद्ध ।।१०८।।
क्षपक, क्षीणविमोह
क्षीण वन्त, बोधित बुद्ध ।।१०९।।
विनय, नम्र, व्रत, व्रति,
समिति, समिति-वन्त ।।११०।।
करें मंगल
चैत्य-वृक्ष, चैत्य, विद् समय-नन्त ।।१११।।
ऊर्ध्व, धः मध्य लोक,
सिद्धायतन, सनम्र ढ़ोक ।।११२।।
निर्वाण थल,
अष्टापद सम्मेद गिरि उर्जन्त ।।११३।।
नगर पावा, नगरी चम्पा,
आदि नादि जयन्त ।।११४।।
थविर, गुरु, आचार्य, उपाध्याय,
चौविध संघ ।।११५।।
प्रवर्तकादि संयमी अन्य और भी
साधु वृन्द ।।११६।।
विहरते जो, पन-दश धर्म भू,
वा नृलोक में ।।११७।।
हित मंगल,
बद्धाञ्जली सिद्धों को देता ढ़ोक मैं ।।११८।।
*प्रतिमा प्रतिक्रमण*
भगवन् !
करूँ मैं, प्रतिमा दर्शन प्रतिक्रमण ।।११९।।
शंका, कांक्षा, वि-चिकित्सा,
प्रशंसा ‘औ’ दृष्टि स्तवन ।।१२०।।
हहा ! पहली प्रतिमा संबंधी,
जो भी विराधना ।।१२१।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१२२।।
भगवन् !
व्रत, स्थूल हिंसा विरत प्रतिक्रमण ।।१२३।।
बन्धन, वध, छेद,
अति-भार, निरोध आहार ।।१२४।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी,
जो भी विराधना ।।१२५।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१२६।।
भगवन् !
व्रत, स्थूल असत् विरत प्रतिक्रमण ।।१२७।।
वाक् ‘कूट’-लेख, न्यासा’पहार
भेद मन्त्र साकार ।।१२८।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी,
जो भी विराधना ।।१२९।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१३०।।
भगवन् !
व्रत, स्थूल चोरी विरत प्रतिक्रमण ।।१३१।।
प्रयोग ‘स्तेन’ सम्मान, राज-द्रोह,
बाँट हा ! हाट ।।१३२।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१३३।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१३४।।
भगवन् !
व्रत, स्थूलाब्रह्म विरत प्रतिक्रमण ।।१३५।।
विवाह ‘और’ गृहिता वेश्या,
‘क्रीडा’ अनंग ‘तृषा’ ।।१३६।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१३७।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१३८।।
भगवन् !
व्रत, परिग्रह प्रमाण प्रतिक्रमण ।।१३९।।
हिरण्य, स्वर्ण, क्षेत्र, वास्तु,
दासौर धनान्न कुप्य ।।१४०।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१४१।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१४२।।
भगवन् !
गुण-व्रत मध्य दिग्व्रत प्रतिक्रमण ।।१४३।।
वृद्धि ‘क्षेत्र’ वि-स्मरण,
तिर्यक्, ऊर्ध्व, धः तिक्रमण ।।१४४।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१४५।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१४६।।
भगवन् !
गुण-व्रत देश विरत प्रतिक्रमण ।।१४७।।
आनैन, प्रेष्य ‘क्षेप’ पुद्गल,
शब्दा ‘नुपात’ रूप ।।१४८।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१४९।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१५०।।
भगवन् !
गुण-‘व्रत’ अनर्थ-दण्ड प्रतिक्रमण ।।१५१।।
कौत्-कुच्य, व्यर्थ ‘कृत्य’ असमीक्ष्य
कं-दर्प, मौखर्य ।।१५२।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१५३।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१५४।।
भगवन् !
शिक्षा-‘व्रत’ भोग प्रमाण प्रतिक्रमण ।।१५५।।
अतिक्रमण,
स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, करण ।।१५६।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१५७।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१५८।।
भगवन् !
‘व्रत’ परिभोग प्रमाण प्रतिक्रमण ।।१५९।।
अतिक्रमण,
स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, करण ।।१६०।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१६१।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१६२।।
भगवन् !
