बन्धुओं विचार करो यदि मनुष्य का अगर सबसे पहला और निकट का सबंध होता है तो वह माता-पिता का होता है, बाकी सगे सम्बंधी, पत्नि, पुत्र का नाता तो बाद में जुडता है । सबसे पहले माता पिता से नाता जुड़ता है । बालक इस धरती पर आता है उसके पहले ही उसकी माँ से उसका संबंध हो जाता है । माँ उसका लालन-पालन करती है, पालन- पोषण करती है । जन्म दे कर, संस्कार, सद् संस्कार देकर धरती पर खड़ा होने योग्य बनाती है । एक-एक क्षण माँ अपने बेटे को स्नेह और सौजन्य की भावनाओ को सींचती है । ममता का रस निरंतर अपने शिशु को पान कराती है । माँ के हदय में अपने पुत्र/ पुत्री के प्रति जो प्रेम होता है, ममता होती है उसे सिर्फ एक माँ ही जान सकती है, दूसरा नही । बल्कि माँ भी बता नही सकती, वह सिर्फ अनुभव गम्य है । मातृत्व बहुत बड़ी चीज है, वह एक बार उमडता है, रूकता ही नही ।
देवकी (कृष्ण) के ६ पुत्र २ युगल आहार के लिए पडगाहन किया, मुनिरूप में देखते ही आहार कराते समय आँचल भर आया, ममता का सैलाब उमड पडा ।
इस धरती के समस्त रजकण और समुद्र के पूरे जलकण से भी बढकर अनन्तगुणा एक माँ का उपकार होता है । माँ की ममता अगाध होती है उसे कभी चुकाया नही जा सकता । भगवान महावीर ने गर्भावस्था में, तीन ज्ञानके धारी होने से जान लिया, मैं गर्भ में हूँ , हलन चलन से माँ को पीडा होगी, अत: हलन चलन बंद कर दिया । सारे लोग घबरा गये, हलन चलन क्यों बंद हो गई । भगवन ने सोचा उल्टा हो गया ।
माँ तो गर्भरूपी खेत में संस्कारों के बीज को बोती है और पिता उसको संरक्षण प्रदान करता है । पिता की भी बहुत बडी भूमिका होती है । माता-पिता मिलकर ही अपनी संतान का पालन करते हैं । अपने माता-पिता के कर्ज से स्वयं को मुक्त करें, इसके लिए नीति ग्रंथ में तीन उपाय बताये गये हैं ।
१) माता-पिता की कीर्ति को निरन्तर बढाने का प्रयत्न करना चाहिये ।
२) माता-पिता को अपनी सेवा व्दारा सदा प्रसन्न रखना चाहिये ।
३) उनकी आध्यात्मिक साधना में सहयोगी बनना चाहिये ।
१) माता-पिता के आशिर्वाद का फल-मैं यहाँ तक पहुंचा । उनसे परामर्श अनुभव लेना ।
२) जिसने जन्म दिया उन्हें कष्ट न हो, सेवा करना, ध्यान रखना ।
३) उनको हर कार्य से मुक्त कर, सारे काम स्वयं करना । कहना आपने बहुत किया अब
आप आराम से आत्म साधना करें, मेरे लिए सेवा हो तो कहना ।
शास्त्रों में चार प्रकार के पुत्र बताये गये हैं ।
१) अतिजात, २) अनुजात,
३) अवजात और ४) कुलांगार
१) अतिजात पुत्र– जो अपने पूर्वजों की कीर्ति को बढाये, जो अपने घर के गौरव में चार चाँद लगाये, जो अपने आचरण से घर को महिमा मंडित करें, कुल की महिमा मंडित करें वह अतिजात पुत्र कहलाता है । अपने संस्कारो को सुरक्षित रखते है ये सबसे उत्तम पुत्र होते हैं । ऐसे ही पुत्र, जैसे राम-लक्ष्मण- जिन्होंने अपने पिता की प्रतिष्ठा में सब कुछ दाँव पर लगा दिया । अपने पिता के प्रण को पूरा करने के लिए वनवास भी स्वीकार कर लिया । इसलिए स्वीकार कर लिया कि वनवास जाये बिना, भरत गद्दी पर नही बैठेगा । और भरत राजा नही बनता तो पिता का प्रण अधूरा रहेगा । पुत्र का यही कर्तव्य है कि अपने पिता के प्रण और प्रतिष्ठा को कायम रखे । वाल्मिकि रामायण में कहा है जब श्री राम से पूछा गया कि आपने वनवास को क्यों स्वीकर रहे हैं? तो रामचंद्र जी कहते हैं तुम बनवास की बातें करते हो,
“अहं हि वचनात् राज्ञः पातेयमपि पावके ।
भक्षययें विषं तीक्ष्णं, पातेय मपि चार्णवे ॥”
मैं अपने पिता की आज्ञा के पालने के लिए अग्नि में कूदने को तैयार हूँ, विष भक्षण को तैयार हूँ और समुद्र में छलांग लगाने कों मुझे कोई संकोच नही है, यदि मेरे पिता का प्रण पूरा होता है । ऐसे पुत्र होते है अतिजात पुत्र ।
दूसरे नम्बर में पिता भक्ति में भीष्म पितामह की भक्ति थी । जब राजा शांतनु ने एक नाविक की कन्या से विवाह करना चाहा, तो नाविक ने उनसे इस शर्त पर इंकार किया, कि पुत्री का विवाह तुमसे हो भी गया तो, राजगद्दी पर तो भीष्म ही बैठेगा ? भीष्म पितामह ने कहा- मैं नहीं बैठूँगा । नाविक ने कहा- कि तुम नहीं बैठोगे ठीक है, लेकिन तुम्हारी संतान तो गद्दी पर बैठेगी ? तो भीष्म ने कहा-नहीं मेरी संतान भी राजगद्दी पर नही बैठेगी । और मेरी संतान उत्पन्न ही नहीं होगी । आज से ही मैं आजीवन ब्रह्मचर्य के व्रत की घोषणा करता हूँ । अपने पिता की खुशी के लिए कितना बड़ा त्याग किया था । ऐसे
पुत्र अतिजात पुत्र कहलाते हैं, जो मरने के बाद इतिहास की अमरगाथा बन जाते हैं ।
२) दूसरे पुत्र है अनुजात पुत्र – यें अपने कुल की मर्यादा को बढाते भले नही है पर घटाते भी नही है । जितना कुछ संस्कार उन्हें मिला है । अपने माता-पिता के द्वारा, प्राप्त संस्कार को, उतना ही सुरक्षित रखते हैं । अपनी समृध्दि में चार चाँद नही लगाते तो न सही पर धब्बा भी नही लगातें ।
३) तीसरे पुत्र हैं अवजात पुत्र – यह पुत्र ऐसे होते है जो कि अपने पुरे कुल की कीर्ति को कलंकित करते है, कुल पर पूरी तरह घब्बा लगा देते हैं । जितना जो कुछ मिला है, वह सब नष्ट करते हैं । दूसरे अनुजात पुत्र ऐसे होते कि कुल की कीर्ति के महल पर शिखर नही बना सकते तो कम से कम नींव तो नही हिलाते । पर यह तीसरे अवजात पुत्र उस पूरे के पूरे महल को धराशायी करने को जुट जाते है, ऐसे पुत्र, पुत्र नही कहलाते बल्कि लाजवाते है । ऐसे पुत्र को तो पेट का कीड़ा कहा जाता है, जो अपने कुल के गौरव को बढ़ा नही पाते, उन्हें पेट के कीड़े के अतिरिक्त और क्या कहा जाये ?
