श्री शान्ति, कुन्थ, अर
लघु चालीसा
‘दोहा’
आ सत्संगत से जुड़ें,
कलि इस भाँत न और ।
थकना, थमना अन्त में,
तजें न क्यों मृग दौड़ ।।
कहा यूँ ही ना दीन-दयाल ।
तुम्हें रहता भक्तों का ख्याल ।।
दूसरे काम और सब छोड़ ।
बुलाते ही आ जाते दौड़ ।।१।।
फूल माला में बदले नाग ।
तुम्हीं ने बदली जल में आग ।।
हाथ-जुग श्री फल लेते भेंट ।
भक्त के संकट देते मेंट ।।२।।
कहा यूँ ही ना दीन-दयाल ।
तुम्हें रहता भक्तों का ख्याल ।।
दूसरे काम और सब छोड़ ।
बुलाते ही आ जाते दौड़ ।।३।।
सिंहासन बना दिया, थी शूल ।
जटायू पंख सोन भज धूल ।।
सुमन श्रद्धा कुछ लेते भेंट ।
भक्त के संकट देते मेंट ।।४।।
कहा यूँ ही ना दीन-दयाल ।
तुम्हें रहता भक्तों का ख्याल ।।
दूसरे काम और सब छोड़ ।
बुलाते ही आ जाते दौड़ ।।५।।
चीर धागे सत अछत कतार ।
पाँव लग सत खुल पड़े किवाड़ ।।
आँख मोति कुछ लेते भेंट ।
भक्त के संकट देते मेंट ।।६।।
कहा यूँ ही ना दीन-दयाल ।
तुम्हें रहता भक्तों का ख्याल ।।
दूसरे काम और सब छोड़ ।
बुलाते ही आ जाते दौड़ ।।७।।
पद्य दाबे मुख मेंढ़क स्वर्ग ।
गिंजाई जीव हाथ अपवर्ग ।।
भक्ति लौं अनबुझ लेते भेंट ।
भक्त के संकट देते मेंट ।।८।।
कहा यूँ ही ना दीन-दयाल ।
तुम्हें रहता भक्तों का ख्याल ।।
दूसरे काम और सब छोड़ ।
बुलाते ही आ जाते दौड़ ।।९।।
आप पानी, भगवन् मैं मीन ।
आप खुशबू, मैं गुल छव-छीन ।।
बनाये रखना कृपा सदैव ।
और न अरज, अरज यह देव ।।१०।।
‘दोहा’
सहज निराकुल रह सकूँ,
भागमभाग विसार ।
और न बस कर दीजिये,
इतना सा उपकार ।।
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