व्रत अतिथि संविभाग प्रतिक्रमण ।।१६३।।
निक्षेप, ‘सचित्’, अपिधान, मात्सर्य,
‘औ’ व्यपदेश ।।१६४।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१६५।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१६६।।
भगवन् !
व्रत सल्लेखना मरण प्रतिक्रमण ।।१६७।।
निदान, रक्षा ‘प्राण’ मरण,
मित्र सुख-स्मरण ।।१६८।।
हहा ! दूसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१६९।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१७०।।
भगवन् !
तीजी, सामायिक प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१७१।।
विस्मृति, अव-मान,
मन, वाक्, तन दुष्प्रणिधान ।।१७२।।
हहा ! तीसरी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१७३।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१७४।।
भगवन् !
करूँ मैं प्रोषध प्रतिमा प्रतिकमण ।।१७५।।
शोध न देख शैन,
उत्सर्गादान स्मृति ‘औ’ मान ।।१७६।।
हा ! हहा ! चौथी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१७७।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१७८।।
भगवन् !
नाम सचित् त्याग, प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१७९।।
पृथ्वी, अगन,
असंख्याता-संख्यात जल, पवन ।।१८०।।
अनन्तानन्त
हरि ! छिन्न-विछिन्न की दुखापन्न ।।१८१।।
हहा ! पाँचवी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१८२।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१८३।।
भगवन् !
रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१८४।।
हहा ! छठवी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१८५।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१८६।।
भगवन् !
पूर्ण ब्रह्मचर्य प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१८७।।
अंग ‘स्त्री’ कथा
राग स्मरण रस श्रृंगार त्याग ।।१८८।।
हहा ! सातवीं प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१८९।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१९०।।
भगवन् !
त्याग षड़ारंभ प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१९१।।
हहा ! आठवीं प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१९२।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१९३।।
भगवन् !
त्याग परिग्रह प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१९४।।
हहा ! नवमी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१९५।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१९६।।
भगवन् !
त्याग अनुमति प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।१९७।।
हहा ! दशमी प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।१९८।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।१९९।।
भगवन् !
परित्या-गुदिष्ट प्रतिमा प्रतिक्रमण ।।२००।।
हहा ! ग्यारवीं प्रतिमा संबंधी
जो भी विराधना ।।२०१।।
यही प्रार्थना,
होवे मिथ्या वो, छुये नभ साधना ।।२०२।।
*निर्ग्रन्थ पद की वांछा*
निर्ग्रन्थ लिङ्ग हमें आप्त,
कृपया दें करा प्राप्त ।।२०३।।
प्रवचन है यही,
परिपूर्ण, न इस सा कहीं ।।२०४।।
जिन-कथित,
नैकायिक है, यही सामायिक है ।।२०५।।