४) चौथे सबसे निकृष्ट होते हैं – कुलांगार – इस जाति का जो बेटा होता है वह अपने कुल के लिए अंगार साबित हो जाता है । सारे के सारे कुल को ही भस्म कर डालता है । अब आप विचार कीजिए कि आप किस जाति का पुत्र बनना चाहते है । आज वह जो संस्कृति विकसित होती जा रही है , उसमें संबंधो की मधुरता का अभाव होता जा रहा है । आज तो तीसरे और चौथी जाति के पुत्रों की ज्यादा भरमार होती जा रही है, पहले और दूसरे जाति के पुत्र तो इने गिने ही रह गये है ।
आज तो ऐसे कुलंगार है जिन्होंने अपने माता पिता का तिरस्कार करने में भी कोई कसर नही छोड़ी, जिन्होंने अपने माता पिता वी जी भरकर अवज्ञा की, जी भर कर कोसा । कहते हैं आपने जिस हिसाब से निर्णय लिया आप जानो, आपका काम जानें मैं आपके लिए कुछ नही कर सकता । वाह री मतलबी दुनिया मतलब निकल गया तो पहचाने नही । कई ऐसे भी पुत्र हुये जिन्होंने अपने हाथोको माता-पिता के उपर चला दिय, और माता-पिता की हत्या तक कर डाली । यह सबसे अधम काम है, सबसे नीच कार्य है । यह तो वे ही लोग करते हैं जिनकी आत्मा अन्दर से मर चुकी है, जिनकी संवेदना पूरी तरह सूख चुकी है । बस उनको तो पैसा प्यारा है, माता-पिता का सम्मान इज्जत प्यारी नही है । भूल जाते हैं कि पैसा कमाने की मशीन किसने बनाया । ऐसे
कुलंगारों से हमेशा बचना चाहिये ।
एक बूढे आदमी ने मजदूरी कर-कर के बेटे को पढाया । खुद भूखा रहा, पर बेटे को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने का भाव रखा । बेटे को गाँव से ले जाकर शहर में पढाया, अपना पेट काट काट कर जमीन जायजाद बेचकर, मेहनत मजदूरी कर बेटे के लिए खर्चा भेजता रहा । बेटा आई.ए.एस अधिकारी बना, पिता को सुनकर बडी प्रसन्नता हूई । बेटा उसका, बड़ा आदमी बन गया, भला आदमी न बन सका । बेटा अधिकारी क्या बना, अपने पिता को भी भूल गया । उस पिता को, जिसने अपना पेट काटकर, अपने बेटे को पढ़ाया, एक दिन भी याद न किया । पिता रोज डाकिये की राह देखता, कि शायद कोई संदेश आये । मेरा बेटा पढ लिख कर अब बड़ा हो गया है, मुझे मेहनत मजदूरी नही करनी पड़ेगी । अब मुझसे कुछ नही बनता, कम से कम अब सुख के दिन जिऊँगा । पर बेटे ने अपने पिता की खबर तक नहीं ली । वह यह भूल गया कि मुझे जिसने जन्म दिया, जिन्होंने अपना सब कुछ खोकर यहाँ तक पहुँचाया । किसी ने कहा तुम्हारे पिता ने मेहनत कर तुम्हे कलेक्टर बनाया, तुम्हे उनका ध्यान नहीं रहा ? यदि वे न करते तो कटोरा लेकर भीख माँगते ।
ऊपर से बेटा कहता है कि उन्होंने कोई अहसान नही किया, उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा किया । माँ बाप का कर्तव्य याद है पर तुम्हारा क्या कर्तव्य है यह याद नही ? ऐसी सन्तान के होने से अच्छा निसंतान हो तो ठीक हैं । पिता रोज डाकिये की प्रतीक्षा करता और डाकिया के लौट जाने पर निराश हो जाता । काफी दिन बीत गये, अब तो कई-कई बार उस बूढे पिता को भूखे ही दिन काटने पड़ते थे । क्योंकि हाथ पैर चलते ही नही थें । एक दिन गाँव के लोगों ने उसे बुलाया और समझाया कि भैया ऐसा करो कि तुम्हारा बेटा अमुक शहर का कलेक्टर बन गया है । वह यहाँ नही आता, न सही, तुम ही वहाँ चले जाओ । तुम्हें देखकर कुछ तो पसीजेगा । लोगो से माँग – माँग कर कुछ पैसै इकठ्ठे किये और गाँवसे शहर की ओर चल दिया । पूछते पूछते आटो से अपने कलेक्टर बने बेटे के बँगले के पास पहुँच गया । बँगले को दूर से देखते हुए उसका मन रोमचिन्त उठा । मेरा बेटा कितना बड़ा आदमी हो गया, कितना बड़ा बँगला बनाया , बँगले के बाहर कितनी अधिक गाड़िया खड़ी है ।
वह फटेहाल पिता बंगले के गेट पर पहुंचा, शाम का समय था गर्मी का मौसम
था, उस समय उसका बेटा बँगले के पोर्च में बैठकर एक मीटिंग ले रहा था । अनेक
अधिकारियों से घिरा हुआ था । पिता ने देखा उसका मन नाच उठा, आँखे चमक गई कि उसका बेटा कितना बड़ा अधिकारी बन गया । इतने सारे लोगो के मध्य सबसे बातचीत कर रहा है । वह गेट पर खड़ा हुआ कि इधर बेटे की नजर भी अपने पिता पर पड़ी । जैसे ही नजर पड़ी उसने अपनी नजर फेर ली, जैसे कोई धूर्त हमारे दरवाजे पर आ गया है । पिता ने अन्दर जाने की कोशिश की, तो व्दारपालों ने उसे रोक दिया । तब उसने कहा कि जाओ अपने साहब से कहो कि आपके पिता जी गाँव से आये है। पहले तो व्दारपाल को आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े साहब का यह फटेहाल पिता कैसे होगा ? भिखारी सा दिख रहा है । तभी व्दारपाल ने गौर से देखा तो आगंतुक के चेहरे में अपने साहब के चेहरे की झलक दिखाई दी, उनका चेहरा मिलता जुलता था । वह गया और मीटिंग में ही कलेक्टर साहब से कहा कि सर दरवाजे पर कोई फटेहाल आदमी आया है, वह अपने आप को आपका पिता बताता है, क्या उन्हें अन्दर आने दूँ ? इतना सुनना था कि चेहरे का रंग उड़ गया और एकदम अपने आपको संभालते हुये उसने कहा, कि कौन ? किसका पिता ? कौन व्यक्ति आया है ? मेरे पिता तो कब के गुजर चुके हैं, निकाल दो उस मनहूस को गेट से बाहर ।
“जिसने तुमको चलना सिखाया, उससे ही तुमने नजरे फेर ली ।
जिसने तुमको पाला पोसा , उसको तुमने मृत कह डाला ॥
लानत है ऐसी संतान पर , जिसे पिता से ज्यादा पैसे से प्यार है ।
डूब मरे वह चुल्लू भर पानी में, किसने दिया जीने का अधिकार है ॥”
और जोर से व्दारपाल से कहा खबरदार, उस सनकी बूढ़े को गेट के अन्दर नही आने देना । पिता इसे सह नही सका, सोचा –
जिसको आंखो का तारा समझा, उसकी आखो की किर किरी बना ।
जिसको अपना सहारा समझा , उसने ही बेसहारा कर डाला ॥
ये दिन देखने से पहले जिन्दा क्यों रहा, मर गया होता ।
जमीन यही पर फट जाती तो , उसमें समा गया होता ॥
पिता का इतना अपमान होगा सपने में भी नही सोचा था । उस आघात को सह न सका, उसके लिए तो वज्राघात हुआ, वहीं गिरा और सदमें में ही मर गया ।
वृध्दाश्रम जैसी संस्था में बहुत से वृध्द लोग जो वृध्द हो जाने के बाद, अपने ही बेटों की उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं ।
वृध्दश्रम भारत की शान नहीं, वह भारत का अभिशाप है ।
ऐसे कुलांगारों पुत्रों की तो , भारत में भरमार है ॥
वो तो अपने माता-पिता को, खाना भी तानो के साथ खिलाते हैं ।
जिसको खून का एक एक कतरा दिया , वो खून चूसकर जाते हैं ॥
एक व्यक्ती अगर अपने माँ-बाप से दुर्व्यवहार करता है तो उसे ध्यान रखना चाहिये कि कल जब वह बूढ़ा होगा तो उसके बेटे भी उसके साथ वही व्यवहार करेंगे, क्योकि बेटे जैसा सीखते हैं वही वो करते है ।
एक पिता बहुत धनाढ्य थे, उनका इकलौता बेटा था । बेटे की पिता के प्रति गहरी निष्ठा थी । शादी की गई, अच्छी बहू घर आ गई । बहूरानी एकदम आधुनिक विचार धारा की थीं । पिता जी काफी वृध्द हो गये थे, बेटा चाहता था कि पिताजी घर पर ही आराम करें, घर की व्यवस्था देखे । अत: बेटे ने पिता से कहा, आपने हमारे लिए बहुत किया अब आप मेहनत न करें । घर पर रहकर आराम करें, धर्म-ध्यान करें । पिता ने भी उचित मानकर दुकान से निवृत्ति ले ली । अब पिता जी घर पर रहने लगे । घर का जो पहला कमरा था व पिताजी रहने लगे । बहूरानी को उनके घर पर रहने से तकलीफ हो गई, क्यों कि घर पर रहने से उसकी स्वतंत्रता छिन गई । अब वह चाट के ठेले पर खड़े होकर चाट भी नही खा पाती । अब जहाँ चाहे अपनी सहेलियों से मिलने, किटी पार्टी, वी.सी पार्टी में नही जा सकती थी, उसे बड़ी तकलीफ होने लगी । एक दिन उसने अपने पति से कहा उस बुढ्ढे को कहाँ बिठा दिया, सारा दिन थुक-थूक कर पूरे आँगन को खराब कर देते है । दरवाजे पर जो भी आता है, उन्हीं से मिलना होता है । आदमी कहाँ तक गिर जाता है देखिये । बेटे ने सोचा कि बात तो ठीक कहती है ऐसा करें इन्हें अन्दर के कमरे में रख दें । ये है जोरू के गुलाम, जैसे पत्नि ने कहा वही करता है । उसने पिता जी से कहा आप यहाँ रहते हो, धूल आती है, आपको खाँसी की बीमारी है, धूल से आपकी बीमारी और बढ़ेगी । आपकी खाँसी से बच्चों को डिस्टर्ब होता है । आप ऐसा करें, अन्दरके कमरे में रहा करें, ताकि आपका स्वास्थ्य भी ठीक रहे । अन्दर का कमरा बेटे के बेडरूम के बिल्कुल बगल का कमरा था । दादाजी को खाँसी बहुत तेज चलती थी, रात-रात भर वह सो नही पाते । जब वह खाँसते थे बहुरानी को डिस्टर्ब हो जाती है । बहुरानी ने अपने पति को समझाते हुये कहा कि देखो ये रात-भर खाँसते है, और न वह सो पाते हैं, न हम लोग सो पाते हैं । ऐसा करो इनको ऊपर के कमरे मे पहुँचा दो । बेटे ने पत्नि से कहा – पिताजी तो वृध्द है, बार- बार भोजन खाने के लिए कैसे नीचे आयेंगे ?
