तेतीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तेतीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
‘दा’ दीर्घ उच्चारण करते हुए
‘र’ अकार के साथ बोलना है
मन्दार
फिर ‘र’ अकार के साथ बोलना है
सुन्दर
नमरु
सु-पारि-जात
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेतीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
मन्दार सुन्दर नमरु
सु-पारि-जात-
अब सन्तान-कादि नहीं
सन्ता-नकादि पढ़ना है
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
कुसु-मोत्-क…र
अब थोड़ा रुकिये
रुद्धा नहीं है
‘घ’ घड़े का है
वृष्टि-रुद्-घा पढ़ियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेतीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
सन्ता-नकादि कुसु-मोत्-कर
वृष्टि-रुद्-घा ।
अब संयुक्त अक्षर
दीर्घ उच्चारण करते हुए
ह्रश्व का भी ध्यान रखना है
गन्धोद-बिन्दु
शुभ मन्द
मरुत्
फिर प्रपा नहीं
प्र-पाता बोलियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेतीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
गन्धोद-बिन्दु-शुभ मन्द
मरुत्-प्र-पाता,
अब ‘व’ दो बार पढ़ते हुए
‘या’ दीर्घ उच्चारण करना है
दि(व्)-व्या
विसर्ग का ध्यान रखना है
दिवः
प…त..ति ते
व-चसां
फिर ‘वा’ दीर्घ उच्चारण करना है
ततिर्-वा
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेतीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
दि(व्)-व्या दिवः पतति ते
व-चसां ततिर्-वा ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
मन्दार सुन्दर नमरु
सु-पारि-जात-
सन्ता-नकादि कुसु-मोत्-कर
वृष्टि-रुद्-घा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ मन्द
मरुत्-प्र-पाता,
दि(व्)-व्या दिवः पतति ते
व-चसां ततिर्-वा ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-
सुपारिजात-सन्तानकादि मतलब
मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात,
सन्तानक आदि
कुसुमोत्कर-वृष्टिः मतलब
कल्पवृक्षों के फूलों के समूहों की वर्षा
कैसी है यह ?
तो
उद्धा मतलब श्रेष्ठ
और क्या है ?
तो
गन्धोद-बिन्दु मतलब
सुगन्धित जल की बूँदों और
शुभमन्द-मरुत्प्रपाता मतलब
सुखकर मन्द हवा के साथ गिरने वाली
और
दिव्या मतलब मनोहर
दिवः मतलब आकाश से
पतति मतलब गिरती है
ते मतलब आपके
वचसाम् मतलब वचनों की
ततिः वा मतलब पंक्ति की तरह
ओम्
चौंतीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
चौंतीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
शुम्-भत्
‘भा’ दीर्घ उच्चारण करना है
प्रभा
फिर ‘य’ अकार के साथ बोलना है
वलय
‘भू’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘रि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
भूरि
फिर ‘भा’ दीर्घ उच्चारण करना है
विभा
वि-भोस्-ते,
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौंतीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
शुम्-भत्-प्रभा-वलय-भूरि-
विभा वि-भोस्-ते,
अब
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
लोक(त्)
फिर आधा ‘द’ दो बार पढ़ना है
त्रये(द्)-द्युति-मतां
द्युति-
आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
और ‘ती’ दीर्घ हैं
ऐसा ध्यान रखना है
मा(क्)-क्षि-पन्ती
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौंतीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
लोक(त्)-त्रये(द्)-द्युति-मतां
द्युति-मा(क्)-क्षि-पन्ती ।
अब
आधा ‘द’ दो बार पढ़ना है
प्रो(द्)-द्यद्-
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
दिवाक…र-निरन्त…र
अब ‘भू’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘रि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
भूरि
संख्या
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौंतीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
प्रो(द्)-द्यद्-दिवाकर-निरन्तर
भूरि-संख्या,
अब
दीप्-त्या
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
जय(त्)-त्यपि
निशा-मपि
अब ध्यान रखना है
सौम नहीं पढ़ना है
सोम लिक्खा है
अब पढ़िए
सौ(म्)-म्याम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौंतीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
दीप्-त्या जय(त्)-त्यपि निशा-मपि
सोम-सौ(म्)-म्याम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
शुम्-भत्-प्रभा-वलय-भूरि-
विभा वि-भोस्-ते,
लोक(त्)-त्रये(द्)-द्युति-मतां
द्युति-मा(क्)-क्षि-पन्ती ।
प्रो(द्)-द्यद्-दिवाकर-निरन्तर
भूरि-संख्या,
दीप्-त्या जय(त्)-त्यपि निशा-मपि
सोम-सौ(म्)-म्याम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
शुम्भत् मतलब देदीप्यमान
प्रभावलय मतलब भामण्डल की
भूरिविभा मतलब विशाल कान्ति
विभोः ! मतलब हे प्रभो !
ते मतलब आपके
क्या ?
तो
लोकत्रये मतलब
तीनों लोकों में
द्युतिमताम् मतलब
कान्तिमान् पदार्थों की
द्युतिम् मतलब कान्ति को
आक्षिपन्ती मतलब
तिरस्कृत करने वाली
प्रोद्यद्-दिवाकर मतलब
उदित होते हुए सूर्यों की
निरन्तर-भूरिसंख्या मतलब
निरन्तर भारी संख्या वाली
जयति मतलब जीत रही है
निशाम् अपि मतलब
रात्रि को भी
दीप्त्या अपि मतलब
कान्ति से भी
और जो कैसी है ?
