भक्ता-मर-स्तोत्र ७४
आदि अवलम्बन ।
नुति नाभि नन्दन ।।१।।
छुये इन्द्र गगन ।
चुयें मोर नयन ।।२।।
थुति नापना पथ ।
मम राखना पत ।।३।।
बृहस्पत हारे ।
गा गुण तिहारे ।।४।।
मचले हित थवन ।
न रहा मान मन ।।५।।
तोर भक्ति वजह ।
ए ! नेहि निस्पृह ।।६।।
सहारा सु…मरण ।
तिहारा सुमरण ।।७।।
पा तुमरी नजर ।
न कौन निष्फिकर ।।८।।
व्यथा करने गुम ।
काफ़ी कथा तुम ।।९।।
कम किसको दिया ।
सम अपने किया ।।१०।।
जग तारक नयन ।
भॉंत चन्दन तन ।।११।।
नख-शिख तुम विरच ।
रज-कण सब खरच ।।१२।।
मुख आप सुन्दर ।
न वैसा चन्दर ।।१३।।
गुण लॉंघें जगत् ।
तुमरे जो भगत ।।१४।।
रम्भा रो गई ।
तुमरी हो, गई ।।१५।।
जिया तम न तले ।
‘दिया’ तुम विरले ।।१६।।
जग त्रस्त न धूप ।
भान तुम अनूप ।।१७।।
तम राहु संस्तुत ।
तुम चाँद अद्भुत ।।१८।।
रवि शशि भव-भार ।
तुम तुम अपहार ।।१९।।
तुम केवल ज्ञान ।
बस आप समान ।।२०।।
और दिया ‘सिला’ ।
दिया आप मिला ।।२१।।
पुत्र तुम अनन्य ।
माँ न और धन्य ।।२२।।
मृत्यंजय नाम ।
इक तुम निष्काम ।।२३।।
हरि, ब्रह्म, शंकर ।
आप नाम अपर ।।२४।।
बुद्ध पुरुषोत्तम ।
शिव विधाता तुम ।।२५।।
प्रसिद्ध अरिहन्त ।
नमो नमः सन्त ।।२६।।
इक गुण और तुम ।
सद्-गुण और गुम ।।२७।।
लिख जीवन नाम ।
‘अशोक’ कृत काम ।।२८।।
तर तुम क्या दिखा ।
सिंहासन चमका ।।२९।।
सुर ढ़ोरें चँवर ।
झिर मेरु निर्झर ।।३०।।
छतर बोलें ढुल ।
इक तुम निराकुल ।।३१।।
बाजे दिशा दश ।
वाँचे आप जश ।।३२।।
सुमन सुगन्ध कण ।
वृष्टि, मन्द पवन ।।३३।।
भामण्डल तोर ।
मन-जन-जन चोर ।।३४।।
भी आप वाणी ।
जगत् कल्याणी ।।३५।।
तर आप पदतल ।
सुर रचते कमल ।।३६।।
वैभव अलौकिक ।
बस पास तुम इक ।।३७।।
बस ले तुम्हें भज ।
हो दूर भय गज ।।३८।।
कहा जय जिनेन्द्र ।
कहाँ भय मृगेन्द्र ।४३९।।
जप नाम तुम जल ।
भय गुम दव अनल ।।४०।।
भक्त तुम देखे ।
अहि वामी दिखे ।।४१।।
समर जाता थम ।
सुमर त्राता तुम ।।४२।।
लौं तुम लगाई ।
अरि धरासाई ।।४३।।
सिन्धु खूब मगर ।
लें भक्त तुम तर ।।४४।।
औषध नाम तुम ।
रोग तमाम गुम ।।४५।।
जुड़ आप अटूट ।
बन्धन दो टूक ।।४६।।
डर डरा भागे ।
तुम नजर आगे ।।४७।।
शारदा माई ।
सजदा हमाई ।।४८।।
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