पत्नि बोली चिन्ता – मत करो, तुम उन्हें ऊपर पहुँचा दो । इनके भोजन की व्यवस्था वहीं कर देंगे, सारी व्यवस्था वहीं हो जायेगी । बेटा अपनी पत्नि की बातो में आ गया, क्योंकि वह जोरू का गुलाम था । उसने पिता को उठाकर एकदम तीसरी मंजिल के कबाड़खाने वाले कमरे में रख दिया । पिता ने कहा कि बेटा मैं बार-बार नीचे कैसे उतरूँगा ? बेटे ने समाधान करते हुये एक घंटी रख दी और कहा पिता जी जब आपको कभी किसी चीज की आवश्यकता हो तो यह घंटी बजा दिया करो, नीचे से कोई आयेगा और आपकी पूर्ति कर देगा । पिता के पास घंटी रख दी गई । बुढ़ापे से लाचार पिता सब कुछ सहता रहा । उसने सोचा भी नहीं था कि उसे अपने जीवन में ऐसे दुर्दिन भी देखने पड़ेंगे । बेटा अपने पिता के प्रति अभी भी वही आदर रखता था । सुबह शाम मिल लिया करता था । लेकिन बहूरानी ने अपने ससुर को कभी अपना पिता नही समझा ।
जब से पश्चिम की हवा हमारे देश पर हावी हुई है तो ये बातें शुरू हो गई । उस बहूरानी को तो एक बूढ़ा आदमी दिखा । बेटा ५-७ दिन के लिए बाहर गया । इधर बहू ने अपने ससुर की खोज खबर तक नही ली । सुबह से शाम तक कुछ नही पूछा, ५-७ दिन तक नही गई । बेटा वापिस आया और उसने पत्नि से पूछा – कि पिताजी कैसे हैं ?
पत्नि ने कहा – पता नहीं कैसे हैं, तीन दिन से उन्होंने कुछ मंगाया ही नही ।
बेटे ने पूछा – घंटी भी नही बजायी, कुछ नही मँगाया ?
बहुने कहाँ – हाँ उन्होंने कुछ नही मंगाया ।
पतिने पूछा – तुम गई थी देखने ?
पत्नि बोली – नहीं मैं नहीं गई । बेटा सीधे उपर गया, ऊपर जाकर देखा कि पिताजी बिस्तर पर ही ढ़ेर हो गये हैं, प्राण-पखेरू उड़ चुके थे । वह वहीं गिर पड़ा और फूट फूट कर रोने लगा कि पिताजी चल बसे । तीन दिन से घंटी नहीं बजाई । शव को देखकर भी यही लगा कि इनकी मृत्यु दो दिन पहिले ही हो गई थी । उसे बहुत झटका लगा । आखिर पिताजीने घंटी क्यों नही बजाई ? इधर उधर देखा, घंटी कही भी दिखाई नही दी । तभी उसका ४ वर्ष का लड़का घंटी लेकर ऊपर आया और कहा कि, घंटी तो मेरे पास है । बेटे से पूछा – बेटा ये घंटी तुम कहाँ ले गये थे ?
वह बोला- कुछ नही एक दिन, मैं दादा जी के पास आया, तो खेलते खेलते घंटी ले गया । मैने सोचा कि जब आप लोग बूढ़े हो जाओगे तो आप लोगों के काम आयेगी ।
ठीक भी है जब अपने पिता को दादा के लिए घंटी लिये देखेगा, तो बेटा अपने पिता के लिए व्यवस्था करेगा ही । क्योंकि जैसा तुम्हारा व्यवहार होता है, तुम्हारी संतान भी वही सीखती है । इसलिए अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिये ।
मतलबी बेटे / स्वार्थका संसार
एक सेठजी थे, उनके चार पुत्र थे । सेठानी का अचानक स्वर्गवास हो गया था । सेठने पुत्रों को विवकेशील समझ कर समस्त व्यापार तथा घर की सम्पत्ति सौंप दी । सेठजी की शारीरिक स्थिति धीरे धीरे क्षीण हो गई, और आँखो की ज्योति में अंतर आ गया । घुटने, कमर दर्द भी बढने लगा । अर्थात बुढ़ापे के समस्त लक्षण आ गये इस कारण सेठजी प्राय: घर के आँगन में लेटे रहते थे ।
एक दिन सेठ के चारों पुत्र-वधुओं ने अपने अपने पति से कहा हे पति देव हम तो ससुर की सेवा करते करते परेशान हो गये हैं । ये बूढे ससुर सारे दिन आँगन में खाँसते थूकते रहते हैं । सफाई करने के लिए मुझे समय नही मिलता है । हमें अपने बाल बच्चो की सम्हाल और सार सम्हालना भी करनी पडती है, पढाना भी पड़ता है और घर का कार्य भी बहुत रहता है । अत: आप जाने और आपके पिता जी जाने । चारो भाइयों ने पिता के पास आकर कहा पिताजी आप सारे दिन आँगन में खाँसते थूकते हैं, यह अछा नहीं लगता । पिता ने कहा पुत्रो, बाहर जाने की शक्ति मुझमें नही है और थूके बिना नही रहा जाता । आखिरकार चारों पुत्रो ने पलंग सहित पिताजी को उठाकर मकान के पीछे कमरे में रख दिया, जहाँ नाली बिलकुए पास में थी । और कहा पिताजी अब आप खूब खाँसिये और आनन्द से थूकिये, कोई भी रोक टोक नही । सेठजी बहुत दुखी हो गया, समय पर भोजन मिलना भी कठिन हो गया । जो मिलता, जब भी मिलता रूखा-सूखा खाकर सेठजी दिन गुजारने लगे । एक दिन सेठ जी ने सोचा यदि मैं सारा वैभव पुत्रो को नहीं सौंपता तो आज क्या मेरी ऐसी दशा होती ? अब सेठ जी का एक एक दिन एक-एक वर्ष के समान व्यतीत होने लगा । एक दिन सेठजी का पुराना मित्र सेठ जी से मिलने आया । उसने-सठेजी से दुःख सुख की बातें पूछते हुये कहा सेठ साहब आज कल तो आप काफी कमजोर दिख रहे हैं, शरीर भी काला पड़ गया है, केश भी बढ़ रहे है, दाढ़ी भी बढ गई है, क्या कारण है इसका ? सेठ जी ने अपनी व्यथा सुनाते हुये कहा – मित्र एक तो बुढापे में सेठानी का स्वर्गवास हो गया, दूसरा चारों पुत्र स्वार्थी निकले । सेवा करना तो दूर, रोटी की भी समस्या हो रही है । मेरा एक-एक दिन दुःख में जा रहा है, क्या करूँ । मित्र बड़ा चतुर था उसने कहा कल मैं आपके पास छोटे-छोटे गोल पत्थरों से भरकर एक पेटी भेजूंगा, उसमें दो ताले लगे होंगे, पेटी को आप पलँग के नीचे रखना । अगर कोई पूछे, कि इसमें क्या है ? तो उत्तर देना सोने के आभूषण एवं चांदी के कलदार (सिक्के) है । इतने दिन से यह पेटी मेरे मित्रके घर पर थी, अब मैं मरणासन्न स्थिति में हूँ इसलिए मैंने आज मंगाई है । आपके पुत्रों को इतना मालूम होते ही सब दौड़े-दौड़े आयेंगे, और आपकी सेवा में जुट जायेंगे । और रात्रि में दरवाजा बंद करके कलदार अर्थात पत्थर गिनना एक, दो, सौ, हजार । जिससे आपके पुत्रों को पूर्ण विश्वास हो जायेगा कि पिताजी के पेटी में माल है ।