तो
सोमसौम्याम् मतलब
चन्द्रमा के समान सौम्य-सुन्दर
ओम्
पैंतीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
पैंतीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
स्वर्गाप नहीं पढ़ना है
स्वर्गा-पवर्ग बोलना है
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ग…म-मार्ग-
वि-मार्ग
विसर्ग का ध्यान रखना है
णेष्-ट:
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
स्वर्गा-पवर्ग-गम-मार्ग-
विमार्ग-णेष्-ट:,
अब सद्धर्म-तत्त्व
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
क-थनैक-पटुस्-
आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
और विसर्ग बोलते समय संभलना है
त्रि-लो(क्)-क्याः
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
सद्धर्म-तत्त्व-क-थनैक-पटुस्-
त्रि-लो(क्)-क्याः ।
अब
आधा ‘ध’ दो बार पढ़ना है
दिव्य(ध्)-ध्वनिर्
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
भ…वति ते
विश-दार्थ नहीं पढ़ना है
वि-शदार्थ-सर्व-
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
दिव्य(ध्)-ध्वनिर्-भ-वति ते
वि-शदार्थ-सर्व-
अब आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
भाषा(स्)-स्व-भाव
प-रि-णाम-
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
गुणैः
आधा ‘ज्’ दो बार पढ़ना है
और विसर्ग बोलते समय संभलना है
प्र-यो(ज्)-ज्यः
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
भाषा(स्)-स्व-भाव-परिणाम-
गुणैः प्र-यो(ज्)-ज्यः ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
स्वर्गा-पवर्ग-गम-मार्ग-
वि-मार्ग-णेष्-ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-क-थनैक-पटुस्-
त्रि-लो(क्)-क्याः ।
दिव्य(ध्)-ध्वनिर्-भ-वति ते
वि-शदार्थ-सर्व-
भाषा(स्)-स्व-भाव-परिणाम-
गुणैः प्र-यो(ज्)-ज्यः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
स्वर्गापवर्ग मतलब
स्वर्ग और मोक्ष को
गममार्ग मतलब
जाने वाले मार्ग के
विमार्गणेष्टः मतलब
खोजने के लिए इष्ट
सद्धर्म-त्तत्त्व
मतलब समीचीन धर्मतत्त्व के
कथनैक-पटुः मतलब
कथन करने में अत्यन्त समर्थ
किसको ?
तो
त्रिलोक्याः मतलब
तीनों लोकों के जीवों को
दिव्यध्वनिः मतलब
दिव्यध्वनि
भवति मतलब होती है
ते मतलब आपकी
और
विशदार्थ मतलब स्पष्ट अर्थ वाली
सर्वभाषा मतलब सम्पूर्ण भाषाओं में
स्वभाव परिणाम मतलब
परिवर्तित होने वाले स्वाभाविक
गुणैः प्रयोज्यः मतलब
गुण से सहित
ओम्
छत्तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
छत्तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
उन्-निद्र
अब ‘हे’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘म’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
हेम
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
न..व-पङ्कज
अब ‘पुञ्’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘ज’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
पुञ्ज
‘ती’ दीर्घ उच्चारण करना है
कान्ती,
इस प्रकार भक्तामर जी के
छत्तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
उन्-निद्र-हेम-नव-पङ्कज-
पुञ्ज-कान्ती,
अब
पर्युल्
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ल…सन्
न….ख-
मयूख
मऊ नहीं पढ़ना है
मव् बोलना है
शिखा-भिरामौ
इस प्रकार भक्तामर जी के
छत्तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-
शिखा-भिरामौ ।
अब
दव् बोलना है
पादौ
फिर ‘दा’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘नि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
पदानि
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
त…व यत्र
सुनिये
नै नहीं है
ने पढ़ना है
जिनेन्द्र !
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
धत्-त:
इस प्रकार भक्तामर जी के
छत्तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
पादौ पदानि तव यत्र
जिनेन्द्र ! धत्-त:,
अब
पद्-मानि
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
त(त्)-त्र
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
वि-बुधाः
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
प…रि-कल्-पयन्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
छत्तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
पद्-मानि त(त्)-त्र वि-बुधाः
परि-कल्-पयन्ति ॥
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
उन्-निद्र-हेम-नव-पङ्कज-
पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-
शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र
जिनेन्द्र ! धत्-त:,
पद्-मानि त(त्)-त्र वि-बुधाः
परि-कल्-पयन्ति ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
उन्निद्र-हेम मतलब
खिले हुए सुवर्ण के
नव-पङ्कज पुञ्ज
मतलब नवीन कमल समूह के समान
कान्ति मतलब कान्ति के द्वारा
पर्युल्लसन् मतलब
सब ओर से शोभायमान
नखमयूख मतलब
नखों की किरणों के
शिखाभिरामौ मतलब
अग्रभाग से सुन्दर
पादौ मतलब दोनों चरण
पदानि मतलब कदम
तव मतलब आपके
यत्र मतलब जहाँ
जिनेन्द्र ! मतलब
हे जिनेन्द्रदेव !
