पहला काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये,
पहले काव्य में
कहाँ कहाँ फिसल जाती है जुबां हमारी,
सबसे पहले उसे ही देख लेते हैं
प्राय: करके
लोग-बाग पहला ही शब्द पढ़ते हैं
भक्ताम्-मर
पर आँखों के साथ
मन के लिए लगाते ही
भूल हमें दिख जाती है
श्री मद् आचार्य देव मानतुंग जी ने
भक्ता-मर लिक्खा है
अब देखियेगा
उदा-हरण के लिए
एक प्रचलित शब्द लेते हैं
ईश्वर
इसे ईश-वर लिक्खा होने के बाद भी
हम जब उच्चारण करते हैं
ईश…श्वर कहते हैं,
मतलब तालव्य शकार
जिसे बोल चाल की भाषा में
शक्कर का ‘श’ कहते हैं
वह दो बार पढ़ा जाता है
तब उच्चारण शुद्ध होता है
इसी तरह से ‘प्र’ में हलन्त ‘प्’ है
आपकी भाषा में कहें तो
आधा प् है
और पूरा ‘र’
मिलकर के शब्द बना है ‘प्र’
इसलिये भक्ता-मरप् पढ़ियेगा
अब देखियेगा
जब हम प्रणत एक साथ बोलते हैं
तब
‘प’ में छोटी इ की मात्रा लग जाती है
और ‘त’ हलन्त हो जाता है
इस दोष से बचने के लिए
यदि हम ‘प्र’ पढ़ने के बाद
णत पढ़ते हैं
तो उच्चारण शुद्ध आ जाता है
इसलिये भक्ता-मरप्-प्र-णत पढ़ियेगा
अब देखियेगा
जब हम मौलि पढ़ते हैं
तो ‘ल’ में बड़ी ‘ई’ की मात्रा हो जाती है
और एक बात और है
ध्यान देने के योग्य
‘के ‘मऊ’ नहीं पढ़ना है
ओ, औ संध्यक्षर जो हैं
सो जैसे हम अवगुण के लिये
औगुण कह-लिख सकते हैं
वैसे ही ‘मौ’ के लिए ‘मव’ पढ़ियेगा
और ‘ला’ में लगी हृश्व ‘इ’ की मात्रा
पढ़ने थोड़ा सा
मव को खींचियेगा
इकार के साथ
‘ल’ का उच्चारण सही हो जायेगा
इसलिए भक्ता-मरप्
प्र-णत-मौलि पढ़ियेगा
अब देखियेगा
मणि शब्द में णमोकार के ‘ण’ में
छोटी इ की मात्रा है
जिसे शुद्ध पढ़ने के लिये
पीछे प्रभाणा में
आने वाला आधा ‘प्’ है जो
उसे दो बार पढ़ना है
फिर ‘प्र’ के बाद भा…णा
दीर्घ स्वरों के साथ पढ़ियेगा
मणिप्-प्र-भा-णा
इस प्रकार भक्तामर जी के
पहले काव्य का पहला चरण हुआ
भक्ता-मरप्-प्र-णत-मौलि-
मणिप्-प्र-भा-णा ।
अब देखियेगा
‘द्य’ शब्द में आधा ‘द्’ है
और पूरा ‘य’
सो चूँकि आधा अक्षर दो बार पढ़ना है
सो पढ़ियेगा मुद्-द्यो
सुनियेगा
यदि हम ‘त’ को साथ में पढ़ते हैं
तो ‘त’ हलन्त हो जाता है
इसलिये मुद्-द्योत न पढ़ के
मुद्-द्यो तकम् पढ़ियेगा
अब दलित में ‘त’ हलन्त न होने पाये
ऐसा पढ़ियेगा
द-लित
अब पाप में
‘प’ को हलन्त होने से बचाने के लिए
पाप् नहीं
पाप पढ़ियेगा
अब तमो में ‘मो’ के लिये
थोड़ा सा खींचियेगा
तमो…
हाँ एकदम ठीक है
अब वितानम् में
बकरी वाला,
पेट चिरा हुआ ‘ब’ नहीं है
वजनदारी रखने वाला वजन का ‘व’ है
वि-तानम् पढ़ियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
पहले काव्य का दूसरा चरण हुआ
मुद्-द्यो-तकं-दलित-पाप-
तमो-वि-तानम् ।।
अब सुनिये
सम्यक् शब्द में
चूँकि पीछे आधा ‘क्’ है
इसीलिये प्रणम्य का आधा ‘प्’
दो बार नहीं पढ़ना है
सो पढ़ियेगा
सम्यक् प्र…णम्य
हाँ हाँ
णम्य का आधा ‘म्’
और पूरा ‘य’ पढ़ते समय
थोड़ा सा ध्यान दीजियेगा
संस्कृत, हिन्दी में
आधा ‘म्’ पढ़ने के लिये
छोटी इ की मात्रा लगाकर के
पढ़ने का प्रचलन है
उदा-हरण स्वरूप
ब्याज, प्याज, त्याग
सो मिय पढ़ना
पढ़ियेगा
प्र-णम्-मिय
‘म’ आधा है
इसलिये दो बार पढ़ा है
प्र-णम्-मिय
अब जिन शब्द पढ़ते वक्त
‘न’ का उच्चारण सही कीजियेगा
जिन
फिर शब्द पाद में ‘द’ का उच्चारण
अकार के साथ कीजियेगा
पाद
अब पढ़ियेगा युगम् युगादा
इस प्रकार भक्तामर जी के
पहले काव्य का तीसरा चरण हुआ
सम्यक् प्र-णम्-मिय जिन-पाद
युगं-युगा-दा ।
अब ध्यान रखियेगा
कहीं आप बालम्बलम् तो नहीं पढ़ते हैं
यदि पढ़ने में आ जाता है
तो सुधार लीजियेगा
वालम्बनं लिक्खा है
पहले ‘व’ वन का है
सो पढ़ियेगा वालम्
अब इसके बाद
‘ब’ बकरी वाला है
सो पढ़ियेगा वालम्बनं
अब जरा देखियेगा
‘व’ वजन वाला पढ़ते समय
होंठ तो नहीं मिले
यदि मिल चले हैं
तो बकरी के ‘ब’ में मिलते हैं
वन के ‘व’ में होंठ न मिलने पायें
ज़र्रा सा संभलियेगा
अब भब नहीं पढ़ना है
भव पढ़ना है
देखिये
पहले का गलत उच्चारण जो है
बोलने की कठिनाई दूर करने के लिये
वह हम बचपन में स्वयं ही
अपने आप सीख चले थे
अब भव पढ़ते वक्त
थोड़ा सा अटपटा लगना चाहिये
पढ़ियेगा भव जले
अब पततां मत पढ़ियेगा
‘त्’ हलन्त हो जाता है
‘प’
फिर ‘त’
फिर ताम् पढ़ियेगा
प-त-ताम्
अब पढ़ियेगा
जनानाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
पहले काव्य का चौथा चरण होगा
वालम्-बनं भव-जले
प-त-ताम् जनानाम् ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
भक्ता-मरप्-प्र-णत-मौलि-
मणिप्-प्र-भा-णा ।
मुद्-द्यो-तकं-दलित-पाप-
तमो वि-तानम् ।।
सम्यक् प्र-णम्-मिय जिन-पाद
युगं-युगा-दा ।
वालम्-बनं भव-जले
प-त-ताम् जनानाम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
शब्द है भक्ता-मर
सन्धि तोड़ने पर दो शब्द हमारे सामने आते हैं
भक्त और अमर
जिनकी उमर सागरों में हैं,
वे देव चिरकाल जीवित रहने से
अमर कहे जाते हैं
मतलब बड़े-बड़े देव जिनके भक्त हैं
यदि हम पूछते हैं, कैसे हैं वे देव भक्त ?
तो प्र-णत
मतलब झुके हुये हैं,
नम्रीभूत, विनम्र, विनीत हैं
क्या पहने हुए हैं वे देव भक्त ?
तो मौलि
मतलब मुकुट, ताज, राज-चिन्ह हैं जो
क्या लगा हुआ है उनके मुकुटों में ?
तो मणि
मतलब रतन, मणि, माणिक
उन मणियों की क्या विशेषता है ?
तो प्र-भाणाम्
मतलब प्रभा, आभा,
कान्ति, चमक, तेज
उद्योतकम्
मतलब बढ़ाने वाले
कुल मिलाकर के अर्थ हुआ
जिनके चरणों के,
सार्थ नाम नक्षत्र-नखत-नखों की
कान्ति से विनत हुये
देवों के मुकुटों में लगी हुई
माणिक-मणियों की कान्ति
दुगुणित हो जाती है
अब
दलित मतलब दलने,
नष्ट करने वाले
किसके लिये ?
तो पाप तमः
मतलब पाप रूपी अंधकार के
वितानम्
मतलब विस्तार के लिये
कुल मिलाकरके अर्थ हुआ
जो पाप रूपी अंधेरे के विस्तार को
विनष्ट करने वाले हैं
अब
सम्यक्
मतलब श्रद्धा भक्ति से,
मन, वचन, काय पूर्वक
क्या करते हैं हम ?
तो
प्रणम्य
मतलब
प्रणाम करके
किसको ?
तो जिन पाद युगं
मतलब जिनेन्द्र भगवान् के
चरण युगल को
कैसे हैं वे चरण ?
तो युगादौ
मतलब कर्म युग के आदि में
अर्थात प्रारंभ होते ही
क्या किया तब उन चरणों ने ?
तो आलम्बन मतलब
सहारा दिया
किन्हें ?
तो भव-जले मतलब
भव-जन्म मरण रूप संसार
जल रूप सागर में
भव सागर में क्या करते थे ?
तो पततां मतलब गिरते हुये
डूबते हुये
कौन ?
जनानाम्
मतलब लोगबाग, प्राणी जन
सो कुल मिलाकरके अर्थ हुआ
भव सागर में
डूबते हुये प्राणियों के लिये
सहारा दिया था
उन चरण कमलों को
समीचीन रीति से नमस्कार करके
स्वाभाविक है
जिज्ञासा उठेगी अब ?
क्या करना चाहते हैं आप ?