मित्र अपने घर गया, उसने वैसा ही किया, पेटी आ गई । सेठजी ने पेटी पलंग के नीचे रख दी । कुछ समय बाद चारो बहुओं को यह पता लगा कि ससुर जी के पास अभी भी माल है । चारों ही दोडी-दोडी आई और पूछा ससुर जी इस पेटी में क्या है ? ससुर ने कहा इसमें तरह तरह के आपूषण, स्वर्ण के एवं चाँदी के सिक्के हैं । इतने दिन मित्र के घर पर थी, आज आई है । यह सुनते ही चारो बहुयें सेठजी की सेवा में जुट गई । कोई बादाम का हलुआ बनाकर खिलाती, कोई गुलाब जामुन खिलाती, कोई दूध देती, कोई ठंडा ठंडा पानी लेकर हाजिर होती । इधर चारों पुत्रों को भी यह पता चला कि पिताजी के पास अभी भी चल-अचल सम्पत्ति है । तो चारों ही पिता की सेवा में पहुँचे । पेटीको वजनदार देखकर चारों ने हाथ जोडकर, विनय पूर्वक कहा पिताजी आपको यहाँ मच्छर काटते होंगे, शुध्द हवा भी नही मिलती होगी, प्रकाश भी पर्याप्त मात्रा में नही आता । अत: आप उपर वाले कमरे में पधारे, वहाँ कमरा अच्छा है । पिता ने कहा- पुत्रों मुझे बार बार थूकना पडता है अत: मेरे लिए यही स्थान उपयुक्त है । पुत्रों ने कहा पिताजी आप इसकी चिंत्ता न करें, हमारे पास सब व्यवस्था है । पुत्र सेठ जी को ऊपर ले गये और तन, मन, धन से उनकी सेवा सुश्रुषा करने लगे । सेठ जी बोले पुत्रों मेरी पेटी मेरे पास ही रखना, जो अधिक सेवा करेगा उसी को पेटी दूँगा । एक दिन रात्रि में सेठजी चाँदी के सिक्के अर्थात पत्थर गिनते हुये बोल रहे थे – एक, दो, सौ, हजार । बाहर से पुत्र-वधुयें यह सब सुन रही थीं, इतने सारे चाँदी के सिक्के । चारो पुत्र अब तो अच्छी तरह से सेवा करने लगें । जिससे सठे जी का जीवन सुखी होगया । दुःख की घडिया भी समाप्त हो गई । कुछ वर्षो के बाद सेठ जी का स्वर्गवास हो गया । चारो भाई, चार बहुयें और पोते-पोती सब रोये कि हमारे पिताजी हमारे ससुर, हमारे दादा जी (बब्बा जी) हम सबको छोड़ कर चले गये और सभी व्यक्तियों ने मिलकर उनका अंतिम संस्कार किया ।
बाद में चारों भाईयों ने सोचा लाओ, अब उस पेटी को खोलो उसमें क्या माल है देखते हैं । चारों देवरानी-जेठानी भी मन में अनेक कल्पनायें सजाती हुई आ गई । सभी एकमत हो धन की आशा में आँखे फाड रहे थे । आखिर कार पेटी को खोला गया । अन्दर गोल पत्थर निकले, सब आश्चर्य चकित हो गये । पिता के लिए न जाने क्या क्या कहने लगे, बहुयें भी ससुर जी को कुछ-कुछ कहने लगी, कि पहले पता होता तो क्यों इतनी सेवा करते । और इतना अच्छा अच्छा खिलाते । सारा संसार स्वार्थ से भरा पड़ा है, जब तक स्वार्थ होता है तबतक दोड़-दौड़ कर आते हैं । स्वार्थ के अभाव में कोई नहीं पूछता । इसलिए बुढापे के लिए बचा के रखो । सब कुछ बच्चों को मत सोपों । संसार में किसी पर भरोसा मत करो, सारी दुनिया मतलबी है ।
“भरोसा मत करो श्वासों की , डोरी टूट जाती है ।
छते मजबू रहती है , हवेली टूट जाती है ॥
कहीं कोई कलाई , एक चूड़ी को तरसती है ।
कही कंगन के झटके से , कलाई टूट जाती है ॥
लड़कपन में किये वादों की, कीमत कुछ नही होती ।
अँगूठी हाथ में रहती , मँगनी टूट जाती है ॥
किसी के त्याग के बारे मे, उससे पूछिये बन्धुओं ।
कुँये में बाल्टी रहती , और रस्सी टूट जाती है ॥
समय की होती क्या कीमत , उसी से पूछिये ।
टिकिट तो हाथ में रहती और गाडी छूट जाती है ॥”
५० वर्ष की आयु होने के बाद – ५ शून्य
१) अहंकार शून्य २) अंधकार शून्य ३) अधिकार शून्य
४) अंगीकार शून्य ५) अलंकार शून्य
१) अहंकार शून्य – ममकार शून्य अंह को शून्य मैं कर्ता हूँ, मेरे कारण सब चल रहा है । मैं सबको पालता हूँ, इससे शून्य होना ।
“पत्थर अंह का क्या करें गलता नहीं ।
सबके दिये जलते मगर, मन का दिया जलता नहीं ॥
खोजते ही खोजते ढल जाती है, जीवन की शाम ।
सबका पता मिलता मगर खुद का पता मिलता नहीं ॥”
पचास वर्ष के आयु के बाद, तुम अपने जीवन को संयमित करो ।
अपने जीवन में पाँच शून्य अपनाकर, अपने जीवन का कल्याण करो ॥
अधिकार अलंकार शून्य कर, अंगीकार शून्य होकर अपने को एकाकी बनाओ ।
अंधकार अहंकार शून्य करके, अपने जीवन को सफल बनाओ ॥