धत्तः मतलब रखते हैं
पद्मानि मतलब कमलों को
तत्र मतलब वहाँ
विबुधाः मतलब देव गण
परिकल्पयन्ति मतलब रच देते हैं
ओम्
सैंतीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सैंतीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
इत्-थं
फिर दीर्घ उच्चारण करना है
यथा
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
त..व
अब ‘भू’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘ति’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
वि-भूति-
रभूज्-जिनेन्द्र !
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
इत्-थं यथा तव वि-भूति-
रभूज्-जिनेन्द्र !
अब ‘न’ अकार के साथ बोलना है
धर्मो-पदेशन
फिर विधव् पढ़ना है
विधऊ नहीं
विधौ न तथा
आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
पर(स्)-स्य
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
धर्मो-पदेशन विधौ
न तथा पर(स्)-स्य ।
अब
दीर्घ उच्चारण करना है
या-दृक्-प्र-भा
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलते हुए
विसर्ग बोलते समय
ध्यान रखना है
दिन-कृतः
प्रह तान्ध कारा नहीं पढ़ना है
प्र-हतान्-धकारा लिखा है
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
या-दृक्-प्र-भा दिन-कृतः
प्र-हतान्-धकारा,
अब ता-दृक्
आधा ‘ग’ दो बार पढ़ना है
कुतो(ग्)-ग्रह
आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
गण(स्)-स्य
वि-कासि
अब ‘नो’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘पि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
नोऽपि
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
ता-दृक्-कुतो(ग्)-ग्रह-गण(स्)-स्य
वि-कासि-नोऽपि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
इत्-थं यथा तव वि-भूति-
रभूज्-जिनेन्द्र !
धर्मो-पदेशन विधौ
न तथा पर(स्)-स्य ।
या-दृक्-प्र-भा दिन-कृतः
प्र-हतान्-धकारा,
ता-दृक्-कुतो(ग्)-ग्रह-गण(स्)-स्य
वि-कासि-नोऽपि ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
इत्थं मतलब इस प्रकार
यथा मतलब जैसी
तव मतलब आपकी
विभूतिः मतलब विभूति
अभूत् मतलब हुई
जिनेन्द्र ! मतलब हे जिनदेव !
धर्मोपदेशन-विधौ मतलब
धर्मोपदेश के कार्य में
न तथा मतलब वैसी नहीं हुई
परस्य मतलब किसी दूसरे की
सच
यादृक् मतलब जैसी
प्रभा मतलब कान्ति
दिनकृतः मतलब सूर्य की
कैसी है सूर्य की प्रभा ?
तो
प्रहतान्धकारा मतलब
अन्धकार को नष्ट करने वाली
तादृक् मतलब वैसी
कुतः मतलब कहाँ
ग्रह-गणस्य मतलब
अन्य ग्रहों की
भले
विकाशिनः अपि मतलब
प्रकाशमान होने पर भी
अर्थात् नहीं होती है
ओम्
अड़तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
अड़तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
देखिए आधा ‘श’ और आधा ‘च’
दोनों एक साथ पढ़ने में कठिनाई से
आते हैं इसलिए आधा अक्षर चूंकि
ह्रश्व ‘इ’ के साथ पढ़ने का प्रचलन है
जैसे प्यास, ब्याज
सो
शि पढ़कर च्यो-तन्
मदा
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
वि…ल-वि-लोल-कपोल
अब ‘मू’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘ल’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
मूल
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
(शि)-च्यो-तन्-मदा-विल-वि-लोल-
कपोल-मूल,
अब
आधा ‘भ’ दो बार पढ़ना है
मत्त(भ्)-भ्रमद्
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
भ्र…म…र
फिर ‘द’ अकार के साथ बोलना है
नाद-
वि-वृद्ध-कोपम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मत्त(भ्)-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-
वि-वृद्ध-कोपम् ।
अब अय्…रा पढ़ना है
शुद्ध उच्चारण करने के लिए ऐरा-वताभ-मिभ
फिर ‘त’ अकार के साथ बोलना है
मुद्धत
मा-पतन्तं
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
ऐरा-वताभ-मिभ मुद्धत
मा-पतन्तं,
दृष्-ट्वा भयं भ…वति नो
आधा ‘श्’ दो बार पढ़ना है
भव-दा(श्)-श्रि-तानाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
दृष्-ट्वा भयं भवति नो
भव-दा(श्)-श्रि-तानाम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
(शि)-च्यो-तन्-मदा-विल-वि-लोल-
कपोल-मूल,
मत्त(भ्)-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-
वि-वृद्ध-कोपम् ।
ऐरा-वताभ-मिभ मुद्धत
मा-पतन्तं,
दृष्-ट्वा भयं भवति नो
भव-दा(श्)-श्रि-तानाम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते है
श्च्योतन् मतलब झरते हुए
मदाविल मतलब मद जल से मलिन
विलोल मतलब चंचल
कपोलमूल मतलब
गालों के मूल भाग में
मत्त मतलब पागल हो
भ्रमद्भमर मतलब
घूमते हुए भौंरों के
नाद मतलब शब्द से
विवृद्ध-कोपम् मतलब
बढ़ गया है क्रोध जिसका
ऐसे
ऐरावताभम् मतलब
ऐरावत की तरह
इभम् मतलब हाथी को
वह हाथी कैसा है ?
