भक्ता-मर-स्तोत्र ७०
माँ-मरु नन्दन ।
नाभि तारक नयन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।
गुम अँधियारे ।
तुम आदि सहारे ।
छवि सुर-नत मुकुट-रतन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१।।
थुति मन-हारी ।
सुर-पति अवतारी ।
झिर सावन मोर नयन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२।।
जश तुम गाना ।
बस लाज गवाना ।
शिशु जल शशि बिम्ब ग्रहण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३।।
सुर-गुरु हारे ।
पुरु ! गा गुण थारे ।
कब तट-जल, प्रलय-पवन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४।।
शक्ति लजाये ।
तुम भक्ति धकाये ।
हित-शिशु सिंह भिड़े हिरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।५।।
करती मुखरी ।
भगती इक तुमरी ।
हित बौर, पिक चोर मन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।६।।
पाप पलाये ।
क्या आप दिखाये ।
तम हरण, इक रवि-किरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।७।।
मनहर होगी ।
थुति यह तुम क्यों ‘कि ।
मोती जल-कण कमलन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।८।।
काफी गाथा ।
थव-दूर विधाता ! ।
रवि गगन, पद्म विकसन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।९।।
दर्पण जैसा ।
करते अपने-सा ।
लख सके न दृग्-नम धन ! ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१०।।
मोहन थारा ।
दर्शन अर खारा ।
न छका दृग्-सहस्र मन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।११।।
रज-कण गुम वो ।
नख-शिख रच तुम को ।
सुन्दर न और त्रिभुवन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१२।।
मुख अविकारी ।
छवि मन-हर थारी ।
शशि ढ़ाक-पत्र सा-दिन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१३।।
त्रिभुवन लाँघे ।
गुण तुम आ आगे ।
डर कहाँ, जब तुम शरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१४।।
चली उर वसा ।
उर्वशी अप्सरा ।
चल मेरु कब लय पवन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१५।।
तेल न बाती ।
न मारुत बुझाती ।
तुम दीप त्रिजग रोशन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१६।।
त्रिजग जगाया ।
सिर राहु नवाया ।
तुम सूरज अगम्य घन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१७।।
मेघ न छाते ।
तम मोह मिटाते ।
इक शशि मुख तीन भुवन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१८।।
रवि शशि विरथा ।
तम तुमने विघटा ।
घर फसल, विफल स्वर घन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।१९।।
अर मन मानी ।
तुम भी-तर ज्ञानी ।
छवि काँच न, यथा रतन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२०।।
कृपा सरागी ।
लौं तुमसे लागी ।।
क्या दिया, तुम हरा-मन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२१।।
एक अकेले ।
तुम माँ अलबेले ।
रवि पूर्व-इक अवतरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२२।।
तुम्हें ‘कि पूजा ।
मृत्युंजय दूजा ।
आदित्य, दिव्य-वरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२३।।
हरि-हर-ब्रह्मा ।
अक्षर नर सींहा ।
तुम नाम और अनगिन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२४।।
बुद्ध, विधाता ।
शिव सौख्य प्रदाता ।
शशि, बिच तारक जन-जन ।
शत बार तुम्हे वन्दन ।।२५।।
सिद्ध अनंता ।
प्रसिद्ध अरिहंता ।
सूरि, पाठक, सब-श्रमण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२६।।
गुण तुम साथी ।
औ’ औगुण थाती ।
अगम अवगुण तुम सपन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२७।।
अशोक नीचे ।
खुले न-दृग् मींचे ।
निकट-घन, रवि तम हरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२८।।
तन, सोने का ।
सिंहासन अनोखा ।
गिरि उदय भान प्रकटन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।२९।।
तन अर सोना ।
दल चॅंवर सलोना ।
तट मेरु धार जल कण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३०।।
छवि रवि फीकी ।
शशि कान्ति सरीखी ।
छतर, परमेश्वर लखन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३१।।
बाजे भेरी ।
दे दिश्-दश फेरी ।
यहाँ सद् धर्म राजन् ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३२।।
हवा मन-हरा ।
गंधोदक धारा ।
सुमन बरसा दिवि वचन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३३।।
भामण्डल ये ।
लख-रवि तेज लिये ।
छवि अभिजित मृग-लान्छन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३४।।
धुनि, शिव-शिविका ।
देती सुख दिवि का ।
आप-भाषा परिणमन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३५।।
पल विहार पा ।
सुर सपरिवार आ ।
कमल रचते तर-चरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३६।।
त्रिभुवन अर ना ।
वैभव समवशरण ।
रवि, छवि न तथा तारन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३७।।
भ्रमर सताया ।
गज वह बौराया ।
वशि, किया ‘कि तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३८।।
सिंह वह जीने ।
गज मुक्ता छीने ।
वशि, किया ‘कि तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।३९।।
दव, वह सबला ।
जग चाहे निगला ।
वशि, किया ‘कि तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४०।।
फणि-मणि वाला ।
विषधर वह काला ।
वशि, किया ‘कि तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४१।।
गज कब थोड़े ।
हुंकारें घोड़े ।
तुम भक्त, विजित वह रण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४२।।
खूनी झरने ।
अरि आतुर तरने ।
तुम भक्त, विजित वह रण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४३।।
सागर गहरा ।
जल किरात पहरा ।
तट भक्त-तुम बिन तरण ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४४।।
रुज जाँ-लेवा ।
प्रद पीर सदैव ।
गुम किया ‘कि तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४५।।
नख-शिख जकड़ी ।
देह जाती छिली ।
तुम सिमरन, गुम बन्धन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४६।।
सिंह, गज, दावा ।
रण, अहि, रुज, कारा ।
जल-भय गुम, तुम सिमरन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४७।।
वर्ण गुल सजी ।
गुण-माल यह रची ।
की क्या कण्ठ, शिव गमन ।
शत बार तुम्हें वन्दन ।।४८।।
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