प. पू. १०८ मुनि श्री प्रमाण सागर जी ने बताया था कि हमें ५० वर्ष की आयु के बाद क्या करना है – अपने जीवन में ५ शून्य अपना कर अपनाकल्याण करना है । ५० वर्ष के आयु के बाद शामका भोजन बंद, फिर फलाहार बंद, शाम को दूध पानी, फिर दूध बंद, शामको पानी बस, बाद में पानी भी बंद, एक टाइम का भोजन करने की आदत धीरे-धीरे डालना । ६० के बाद गृह त्याग कर के (वानप्रस्थ ), बाद में जैनेश्वरी दीक्षा ले कर कल्याण करणा ।
आचार्य वर्धमान सागरजी कहते हैं ३ मकार – मंच, माला, माइक
पर ३ मकार – मैं, मेरा, मुझे
मेरा सो मेरा तेरा भी मेरा – कौरव, भरत चक्रवर्ती
मेरा सो मेरा तेरा सो तेरा – पाण्डव, बाहुबली – युध्द के पूर्व
मेरा सो तेरा तेरा सो तेरा – बाहुबली ——– युध्द के बाद
मेरा न तेरा दुनिया रैन वसरो – बाहुबली मुनि दीक्षा के बाद
मैं मैं मैं बकरी करे , याही काटी जाये ।
मैं ना मैं ना मैना कहे, बैठी पान चबाय ॥
आज अहंकार मनुष्य के रग-रग में समाया हुआ है । उसकी वाणी व्यवहार और चाल-चलन में कहीं न कहीं अहंकार की गंध आती ही रहती है, जिससे कि व्यक्ती अपने आप को सबसे बड़ा समझता है । दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, दूसरे के अस्तित्व को समझताही नहीं । आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने अपने निजानुभव शतक में लिखा हैं –
जो मानते स्वयं को सबसे बड़े हैं ।
वे धर्म से बहुत दूर अभी खड़े हैं ॥
एक दिन एक साधु राजा के यहाँ आया, राजा ने उसे वह वृक्ष दिखाकर पूछा कि हे महाराज यह किस चीज का वृक्ष है, अपने आप दिन-रात बढ़ रहा है ? साधु महाराज ने उस पर निगाह डाली, फिर हँसकर बोला राजन यह अंहकार का विष-वृक्ष है । इसे लगाने की जरूरत नहीं पडती, यह अपने आप उग जाता है और बडी तेजी से बढता है । इसके फूल बड़े लुभावने होते हैं, लेकिन उनकी दुर्गन्ध इतनी तेज होती है कि दूसरे सब फूलों को मिट्टी में मिला देती है । इससे जो बचता नहीं उसकी हालत वैसी हो जाती है जैसी आपके बगीचे की हुई है । सच है अहंकार सडान्ध पैदा करता है सुगन्ध नहीं, सुगन्ध सौरभ तो विनम्र व्यवहार में है ।
अहंकार में हम फूल तो मिल सकते किन्तु फैल नहीं सकते । फैलने (विस्तार) के लिए जीवन में प्रेम व्यवहार चाहिये । इन्द्रभूति को भी अपने ज्ञान का बहुत अंहकार था । लेकिन अपनी योग्यता का मान तो व्यक्ति को तब होता है जब ऊँट पहाड़ के नीचे आता है । एक नीतिकार व्यक्ति ने कहा है- कि मूर्ख को आसानी से समझाया जा सकता है, विव्दान को भी अधिक आसानी से समझाया जा सकता है किन्तु अहंकारी व्यक्ति को भगवान भी समझाने में समर्थ नही है । मनुष्य में अहंकार भर जाता है कि मैं सबसे बड़ा हूँ, मेरे ही कारण परिवार चल रहा है, मैं विव्दान वाकी सब मूर्ख है । वह अनेक प्रकार की मान्यता दूसरे पर थोपने लगता है ।
एक अंगीठी जल रही थी । लाल लाल अंगारे उसमें दहक रहे थे, बडी तेज कांति थी । उनमें तभी एक अंगार के मन में अंहकार आया कि मैं इतना बडा कांतिमान, द्युतिमान हूँ, मुझ में इतना तेज है, मैं फिर इस छोटी सी अंगीठी में क्यों रहूँ ? वह उचटकर नीचे आ गया, फिर क्या था? धीरे धीरे उस का तेज घट गया । उसकी आभा छोटी हो गई । ऊपर राख की परते छाने लगी, धीरे धीरे काला पड गया । अहंकार की यही परणति है । जीवन के विकास के लिए अहंकार का विसर्जन अनिवार्य है । ‘अहं करोति इति अंहंकार:’ मैं करता हूँ, मैं कुछ हूँ, मैं इस तरह का यही भाव अहंकार है ।
हम दो तरह से जीवन जी सकते है – एक तो अपने आपको संसार का कर्ता धर्ता मानकर सब कुछ मानकर जीना । ऐसे भी लोग है जो इस तरह का जीवन जीते है कि हम ही परिवार को चला रहे है, समाज देश को चला रहे है । मानो सारे पृथ्वी का अधिकार मिल गया ।
अंहकार से बचने का तरीका
१) धर्म, और धर्मात्मा का सम्मान और प्रशंसा करना शुरू कर दो । जब भी अवसर मिले दूसरों के गुणों की प्रशंसा करे ।
२) भगवान के गुणगान करें, भगवान से प्रार्थना करें हमारे भीतर भी ऐसे गुण शुरू हो जाये, विनयवान होने के लिए अहंकार से शूण्य होने का सबसे अच्छा तरीका भगवान की प्रार्थना हैं ।
३) जिन्दगी भर आपके प्रति दूसरो ने जो उपकार किये है दिनभर में एकबार जरूर उनका
विचार करे, कि किस किसने उपकार किये है ।
४) गलती होने पर विनय पूर्वक झुककर साथ ही साथ स्वीकार कर के दूसरो की गलतियो को न देखकर धीरे धीरे अपनी गलतियाँ देखने का स्वभाव बनाये तो अहंकार कम हो जायेगा । लडके ने पेड पर आम तोडने के लिये पत्थर मारा, राजा को लगा । लडके को राजा के सामने लाया गया । लडके से पूछा तुमने पत्थर क्यों मारा ?
लडका बोला – मैंने आम तोडने के लिए पेडको पत्थर मारा । पेड को पत्थर मारने पर पेड आम देता है । धोके से आपको पत्थर लग गया ।
राजा ने कहा – इसे पाँच गाँव दे दो । सब ने कहा इसने पत्थर मारा और आप इसे इनाम दे रहे है ?
राजा ने कहा – मैं पेड से गया बीता नही, जो पत्थर मारने वालेको सजा दे । जब पेड पत्थर मारने पर आम दे सकता है तो क्या मैं उसे गाँव नही दे सकता ?