तो
ऊद्धतम् मतलब उद्दण्ड है
उसे
आपतन्तम् मतलब
सामने आते हुए
दृष्ट्वा मतलब देखकर
भयम् मतलब डर
नो भवति मतलब नहीं होता है
भवदाश्रितानाम् मतलब
आपके आश्रित मनुष्यों को
ओम्
उन्तालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
उन्तालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
‘भ’ अकार के साथ बोलना है
भिन्-नेभ-कुम्भ
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ग…ल-दुज्-ज्व…ल-
अब ‘शो’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘णि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
शोणि-ताक्त
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
भिन्-नेभ-कुम्भ-गल-दुज्-ज्वल-
शोणि-ताक्त,
अब आधा ‘प’ दो बार पढ़ना है
मुक्ता फल(प्)
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
प्र-क…र
अब ‘भू’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘षि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
भू-षित
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
भूमि-भागः
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर
भू-षित-भूमि-भागः ।
अब
आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
बद्ध(क्)
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
क्रमः
‘म’ अकार के साथ बोलना है
क्रम-गतं
हरि-णा-धिपोऽपि,
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
बद्ध(क्)-क्रमः क्रम-गतं
हरि-णा-धिपोऽपि,
अब
आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
ना(क्)-क्रामति(क्)-क्रम
युगाचल-
आधा ‘श’ दो बार पढ़ना है
सं(श्)-श्रितं ते
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
ना(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगाचल-
सं(श्)-श्रितं ते ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
भिन्-नेभ-कुम्भ-गल-दुज्-ज्वल-
शोणि-ताक्त,
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर
भू-षित-भूमि-भागः ।
बद्ध(क्)-क्रमः क्रम-गतं
हरि-णा-धिपोऽपि,
ना(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगाचल-
सं(श्)-श्रितं ते ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
भिन्नेभ मतलब
विदारे हुए हाथी के
कुम्भ मतलब गण्डस्थल से
गल-दुज्ज्वल मतलब
गिरते हुए उज्ज्वल
शोणिताक्त मतलब
खून से भीगे हुए
मुक्ता-फल-प्रकर मतलब
मोतियों के समूह के द्वारा
भूषित मतलब
भूषित किया है
भूमिभागः मतलब
पृथ्वी का भाग जिसने
ऐसा
और कैसा ?
तो
बद्धक्रमः मतलब
छलांग मारने के लिए तैयार
हरिणाधिपः अपि मतलब
सिंह भी
क्रमगतम् मतलब
अपने पाँवों के बीच आये हुए
ते मतलब आपके
क्रम-युगाचल मतलब
चरण युगलरूप पर्वत का
संश्रितम् मतलब
आश्रय लेने वाले पुरुष पर
न आक्रामति मतलब
आक्रमण नहीं करता है
ओम्
चालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
चालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
‘त’ अकार के साथ बोलना है
कल्-पान्त
‘ल’ अकार के साथ बोलना है
काल
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
प-वनोद्-धत
आधा ‘ह’ दो बार पढ़ना है
और शब्द के आरंभ में आये तो
ह्रश्व ‘इ’ पढ़ते हैं
इसलिये
वह्-(हि)नि-कल्पम् बोलना चाहिए
इस प्रकार भक्तामर जी के
चालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
कल्-पान्त काल प-वनोद्-धत –
वह्-(हि)नि-कल्पम्,
अब
दावानलं ज्वलित
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
मुज्-ज्वल
मुत्स्-फुलिङ्-गम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
दावानलं ज्वलित-मुज्-ज्वल
मुत्स्-फुलिङ्-गम् ।
अब
विश्वं जिघत्-
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
सुमि…व
सम्-मु…ख
मा-पतन्तं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
चालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
विश्वं जिघत्-सुमिव सम्-मुख
मा-पतन्तं,
अब
त्वन्-नाम
कीर्तन-जलं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
श…म
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
य(त्)-त्य
शेषम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
त्वन्-नाम-कीर्तन-जलं
शम-य(त्)-त्य-शेषम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
कल्-पान्त काल प-वनोद्-धत –
वह्-(हि)नि-कल्पम्,
दावानलं ज्वलित-मुज्-ज्वल
मुत्स्-फुलिङ्-गम् ।
विश्वं जिघत्-सुमिव सम्-मुख
मा-पतन्तं,
त्वन्-नाम-कीर्तन-जलं
शम-य(त्)-त्य-शेषम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
कल्पान्तकाल मतलब
प्रलयकाल की
पवनोद्धत मतलब