तो समाधान के लिये
आगे का दूसरा काव्य देखियेगा
ओम्
दूसरा काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये,
भक्ता-मर जी का
दूसरा काव्य सीखते हैं
गुरुओं के मुखारबिन्द से
सुना ही होगा हमनें
‘के विसर्ग का
उच्चारण करते समय हलन्त ‘ह्’
बोलना पड़ता है
सो
‘य’ न बोल करके
‘यह्’ बोलियेगा
अब न ही सम्-स्तुतः
और न ही सन्-स्तुतः
शुद्ध उच्चारण के लिये
अनुस्वार सहित
मतलब आधे ‘न्’ के साथ
आधे ‘स्’ तक बोलियेगा
संस्…तुतह्
अब सकल् मत बोलियेगा
बोलियेगा स-क-ल
अब देखियेगा
बाड् नहीं लिक्खा है
वजन वाला ‘व’ है
और जैसा गंगा में ‘गङ्’ बोलते हैं
वैसा ‘ङ्’ है
सो पढ़ियेगा वाङ्
फिर ‘मै’ नहीं बोलियेगा
म-य लिक्खा है
सो सही उच्चारण हुआ
वाङ्…म-य
अब तत्त्व बोलते वक्त
शब्द तत्त्व में
जो दो हलन्त ‘त’ हैं
उनमें से
एक ‘त’ के साथ मिला करके तत्
और दूसरा
‘व’ के साथ मिला करके बोलियेगा
त्व
सो पूरा शब्द हुआ
तत्-त्व बो…धा
इस प्रकार भक्तामर जी के
दूसरे काव्य का पहला चरण हुआ
यह् संस्-तुतह्
स-क-ल वाङ्…म-य
तत्-त्व…बो-धा ।
अब देखियेगा
द में छोटे ‘उ’ की मात्रा दु है
फिर आधा ‘द्’ है
फिर ‘भ’ में बड़े ‘ऊ’ की मात्रा ‘भू’ है
और फिर हलन्त नहीं बोलना है
‘त’ अकार सहित जो है
सो बोलियेगा दुद्-भूत
अब बुद्धी नहीं बोलियेगा
बकरी वाले ‘ब’ में छोटे ‘उ’ की मात्रा है
फिर ‘द्’ आधा है
और ‘ध’ में छोटी ‘इ’ की मात्रा लगी है
सो बुद् को खींचियेगा
‘ध’ इकार वाला बोलने में आ जायेगा
बुद्-धि
अब पटु पढ़ करके
भि विसर्ग के साथ पढ़ने के लिए
भिह् पढ़ियेगा
पटु…भिह्
फिर सुर् नहीं पढ़ियेगा
‘र’ हलन्त हो जाता है
सु…र बोलियेगा
अब लोक बोलते वक्त
‘क’ हलन्त न होने पाये,
लोक् नहीं पढ़ियेगा लो-क
अब नाथैः नाथई नहीं बोलना है
जिस तरह जैन बोलते हैं
वैसे ही कुछ-कुछ नाथय्: बोलियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
दूसरे काव्य का दूसरा चरण हुआ
दुद्-भूत बुद्-धि पटु…भिह्
सु…र लो-क नाथय्: ।।
अब देखियेगा
आधा ‘स’ पढ़ने के लिये
य, र, ल, व इन अंतस्थों के अलावा
पढ़ते वक्त ‘इ’ लगा करके
पढ़ने का प्रचलन है
सो इस् पढ़ियेगा
फिर
तो के बाद आधा ‘त्’
और पूरा ‘र’ मिल करके ‘त्र’ बना है
सो तोत्
फिर त्रै पढ़ना चाहिये
और देखियेगा
पीछे ‘र’ की रेफ भी है
सो पढ़ियेगा
इस्-तोत् त्रैर्
हाँ ! हाँ !
अब दुनिया का बच्चा बच्चा सही पढ़ेगा
जगत्
चूंकि ‘त’ हलन्त है ना
यदि अकार सहित होता
तो पढ़ते समय भूल करते हम सभी
अब देखियेगा
जैसे पहले ‘त्र’ पढ़ते समय
आधा ‘त्’ पढ़ा था
वैसा यहाँ नहीं पढ़ना है
यदि आप पूछते हैं क्यों ?
तो सुनियेगा
जगत् में ‘त्’ हलन्त जो है
सो पढ़ियेगा
त्रि…तय
ध्यान रखियेगा तय पढ़ते वक्त
तय् नहीं
त…य पढ़ना है
अब चित्त् न पढ़करके
चित्-त पढ़ियेगा
फिर हरई नहीं पढ़ना है
हरय् पढ़ियेगा
अब रुदारय्: पढ़ना है
नाथय्: के जैसे
अभी अभी हमनें
ऊपर पढ़ा था ‘ना’
इस प्रकार भक्तामर जी के
दूसरे काव्य का तीसरा चरण हुआ
इस्-तोत्-त्रैर् जगत्
त्रि-तय चित्-त हरय् रुदा-रय्: ।
अब फिर से इस्-तो पढ़ करके
षकार हलन्त जो है
सो छोटी ‘इ’ की मात्रा के साथ
पढ़ियेगा
इस्…तो…षिये
फिर ह तक पढ़ियेगा
कि-लाह
अब मपि
फिर तम् पढ़ियेगा
अब पृथ् नहीं पढ़ना है
‘थ’ हलन्त हो जायेगा
इसलिये पढ़ियेगा
प्र… थमम्
अब देखियेगा
न में ए की मात्रा है
ऐ की मात्रा नहीं है
सो जिनैन्द्रम् नहीं
जिनेन्द्रम् पढ़ने पर
सही उच्चारण कर पायेंगे हम
इस प्रकार भक्तामर जी के
दूसरे काव्य का चौथा चरण हुआ
इस्-तो-षिये
कि-लाह मपि-तम्
प्र-थमम् जिनेन्द्रम् ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
यह् संस्-तुतह् स-क-ल वाङ्…म-य
तत्-त्व…बो-धा ।
दुद्-भूत बुद्-धि पटु…भिह्
सु…र लो-क नाथय्: ।।
इस्-तोत्-त्रैर् जगत्
त्रि-तय चित्-त हरय् रुदा-रय्: ।
इस्-तो-षिये कि-लाह मपि-तम्
प्र-थमम् जिनेन्द्रम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
य: मतलब जो
झट हमारे मन में प्रश्न उठेगा
‘के क्या किये गये हैं ?
तो संस्तुतः
मतलब
समीचीन तरीके से स्तुति किये गये हैं
फिर हमारे मन में प्रश्न उठेगा
किसके द्वारा स्तुति किये गये हैं ?
तो सकल मतलब सम्पूर्ण
वाङ्मय
मतलब द्वादशांग वाणी माँ
श्रुत देवी के
तत्व बोधात्
मतलब तत्त्वों के ज्ञान से
उद्भुत मतलब उत्पन्न हुई
बुद्धि मतलब सन्मति से
पटुभि: मतलब कुशल
अर्थात् ऐसे प्रत्युत्पन्न मति वाले
हंस बुद्धि, विवेकी व्यक्ति
जिन्होंने इस कान से सुन
उस कान से बाहर नहीं निकाल दिया
बल्कि कानों के रास्ते
हृदय में सार के लिए
संचित करके रक्खा है
वह कुशल विशेषण से
विभूषित व्यक्तित्व
तुरन्त प्रश्न उठेगा हमारे मन में
‘के कौन है वह ?
तो
सुर लोक नाथै:
मतलब देव लोक के स्वामी
सौधर्म इन्द्र ने
फिर हमारे मन में प्रश्न उठेगा
स्तुति किसके द्वारा
संपादित की गई ?
तो स्तोत्रै: मतलब स्तोत्रों के द्वारा
सो सहजो-निराकुल हुआ
‘के सम्पूर्ण श्रुत के पठन-पाठन से
जिसके कण्ठ में आकर के मां सरस्वती
स्वयं विराजमान हो चलीं हैं
उस सौधर्म-इन्द्र ने अनूठे स्तोत्रों के द्वारा
जिनकी गौरव-गाथा गाई है
अब हमारे मन में प्रश्न उठेगा
‘के कैसी है वह स्तुति
जिसे आप सम् विशेषण लगाकर के
जगत् मान्य बतला रहे हैं ?
तो जगत् त्रितय मतलब
तीन जगत् तीनों लोकों के
अब प्रश्न उठेगा
तीन लोक के कौन ?
तो आगे जो चित्त शब्द है
वह बतायेगा ‘कि चित्त
बिना प्राणियों के नहीं रहता है
तो तीन लोक के प्राणियों के
चित्त मतलब मन के लिए
हरै: मतलब हरने वाली है
वह संस्तुति
अब तुरन्त प्रश्न उठेगा हमारे मन में
‘के ठीक है
इन्द्र ने स्तुति की है तो ?
तब उत्तर देते हैं
मुनि मानतुंग आचार्य
‘के स्तोष्ये
मतलब स्तुति करूँगा
वह भी ढुल-मुल तरीके से नहीं
किल मतलब निश्चय से
दृढ़ प्रतिज्ञ होते हुए
अहम् अपि मतलब मैं भी
अब हमारे मन में प्रश्न उठेगा
किसकी स्तुति करेंगे आप ?
तो
तं मतलब उन
उन कौन ?
तो प्रथमं
मतलब सबसे पहले हैं जो
किनमें ?
तो जिनेन्द्रम्
मतलब तीर्थंकर जिन्होंने
इन्द्रियों को जीतकर के
कर्मों पर विजयश्री
प्राप्त कर ली है
वे आदि ब्रह्मा ऋषभ देव
मुझ पर भी अपनी
अनन्य किरपा, करुणा, दया, अनुकंपा
बरसाये रक्खें सदैव
ओम्
तीसरा काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
बुद्ध्या शब्द में
आधा ‘द्’ है
आधा ‘ध्’ है
और दीर्घ ‘या’
सो
इसका शुद्ध उच्चारण
करने के लिये
बुद् पढ़कर के
फिर ध्या पढ़ने के लिये
‘ध’ को इकार के साथ पढ़ियेगा
बुद्…धिया
अब देखियेगा
वजन वाला ‘व’ है
हिन्दी में आता होगा
‘ब’ बकरी वाला
शब्द बिना में
लेकिन संस्कृत में
वजन वाला ‘व’ आता है वीना में
इसलिये
पढ़ियेगा विनापि
हाँ ! हाँ !