२) अंधकार शूण्य – मोह के अंधकार को शून्य करना, आत्मा अनात्मा का बोध, हेय उपादेय का बोध,
“मोहान्धकार से व्याकुल निज को नही पहचान ।
मै रागव्देष में लिप्त रहा निजको नही पहचा ॥
मोह अंधकार से यह जीव अज्ञानी, योग भले कर जाने ।
ज्यो कोई जन खाय घतूरा, सो सब कचन माने ॥
ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन वांछित फल पायें ।
तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके, लहर जहर की जावे ॥”
अयोध्या नगरी में राजा कीर्तिधर / सेठ सिध्दार्थ का मन संसार शरीर भोगो से विरक्त था । वे धर्मात्मा राजपाट के बीच में भी संसार की असारता का विचार करते हुये अपनी रानी सहदेवी आदि ३२ रानियों के साथ सुख पूर्वक रहते हुये सदा मुनिदशा की भावना भाते थे । एक दिन दोपहर को आकाश में सूर्यग्रहण देखकर उनका मन उदास हो गया । वे संसार की अनित्यता का विचार करने लगे “अरे जब ये सूर्य भी राहू के व्दारा ढ़क जाता है, तब इस संसार के क्षण-भंगुर भोगों की बात क्या है” । इस लिए मैं इन सब का मोह छाडे कर आत्म हित के लिए जिनदीक्षा अंगीकार कारूँगा । ऐसा पक्का निर्णय
करके राजा ने अपने वैराग्य का विचार पत्नियों के सामने रखा ।
मंत्रियो ने कहा- महाराज आपके अयोध्या का राज्य कौन करेगा ? राजाजी जैसे आपके पिता ने आपको राज्य सौंप कर दीक्षा ली थी वैसे आप भी अपने पुत्र को राज्य दे कर दीक्षा ग्रहण करना । मंत्रियों के आग्रह पर राजा ने प्रतिज्ञा की कि पुत्र का जन्म का समाचार सुनते ही दीक्षा धारण करूँगा । राजा की अभी कोई संतान नही थी । एक दिन नगर में ऋध्दिधारी मुनिराज का आगमन हुआ । राजा रानी ने पड़गाहन कर आहार दिया । अपनी संतान न होने की व्यथा कही, निवेदन किया ऐसा क्या संयोग बनेगा कि नहीं, क्या इस राज्य का उत्तराधिकारी आयेगा कि नहीं ? मुनिराज ने कहा- संतान का योग तो है पर दो बातें ध्यान रखना, पहली बात पिता पुत्र का मुख देखेगा, पिता दीक्षा ले लेगा । दूसरी बात-पुत्र पिता का मुख देखेगा तो पुत्र दीक्षा लेगा ।
थोडे ही दिनों में रानी सहदेवी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया, और पुत्र का नाम सुकौशल रखा । पुत्र के जन्म की बात सुनकर राजा दीक्षा ले लेगा इस भय से रानी ने यह बात गुप्त रखी । सारी अयोध्या में यह बात फैल गयी । सूर्य उदय कब तक छिपा रह सकता हैं । एक दासी ने सोचा, राजा को पुत्ररत्न की खबर दूँगी तो अच्छा उपहार मिलेगा । इस लोभ से उसने राजा से कहा राजन बधाई हो, आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, और इस राज्य को उसका उत्तराधिकारी मिल गया । राजाने प्रसन्न हो कर अपने गले का हार व अन्य आभूषण दासी को भेंट स्वरूप दिया और वैराग्य का विचार प्रगट किया, और कहा बस अब मैं राजपुत्र को राज्य सौपकर इस संसार बंधन को छोड कर दीक्षा लूँगा और राजा ने रानी सहदेवी की गोद में जाकर पुत्र को देखा १५ दिन की आयु के पुत्र (राजकुमार) का राज तिलक करके, जिन दीक्षा धारण कर ली, और आत्म साधना में तत्पर होकर वन में जाकर तपश्चरण करने लगे ।
राजा के मुनि बनने से रानी सहदेवी को बहुत आघात हुआ, सोचने लगी कि मुनिराज ने कहा था वो सच हुआ, पिता ने पुत्र का मुख देखा और दीक्षा ले ली । अब यदि जिस दिन पुत्र (राजकुमार) अपने पिता को मुनि अवस्था में देखेगा उस दिन यह दीक्षा ले लेगा । कोई भी मुनि राजकुमार की नजर में न आये इसलिए रानी ने आदेश निकाल दिया कि किसी निर्ग्रन्थ नग्न साधु को राजमहल में प्रवेश न दिया जाये, और न ही राज महल के आस पास आने दिया जाये । अरे देखो एक रानी को पुत्र मोह के
अंधकार से मुनियों के प्रति व्देष हो गया ।
राजकुमार सुकौशल वैराग्यवंत धर्मात्मा थे । राज वैभव के सुखों मे उनका मन नही रमता था, वे सदा आत्म भावना में लीन रहते थे । युवा होते ही ३२ कन्याओं के साथ उनका विवाह हो गया । एक दिन राजकुमार (सुकौशल) राजमहल की छत पर खड़े होकर अयोध्या नगरी की सुन्दरता देख रहे थे, उनकी माता सहदेवी और धाय माँ वहीं थीं । इसी समय एका एक नगरी के बाहर नजर पडते ही कोई महातेजस्वी मुनिराज नगरी की और आते दिखे । लेकिन राज्य के सिपाहियों ने उन्हें गेट के बाहर रोक दिया । वह समझ नही पाया कि वे आने वाले महापुरूष कौन हैं ? पहरेदार उन्हें क्यों रोक रहे हैं ? दूसरी ओर रानी सहदेवी ने उन मुनिराज को देखा वे कोई और नही वे इस राज्य के पूर्व महाराजा थे, जिन्होंने १५ दिन के पुत्र युवराज सुकौशल को छोड़कर जिन दीक्षा ग्रहण ली थी । उनको देखते ही रानी को डर लगा, और उनको देखकर, वैराग्यमयी उपदेश से मेरा पुत्र भी दीक्षा ले लेगा (ऐसा मुनिराज ने कहा था), इसलिए रानी ने सेवको को आज्ञा दि । हवलदार, पहरेदार कहाँ मर गये सब लोग, सेवको ध्यान रहे मैंने पहले भी कहा था कि इस राज्य परिसर में कोई भी मैले, कुचले नग्न साधु तन धारी, भिखारी, पागल नग्न यहाँ न आने दिया जाये । बाहर निकालो इसको, इस राज परिसर मे प्रवेश न कर पाये । यदि प्रवेश किया तो तुम सबकी खैर नही, जाओ निकालो उसे जाओ ।
देखो एक माँ ने पुत्र मोह में , ये कैसा अनर्थ कर डाला ।
अपने पति को मुनिरूप में आने पर , अपमानित कर डाला ॥
भिखारी नंगा कहकर के , ये कैसा कर्म बंध कर डाला ।
व्याघ्री की पर्याय पाकर के, अपने ही पुत्र का भक्षण कर डाला ॥
महल के बाहर गेट पर जाकर पुनः सेवको को हिदायत दी, मेरा बेटा किसी नग्न साधु को देख न पाये, क्यों कि ये साधु मेरे बेटे को भ्रमित कर ले जा सकते हैं । ध्यान रहे नगरी में नग्न साधु दिखना नही चाहिये, भगाओ उसे । मुनिराज को, सेवको ने व्दार के बाहर से अपमानित कर भगा दिया । मेरे पति १५ दिन के बालक को और मुझे अकेला छोडकर चले गये थे , तब उन्हें रंच मात्र भी दया नही आई । ऐसा विचार कर सहदेवी ने साधु बने अपने पति के प्रति अनादर पूर्ण वचनो से तिरस्कार कर राजमहल वापिस आई ।
राजकुमार ने पूछा माँ कौन था वह ? सहदेवी ने कहा एक नंगा, भिखारी, भुखा है राजकुमार । राजकुमार ने कहा उसको कपड़ा दे देती, कुछ सामान भीख में दे देती, खाने को देती । सहदेवी ने पुन: कहा बेटा वो पागल मैला कुचला था, तुम्हे भ्रमित कर देता, जाओ तुम अन्दर जाओ आराम करो । धाय माँ ने सोचा – अरे रे इस दुष्ट रानी ने साधु बने अपने स्वामी, पति परमेश्वर का, इस राज्य के राजा का अपमान किया । यह देख, वह सहन न कर सकी और वह फूट फूट कर रो पड़ी ।