वायु से ऊपर को उठकर
प्रचण्ड रूप धारण किया जिसने
ऐसी वह
वह्नि-कल्पम् मतलब
अग्नि के तुल्य
दावानलम् मतलब
वन की अग्नि को
ज्वलितम् मतलब प्रज्वलित
उज्वलम् मतलब उज्ज्वल
और
उत्स्फुलिङ्गम मतलब
जिससे तिलंगे ऊपर की ओर
निकल रहे हैं, ऐसी वह
तथा
विश्वं मतलब संसार को
जिघत्सुम् इव मतलब
भक्षण करने की इच्छा
रखने वाले की तरह
सम्मुखम् मतलब सामने
आपतन्तम् मतलब
आती हुई
त्वन्नाम मतलब आपके नाम का
कीर्तन-जलम् मतलब
यशोगानरूपी जल
शमयति मतलब बुझा देता है
अशेषम् मतलब सम्पूर्ण रूप से
ओम्
इकतालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
इकतालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
रक्ते(क्)-क्षणं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
स…म…द
फिर ‘ल’ अकार के साथ बोलना है
कोकिल
कण्ठ-नीलं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकतालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
रक्ते(क्)-क्षणं समद कोकिल
कण्ठ-नीलं,
अब
क्रोधोद्-धतं
फिर ‘न’ अकार के साथ बोलना है
फ…णि…न-मुत्-फ…ण
मा-पतन्तम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकतालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
क्रोधोद्-धतं फणिन-मुत्-फण-
मा-पतन्तम् ।
अब आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
आ(क्)-क्रामति(क्)
क्र…म-युगेण
निरस्त-शङ्कस्-
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकतालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
आ(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगेण
निरस्त-शङ्कस्-
अब
त्वन्
फिर ‘म’ अकार के साथ बोलना है
नाम-
फिर ‘ग’ अकार के साथ बोलना है
नाग
दमनी
हृदि
आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
य(स्)-स्य
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
पुंसः
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकतालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
त्वन्-नाम-नाग-दमनी
हृदि य(स्)-स्य पुंसः ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
रक्ते(क्)-क्षणं समद कोकिल
कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्-धतं फणिन-मुत्-फण-
मा-पतन्तम् ।
आ(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगेण
निरस्त-शङ्कस्-
त्वन्-नाम-नाग-दमनी
हृदि य(स्)-स्य पुंसः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
रक्तेक्षणम् मतलब
लाल-लाल आँखों वाले
समद मतलब मद युक्त
कोकिल-कण्ठ-नीलम् मतलब
कोयल के कण्ठ की तरह काले क्रोधोद्धतम् मतलब
क्रोध से उद्दण्ड और
फणिनम् मतलब साँप को
उत्फणम् मतलब
ऊपर को फण उठाये हुए
आपतन्तम् मतलब
सामने आते हुए
आक्रामति मतलब
लाँघ जाता है
क्रमयुगेण मतलब
दोनों पाँवों से
निरस्तशङ्कः मतलब
शंका रहित होता हुआ
यस्य मतलब जिस
पुंसः मतलब पुरुष के
त्वन्नाम-नागदमनी मतलब
आपके नामरूपी
नागदमनी-नागवशीकरण औषध है
हृदि मतलब हृदय में
यस्य मतलब जिस
पुंसः मतलब पुरुष के
ओम्
ब्यालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
ब्यालीसवां काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
वल्-गत्-तुरङ्ग
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ग…ज गर्जित-
अब ‘भी’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘म’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
भीम-नाद
इस प्रकार भक्तामर जी के
ब्यालीसवां काव्य का पहला चरण हुआ
वल्-गत्-तुरङ्ग-गज गर्जित-
भीम-नाद-
अब
माजौ बलं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ब…ल-वता म…पि
भू-पती-नाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
ब्यालीसवां काव्य का दूसरा चरण हुआ
माजौ बलं बल-वता मपि
भू-पती-नाम् ।
अब
उद्यद्-
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
दिवा-क…र
फिर ‘ख’ अकार के साथ बोलना है
मयूख
शिखा-पविद्धं
इस प्रकार भक्तामर जी के
ब्यालीसवां काव्य का तीसरा चरण हुआ
उद्यद्-दिवा-कर मयूख
शिखा-पविद्धं,
अब
त्वत्-कीर्तनात्
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
त…म इवाशु
भिदा-मुपैति
इस प्रकार भक्तामर जी के
ब्यालीसवां काव्य का चौथा चरण हुआ
त्वत्-कीर्तनात्-तम इवाशु
भिदा-मुपैति ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
वल्-गत्-तुरङ्ग-गज गर्जित-
भीम-नाद-
माजौ बलं बल-वता मपि
भू-पती-नाम् ।
उद्यद्-दिवा-कर मयूख
शिखा-पविद्धं,
त्वत्-कीर्तनात्-तम इवाशु
भिदा-मुपैति ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
बलगत्-तुरङ्ग मतलब
उछलते हुए घोड़े