दीर्घ होने से ‘न’ के लिये खींचियेगा
‘प’ इकार के साथ पढ़ना हो जायेगा
फिर से पढ़ता है एक बार
वि…नापि
अब विबुधार् मत पढ़ियेगा
वजन वाला ‘व’ जिसमें होठ नहीं मिलते हैं
वह इकार के साथ पढ़करके
बुधार् पढ़ लीजियेगा
वि…बुधार्
अब चित् मत पढ़ियेगा
‘त’ अकार के साथ पढ़ियेगा चि…त
फिर पाद् न पढ़कर के
‘द’ को हलन्त होने से बचाने के लिये
पा-द पढ़ियेगा
फिर पीठ पढ़ना है
‘ठ’ पढ़ते समय
अकार का उच्चारण
संभलकर करता चाहिए
पी-ठ
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का पहला चरण हुआ
बुद् ध्या वि-नापि वि-बुधार्
चि-त पा-द पी-ठ ।
अब
आधा ‘स’ पढ़ने के लिये
आगे इकार लगा लीजिएगा
इस्
फिर बेधड़क पढ़ लीजियेगा
हलन्त वाला शब्द
हम बिलकुल सही जो पढ़ते हैं
बस तो को दीर्घ पढ़ना है
तो…तुम्
अब समुद् पढ़ियेगा
‘द्य’ दो अक्षरों से मिलकर जो बना है
आधा ‘द्’ और ‘य’ पूरा
सो बोलियेगा समुद्…द्-यत
फिर जर्रा ध्यान रखियेगा
अक्षर ‘वि’ के ऊपर
‘र’ की रेफ चढ़ी है
जो ‘वि’ के पहले बोलना है
सो मतिर् पढ़ियेगा
फिर वि… गत मत बोलियेगा
देखियेगा
विगत के बाद ‘त्र’ है
जो आधा ‘त्’
और पूरा ‘र’ मिलकर के बना है
सो ‘वि’ पढ़कर के
गतत् बोलियेगा
अब त्रपो पढ़ना है
देखियेगा
यह इंग्लिश बर्ड ‘ऽ’ जैसा जो चिन्ह है
वह संस्कृत में
अवग्रह का चिन्ह कहलाता है
उसे पढ़ा नहीं जाता है
वह सिर्फ यह बतलाने के लिए
रहता है ‘कि सन्धि में यहाँ
अकार का लोप हुआ है
चूंकि ह्रश्व अ + ह्रश्व अ = आ
अ+आ = आ
और दीर्घ आ+आ = आ
ही जो होता है
तब जहाँ ह्रश्व अ का लोप होता है
वहां एक अवग्रह का चिन्ह
और जहां दीर्घ आ का लोप होता है
वहां दो अवग्रह लगाने का प्रचलन है
सो पढ़ियेगा
त्रपो…हम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का दूसरा चरण हुआ
इस्-तो-तुं समुद् द्-यत् मतिर्
वि-गतत् त्रपो-हम् ।।
अब बिलकुल सही पढ़ेंगे हम
यह आने वाला शब्द
चूंकि ‘ब’ भी सही पढ़ते हैं हम
और हलन्त ‘म्’ भी
सो पढ़ियेगा
बालम्
अब वजन का ‘व’ पढ़ना है
वि… हाय
हाय पढ़ते वक्त ‘य’ हलन्त होने से बचाइये
हाय् मत पढ़ियेगा
पढ़ियेगा हा…य
अब जल पढ़ने मे जल्दी मत करियेगा
‘ल’ के लिये अकार के साथ
पढ़ना है
ज…ल
अब देखियेगा
आधे ‘स्’ तक पढ़ लीजियेगा
संस्
फिर थि…त पढ़ना है
न कि थित् पढ़ना है
अब मिन्दु पढ़ने के लिये
मिन् को खींचियेगा
‘द’ उकार के साथ पढ़ने में आ जायेगा
मिन्…दु
फिर बोलियेगा बिम्ब
‘ब’ अकार के साथ बोलना है
बिम्ब् नहीं
बिम्…ब बोलियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का तीसरा चरण हुआ
बालम् वि-हाय जल संस्-थित
मिन्-दु बिम्-ब ।
अब मन्या नहीं
मन्…यह् पढ़ियेगा
फिर का नहीं
अकार वाला ‘क’ है
‘क’ पढ़ना है
फिर इच्-छति बोलना है
अब बोलियेगा
जनह्
न कि ‘जना’
फिर सह…सा मत पढ़ना
स… हसाग् पढ़ियेगा
चूंकि शब्द ‘ग्र’
आधा ‘ग्’
और पूरा ‘र’ मिल करके बना है
सो आधा ‘ग्’ दोनों तरफ पढ़ने से
उच्चारण सही आ पायेगा
इसलिये पढ़ना है
स… हसाग्
ग्र… ही…तुम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का चौथा चरण हुआ
मन्यह्-क-इच्-छति जनह्
स-हसाग् ग्र-ही-तुम् ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
बुद् ध्या वि-नापि वि-बुधार्
चि-त पा-द पी-ठ ।
इस्-तो-तुं समुद् द्-यत् मतिर्
वि-गतत् त्रपो-हम् ।।
बालम् वि-हाय जल संस्-थित
मिन्-दु बिम्-ब ।
मन्यह्-क-इच्-छति जनह्
स-हसाग् ग्र-ही-तुम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
बुद्ध्या मतलब बुद्धि के
विनापि मतलब बिना भी
तुंरत हमारे मन में प्रश्न उठेगा
क्या कहते हैं आप, बुद्धि के बिना ?
तो विबुध मतलब
‘वि’ विशेष बुद्ध रखने वाले
देवों के द्वारा
क्या ?
तो अर्चित मतलब पूज्यनीय, वन्दनीय
क्या ?
तो पाद-पीठ
मतलब पैरों के रखने की
पीठिका, चौकी, आसनी जिनकी
अब हमारे मन में प्रश्न उठेगा
जो ऐसे हैं
उनका क्या करना चाहते हैं आप ?
तो स्तोतुं मतलब
स्तुति करने के लिये
सम् मतलब
न सिर्फ जोश के साथ
वरन् होश के साथ भी
उद्यत-मति: मतलब तत्पर,
तैयार बुद्धि वाला हो रहा हूँ
तब प्रश्न सामने आता है
क्या विशेषता है
तैयार होने वाले की ?
तो विगत मतलब रहित
क्या ?
त्रपः मतलब लज्जा वाला
वह कौन ?
तो अहम् यानि ‘कि मैं स्वयं
मुनि मानतुंग देव
सो सहजो-निराकुल अर्थ हुआ
‘के
देव जिन्हें पलकों पर उठाये रखते हैं
मतलब
अपलक जिनके चरण कमल
निहारते रहते हैं
उनकी स्तुति
मैं मन्द-बुद्ध करने जा रहा हूँ
तब सहज ही
एक प्रश्न सामने आता है
हमें क्यूॅं कर रहे हैं ऐसा आप
क्या आपने ऐसा
कोई उदा-हरण देखा है
जिससे आप प्रभावित हुये हो
तब आचार्य भगवन् करते हैं
हॉं !
बालं मतलब बालक को
विहाय मतलब छोड़कर के
जल सांस्थितम्
जल में प्रतिबिंबित
इन्दु-बिम्बम् मतलब
चन्द्र-मण्डल के लिये
अन्यः मतलब दूसरा
क इच्छति जनः
मतलब कौन मनुष्य इच्छा करता है
झट हमारे मन में प्रश्न उठेगा
क्या करने की इच्छा करता है
तो सहसा मतलब
बिना सोचे विचारे शीघ्रता से
ग्रहीतुं मतलब
ग्रहण करने की
पकड़ने की उसे अपने हाथों से
अर्थात् कोई नहीं
मुझ मन्द-बुद्ध
और अन्ध-भक्त सिवाय
ओम्
चौथा काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तीसरे काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
बक्तुम् नहीं पढ़ना है
देखियेगा
‘व’ वजन वाला है
वक्… तुम् पढ़ियेगा
अब गुणान् न पढ़कर के
गुण तक पढ़ियेगा
लयबद्ध पढ़ने में सहायता मिलेगी
वरना वक्तुम् गुणान् पढ़ते समय
‘ण’ पहले से ही दीर्घ है
और हलन्त ‘न’ भी पढ़ना है
सो जर्रा संभलियेगा
पढ़ियेगा गुणान्-गुण
चूंकि ‘ण’ पढ़ते समय
‘न’ का उच्चारण
तालु के कुछ ऊपर मूर्धा से
करना होता है
जहां से ट, ठ, ड, ड ,ण बोलते हैं
अब न समुद् बोलियेगा
और न ही स… मुद्र्
स…मुद्र पढ़ियेगा
अब संभलियेगा
हम पढ़ देते हैं
शशांक् कान्तान्
परन्तु
शुद्ध उच्चारण के लिये
या तो शशांक का ‘क’ अकार सहित पढ़ियेगा
श…शां…क कान्…तान्
या फिर अनुस्वार तक पढ़ करके
क-कान्…तान् पढ़ियेगा
शशां….क कान्…तान्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौथे काव्य का पहला चरण हुआ
वक्… तुम् गुणान्-गुण स…मुद्र
शशां-क कान्-तान् ।
अब कस्ते न पढकर के
चूँकि क्षत्रिय वाला ‘क्ष’
आधा ‘क्’
और षट्कोण वाला ‘ष्’
मिलकर के जो बनता है
सो आधा ‘क्’ दो बार पढ़ना है
सो कस्….तेक् पढ़ियेगा
अब क्षमा मत पढ़ियेगा
मुनि मानतुंग आचार्य देव ने
विसर्ग लगाकर के प्रस्तुति दी है
सो पढ़ियेगा
क्षमह्
सुर पढ़ते समय ‘र’ हलन्त होने से
बचाइये
सु… र पढ़ियेगा
अब पुन: गुरु के बाद
प्रतिमा के ‘प्र’ में
आधा ‘प’ है
और पूरा ‘र’
सो ‘प’ दो बार पढ़ लीजिएगा
गुरुप्
अब पढ़ियेगा
प्र…तिमोऽपि
‘म’ का ओकार खींचिएगा
तिमो ऽपि
फिर बुद्ध्या शब्द में
फिर आधा ‘द’ है
आधा ‘ध’ है और दीर्घ ‘या’
सो पढ़ियेगा
बुद्…धिया
चूंकि
आधा ‘ध’ इकार के साथ
पढ़ने में आयेगा
इसलिये
आधा ‘ध’ है और दीर्घ ‘या’ को
धिया पढ़ा है
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौथे काव्य का दूसरा चरण हुआ
कस्-तेक् क्षमह् सु-र गुरुप्
प्र-तिमोऽपि बुद्-धिया ।।
अब कल्…पान्त पढ़ते वक्त
‘त’ हलन्त तो नहीं हो रहा
देख लीजियेगा
पान्…त
फिर इसी तरह से पढ़ियेगा का…ल
अब पव न पढ़कर के
प… वनोद्…. धत पढ़ना है
आधा ‘द’ पूरा ‘ध’ जो है
फिर ‘न’
आधा ‘क्’ और क्र पढ़ियेगा
नक्…क्र
बिलकुल इसी प्रकार से
चक्…क्रं बोलियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौथे काव्य का तीसरा चरण हुआ
कल्-पान्त का-ल प-वनोद्-धत
नक्-क्र चक्-क्रं ।
अब देखियेगा
को वा जल्दी से मत पढ़ियेगा
लय टूटेगी
दोनों दीर्घ अक्षर जो हैं
सहजो-निराकुल तरीके से पढ़ियेगा
को…वा
अब तरितु तो नहीं पढ़ते हैं हम
देखियेगा
‘र’ ईकार के साथ दीर्घ है
थोड़ा सा खींच करके पढ़ियेगा
त…रीतु
अब मल् न पढ़ करके
म…ल बोलियेगा
फिर मम्बु पढ़ने के लिये
मम् को खींचियेगा
‘ब’ उकार के साथ पढ़ना
सहज बन चलेगा
मम्…बु
अब यह शब्द हम बिलकुल सही पढ़ेंगे
निधिम्
फिर भुजाभ्याम्
देखिये-देखिये
हमने ‘भ’ के लिए दो बार पढ़ा है
भुजाभ्…भ्याम्
भुजाभ्…याम् तो नहीं पढ़ा है ‘ना’
बस इसी तरीके से सभी जगह
जहाँ आधे अक्षर आते हैं
दो बार पढ़ने से ही
उच्चारण शुद्ध होता है
सो जानवी
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौथे काव्य का चौथा चरण हुआ
को वा त-रीतु मल मम्-बु निधिम्
भुजाभ्-भ्याम् ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
वक्… तुम् गुणान्-गुण स…मुद्र
शशां-क कान्-तान् ।
कस्-तेक् क्षमह् सु-र गुरुप्
प्र-तिमोऽपि बुद्-धिया ।।
कल्-पान्त का-ल प-वनोद्-धत
नक्-क्र चक्-क्रं ।
को वा त-रीतु मल मम्-बु निधिम्
भुजाभ्-भ्याम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
वक्तुम् मतलब कहने के लिये
यह सुनते ही मन में हमारे
एक प्रश्न उठेगा
‘के क्या कहने के लिये ?