राजकुमार सुकौशल का कोमल हृदय यह दृश्य देख न सका, उसने तुरन्त विव्हल होकर धाय माँ से पूछा माँ यह सब क्या हैं, तुम क्यों रो रही हो ? बताओ माँ, बताओ । वे महापुरूष कौन है?, उन्हें क्यों निकाला ? नगरी में उन्हें क्यों नही आने दिया ? यह सब देखकर तुम क्यों रोई ? बताओ माँ बताओ, कुछ तो बात जरूर है मैंने तुम्हें आजतक कभी रोते नही देखा । कभी तुम्हारी आँखो में आँसू नहीं आयें, बताओ माँ बताओ तुम उस दूध की सौगन्ध, तुम्हें उसकी ममता प्यार का सौगन्ध जो तुमने जन्मदायी माँ से ज्यादा मुझे दिया, पाला-पोसा । राजकुमार धाय माँ के चरणों में झुक गया, गिर गया और फूट-फूट कर रो पड़ा । भाव विव्हल हो उसके आँसू धाय माँ के चरणों में गिर रहे थे । राजकुमार के प्रश्नो को सुनकर धाय माता का हदय भर आया और रोते हुये कहा बेटा ये और कोई नहीं, तुम्हारे पिता इस अयोध्या नगरी के महाराजा कीर्तिधर थे, अब साधु हो गये हैं । अरे जो कभी इस राज्य का स्वामी था उनका आज, उनकी पत्नि व उनके सेवको के व्दारा इस तरह का अपमान और अनादर हो रहा है, उन्हें
नंगा, भूखा, भिखारी कहकर निकाला जा रहा है । अयोध्या नगरी के इस राजमहल में आज तक किसी साधु का इतना अनादर नहीं हुआ । किन्तु आज साधु महाराज का अनादर राजमाता के व्दारा हो रहा है । राजमाता अपने सुहाग को, नग्न दिगम्बर साधु बनने के बाद उन्हें नंगा, मैला, कुचैला, भूखा भिखारी कहकर निकाल दिया, अपमानित कर दिया ।
धाय माता ने सुकौशल राजकुमार से आगे कहा बेटा जब तू छोटा सा १५ दिन का बालक था, तभी वैराग्य धारण कर तुम्हारे पिता, यहाँ के राजा जैन साधु हो गये । वे साधु महात्मा इस नगरी में पधारे हैं । आहार के लिए पधारे कोई भी मुनिराज अपने आँगन से बिना आहार के वापिस नही गये । पुत्र को राज्य सौंपकर और जैनेश्वरी दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करने की परम्परा तो असंख्यात पीढ़ियों से अपने वंश में चली आ रही है । उसी के अनुसार तुम्हारे पिता ने भी तुम्हें राज्य सौंपकर जैनेश्वरी दीक्षा ली । धाय माता के व्दारा यर्थात सत्य सुनते ही राजकुमार सुकौशल को अत्यन्त मिश्रित खेद हुआ ।
अरे यह मेरे पिता जी है, तभी उन्हें देखकर मेरा मन रोमांचित हुआ । ये भिखारी नहीं, ये महान संत पुरूष हैं, महाभाग्य से आज मुझे इनके दर्शन हुये । ऐसा कहते ही राजकुमार सिर पर मुकुट और पैर में जूते पहने बिना ही नंगे पैर, नंगे सिर ही नगर के बाहर मुनिराज (पिता) कीर्तिधर की ओर दौड पड़े । अर्थात उनके पास धर्म की विरासत लेने के लिए चल दिये । वे उस समय ऐसे लग रहे थे मानो संसार के बंधन तोडकर मुक्ति की ओर दौड़ रहे हो ।
इस प्रकार सुकौशल मुनिराज के पास पहुँचकर उनके चरणों में नमन किया और आँखो से आँसुओ की धारा बहने लगी । हे मुनिवर क्षमा करो, क्षमा करो प्रभू , मैंने आपको पहचाना नही, दिगम्बर मुनि क्या और कैसे होते हैं आज तक देखा नही, जाना नहीं । प्रथम बार जीवन में दिगम्बर मुद्रा के दर्शन किये, मन व्याकुल हो गया । मैं भी अब इस स्वार्थी संसार के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ । मुनिराज बोले हे वत्स इस संसार में
सब संयोग क्षणभंगुर हैं ।
उड़ उड़ कर ये चेतन गति , गति में जाता है ।
भोगो में लिप्त सदा, भव भव दुःख पाता है ॥
निजको न सुहाता है , पर मन ही भाता है ।
ये जीवन बीता गया संकल्प विकल्पों में ॥
अनन्त काल से भोगो में लिप्त होकर, दुःख भोग रहा है । यह सारभूत आत्मतत्व ही आनन्द से भरपूर है, उसकी साधना के बिना अन्य कोई शरण नही है । इस प्रकार मुनिराज ने वैराग्य से भरपूर धर्मोपदेश दिया । एकबार और सोच लो राजकुमार, क्या तुम इस मार्ग पर चल सकोगे । यह बहुत कठिन मार्ग है, तलवार की धार पर चलने के समान है । धर्मपिता मुनिराज से उपदेश सुनकर राजकुमार सुकौशल का हदय तृप्त हुआ और संसार की असारता से उसका मन विरक्त हो गया । तब उन्होंने शांत चित्त से विनय पूर्वक हाथ जोडकर प्रार्थना की…
हे प्रभु-दीक्षाम् , देहि दीक्षाम् , देहि दीक्षाम् देहि ……..
प्रभो मुझे भी जैनैश्वरी दीक्षा देकर अपने जैसा बना लीजीये, मैं अनन्त काल से मोह की निद्रा में सो रहा था, आपने मुझे जगाया । आप जिस मोक्ष साम्राज्य की साधना कर रहे हैं, मुझे भी वैसा मोक्ष साम्राज्य चाहिये ।
इस प्रकार राजकुमार सुकौशल जैनैश्वरी दीक्षा लेने के लिए तत्पर हो गये । राजमाता सहदेवी और राजकुमार सुकौशल की गर्भवती रानी विचित्र माला को जब यह जानकारी मिली तो सभी अपने मंत्री आदि के साथ वहाँ आ पहुँची । राजमाता बहुत क्रोध से भरी हुई आई और अपने पूर्व के पति, मुनिराज कीर्तिधर पर बरस पडी । तुम्हारें कलेजे को ठंडक मिल गई होगी आपको मालूम था, मुनिराज ने कहा था, कि जब पिता बेटे का मुख देखेगा तो दीक्षा ले लेगा और जब बेटा पिता का मुख देखेगा तो बेटा दीक्षा ले लेगा, तो फिर आप क्यों आये इस राज्य में? आप चले गये थे, सोचा था बेटे के सहारे जी लूँगी । अब तुम्हारें कारण मेरा बेटा भी चला गया । मैं किसके सहारे जीऊँगी । इस प्रकार क्रोध से भरी संक्लेश परिणाम के साथ रह गयी । मुनिराज ने अपने ज्ञान से कहा तुम्हारी पुत्रवधू गर्भ से हैं उनके सहारे जीना । रानियों व मंत्रियों ने कहा हे राजकुमार भले ही तुम दीक्षा ले लेना हम नही रोकेंगे । लेकिन तुम्हारे वंश में ऐसी प्रथा है कि पुत्र बड़ा होने पर उसे राज्य सौंपकर राजा दीक्षा लेता है, इसलिए आप भी विचित्रमाला रानी के बालक के जन्म के उपरान्त, वह बड़ा हो जाने बाद उसे राज्य सौंपकर दीक्षा ले लेना । अब हम और ये गर्भस्थ माता किसके सहारे जिये ? राजमाता बोली आप तो १५ दिन के बालक को छोड़ गये थे । जब ये दोनों बाप बेटे ने मुँह मोड़ लिया । लानत है ऐसे मुनिधर्म पर, ऐसे मुनि को लानत है । इस प्रकार मुनिधर्म की निन्दा की । तब राजकुमार ने कहा – जब वैराग्य दशा जागी, तब उसे संसार का कोई बंधन नही रोक सकता, फिर भी देवी विचित्रमाला के गर्भ में जो बालक है उसका राजतिलक करके मैं उसको राज्य सौंपता हूँ । ऐसा कहकर वहीं के वहीं गर्भस्थ बालक को अयोध्या का राज्य सौंपकर राजकुमार सुकौशल ने कीर्तिधर मुनिराज (पूर्व पिता) से जैनश्वरी दीक्षा ले ली । पिता के साथ पुत्र ने भी संसार के बंधन तोड़ कर यों मोक्षपथ पर बढ़ गया । कल का राजकुमार राजवैभव छोड कर आत्म वैभव को साधने लगा । क्षणभर पहले का राजकुमार अब मुनि होकर आत्मध्यान से सुशोभित होने लगा ।
बाहर भीतर नित्य रहे , दिगम्बर निर्लिप्त रहे ज्ञानी ।
शाश्वत आत्म तत्व की कीमत तुमने ही तो पहचानी ॥
भौतिक सुख के आज नही तो , कल उठेंगे मेले सारे ।
समय सार को इनसे पाने , आतुर रहते चरण हमारे ॥
धन्य है उनका आत्मज्ञान, धन्य है उनका वैराग्य । रानी सहदेवी ने धर्मात्माओं का अनादर किया । पुत्र मोह के कारण मोहान्धकार वश, क्रूर परिणाम करके ‘आर्तध्यान’ करते हुये, वह मर गई और मरकर वाधिन (व्याघ्री) हुई । अरे जिसका पति मोक्षगामी, जिसका पुत्र भी मोक्षगामी ऐसी वह रानी सहदेवी मोह के अंधकार के कारण, धर्म और धर्मात्माओं के तिरस्कार करने से वाधिन हुई ।