निःशल्य, शुध्द, मार्ग मोक्ष,
प्रमोक्ष, क्षमा मुक्ति का ।।२०६।।
मार्ग निर्याण, निर्वाण,
सिद्धि, श्रेणी वा प्रमुक्ति का ।।२०७।।
मारग परि-निर्वाण का,
दुक्ख परि-हान का ।।२०८।।
निर्विवाद है यही,
यही, शरण-शरण्य सही ।।२०९।।
प्राप्त होता हूँ इसे,
करता, श्रृद्धा, रुचि, स्पर्श भी ।।२१०।।
इसके जैसा उत्तम,
न था, न है, न होगा कभी ।।२११।।
इस से, दृक् से
ज्ञान वृत से,
जीव होते सिद्ध हैं ।।२१२।।
होते हैं मुक्त,
कृतकृत्य, विमुक्त-दुख, बुद्ध हैं ।।२१३।।
श्रमण होता हूँ,
भोग विरक्त भी, उपशान्त भी ।।२१४।।
उपाधि, मूर्छा, असत् मान, वञ्चना
छोड़ता सभी ।।२१५।।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित,
तत्व परिपालता ।।२१६।।
मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित,
आज से विसारता ।।२१७।।
दिन सम्बन्धी
हुये जो अतिचार, अनाचार भी ।।२१८।।
मानस, काय, वाक् कृत अनाभोग,
आभोग सभी ।।२१९।।
दुश्चिन्तवन,
दुःस्वप्न, दुर्वचन, दुष्परिणाम ।।२२०।।
श्रुत-त्रिरत्न, सामायिक जिसका नाम ।।२२१।।
पंचाणुव्रत, प्रतिमा दशेक,
षट् जीव निकाय ।।२२२।।
क्रिया निर्घात,
कर्म आठ, प्रदोष दुख-प्रदाय ।।२२३।।
छींक से, खासी से,
जंभाई से, अंग चलाचल से ।।२२४।।
निमेषुन्मेष, श्वासोच्छ्वास से,
दृग्-चलाचल से ।।२२५।।
असमाधि को छुआ,
हा ! दोष हुआ, जो आचार में ।।२२६।।
मेंटने उसे, लेता हूँ,
कायोत्सर्ग का आधार में ।।२२७।।
जब तलक करता
अरिहन्त पर्युपासना ।।२२८।।
तब तलक विसारता
समस्त पाप वासना ।।२२९।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।।२३०।।
ब्रह्म, आरंभ, परिग्रहा-नुमत,
उदिष्ट प्रमुक् ।।२३१।।
गृही ग्यारह प्रतिमा ये,
प्रकटीं जिनानन जो ।।२३२।।
विघटीं त्रुटिं विघटें,
पुनः छेदो-पस्थापन हो ।।२३३।।
दृढ़ता पाऊॅं,
असिआ, उसा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।२३४।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।।२३५।।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।२३६।।
करूँ,
निष्ठित करण वीर भक्ति का कायोत्सर्ग ।।२३७।।
विश्व समस्त
जानते जो युगपत्, उन्हें प्रणाम ।।२३८।।
अकर्म ! कृत तीर्थ धर्म ! विद् मर्म !
एक निष्काम ।।२३९।।
श्रीष !
यशस्वी ! तपस्वी !
धीर ! वीर ! दें शुभाशीष ।।२४०।।
पाते जलधि जन्म तीर,
सव्रत जो ध्याते ‘वीर’ ।।२४१।।
संयम-स्कंध,
व्रत-मूल,
सद्गुण सुगन्ध फूल ।।२४२।।
शील शाखाएँ,
समिति कलिकाएँ,
गुप्ति कोपल ।।२४३।।
तप पत्तियाँ,
छाँव दया विहर पथ्यापत्तिंयाँ ।।२४४।।
वर्धित जल नियम,
करे शुभम्, चारित्र द्रुम ।।२४५।।
सम्यक् चारित्र आराधूँ,
चारित्र ‘कि पंचम साधूँ ।।२४६।।
हित, सुखद, धन-बुध
शिवद, धर्म विरद ।।२४७।।
सखा करीब, दया-नींव
रक्षक धर्म सदीव ।।२४८।।
धर्म संलीन मन,
करते देव उन्हें नमन ।।२४९।।
कार्योंसर्ग
श्री भक्ति वीरा-लोचना अनुरागता ।।२५०।।
आसन, देश, काल,
दोष आवर्त सभी त्यागता ।।२५१।।
स्वर, अक्षर, व्यञ्जन,
पद दिये मिला अन्यथा ।।२५२।।
उच्चारे शीघ्र,
स्वर-पञ्चम, ध्वनि मन्थर तथा ।।२५३।।
अन्यथा सुने,
चुने अपरिपूर्ण, कहे झूठ हों ।।२५४।।
क्रिया-वश्यक-हीन
कोटि नव वो, झूठ-मूठ हों ।।२५५।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।।२५६।।