तो
गुणान् मतलब
गुणों को कहने के लिये
अब प्रश्न उठेगा
किसके गुण ?
तो
गुण समुद्र मतलब
हे गुणों के सागर
यह विशेषण है श्री भगवान का
अब प्रश्न उठेगा
कैसे हैं वे गुण ?
तो
शशांक कान्तान्
शश मतलब खरगोश
जिसकी अंक मतलब गोद में है
वह चन्द्रमा
उसकी कान्ति के जैसे
धवल हैं वे गुण
अब प्रश्न उठेगा
किसके है वे गुण ?
क्या उन्हें कोई गा सकता है ?
तो
ते मतलब आपके हैं वे गुण
जिन्हें कहने में
‘क’ मतलब कौन
क्षमः मतलब सक्षम समर्थ है
ऐसा वैसा ही नहीं
सुर-गुरु
मतलब देवों के गुरु के
प्र-तिमोऽपि
मतलब समान भी
बुद्धया मतलब बुद्धि धारी हो भले
सो सब मिलाकर करके
सहजो-निराकुल अर्थ हुआ
चन्द्रमा की कान्ति से धवल
आपके अनंत गुणों को कहने में
देवों के गुरु बृहस्पति सी बुद्धि वाला भी
कौन सक्षम है ?
अर्थात् कोई भी नहीं
यह सुनते ही मन में हमारे
एक प्रश्न उठेगा
‘के कोई उदाहरण हो तो दीजियेगा
ऐसे प्रश्न पर
भगवान् मानतुंग आचार्य देव
कहते हैं
कल्पान्त काल मतलब
कल्प यानि ‘कि युग
उसका अन्त जब आता है
तब क्या ?
तो
प-वनोद्-धत
शब्द यह दो शब्दों से
मिलकर करके बना है
पवन-उद्धत
चलने वाली वायु के द्वारा
जिसमें आकाश को छूतीं
लहरें उठ रहीं हैं
और क्या ?
तो
नक्र मतलब मगरमच्छों का
चक्र मतलब समूह है
उसके लिए
को वा मतलब कौन वह
तरीतुम् मतलब
तैर कर पार करने के लिये
अलम् मतलब समर्थ है
किसे ?
तो
अम्बु-निधिम् मतलब
पानी का भंडार यानि ‘कि समुद्र
भुजाभ्याम् मतलब
अपनी बाहुओं के द्वारा
अर्थात् कोई भी तो नहीं
ओम्
पांचवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
पांचवे काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
बेझिझक पढ़ चलियेगा
यह शब्द सोऽहम्
बस सो…अहम् मत पढ़ियेगा
सन्धि करने के पहले
सः अहम् था
सन्धि करने के बाद
सोऽहं हो चला है
अब ‘त’ पढ़ करके
दीर्घ होने से ‘था’ के लिये
थोड़ा सा खींचियेगा
‘प’ इकार के साथ
सही उच्चारण करने में आ जायेगा
अब शब्द तव में
‘व’ वजन वाला है
बकरी वाले से तो अब-तब वाली बात
हो जायेगी
सो
त… व पढ़ियेगा
अब चूंकि
भक् संयुक्त अक्षर है
इसलिये दीर्घ पढ़ना पड़ेगा
थोड़ा सा खींचियेगा
फिर ‘त’ इकार वाला
सहज ही पढ़ने में आ जायेगा
पढ़ियेगा भक्…ति
‘व’ वजन वाले के साथ
वशान् और मुनीश
अलग अलग न पढ़ करके
एक साथ पढ़ियेगा
वरना लय विलय हो जायेगा
वशान्मुनीश
बस शकार हलन्त होने से बचाईयगा
मु…नीश
इस प्रकार भक्तामर जी के
पांचवे काव्य का पहला चरण हुआ
सोऽहम् त-थापि तव भक्ति
वशान्-मुनीश ।
अब देखियेगा
कुर्तम् पढ़ने के बाद
आधा ‘स’ जिसे हम
इकार पहले लगाये बिना
नहीं पढ़ पाते हैं
इस्तवं पढ़ते हैं
है ना हम लोग
सो लय में बाधा
आ खड़ी होती है
इस दोष को दूर करने के लिये
कुर्तम् से मिला करके
‘स’ पढ़ लीजियेगा
लेकिन ध्यान रखियेगा
तब ‘स’ जो पीछे आ चला है
अब कर्तुम् नहीं
कर्तुन्स् पढ़ना होगा
पढ़ियेगा
कर्तुन्स्-तवम्
फिर ‘व’ वजन वाला है
होंठ मिलने न पायें
तब उच्चारण हो पायेगा शुद्ध
और सुनियेगा
विगत् मत पढ़ियेगा
वि…फिर ग…त बोलियेगा
अब जैसे कुछ देर पहले
भक्… ति बोला था
उसके ही समान
शक्ति बोलियेगा
शक्… ति
फिर र… पि
बोलते वक्त
आधा ‘प’ पीछे लगा पड़ेगा
शब्द प्रवृत्त: में
आधा ‘प्’ पूरा ‘र’ जो है
सो पढियेगा रपिप्
फिर प्र…वृत्-तह्
इस प्रकार भक्तामर जी के
पांचवे काव्य का दूसरा चरण हुआ
कर्तुन्स् तवम् वि-ग-त शक्ति
रपिप् प्र-वृत्-तह ।।
अब प्रीत् पढ़कर के
आधा ‘त्’ फिर से पढ़ियेगा
त्यात्म
सुनियेगा
‘म’ अकार के साथ पढ़ना है
प्रीत्-त्यात्-म
फिर वीर्य
पढ़ते वक्त ‘य’ का उच्चारण
अकार के साथ करियेगा
वीर्…य
अब बोलियेगा
मवि…चार्य
पुनः ‘य’ का उच्चारण करते वक्त
संभालियेगा मवि…चार्…य
अब देखियेगा
म्रगी पढ़ने में आ जाता है
पर ध्यान से जब हम देखते हैं तो
भगवन् मानतुंग आचार्य देव ने
शब्द ॠ’ की मात्रा के साथ लिक्खा है
मृ…गी
सुनियेगा
‘ग’ के लिए दीर्घ ईकार के साथ
पढ़ियेगा
और इसी तरह
म्रगैन्द्र नहीं पढ़ना है
‘म’ के लिए ऋकार के साथ
और ‘ग’ के लिये ऐकार के साथ पढ़ना है
मृ…गेन्…द्रम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
पांचवे काव्य का तीसरा चरण हुआ
प्रीत्-त्यात्-म वीर्य मवि…चार्य
मृ-गी मृ-गेन्-द्रम् ।
अब नाभ् पढ़ करके
आधा ‘भ्’ दो बार पढ़ पढ़ना चाहिये
पढ़ियेगा
नाभ्… भ्येति
‘य’ में एकार संध्यक्षर
होने से दीर्घ पढ़ना है
फिर ‘त’ इकार के साथ
पढ़ना हो जायेगा
पढ़ियेगा
नाभ्… भ्येति
अब पढ़ लीजियेगा
सही ही पड़ेगे हम
किम्
फिर
नि…ज पढ़ते वक्त
‘ज’ को हलन्त होने से बचाईयगा
निज् मत पढ़ियेगा
फिर शिशु मत पढ़ियेगा
‘श’ ओकार और विसर्ग के साथ पढ़ना है
पढ़ियेगा शि…शोह्
अब
परि-पाल् मत बोलियेगा
सुनियेगा
‘ल’ का अकार स्पष्ट रूप से पढ़ियेगा
परि-पा…ल
फिर नार्…थम् पढ़ियेगा
बेझिझक पढ़ियेगा
बिलकुल सही पढ़ने में आयेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
पांचवे काव्य का चौथा चरण हुआ
नाभ्… भ्येति किम् निज शि…शोह्
परि-पा-ल नार्-थम् ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
सोऽहम् त-थापि तव भक्ति
वशान्-मुनीश ।
कर्तुन्स् तवम् वि-ग-त शक्ति
रपिप् प्र-वृत्-तह ।।
प्रीत्-त्यात्-म वीर्य मवि…चार्य
मृ-गी मृ-गेन्-द्रम् ।
नाभ्… भ्येति किम् निज शि…शोह्
परि-पा-ल नार्-थम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
सः मतलब वह
अहम् मतलब मैं
तथापि मतलब
मन्द-बुद्ध होने पर भी
तव मतलब आपकी
भक्ति मतलब श्रद्धा, भक्ति के
वशात् मतलब
वशीभूत होकर के
मुनीश मतलब
हे ! मुनियों के ईश, नाथ, स्वामी
अब हमारे मन में
एक जिज्ञासा उठेगी
क्या कर रहे हैं आप
श्रद्धा, भक्ति के वशीभूत होकर के ?