गज-गर्जित मतलब
और हाथियों की गर्जना से
भीमनादम् मतलब
भयंकर है शब्द जिसमें ऐसी
आजौ मतलब युद्ध क्षेत्र में
बलम मतलब सेना
बलवताम् अपि भूपतीनाम्
मतलब पराक्रमी राजाओं की भी
उसी तरह
जिस तरह
उद्यर्-दिवाकर मतलब
उगते हुए सूर्य की
मयूख मतलब किरणों के
शिखा मतलब अग्रभाग से
पविद्धम मतलब वेधे गये
तमः इव मतलब अन्धकार की तरह
आशु मतलब शीघ्र ही
त्वत्कीर्तनात् मतलब
आपके यशोगान से
भिदाम् मतलब विनाश को
उपैति मतलब
प्राप्त हो जाती है
ओम्
तैंतालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तैंतालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘ग’ दो बार पढ़ना है
कुन्ता(ग्)-ग्र
भिन्न
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
ग…ज शोणित-
वारि-वाह
इस प्रकार भक्तामर जी के
तैंतालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
कुन्ता(ग्)-ग्र भिन्न-गज शोणित-
वारि-वाह,
अब
वेगाव-तार नहीं पढ़ना है
वेगा-वतार
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
त-रणा-तु…र
योध भीमे
इस प्रकार भक्तामर जी के
तैंतालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
वेगा-वतार त-रणा-तुर
योध भीमे ।
युद्धे जयं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
वि…जि…त दुर्जय
अब ‘जे’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘य’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
जेय पक्षास्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तैंतालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
युद्धे जयं विजित दुर्जय-
जेय पक्षास्-
अब त्वत्-पाद-पङ्कज
आधा ‘श’ दो बार पढ़ना है
वना(श्)-श्रयिणो
लभन्ते
इस प्रकार भक्तामर जी के
तैंतालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
त्वत्-पाद-पङ्कज-वना(श्)-
श्रयिणो लभन्ते ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
कुन्ता(ग्)-ग्र भिन्न-गज शोणित-
वारि-वाह,
वेगा-वतार त-रणा-तुर
योध भीमे ।
युद्धे जयं विजित दुर्जय-
जेय पक्षास्-
त्वत्-पाद-पङ्कज-वना(श्)-
श्रयिणो लभन्ते ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
कुन्ताग्र मतलब
भालों के अग्रभाग से
भिन्न मतलब विदारे गये
गज-शोणित-वारिवाह
मतलब हाथियों के खून-रूपी
जल के प्रवाह को
वेगावतार मतलब
वेग से उतरने
तरणातुर मतलब तैरने में व्यग्र
योध-भीमे मतलब
योद्धाओं के द्वारा भयंकर
युद्धे मतलब युद्ध में
विजित मतलब जीत लिया है
दुर्जय-जेय-पक्षाः
मतलब कठिनाई से जीतने योग्य
शत्रुओं के पक्ष को जिन्होंने
ऐसे होते हुए
त्वत्पाद-पङ्कज मतलब
आपके चरणरूप कमलों के
वनाश्रयिणः मतलब
वन का आश्रय लेने वाले पुरुष
जयम् मतलब विजय
लभन्ते मतलब पाते हैं
ओम्
चबालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
चबालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
अम्भो
अब आधा ‘क’ दो बार पढ़ना है
निधौ(क्)-क्षुभित
भी-षण-
अब ‘नक्’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘र’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
नक्र-चक्र
इस प्रकार भक्तामर जी के
चबालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
अम्भो-निधौ(क्)-क्षुभित-भी-षण-
नक्र-चक्र,
अब
पाठीन पीठ
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
भ…य-दोल्-व…ण
आधा ‘ग’ दो बार पढ़ना है
और नऊ नहीं पढ़ना है
नव् पढ़ियेगा
वाड-वा(ग्)-ग्नौ
इस प्रकार भक्तामर जी के
चबालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
पाठीन पीठ-भय-दोल्-वण
वाड-वा(ग्)-ग्नौ ।
अब
रङ्गत्-तरङ्ग
शि-खरस्-थित
फिर ‘न’ अकार के साथ बोलना है
यान
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
पा(त्)-त्रास्-
इस प्रकार भक्तामर जी के
चबालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
रङ्गत्-तरङ्ग-शि-खरस्-थित-
यान पा(त्)-त्रास्-
अब
त्रासं वि-हाय
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलते हुए
विसर्ग बोलते समय संभलना है
भ-वतः
स्मरणाद् व्रजन्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
चबालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
त्रासं वि-हाय भ-वतः
स्मरणाद् व्रजन्ति ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
अम्भो-निधौ(क्)-क्षुभित-भी-षण-
नक्र-चक्र-
पाठीन पीठ-भय-दोल्-वण
वाड-वा(ग्)-ग्नौ ।
रङ्गत्-तरङ्ग-शि-खरस्-थित-
यान पा(त्)-त्रास्-
त्रासं वि-हाय भ-वतः
स्मरणाद् व्रजन्ति ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
अम्भोनिधौ मतलब समुद्र में
कैसा है जो ?
