अरहनाथ
लघु-चालीसा
=दोहा=
जीवन अपना आपने,
पर हित किया निछार ।
भक्तों का ताँता तभी,
ऐसा और न द्वार ।।
तुम भक्तों के एक सहारे ।
तभी एक सुर गये पुकारे ।।
कहो, न किस की मनी दिवाली ।
गई पुकार न अब तक खाली ।।१।।
कमल खिले, सरवर बन चाला ।
जग भखने वाली हा ! ज्वाला ।।
गंग जमुन दृग्-गद-गद वाणी ।
सुन पुकार सति सीता रानी ।।२।।
सुन पुकार सति द्रुपद-दुलारी ।
भाँत-मात मुख चीख निकाली ।।
चीर क्षितिज सरहद उस पारा ।
जीता जिन ‘शासन’ अर हारा ।।३।।
दूर पैर, पड़ते ही छाया ।
पट खुल पड़े बिलाई माया ।।
दी आवाज हृदय इक सच्चे ।
‘सति-नीली’ मुख बच्चे-बच्चे ।।४।।
सति सोमा ने टेर लगाई ।
फिर तुमने कब देर लगाई ।।
जोड़े वाला विषधर काला ।
बन चाला फूलों की माला ।।५।।
बजरंगी वज्रांकित लेखा ।
छार-छार शिल काँपी देखा ।।
हाथ जोड़ कर सिर नाया है ।
सति अंजन तुम जश गाया है ।।६।।
चन्दन-बाला ले नम नयना ।
कुछ कह पाती गद-गद वयना ।।
लिये आखड़ी वीर पधारे ।
बंधन तड़-तड़ टूटे सारे ।।७।।
कामदेव सी सुन्दर काया ।
गलित कोढ़ का तुरत सफाया ।।
मैना सुन्दरी भक्त तिहारी ।
बात गई न उसकी खाली ।।८।।
बात भक्त मुख से क्या निसरी ।
रखा भाँत माँ, मुख दधि-मिसरी ।।
भक्त कहें वैसी कहते हो ।
भक्तों के वश में रहते हो ।।९।।
मैं क्या कहूँ, कहे जग सारा ।
सुन, मैंने तो चित्र उतारा ।।
ओ ठहरे तुम अन्तर्जामी ।
तुम्हें बताना दुख क्या स्वामी ।।१०।।
=दोहा=
‘सहज निराकुल’ रह सकूँ,
यही भावना एक ।
बड़े और कोई नहीं,
मेरे अरमाँ नेक ।।
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