तो
कर्तुं मतलब करने के लिये
क्या ?
तो
स्तवं मतलब स्तुति को
अब जिज्ञासा उठेगी
कैसे होने पर भी ?
तो
विगत शक्ति रपि
मतलब
शक्ति रहित होता हुआ भी
अब जिज्ञासा उठेगी
क्या कर रहे हैं आप ?
तो
प्रवृत्तः
मतलब तत्पर,
तैयार हुआ हूँ
अब जिज्ञासा उठेगी
क्या सोच करके
आप ऐसा कर रहे हैं ?
क्या आप किसी प्रसंग से प्रभावित हैं
तो भगवान् मानतुंग
आचार्य देव आगे कहते हैं
‘कि प्रीत्या मतलब
प्रीति, स्नेह, प्रेम के वशीभूत
आत्म वीर्य अविचार्य
मतलब अपनी शक्ति,
ताकत का विचार न करके
कौन ?
तो
मृगी मतलब माँ हिरनिया
मृगेन्द्रम् मतलब
मृग यानि ‘कि पशु
उनका इन्द्र
यानि ‘कि स्वामी
अर्थात सिंह के
जिज्ञासा उठ सकती है
‘कि सिंह के क्या ?
तो
न अभ्येति किं मतलब
क्या सामने नहीं जाती है
निज शिशो:
मतलब अपने बच्चे छोने की
क्या ?
परिपालनार्थम् मतलब
रक्षा करने के लिये
सो कुल मिला करके
सहजो-निराकुल अर्थ हुआ
जैसे हिरनिया अपने बच्चे को
शेर के चंगुल से छुड़ाने के लिये
अपनी कूबत देखे बगैर ही
सिंह से भिड़ जाती है स्नेह वश
वैसे ही मैं भी
भले बुद्धू हूँ
फिर भी आपकी भक्ति के
वशीभूत होकर के
आपका स्तवन करने चला आया हूॅं
ओम्
छठवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
छठवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
अल्प नहीं पढ़ना है
पीछे आधा ‘स’ और पूरा ‘र’
मिल करके बना
संयुक्त अक्षर ‘श्र’ जो है
इसलिये
अल्पस् पढ़ियेगा
श्रुतम्
फिर श्रुत वताम्
पश्चात् परिहास धाम
यहां थोड़ा सा ध्यान रखना है
परिहास धाम् नहीं
परि-हास-धाम
इस प्रकार भक्तामर जी के
छठवें काव्य का पहला चरण हुआ
त्वद्-भक्ति-रेव मुखरी-
कुरुते बलान्-माम् ।
अब त्वद्
फिर भक्ति
इसका शुद्ध उच्चारण करने के लिये
भक् थोड़ा खींच करके पढ़ेंगे
तो तकार इकार के साथ
बोलने मे आ जायेगा भक्-ति
अब रेव
रेब नहीं पढ़ना
होंठ न मिलने पायें
‘व’ पढ़ते समय इतना
ध्यान रखना है,
पढ़ियेगा रेव
अब मुखरी नहीं
मु-खरी कुरुते
बलान् माम
बिलकुल सही पढ़ेंगे हम
चूंकि आधे-आधे अक्षर जो हैं
इस प्रकार भक्तामर जी के
छठवें काव्य का दूसरे चरण हुआ
त्वद्-भक्ति-रेव मुखरी-
कुरुते बलान्-माम् ।
अब यत
फिर को किलः
देखियेगा
कोकिला मत पढ़ियेगा
को किल: (ह्) पढ़ना है
अब किल् नहीं किल
फिर मधऊ नहीं
मधौ (मधव्)
मधुरम्
विरौति वि पढ़कर के
रौ (रव) थोड़ा सा खींचना है
तकार इकार के साथ
पढ़ना हो जायेगा वि रौति
इस प्रकार भक्तामर जी के
छठवें काव्य का तीसरे चरण हुआ
यत्-कोकिलः किल मधौ
मधुरं विरौति,
अब तच्
फिर चा (म्)
म्र में आधा ‘म’ है
पूरा ‘रा’ है
सो आधा अक्षर ‘म्’ दो बार पढ़ियेगा
चाम्र
चारु
सुनियेगा बड़ा रू नहीं है
छोटा है
सो चा को थोड़ा सा खींचियेगा
चा…रु
कलिका
ककार का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
कलि-का
निक-रैक मत पढ़ियेगा
‘नि’ फिर करैक पढ़ना है
अब हेतु
देखियेगा तकार ऊकार न बन चले
उकार के साथ लिखा है
‘हे’ थोड़ा सा खींचियेगा
हे-तु
इस प्रकार भक्तामर जी के
छठवें काव्य का चौथा चरण हुआ
तच्-चाम्र-चारु-कलिका-
नि-करैक हेतुः ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
अल्प(श्)-श्रुतं श्रुत-वतां
परि-हास-धाम,
त्वद्-भक्ति-रेव मुखरी-
कुरुते बलान्-माम् ।
यत्-कोकिलः किल मधौ
मधुरं विरौति,
तच्-चाम्र-चारु-कलिका-
नि-करैक हेतुः ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
अल्प मतलब
थोड़ा, कम लव-लेश मात्र
श्रुतं मतलब
ज्ञान बुद्धि-मेधा-प्रज्ञा
यदि हमारा मन कहता है
ऐसा कौन है ?
तो भगवन् मान-तुंग देव
स्वयं के लिये ही
मन्द-बुद्ध कह रहे हैं
‘के मैं अल्पज्ञानी हूॅं
और दूसरे कैसे हैं ?
तो
श्रुत-वतां मतलब ज्ञानवान्
सो क्या होगा अब ?
तो
परिहास मतलब हँसी
किसकी ?
तो मेरी
चूंकि मैं लेश-मात्र भी
ज्ञान नहीं रखता हूँ
सो परिहास धाम
मतलब हँसी का पात्र होऊंगा मैं
उन विद्वानों के सामने
फिर भी
त्वद् मतलब आपकी
भक्ति: मतलब श्रद्धा भक्ति
एव मतलब ही
क्या करती है ?
मुखरी कुरुते मतलब
वाचाल करती है
कैसे ?
तो
बलात् मतलब
जबरदस्ती हटात्
किसको ?
तो माम् मतलब मुझको
मुझ मान-तुंग देव के लिये
आपकी भक्ति जबरन
प्रेरित कर रही है
‘के स्तुति लिखो
तब हमारा मन कहेगा
क्या ऐसा भी कभी होता है
तो उदाहरण देकर के
भगवन् बताते हैं
यत् मतलब जो
कोकिल: मतलब कोयल
किल मतलब निश्लय से
मुधौ मतलब
मधु-ऋतु वसन्त ऋतु में
मधुरं मतलब मीठा
विरौति मतलब कूकना, शब्द करना
अर्थात् मन हरने वाली तान छोड़ती है
सो तत् मतलब वह
आम्र मतलब आम
ऐसे नहीं नहीं
चारु मतलब सुन्दर है जो
कलिका मतलब
कलि, मंजरि, बौंर
एक दो नहीं ?
कितनी ?
तो
निकर मतलब समूह ही
एक हेतु मतलब
एक कारण है
बस उसी तरह मैं भी
जो कुछ भी तोतली बोली में
बोल रहा हूॅं
सो आपकी ही किरपा है
भगवन् सदा बरसाये रखना अपनी कृपा
अपने इस कृपा पात्र के ऊपर
बस चाहता इतना सा वर
ओम्
सातवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सातवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
शुद्ध उच्चारण करने के लिये
त्वत्
फिर
संस्
फिर
तवेन पढ़ियेगा
संस्त फिर वेन नहीं बोलना है
अब भौ नहीं
भ …व
फिर सन्तति
अब रुको रुको
सन्नि मन पढ़ना
सन् फिर निबद्धम् बोलना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
सातवें काव्य का पहला चरण हुआ
त्वत्-सन्स्-तवेन भव सन्तति-
सन्-निबद्धं,
अब पापम्
क्षणात् क्षय
देखिये ‘क्ष’ क्षत्रिय वाला
आधा ”क्’ और षट् कोष वाले ‘ष’
से मिलकर बनता है
यदि ‘म’ हलन्त नहीं होता
तो ‘त्’ हलन्त न होता
तो आधा क् पढ़ते दो बार
अब है ही नहीं चूंकि
तो
पापम् क्षणात् क्षय
मुपैति बोलना है
बस ‘त’ का इकार
ई कार न हो चले
इतना ध्यान रखता है
मुपै…ति
अब शरीर भाजाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
सातवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
पापं क्षणात्-क्षय-मुपैति
शरीर-भाजाम् ।
आ क्रान्त नहीं
आधा ‘क्’ फिर कान्त पढ़ना है
आ(क्) क्रान्त
लोक का ‘ककार’ अच्छे से पढ़ियेगा
मलि अलग पढ़कर के
यदि हम नील पढ़ते हैं
तो मलि की ह्रश्व ‘लि’
दीर्घ ली हो जाती है
इसलिये मलि-नील साथ-साथ
पढ़ लीजिए
फिर मशेष … माशु
इस प्रकार भक्तामर जी के
सातवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
आ(क्)क्रान्त लोक-मलि-नील-
मशेष-माशु,
अब सूर यान् शु
भिन् नमिव
फिर शार् वर
‘ब’ बकरी वाली नहीं है
‘व’ वजन वाला है
शार्… वर
फिर मन्ध नहीं पढ़ना है
मन् फिर धकारम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
सातवें काव्य का चौथा चरण हुआ
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-
मन्-धकारम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
त्वत्-सन्स्-तवेन भव सन्तति-
सन्-निबद्धं,
पापं क्षणात्-क्षय-मुपैति
शरीर-भाजाम् ।
आ(क्)क्रान्त लोक-मलि-नील-
मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-
मन्-धकारम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
तवत् मतलब आपके
संस्तवेन मतलब संस्तवन से
आपकी संस्तुति से
क्या होता है ?
तो
भव मतलब जनम,
सन्तति मतलब
सन्तान-परिपाटी
मतलब अनेक भवों से
क्या ?
तो
सन्निबद्धम् मतलब
दृढ़ता के साथ अटूट बंधे हुये हैं
‘क्या’ ?