ब्रह्म, आरंभ, परिग्रहा-नुमत,
उदिष्ट प्रमुक् ।।२५७।।
गृही ग्यारह प्रतिमा ये,
प्रकटीं जिनानन जो ।।२५८।।
विघटीं त्रुटिं विघटें,
पुनः छेदो-पस्थापन हो ।।२५९।।
दृढ़ता पाऊॅं,
असिआ, उसा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।२६०।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।।२६१।।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।२६२।।
करूँ,
चौबीस श्री तीर्थंकर भक्ति का कायोत्सर्ग ।।२६३।।
वन्दना श्रीश चौबीस,
लोक शीश थित ऋषीश ।।२६४।।
धर लक्षण सहस्र-अष्ट,
जगज्-जाला विनष्ट ।।२६५।।
शशि दिनेश, सन्त वन्द्य,
वन्दना जिनेश नन्त ।।२६६।।
आदि सदीव वन्दना,
जित लोक दीव वन्दना ।।२६७।।
शंभव श्रीश वन्दना,
ऋषि शीश अभिनन्दना ।।२६८।।
सुमति, कर्म-हन नमन
पद्म गन्धि सुमन ।।२६९।।
सुपार्श्व जेय अक्ष-पन,
चन्द्र-भा-शशि नमन ।।२७०।।
नमन पुष्प-दन्त-नन्त,
शीतल अभय वन्त ।।२७१।।
शील श्रेय श्री मन्त,
नमन वासु पूज्य अनन्त ।।२७२।।
दान्त विमल जै जयत,
नन्त जै जै यत पत ।।२७३।।
सद्धर्म धर्म केतु जै,
जल जन्म शान्ति सेतु जै ।।२७४।।
नमन कुन्थ चक्र त्यक्त,
अरह चक्री विरक्त ।।२७५।।
मल्लि मदन मान हत,
वन्दना मुनि सुव्रत ।।२७६।।
नुति नमीश जोड़ हाथ,
कीजिये नेमि सनाथ ।।२७७।।
स्तुत फणीश पार्श्व नाथ,
‘सहजो’ सन्मति साथ ।।२७८।।
कायोत्सर्ग चौ-बीस तीर्थक भक्ति का
किया मैंने ।।२७९।।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलंगर लगा अगर खेने ।।२८०।।
सम्पन्न पञ्च कल्याण,
खान लख-संस्तुति गान ।।२८१।।
अतिशय चौ-तीस जुत,
देवेन्द्र बत्तीस नुत ।।२८२।।
समेत अष्ट प्रातिहार्य,
‘रे घिरे ऋषीश आर्य ।।२८३।।
तलक वीर चौबीस,
निशि दीस विनत शीश ।।२८४।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।।२८५।।
मोक्ष गमन,
हो समाधि मरण, ‘श्री’ श्री वरण ।।२८६।।
दर्शन, व्रत, सामायिक,
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् ।।२८७।।
ब्रह्म, आरंभ, परिग्रहा-नुमत,
उदिष्ट प्रमुक् ।।२८८।।
गृही ग्यारह प्रतिमा ये,
प्रकटीं जिनानन जो ।।२८९।।
विघटीं त्रुटिं विघटें,
पुनः छेदो-पस्थापन हो ।।२९०।।
दृढ़ता पाऊॅं,
असिआ, उसा साक्ष,
सम्यक्त्व साथ ।।२९१।।
अथ,
मैं दिन प्रतिक्रमण दोष विशुद्धि हेत ।।२९२।।
कर्म क्षयार्थ,
पूर्वा-चार्या-नुसार, स्तव समेत ।।२९३।।
करके भक्ति,
सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर, तीर्थक ।।२९४।।
करूँ, समाधि कायोत्सर्ग
मेंटने कमी-अधिक ।।२९५।।
नमः ऽनुयोग
प्रथम, करण
वा द्रव्य, चरण ।।२९६।।
पठन ग्रन्थों का
संग निर्ग्रन्थों का, नुति जिनेशा ।।२९७।।
आत्म-भावना,
हित-गुणो-पासना मिले हमेशा ।।२९८।।
आप ह्रदय मेरे,
मैं रहूँ, आप चरण घेरे ।।२९९।।
पद, अक्षर, मात्रा, अर्थ-हीन
जो कहा, हो क्षीण ।।३००।।
कायोत्सर्ग श्री मन्
श्री भक्ति समाधी का किया मैंने ।।३०१।।
चाहूँ निन्दन,
नौ सलगंर, लगा अगर खेने ।।३०२।।
रत्नत्रयी श्री मन् परमात्मा का ध्याँ,
जिसका निशाँ ।।३०३।।
सन्त, समाधि वन्त,
नमन उन्हें नन्त हमेशा ।।३०४।।
कर्मों का क्षय,
हो लाभ रत्नत्रय, दुक्ख विलय ।।३०५।।
मोक्ष गमन,
हो समाधि-मरण ‘श्री’ श्री वरण ।।३०६।।
ओम्…
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