तो
क्षुभित मतलब
क्षोभ को प्राप्त हुए
भीषण मतलब भयंकर
नक्रचक्र मतलब
मगरमच्छों के समूह
और
पाठीन पीठ मतलब
मछलियों के द्वारा
भय-दोल्वण मतलब
भय पैदा करने वाले
तथा विकराल
वाडवाग्नौ मतलब बड़वानल जिसमें
ऐसा है
उसमें रङ्गत्तरङ्ग मतलब
चंचल लहरों के
शिखरस्थित मतलब
अग्रभाग पर स्थित है
यानपात्राः मतलब
जहाज जिनका ऐसे मनुष्य
त्रासम् मतलब भय को
विहाय मतलब छोड़कर
भवतः मतलब आपके
स्मरणात् मतलब स्मरण से
व्रजन्ति मतलब तट से लगते हैं
ओम्
पैंतालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
पैंतालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
उद्भूत
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
भी-ष…ण
जलोद…र
अब विसर्ग बोलते समय
ध्यान रखना है
भार-भुग्-ना:
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
उद्भूत भी-षण-जलोदर-
भार-भुग्-ना:,
अब
आधा ‘च’ दो बार पढ़ना है
शो(च्)-च्यां दशा
मु…प-गताश्
च्युत
अब ‘जी’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘वि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
और विसर्ग बोलते समय
जर्रा सा संभलना है
जीवि-ताशाः
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
शो(च्)-च्यां दशा-मु-प-गताश्-
च्युत-जीवि-ताशाः ।
अब त्वत्
फिर ‘द’ अकार के साथ बोलना है
पाद
पङ्क…ज
रजो-मृत-
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
दिग्ध-देहाः
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
त्वत्-पाद-पङ्कज-रजो-मृत-
दिग्ध-देहाः,
अब
मर्-त्या भवन्ति
आधा ‘ध’ दो बार पढ़ना है
मकर(ध्)-ध्वज
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
तुल्य-रूपाः
इस प्रकार भक्तामर जी के
पैंतालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
मर्-त्या भवन्ति मकर(ध्)-ध्वज-
तुल्य-रूपाः ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
उद्भूत भी-षण-जलोदर-
भार-भुग्-ना:,
शो(च्)-च्यां दशा-मु-प-गताश्-
च्युत-जीवि-ताशाः ।
त्वत्-पाद-पङ्कज-रजो-मृत-
दिग्ध-देहाः,
मर्-त्या भवन्ति मकर(ध्)-ध्वज-
तुल्य-रूपाः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
उद्भूत मतलब उत्पन्न हुए
भीषण मतलब भयंकर
जलोदर मतलब जलोदर रोग के
भारभुग्नाः मतलब
भार से झुके हुए
शोच्यां दशाम् मतलब
शोचनीय अवस्था को
उपगताः मतलब प्राप्त और
च्युतजीविताशाः मतलब
छोड़ दी है जीवन की आशा
जिन्होंने ऐसे
त्वत्पाद-पङ्कज मतलब
आपके चरण कमलों की
रजोऽमृत मतलब
धूलिरूप अमृत से लिप्त
दिग्धदेहाः मतलब शरीर होते हुए
मर्त्याः मतलब मनुष्य
भवन्ति मतलब हो जाते हैं
मकरध्वज मतलब कामदेव के
तुल्यरूपाः मतलब समान रूप वाले
ओम्
छियालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
छियालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
दीर्घ उच्चारण करना है
आ-पाद
कण्ठ
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
मु…रु
शृङ्ख…ल
वेष्-टि-ताङ्गा
इस प्रकार भक्तामर जी के
छियालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
आ-पाद कण्ठ-मुरु-शृङ्खल-
वेष्-टि-ताङ्गा,
अब
गाढं
बृ-हन्
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
निग…ड
अब ‘को’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘टि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
कोटि
नि-घृष्ट
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
जङ्घाः
इस प्रकार भक्तामर जी के
छियालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
गाढं-बृ-हन्-निगड-कोटि
नि-घृष्ट जङ्घाः ।
अब
त्वन्-नाम
मन्त्र-मनिशं
अब विसर्ग बोलते समय संभलना है
मनुजाः स्मरन्तः
इस प्रकार भक्तामर जी के
छियालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं
मनुजाः स्मरन्तः,
अब
सद्यः स्व…यं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
वि…ग…त-बन्ध-
भया भवन्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
छियालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-
भया भवन्ति ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
आ-पाद कण्ठ-मुरु-शृङ्खल-
वेष्-टि-ताङ्गा,
गाढं-बृ-हन्-निगड-कोटि
नि-घृष्ट जङ्घाः ।
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं
मनुजाः स्मरन्तः,
सद्यः स्व-यं विगत-बन्ध-
भया भवन्ति ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
आपादकण्ठम् मतलब
पाँव से लेकर कण्ठपर्यन्त
उरु मतलब बड़ी-बड़ी
शृङ्खल मतलब साँकलों से
वेष्टिताङ्गाः मतलब जकड़ा हुआ है
शरीर जिनका
ऐसे
और
गाढं मतलब
अत्यन्त कसकर बाँधी गईं
बृहन् मतलब बड़ी-बड़ी
निगड मतलब बेड़ियों के
कोटि मतलब अग्रभाग से
निघृष्ट मतलब घिस गई हैं
जङ्घा: मतलब
जङ्घाएं जिनकी ऐसे
त्वन्नाम-मन्त्रम् मतलब
आपके नामरूपी मन्त्र को
अनिशम् मतलब निरन्तर
मनुजाः मतलब मनुष्य
स्मरन्तः मतलब
स्मरण करते हुए
सद्यः मतलब शीघ्र ही
स्वयम् मतलब अपने आप
विगत-बन्धभयाः मतलब