तो
पापम् मतलब पाप
क्या हो जाते है ?
तो
क्षणात् मतलब क्षणमात्र में
क्या हो जाता है ?
तो
क्षयम् मतलब क्षय के लिए
उपैति मतलब प्राप्त हो जाते है
किसके पाप ?
तो
शरीर-भाजाम् मतलब
शरीर धारियों के
अर्थात् हम सभी भक्तों के पाप
आपकी स्तुति मात्र से
क्षण भर में दूर जाते हैं
यदि हमारा मन पूछता है
‘कि क्या कोई उदाहरण है ?
तो हाँ !
जैसे
आक्रान्त लोकों मतलब
सारे लोक में व्याप्त
अलि मतलब भौंरा
नीलं मतलब
जिसका रंग नीला, काला है
कितना ?
तो अशेष मतलब सम्पूर्ण
कितनी देर में
तो आशु मतलब शीघ्र ही
सूर्यांशु मतलब सूर्य की किरण से
भिन्न मतलब छिन्न-भिन्न
इन मतलब की तरह
कैसा ?
तो शार्वर मतलव रात्रि वाला
क्या ?
तो अन्धकारम्
अंधेरा
सो कुल मिलाकर
सहजो-निराकुल अर्थ हुआ
जैसे सूर्य के आने पर
रात्रि का अंधेरा छिन्न-भिन्न हो जाता है
वैसे ही आपकी भक्ति से
जन्म जन्म के पाप कट जाते हैं
ओम्
आठवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
आठवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
मत्-वेति मत पढ़ियेगा
सही उच्चारण करने के लिए
आधा ‘त्’ दो बार पढ़ना है
मत् त्वेति
अब नाथ
तब नहीं पढ़ियेगा
‘व’ वजन वालाह
होंठ न मिलने पायें
तव पढ़ियेगा
फिर
संस् के बाद तवनम् पढ़ना है
संस्त फिर वनम् पढ़ने में
संस्त का ‘त’ आधा पढ़ने में आता है
सो संस्-तवनम् पढ़ियेगा
फिर मयेद् पढ़कर के
द को हलन्त मत कीजिए
दकार अकार के साथ
सहजता के साथ पढ़ियेगा
मयेद
इस प्रकार भक्तामर जी के
आठवें काव्य का पहला चरण हुआ
म(त्)-त्वेति नाथ ! तव संस्-
तवनं मयेद,
अब मारभ् पढ़कर के
आधा ‘भ्’ है इसलिए दो बार
पढ़ियेगा मार(भ्)-भ्यते
तनु
फिर धि पढ़कर के
याकार थोड़ा सा खींचियेगा
पकार इकार के साथ पढ़ने में
अनायास ही आ जायेगा
धि…यापि
अब तव नहीं पढ़ना है
तवप् पढ़ियेगा
फिर प्रभा नहीं पढ़ना है
प्र…भा …वात् पढ़ना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
आठवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मा-रभ्यते तनु-धियापि
तव प्र-भावात् ।
सुनो
चेतो जल्दी नहीं पढ़ना
चे…तो
चूंकि दोनों ही अक्षर दीर्घ हैं
अब सताम्
नलिनी दलेषु
लकार का एकार थोड़ा सा खींचियेगा
द…लेषु
इस प्रकार भक्तामर जी के
आठवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
चेतो हरि(ष्)-ष्यति सतां
नलिनी-दलेषु,
फिर मुक्ता पढ़कर के
फल नहीं पढ़ना है
फलद् पढ़ना है
चूंकि आगे
आधा ‘द्’ और ‘यति’ मिलकर
द्युति शब्द बना है
सो पढ़ियेगा
फलद् द्युति
अब मुप(ई)-ति नहीं पढ़ना है
मुप(य्)…ति पढ़ियेगा
फिर ननूद-बिन्दु:
आधा हकार विसर्ग
पढ़ते समय निकलना चाहिये
ननूद-बिन्दुह्
इस प्रकार भक्तामर जी के
आठवें काव्य का चौथा चरण हुआ
मुक्ता-फल(द्) द्युति मु-पैति
ननूद-बिन्दुः
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
म(त्)-त्वेति नाथ ! तव संस्-
तवनं मयेद,
मा-रभ्यते तनु-धियापि
तव प्र-भावात् ।
चेतो हरि(ष्)-ष्यति सतां
नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल(द्) द्युति मु-पैति
ननूद-बिन्दुः ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
मत्वा + इति
मिल करने शब्द बना है
मत्वेति
मतलब इति यानि ‘कि ऐसा
और मत्वा यानि ‘कि मानकर
कैसा ?
तो
नाथ मतलब हे ! नाथ
तव मतलब आपका
संस्तवनं मतलब समीचीन
सम्यक् निर्दोष स्तवन
मया मतलब मेरे द्वारा
इदम् मतलब यह
आरभ्यते मतलब
प्रारंभ किया जा रहा है जो
और यदि हमारा मन पूछता ही है
‘कि मैं कैसा हूँ ?
तो
तनु-धियाऽपि
मतलब मन्द-बुद्धि वाला
होने के बाद भी
‘क्या’ ?
तो
तव मतलब आपके
प्रभावात् मतलब प्रभाव से
आपकी कृपा से
चेत: मतलब चित्त, मन
हरिष्यति मतलब हर लेगा
सतां मतलब सज्जनों का
अब हमारा मन
यदि कोई उदाहरण पूछता है
तो
नलिनी दलेषु मतलब
कमलिनी के पत्तों पर
मुक्ताफल मतलब मोती के जैसी
द्युतिम् मतलब कान्ति, चमक
उपैति मतलब प्राप्त कर लेती है
नूनं मतलब निश्चित ही
उदबिन्दु मतलब जल की बूँद
सो कुल मिलाकर करके
सहजो-निराकुल अर्थ हुआ
‘के हे भगवन् !
जैसे कमती पानी की बूंद
कमल के पत्तों पर
मोती सी कीमती हो जाती है
वैसे ही सीधी साधी सी
मेरी यह आपकी स्तुति
आपकी किरपा से
अनोखी हो जायेगी
ओम्
नववां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
नववें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आस्ताम्
फिर
तव न पढ़कर के
तवस् पढ़ियेगा
बाद में तवन पढ़ना है
प्राय: करके लोगबाग
तवस्त फिर वन पढ़ते है
जो शुद्ध उच्चारण नहीं है
ऐसा पढ़ने पर
‘त’ हलन्त हो जाता है
इसलिये
तवस् फिर तवन पढ़ना चाहिये
अब मस्त
समस्त
दोषम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
नववें काव्य का पहला चरण हुआ
आस्ताम् तवस्-तवन-मस्त
समस्त-दोषम्,
फिर
त्वत्
सम् कथा नहीं पढ़ना है
न ही सन् कथा
गंगा के जैसा
सं…क…थापि पढ़ियेगा
थकार का आकार थोड़ा सा खींचियेगा
पकार इकार के साथ पढ़ने में
आ जायेगा
सं…क…थापि
अब
ज…ग… ताम्
फिर दुरितानि
‘त’ को थोड़ा सा खींचियेगा
दुरि…तानि
हन्ति हन् के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
दुरि…तानि हन् …ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
नववें काव्य का दूसरा चरण हुआ
त्वत्-सङ्कथाऽपि जगतां
दुरि-तानि हन्ति ।
अब दूरे पढ़ना है
सुनो सहत्र मत पढ़ना
स…ह(स्)…स्र पढ़ना है
फिर किर के बाद ण:
नहीं पढ़कर के
कि…र…ण: पढ़ियेगा
कुरु-ते(प्) प्र…भैव बोलना चाहिये
जैसे आ…क्रमण नहीं
आ(क्) क्रमण पढ़ते हैं
वैसे ही दीर्घ स्वर के बाद भी
यदि संयुक्त अक्षर आता है तो
दो बार पढ़ना चाहिये
कुरु-ते(प्) प्र…भैव
इस प्रकार भक्तामर जी के
नववें काव्य का तीसरा चरण हुआ
दूरे स-हस्र-कि-रणः
कुरुते प्रभैव,
अब पद्मा करेषु
रकार का एकार
थोड़ा सा खींचियेगा
क…रेषु
जल जानि
जकार का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
जल …जानि
विकास भाञ्जि
भकार का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
जल …जानि
विकास…भाञ्जि
इस प्रकार भक्तामर जी के
नववें काव्य का चौथा चरण हुआ
पद्मा-करेषु जल-जानि
विकास-भाञ्जि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
आस्ताम् तवस्-तवन-मस्त
समस्त-दोषम्,
त्वत्-सङ्कथाऽपि जगतां
दुरि-तानि हन्ति ।
दूरे स-ह(स्)-स्र-कि-रणः
कुरुते प्रभैव,
पद्मा-करेषु जल-जानि
विकास-भाञ्जि ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
आस्तां मतलब
दूर रहने दीजिये
या फिर छोड़िये
तुरन्त अपने मन में जिज्ञासा उठेगी
क्या ?
तो
तव मतलब आपका
स्तवनम् मतलब स्तवन
कैसा है जो ?
तो
अस्त समस्त दोषम् मतलब
सम्पूर्ण दोषों से रहित है
अब मन में जिज्ञासा उठेगी
‘कि यह छोड़ करके
फिर क्या ग्रहण करना है ?
तो तवत् मतलब आपकी
संकथाऽपि मतलब पुण्य कथा भी
किसे ?
तो जगताम् मतलब
जगत् के जीवों के
दुरितानि मतलब पापों को
हन्ति मतलब नष्ट कर देती है
अब हमारा मन
यदि कोई उदाहरण पूछता है
तो
दूरे मतलब गगन में
जा दूर रहने पर भी
सहस्र किरण मतलब
हजार किरणों वाला सूर्य
कुरुते मतलब करती है
प्रभा एव मतलब
सूरज की आभा, प्रभा मात्र
क्या ?
तो
पद्या करेषु मतलब
कमल के समूह वाला
तालाब जो उसमें
जल-जानि मतलब
जल में जन्म लेने वाले
कमलों के लिए
विकास भाञ्जि मतलब
विकसित प्रफुल्लित कर देती है
वैसे ही आपका नाम मात्र
लेने से एक नई जाग भर जाती है
ओम्
दशवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
दशवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
बड़ा सरल उच्चारण है
बस आधा ‘त्’
दो बार पढ़ लीजियेगा
नात्-त्यद्-भुतं
फिर भु…वन भू…षण
भूत-नाथ
इस प्रकार भक्तामर जी के
दशवें काव्य का पहला चरण हुआ
ना(त्)-त्यद्-भुतं भु-वन भू-षण !