अतः बन्धुओं, माताओं, बहिनों जीवन में कभी भी धर्म, धर्मात्माओं के प्रति अनादर नहीं करना, उनकी निन्दा नही करना, मोह के अंधकार में अंधे नही बनना । अब व्याघ्री हुई राजमाता एक जंगल में रहती थी जीवो की हिंसा करती अत्यन्त दु:खी रहती । उसे कभी चैन नही पड़ती थी । एक बार जिस जंगल में बाघिन रह रही थी, उसी जंगल में मुनिराज कीर्तिधर तथा सुकौशल मुनिराज आकर शांति से आत्मध्यान में लीन होकर बैठ गये थे । वीतरागी शांति का आनन्द लेने लगे । बाघिन घूमते घूमते अपने शिकार की तलाश में आयी । उसने दोनो मुनिराज को देखा । देखते ही क्रुरभाव से गर्जना की और सुकौशन मुनिराज को खाने लगी । उसके पैने दांत शस्त्र का काम कर रहे थे । उस समय दोनो मुनिराज आत्म ध्यान में लीन थे और व्याघ्री मुनिराज को खा रही थी । वे मुनिराज आत्म ध्यान में लीन, चिन्तन करते रहें ।
“शस्त्र से भी मैं कभी कटता नही, अग्नि से भी कभी मैं जलता नही ।
जल गलाये तो कभी गलता नही, मै सदा ज्ञायक स्वभावी आत्मा ॥”
आगे चिन्तन बढता गया शरीर से निस्पृही हो गये ।
“हूँ ज्ञान मात्र पर भाव शून्य हूँ , सहज आनन्द आनन्द पूर्ण ।
हूँ सत्य सहज आनन्द धाम मैं , सहजानन्द स्वरूपी हूँ ॥
हूँ खुद का ही कर्ता भोगता , पर में मेरा , कुछ काम नही ।
पर न प्रकाश प्रवेश यहाँ , मैं सहजानन्द स्वरूपी हूँ ॥
आऊँ उतरू रम लूँ निज में, निज में निज की दुविधा ही क्या ।
निज अनुभव रस से सहज तृप्त , मैं सहजानन्द स्वरूपी हूँ ॥”
और क्या चिन्तन चलता है ।
“दीप सम स्वपर प्रकाशित हूँ सदा , मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ सदा ।
शांत शीतल सौम्य निर्मल आत्मा, मैं सदा ज्ञायक स्वभावी आत्मा ॥”
सुकौशल मुनिराज को व्याघ्री लगातार खाती जा रही थी । मुनिराज आत्मा को शरीर से भिन्नता का चिन्तन करते, विशुध्दि बढ़ाते, श्रेणी आरोहण कर विशुध्दि से क्रम
से कर्मों का क्षय करते हुये घाती कर्म छय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर, अघातिया कर्म को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया । कीर्तिधर ध्यान मग्न थे । ओह धन्य है वह मुनिराज जो शरीर से इतने निस्पृह थे । इधर सुकौशल मुनिराज के शरीर को खाते खाते व्याघ्री की नजर जब उनके हाथ पर पड़ी । उपर तरफ हाथ में एक चिन्ह देखते ही वह आश्चर्य चकित रह गई । उसके मन मे विचार आया यह हाथ मैने कहीं देखा है । और उसे तुरन्त पूर्वभव का जातिस्मरण हो गया, ज्ञान हुआ । अरे यह तो मेरा पुत्र था, मैं इसकी माता । अरे मैंनें ही अपने पुत्र को खा लिया । इस प्रकार पश्चाताप से व्याघ्री रोने लगी और आँखो से आँसू की धारा बहने लगी । उसी समय कीर्तिधर मुनिराज का ध्यान टूटा और उन्होंने व्याघ्री से
कहा –
“हे पापिन तूने तो ये कैसा अनर्थ कर डाला ।
पुत्र मोह के वशीभूत हो, उसका ही भक्षण कर डाला ॥
ऐसा उपदेशामृत सुनकर , व्याघ्री का मन शांत हुआ ।
पश्चाताप से भर कर उसने, व्रत पालन कर पापों का क्षय किया ॥
अरे वाधिन सहदेवी की पर्याय में पुत्र मोह के कारण, मोहांधकार के कारण, धर्म धर्मात्माओं का तिरस्कार किया । मृत्यु हुई व्याघ्री बनी, तू भूल गई कि तू जिस सुकौशल की ललाई (चेहरे की लालामी) देखकर मूर्छा आ गई थी कि यह रक्त कहाँ से आ गया ।
और आज व्याघ्री बनकर उसी को खा गई, उसी पुत्र का तूने भक्षण किया ? अरे ऐसे इस मोह को धिक्कार है, अब इस अज्ञान को छोड़ो और क्रूर भावों को त्याग कर आत्मा को समझ कर अपना कल्याण करो । व्याघ्री(बाघिन) की आँखो से आँसू की धारा बह रही थी । जाति स्मरण हो सब कुछ आँखो में झलकने लगा था और मुनि के उपदेश सुनकर मांस भक्षण त्याग कर वैराग्य पूर्वक संयम धारण किया, और मरकर देव लोक गई । कीर्तिधर मुनिराज ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया । राजा रघु और राम आदि महापुरूष कीर्तिधर राजा के वंश में हुये हैं ।
महल मिट्टी पर खड़ा होता है , वही महल मिट्टी पर पड़ा होता है ।
वजन इंसान का तराजू पर मत तोलो, आदमी तन से नही मन से बडा होता है ॥
३) अधिकार शून्य – अधिकार जताना बंद करो, संतान उपेक्षा करें, उसके पहले सन्यास ले लो । संतान घर से निकाले, आश्रम भेजें उसके पहले घर का त्याग कर देना ।
कई दिनका भूखा भिखारी था, वह एक सेठ की हवेली के सामने कह रहा था भिक्षाम् देहि, माँ भूखे को कुछ मिल जाये । बहू ने देखा और कहा रूको बाबा मैं लेकर आती हूँ । वह अंदर जाती है, इतने मे सेठजी आ गये और बोले क्यों खड़े हो यहाँ, कौन हो ?
भिखारी ने कहा – सेठ जी कई दिनो से भूखा हूँ कुछ मिल जाये सेठजी ।
सेठजी ने कहा – जाओ बाद में आना ।
भिखारी ने कहा – बहूरानी कह कर गयी है थोडी देर रूको मैं तुम्हारे लिए कुछ लाती हूँ ।
सेठजी ने कहा – बहु कौन होती है देने वाली, घर का मालिक मैं हूँ ।
किस बात का अधिकार रखते हो तुम, क्या है तुम्हारा, क्या साथ लेकर आये थे क्या लेकर जाना हैं ।
४) अंगीकार शून्य – अपने लिए कुछ भी अंगीकार नही करना, न प्रापर्टी न जमीन न जायजाद न जेवर, जो भी तुम्हारे नाम से हो उससे शून्य हो जाओ । हर दिन इस तरह बिताओ, कि रात को चैन की नींद लग सके ।
“हर रात इस तरह बिताओ कि , रात को चैन की नींद सो सको ।
हर रात इस तरह बिताओ कि , किसी को मुँह दिखाने में शरमाना ना पडे ॥
जवानी को इस तरह बिताओं कि , बुढ़ापे में पछताना न पड़े ।
और बुढ़ापे को इस तरह बिताओ कि, किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े ॥”
औलाद के भरोसे मत रहना, कुछ बचाके रखना ताकी किसी से माँगना न पड़े । एकाकी सादगी पूर्ण जीवन जिये, व्यापार धंधा से मुक्त, त्यागी वृति की जीवन जिये । पढ़ने पढ़ाने में व्यस्त रहे, मोह ममता जो कम करना, सादे वस्त्रों का उपयोग करे ।
५) अलंकार शून्य– ना साज न संस्कार न जेवर न शरीर का श्रृंगार, ५० के बाद २ टाइम भोजन । धीरे धीरे शाम को अन्न बंद, फलाहारी फिर धीरे धीरे शाम को फलाहार बंद, सिर्फ पानी, फिर धीरे धीरे शाम को बस पानी लेना, और दूध बंद, धीरे धीरे शाम को पानी बंद ।
60 वर्ष के बाद – वानप्रस्थ – जिसके बाद का जीवन वन की ओर, वन न जाना हो साधु संतों की शरण में गृहत्याग कर अभ्यास बढाये और दीक्षा ग्रहण कर, घर की झंझटों और तनाव से मुक्ती का एक ही उपाय है गृहत्याग । शेष जीवन अपने स्व के लिए । पहली पारी में इतना स्कोर खड़ा कर लो कि बाद में बल्ला भी न उठाने पडे । जितना अपडेटस करो काल उतना अपडेट बनेगा । शुरू से ५० के बाद से संयमित जीवन के अभ्यास से, ६० के बाद परेशानी नही जाती, उसी हिसाब से चर्या हो ।