बंधन के भय से रहित
भवन्ति मतलब हो जाते हैं
ओम्
सैंतालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सैंतालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘द’ दो बार पढ़ना है
मत्त(द्)-द्वि-पेन्द्र
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
मृ…ग-राज
अब ‘ला’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘हि’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
दवा-नलाहि
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
मत्त(द्)-द्वि-पेन्द्र-मृग-राज
दवा-नलाहि-
अब
संग्राम-वा-रिधि-
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
महोद…र
बन्ध-नोत्-थम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
संग्राम-वा-रिधि-महोदर
बन्ध-नोत्-थम् ।
अब आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
त(स्)-स्याशु
नाश
मुप याति नहीं पढ़ना है
मु-पयाति
भयं भियेव,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
त(स्)-स्याशु नाश मु-पयाति
भयं भियेव,
अब
यस्-तावकं
स्तव-मिमं
मति
मान धीते नहीं पढ़ना है
मा-नधीते
इस प्रकार भक्तामर जी के
सैंतालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
यस्-तावकं स्तव-मिमं
मति-मा-नधीते ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
मत्त(द्)-द्वि-पेन्द्र-मृग-राज
दवा-नलाहि-
संग्राम-वा-रिधि-महोदर
बन्ध-नोत्-थम् ।
त(स्)-स्याशु नाश मु-पयाति
भयं भियेव,
यस्-तावकं स्तव-मिमं
मति-मा-नधीते ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
मत्तद्विपेन्द्र मतलब मत्त हाथी
मृगराज मतलब सिंह
दवानलाहि मतलब वनाग्नि, साँप
संग्राम मतलब युद्ध
वारिधि मतलब समुद्र
महोदर मतलब जलोदर
और
बन्धनोत्थम् मतलब
बन्धन आदि से उत्पन्न हुआ
तस्य मतलब उसका
आशु मतलब शीघ्र
नाशं मतलब विनाश को
उपयाति मतलब प्राप्त हो जाता है
भयम् मतलब डर
भिया इव मतलब मानों भय से ही
तावकम् मतलब आपके
स्तवम् इमम् मतलब इस स्तोत्र को
यः मतलब जो
मतिमान् मतलब बुद्धिमान् मनुष्य
अधीते मतलब पढ़ता है
ओम्
अड़तालीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
अड़तालीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
स्तो(त्)-
फिर आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
त्र(स्)-स्रजं
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
त…व जिनेन्द्र
गुणैर्-नि-बद्धाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तालीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
स्तो(त्)-त्र(स्)-स्रजं तव जिनेन्द्र
गुणैर्-नि-बद्धाम्,
अब दीर्घ उच्चारण करना है
भक्त्या मया
रु…चि…र-वर्ण-
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
विचि(त्)-त्र-पुष्पाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तालीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-
विचि(त्)-त्र-पुष्पाम् ।
अब
धत्-ते जनो
फिर ह्रश्व उच्चारण के समय
संभलना है
य इ…ह कण्ठ-
गता-
आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
मज(स्)-स्रं
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तालीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
धत्-ते जनो य इह कण्ठ-
गता-मज(स्)-स्रं
अब
तम्
फिर ‘न’ अकार के साथ बोलना है
मान
तुङ्ग-मवशा
अब ‘पै’ थोड़ा सा खींचियेगा
‘ति’ ह्रश्व उच्चारित हो जायेगा
समु-पैति
अब विसर्ग बोलते समय
ध्यान रखना है
लक्ष्मीः
इस प्रकार भक्तामर जी के
अड़तालीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
तं मान-तुङ्ग-मवशा-
समु-पैति लक्ष्मीः ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
स्तो(त्)-त्र(स्)-स्रजं तव जिनेन्द्र
गुणैर्-नि-बद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-
विचि(त्)-त्र-पुष्पाम् ।
धत्-ते जनो य इह कण्ठ-
गता-मज(स्)-स्रं,
तं मान-तुङ्ग-मवशा-
समु-पैति लक्ष्मीः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
स्तोत्र-स्रजं मतलब
स्तोत्र-रूपी माला को
तव मतलब आपकी
जिनेन्द्र ! मतलब हे जिनेन्द्रदेव !
गुणैः मतलब
प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि गुणों से
(माला के पक्ष में-डोर से)
निबद्धाम् मतलब रची गई
(माला पक्ष में गूँथी गई)
भक्त्या मतलब भक्तिपूर्वक
मया मतलब मेरे द्वारा
विविधवर्ण मतलब
अनेक प्रकार के सुन्दर वर्णरूपी
विचित्रपुष्पाम् मतलब
विविध प्रकार के पुष्पों वाली
(माला पक्ष में-
अच्छे रंग वाले,
कई तरह के फूलों से सहित)
धत्ते मतलब
धारण करता है
जनः यः
इह मतलब इस संसार में
जो मनुष्य
कण्ठगताम् मतलब कण्ठ में
अजस्रम् मतलब हमेशा
तम् मतलब उस
मानतुङ्ग यानि ‘कि
सम्मान से उन्नत पुरुष को
(अथवा स्तोत्र के रचने वाले
मानतुंग आचार्य को)
अवशा लक्ष्मीः मतलब
स्वतन्त्र स्वर्ग-मोक्षादि की विभूति
समुपैति मतलब प्राप्त होती है
ओम्
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