भूत-नाथ !
अब भू के बाद तैर्
गुणैर्
भुवि भ…वन्त
मभिष्-टुवन्तः
इस प्रकार भक्तामर जी के
दशवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
भूतैर्-गुणैर्-भुवि भवन्त
मभिष्-टुवन्तः ।
अब तुल्या दीर्घ ‘या’ खींचियेगा
भवन्ति भ-वतो
ननु तेन
तैन मत बोलियेगा
तेन बोलना है
पेन, चेन कै जैसे
अब किम् वा दीर्घ पढ़ियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
दशवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
तुल्या भवन्ति भ-वतो
ननु तेन किं वा,
भूत्-त्याश्-श्रितम्
दीर्घ अक्षर के बाद भी
संयुक्त अक्षर दो बार बोलना चाहिये
जैसे आश्रम, आश्रय, आक्रमण
सो भूत्-त्याश्-श्रितम्
अब य इह नात्म समम्
करोति
‘रो’ को खींचियेगा
‘ति’ का उच्चारण करना आ जायेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
दशवें काव्य का चौथा चरण हुआ
भूत्या(श्)-श्रितं य इह नात्म-
समम् करोति ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
ना(त्)-त्यद्-भुतं भुवन भूषण !
भूत-नाथ !
भूतैर्-गुणैर्-भुवि भवन्त
मभिष्-टुवन्तः ।
तुल्या भवन्ति भ-वतो
ननु तेन किं वा,
भूत्या(श्)-श्रितं य इह नात्म-
समम् करोति ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
न + अति + अद्भुतं
ना(त्)-त्यद्-भुतं शब्द बना है
जो कहता है
अति आश्चर्य वाली
कोई बात नहीं है इसमें
किसमें ?
तो
हे भुवन भूषण ! मतलब
तीनों लोकों के आभूषण स्वरूप
यह श्री भगवान् का विशेषण है
हे भूत-नाथ ! मतलब
समस्त प्राणियों के स्वामी
श्री भगवान् का यह दूसरा विशेषण है
भूतै: मतलब समीचीन, सच्चे
गुणै: मतलब गुणों के द्वारा
भुवि मतलब पृथ्वी पर
भवन्तं मतलब आपकी
अभिष्टु वन्तः मतलब
स्तुति करने वाले सज्जन
तुल्या मतलब समान
भवन्ति मतलब हो जाते है
किसके समान
तो
भवन: मतलब आपके समान
हाँ ! हाँ ! ! भगवान् आपके जैसे
सहजो-निराकुल
उदाहरण देते है अब
ननु मतलब निश्चय से
तेन मतलब उस स्वामी से
किम् मतलब क्या ? लाभ है
क्या प्रयोजन है
भूत्या मतलब सम्पत्ति दे करके
आश्रितं मतलब
अपने अधीनस्थ जन को
यः मतलब जो
इह मतलब इस लोक में
न मतलब नहीं
आत्म-समम्
मतलब अपने समान
करोति मतलब करता है
ओम्
ग्यारहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
ग्यारहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
दृष्…ट्वा
दृष्ट्… वा नहीं पढ़ना है
दो आधे अक्षर हैं
इसलिये ‘ष’ तक दृष्
फिर ट्वा बोलना है
भ…वन्त मनि-मेष
षकार का उच्चारण करते समय
ध्यान रखना है
मे को खींचियेगा
मेष
अब विलोक…नीयं
इस प्रकार भक्तामर जी के
ग्यारहवें काव्य का पहला चरण हुआ
दृष्-ट्वा भ-वन्त म-निमेष-
वि-लोक-नीयं,
अब नान्
फिर आधा ‘न्’
फिर से बोलते हुये
न्यत्… त्र
तोष
अब मुप-याति नहीं
मु…पयाति
जनस् पढ़कर के
फिर से ‘स्’ बोलियेगा
जनस्-स्य
अब ‘च’ फिर आधा ‘क्’
च(क्)-क्षुह्
विसर्ग को आधा ‘ह’ पढ़ना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
ग्यारहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
ना(न्)-न्यत्र-तोष-मु-पयाति
जन(स)-स्य चक्षुः ।
पीत् ‘त’ आधा फिर से पढ़ियेगा
पीत्…त्वा
पयह् शशि करद्
अब आधा ‘द्’
और ‘य’ मिलकर शब्द बना है
द्युति
दुग्ध सिन्धो
सिन्…धोह्
इस प्रकार भक्तामर जी के
ग्यारहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
पी(त्)-त्वा पयः शशि-कर(द्)-
द्युति-दुग्ध-सिन्धोः,
अब क्षारम् जलं जल-निधे
रसितुं क इच्छेत्
जर्रा सुनिये हलन्त अक्षर बोलते समय
जिह्वा उच्चारण स्थान पर लगी रहे
थोड़ा सा कुछ ऐसे बोलना है
इच्छेत्
इस प्रकार भक्तामर जी के
ग्यारहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
क्षारं जलं जल-निधे-
रसितुं क इच्छेत् ?
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
दृष्-ट्वा भ-वन्त म-निमेष-
वि-लोक-नीयं,
ना(न्)-न्यत्र-तोष-मु-पयाति
जन(स)-स्य चक्षुः ।
पी(त्)-त्वा पयः शशि-कर(द्)-
द्युति-दुग्ध-सिन्धोः,
क्षारं जलं जल-निधे-
रसितुं क इच्छेत् ? ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
दृष्ट्वा मतलब देखकर के
किसको ?
तो
भवन्तं मतलब आपको
कैसे हैं आप ?
तो
अनिमेष मतलब
बिना पलक झपकाये
विलोकनीयं मतलब देखने योग्य
क्या ?
तो
न मतलब नहीं
अन्यत्र मतलब दूसरी जगह और कहीं
तोष मतलब सन्तोष को
उपयाति मतलब प्राप्त होते है
जनस्य मतलब
भक्त-जनों के
चक्षुः मतलब नेत्र
यदि कोई उदाहरण पूछते हैं हम
तो
पीत्वा मतलब
पी करके
पयः मतलब पानी को
कैसा है पानी ?
शशिकर मतलब चन्द्रमा की
कर-किरणों के समान
द्युति मतलब कान्ति वाले
दुग्ध-सिन्धोः मतलब
क्षीर सागर के जल का
अब प्रतिपक्ष रखते हैं
क्षारं मतलब खारे
जलम् मतलब पानी को
किसके ?
तो जलनिधेः मतलब
जल के भंडार-समुद्र के
रसितुं मतलब पीने की
क मतलब कौन
इच्छेत् मतलब इच्छा करता है
अर्थात् कोई भी तो नहीं
वैसे ही आपका दर्शन है
और जगह तो प्रदर्शन है
ओम्
बारहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
बारहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
यइ नहीं बोलना है
यह् बोलियेगा
अब शान्त
‘त’ अकार के साथ बोलना है
रा…ग
‘ग’ अकार के साथ बोलना है
रुचि..भिह्
अब पर नहीं पढ़ना है
प…र…माणु भिस् त्वम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
बारहवें काव्य का पहला चरण हुआ
यैः शान्त-राग-रुचिभिः
पर-माणु-भिस्-त्वं,
अब निर्… मा… पितस्
त्रि.. भु… वनेक
ललाम भूत
‘त’ अकार के साथ बोलना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
बारहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
निर्मा-पितैस्-त्रि-भुवनैक
ललाम-भूत ! ।
अब ‘ता’ आकार के साथ बोलना है
वन्त एव खलु
अब ‘प्’ आधा है इसलिए
दो बार पढ़ियेगा
तेप्…प्य… णवह्
अब ‘व्’ आधा है इसलिए
दो बार पढ़ियेगा
पृ… थिव… व्याम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
बारहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
ता-वन्त एव खलु ते(प्)-
प्य-णवः पृथि(व्)-व्यां,
अब यत्…ते
समान म…परं
न हि
रूप मस्ति मस् को
थोड़ा सा खींचियेगा
मस्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
बारहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
यत्-ते समान-मपरं
न हि रूप-मस्ति
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
यैः शान्त-राग-रुचिभिः
पर-माणु-भिस्-त्वं,
निर्मा-पितैस्-त्रि-भुवनैक
ललाम-भूत ! ।
ता-वन्त एव खलु ते(प्)-
प्य-णवः पृथि(व्)-व्यां,
यत्-ते समान-मपरं
न हि रूप-मस्ति ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
यैः मतलब जिन
किन ? तो
शान्त राग रुचिभिः मतलब
शान्त हो गई है रागादि दोषों की
रुचि-इच्छा जिनकी
ऐसे कौन ?
तो परमाणुभिः मतलब
परमाणुओं के द्वारा
क्या हुआ है
तो
त्वम् मतलब आप
निर्मापितः मतलब
रचे गये हैं
कैसे हैं आप ?
तो
त्रिभुवनैक ललाम भूत मतलब
तीनों लोकों में
ललाम-सुन्दरतम हैं
और
तावन्त मतलब उतने ही थे
खलु मतलब निश्चय से
ते मतलब वे
अणवः अपि मतलब अणु भी
कहाँ ?
तो
पृथि(व्)-व्यां मतलब
पृथ्वी पर
ऐसा क्यों कह रहे हैं आप ?
तो
यतः मतलब चूंकि
ते मतलब आपके
समान मतलब जैसा
अपरं मतलब दूसरा
न हि मतलब नहीं
रूप मतलब रूप
अस्ति मतलब है
अर्थात् आप सबसे सुन्दर हैं
ओम्
तेरहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तेरहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
वन के ‘व’ का ध्यान रखना है
वक्त्रम्
क्व ते सु…र
‘र’ अकार के साथ बोलना है
नरो र…ग
‘ग’ अकार के साथ बोलना है
नेत्र हारि
‘हा’ आकार दीर्घ है
इसलिए थोड़ा सा खींचियेगा
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेरहवें काव्य का पहला चरण हुआ
वक्त्रं क्व ते सुर-न-रोरग-
नेत्र-हारि,
अब निःशेष
‘ष’ अकार के साथ बोलना है
निर्जित
‘त’ अकार के साथ बोलना है
जमत्
त्रि तयो…प…मा…नम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेरहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
निःशेष-निर्-जित जगत्-
त्रि-तयो-पमानम् ।
अब बिम्बं
कलंक
‘क’ अकार के साथ बोलना है
मलिनं
‘व’ अकार के साथ बोलना है
क्व
‘स्’ आधा जो है
दो बार बोलना है
निशा करस् स्य
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेरहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
बिम्बं कलङ्क मलिनं
क्व निशा-कर(स्)-स्य,
अब ‘द्’ आधा जो है
दो बार बोलना है
यद् द्वासरे
भ… वति पाण्डु
पाण् खींचियेगा
पाण्डु पलाश कल्पम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेरहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
य(द्)-द्वासरे भवति पाण्डु-
पलाश-कल्पम्
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
वक्त्रं क्व ते सुर-न-रोरग-
नेत्र-हारि,
निःशेष-निर्-जित जगत्-
त्रि-तयो-पमानम् ।
बिम्बं कलङ्क मलिनं
क्व निशा-कर(स्)-स्य,
य(द्)-द्वासरे भवति पाण्डु-
पलाश-कल्पम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
वक्त्रं मतलब मुख
क्व मतलब कहॉं
ते मतलब आपका
क्यों क्या बात है उसमें ऐसी ?
तो
सुर नर उरग नेग हारि
मतलब
देवता, मनुष्य और उरग यानि ‘कि
उर-छाती के बल खिसक-खिसक
चलने वाले सांप-धरण आदि
असुर देवों के
नेत्रों को हरण करने वाला
यह श्री भगवान् के मुख की विशेषता है
एक विशेषता और भी है
क्या ?
तो
निः शेष मतलब सम्पूर्ण
निर्जित मतलब जीत लिया है
जगत् त्रितय मतलब
तीन लोंको की
क्या ?
तो
उपमानम् मतलब
उपमाओं के लिये जिसने ऐसा
और
बिम्ब मतलब मण्डल
कौन ?
तो
कलंक मलिनं मतलब
दागदार
क्व मतलब कहॉं
निशाकरस्य मतलब
रात्रि को करने वाला
चन्द्र-मण्डल
यत् मतलब जो
वासरे मतलब दिन में
पाण्डु मतलब फीका
कैसा फीका ?
तो
पलाश मतलब वृक्ष पलाश के पत्ते
कल्पं मतलब की तरह
अर्थात् आपका मुख
यथा नाम तथा गुण
मुख्य है
ओम्
चौदहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
चौदहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
सम्…पूर्ण
‘ण’ अकार के साथ बोलना है
मण्डल
‘म’ अकार के साथ बोलना है
श…शाङ्क
‘क’ अकार के साथ बोलना है
कला
‘ला’ आकार दीर्घ है
इसलिए थोड़ा सा खींचियेगा
क…लाप
‘र’ अकार के साथ बोलना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौदहवें काव्य का पहला चरण हुआ
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क
कला-कलाप-
अब शु(भ्)-भ्रा
‘भ्रा’ आकार दीर्घ है
इसलिए थोड़ा सा खींचियेगा
गु…णास्
त्रि-भु-वनं
वन का ‘व’ है
और ‘व’ अकार के साथ बोलना है
तव
लङ्…घ…यन्ति
‘यन्’ संयुक्त अक्षर है
इसलिए थोड़ा सा खींचियेगा
यन्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौदहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
शु(भ्)-भ्रा गुणास् त्रि-भु-वनं
तव लङ्-घयन्ति ।
अब आधा ‘स्’
और ‘र’ है इंकार के साथ
सो ‘स्’ आधा जो है
वह दो बार बोलना है
सं(स्)-श्रितास्
त्रि-ज-ग-
दी(श्)-श्वर नाथ-मेकं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौदहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
ये सं(स्)-श्रितास् त्रि-ज-ग-
दी(श्)-श्वर नाथ-मेकं,
अब कस्-तान्
निवार-यति नहीं कहना है
नि-वा-रयति पढ़ियेगा
अब सञ्च-रतो नहीं कहना है
सञ्-चरतो बोलियेगा
यथेष्-टम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौदहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
कस्तान् नि-वा-रयति सञ्-
चरतो यथेष्-टम्
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क
कला-कलाप-
शु(भ्)-भ्रा गुणास् त्रि-भु-वनं
तव लङ्-घयन्ति ।
ये सं(स्)-श्रितास् त्रि-ज-ग-
दी(श्)-श्वर नाथ-मेकं,
कस्तान् नि-वा-रयति सञ्-
चरतो यथेष्-टम् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
सम्पूर्ण मतलब समस्त, पूर्ण
मण्डल मतलब बिम्ब
किसका ?
तो
शशाङ्क मतलब चन्द्रमा का
कैसा है यह ?
तो
कला-कलाप-शुभ्राः
मतलब
कलाओं के
समूह के समान स्वच्छ
क्या ? तो
गुणाः मतलब गुण
त्रिभुवनम् मतलब
तीनों लोकों को
किसके ? तो
तव मतलब आपके
क्या करते हैं ?
तो
लङ्-घयन्ति मतलब लाँघ रहे हैं
चूंकि
ये मतलब जो
संश्रिताः मतलब आश्रित हैं
त्रिजगदीश्वर-नाथम्
मतलब तीन लोकों के ईश्वर
के भी स्वामी हैं
एकम् मतलब प्रमुख हैं
क: मतलब कौन
तान् मतलब उन्हें
निवा…रयति मतलब
रोक सकता है ?
संचरतः मतलब घूमते हुए
यथेष्टम् मतलब इच्छानुसार
अर्थात् कोई नहीं
ओम्
पन्दहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
पन्दहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
चित्रं-कि…मत्र
‘त्र’ अकार के साथ बोलना है
यदि ते(त्)-
त्रि-दशाङ्ग-नाभिर्-
इस प्रकार भक्तामर जी के
पन्दहवें काव्य का पहला चरण हुआ
चित्रं-किमत्र यदि ते(त्)-
त्रि-दशाङ्ग-नाभिर्-
अब
नीतं मना-गपि मनो
न वि..कार
‘र’ अकार के साथ बोलना है
मार्गम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
पन्दहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
नीतं मना-गपि मनो
न विकार मार्गम् ।
अब
कल्पान्त-काल
‘ल’ अकार के साथ बोलना है
मरुता
‘ता’ आकार दीर्घ है
इसलिए थोड़ा सा खींचियेगा
चलि-ता-चलेन
‘ले’ थोड़ा सा खींचियेगा
और ‘न’ अकार के साथ बोलना है
चलेन
इस प्रकार भक्तामर जी के
पन्दहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
कल्पान्त-काल मरुता
चलि-ता-चलेन,
अब
किं मन्-दरा(द्)-द्रि-शि…खरं
च…लितं
क…दाचित्
इस प्रकार भक्तामर जी के
पन्दहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
किं मन्-दराद्रि-शिखरं
चलितं कदाचित् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
चित्रं-किमत्र यदि ते(त्)-
त्रि-दशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मना-गपि मनो
न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त-काल मरुता
चलि-ता-चलेन,
किं मन्-दरा(द्)-द्रि-शिखरं
चलितं कदाचित् ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
चित्रम् किम् अत्र मतलब
आश्चर्य ही क्या है ? इस बात में
किस बात में ?
तो
यदि मतलब यदि
ते मतलब आपका
क्या किसने ?
तो
त्रिदशाङ्ग-नाभिः मतलब
बचपन, जवानी और वृद्धावस्था
इन तीनों अवस्थाओं में जो
एक जैसे सुन्दर लगते हैं वह देव
ऐसे उन देवों की
देवांगनाओं के द्वारा
क्या किया गया ?
तो
नीतम् मनाक् अपि न
मतलब थोड़ा भी
प्राप्त नहीं कराया जा सका है
मनः मतलब मन
विकारमार्गम् मतलब
विकार भाव को
चूंकि
कल्पान्तकाल-मरुता मतलब
प्रलयकाल की पवन के द्वारा
चलिता-चलेन मतलब
अचल-पर्वतों को हिला देने वाली
किम् मतलब क्या ?
मन्दराद्रि शिखरम् मतलब
मेरु पर्वत का शिखर
चलितम् मतलब हिलाया गया है ?
कदाचित् मतलब कभी
अर्थात् नहीं
ओम्
सोलहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सोलहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
निर्-धूम
‘म’ अकार के साथ बोलना है
वर्ति
रप-वर्-जित नहीं
र-पवर्-जित पढ़ना है
और ‘त’ अकार के साथ बोलना है
तैल-पूर:,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सोलहवें काव्य का पहला चरण हुआ
निर्धूम वर्ति र-पवर्-जित-
तैल-पूर:,
अब
कृत्स्-नम् जगत्-त्रय
‘य’ अकार के साथ बोलना है
मिदं
प्र-कटी-क-रोषि ।
इस प्रकार भक्तामर जी के
सोलहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
कृत्स्-नम् जगत्-त्रय मिदं
प्र-कटी-क-रोषि ।
अब
ग(म्)-म्यो
न जातु मरु-तां
चलि-ता-चलानां,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सोलहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
गम्यो न जातु मरु-तां
चलि-ता-चलानां,
अब
दी-पोऽपरस्-त्व-मसि
नाथ !
‘थ’ अकार के साथ बोलना है
नाथ
जगत्-प्रकाशः ॥
इस प्रकार भक्तामर जी के
सोलहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
दी-पोऽपरस्-त्व-मसि नाथ !
जगत्-प्रकाशः ॥
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
निर्धूम वर्ति र-पवर्-जित-
तैल-पूर:,
कृत्स्-नम् जगत्-त्रय मिदं
प्र-कटी-क-रोषि ।
गम्यो न जातु मरु-तां
चलि-ता-चलानां,
दी-पोऽपरस्-त्व-मसि नाथ !
जगत्-प्रकाशः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
निर्धूमवर्तिः मतलब
धुँआ तथा बत्ती से रहित
अथवा निर्दोष प्रवृत्ति वाले हैं
यह श्री भगवान् का विशेषण है
और
अपवर्जिततैलपूरः मतलब
तैल से शून्य है
तेल यानि ‘कि राग की चिकनाई से
कोस दूर है
क्या करते हैं ?
तो
कृत्स्नम् मतलब समस्त
जगत् त्रयम् इदम् मतलब
इस त्रिभुवन को
प्रकटीकरोषि मतलब
प्रकाशित कर रहे हैं
और
गम्यः न जातु
मतलब कभी गम्य नहीं हैं
चलिताचलानाम् मतलब
अचल पर्वतों को हिला देने वाली
मरुताम् मतलब वायु के भी
अर्थात्
वायु आपको बुझा नहीं सकती है
तो क्या ?
तो
दीपः अपर: त्वम् असि मतलब
आप अपूर्व दीपक हो
कैसे ?
तो
जगत्प्रकाशः मतलब
संसार को प्रकाशित करने वाले
ओम्
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