भक्ता-मर-स्तोत्र ६७
इक आदि सहारे तुम हो ।
भव जलधि किनारे तुम हो ।।
ओ ! तुम हो पाप निकन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१।।
आ-राध्-यिक सौ धर्मा हो ।
तुम आद्य विश्वकर्मा हो ।।
मैं पढूँ पत्र अभिनन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२।।
बुध नुत पद-पीठ तिहारी ।
मति गई हमारी मारी ।।
ले, ‘दिया’ किया रवि वन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३।।
सुर गुरु अगम्य तुम गाथा ।
तट सिन्धु मगर कब आता ।।
ले बाहु आप आलम्बन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४।।
गुम बची-खुची भी शक्ती ।
बस धका रही तुम भक्ती ।।
हित शिशु रक्षण मृग सिंह रण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।५।।
बाँसुरी न वाणी मिसरी ।
तुम भक्ति कर रही मुखरी ।।
वन-आम्र माथ-पिक चन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।६।।
क्षण लगे न तुम्हें बुलाते ।
क्षय पाप सभी हो जाते ।।
तम गुम, लख सहस्र-किरणन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।७।।
पा कृपा-आप यह गीता ।
जग हृदय करेगी तीता ।।
पड़ पद्म पत्र मण जल कण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।८।।
थुति दूर सरस वति न्यारी ।
तुम कथा व्यथा अपहारी ।।
भू खिले पद्म, नभ दिन-मण ।।
माता देवी मरु नन्दन ।।९।।
तुम-से, भवि तुम से जुड़ के ।
तुम रस-पारस से बढ़-के ।।
अनुचर, प्रतिकृति-अर श्री मन् ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१०।।
पी क्षीर-सिन्धु का पानी ।
लें नीर-सिन्धु कब पाणि ।।
अर रुचा न, रख तुम नयनन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।११।।
वह दिव्य-द्रव्य बस थोड़ा ।
ले जिसे, देह तुम जोड़ा ।।
नहिं रूप आप-सा त्रिभुवन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१२।।
दृग् सहस लखे पविधारी ।
मुख कहाँ आप मनहारी ।।
दिन ढ़ाक भाँत मृग लांछन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१३।।
छवि लिये चाँदनी, न्यारे ।
गुण लाँघें तुम जग सारे ।।
भय कैसा ? तुम अवलम्बन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१४।।
लख नासा-दृष्टि, अचम्भा ।
रह गई ठगी सी रम्भा ।।
कब ढे़र, मेर लय पवनन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१५।।
बिन धुँआ तेल बिन बाती ।
कर हवा खेल नहिं पाती ।।
जग दीप्त दीप तुम रतनन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१६।।
पल बादल झॉंप न पाता ।
दृग्-रक्त न राहु दिखाता ।।
रवि इतर-आसमाँ माहन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१७।।
इक विश्व प्रकाशक तुम हो ।
कब रात-अमावस गुम हो ।।
तुम दूज चाँद पूरण धन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१८।।
शशि-भान चले क्यों आयें ।
तम जगत् आप विघटायें ।।
घर धान, गान नाहक घन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।१९।।
जल-पय विवेक धर हंसा ।
तुम भाँत देव न शहंसा ।।
कब एक काँच मणि कंचन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२०।।
दर अर न टेकता माथा ।
तो तुमसे नहिं मिल पाता ।।
लख काग, हरे कोयल मन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२१।।
दे जन्म तुम्हें माँ थारी ।
भव मात्र एक अवतारी ।।
दें अर्घ पूर्व दिश् जन-जन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२२।।
मृत्युंजय आप अकेले ।
तुम भक्त मृत्यु से खेले ।।
तुम एक सुरग-शिव-स्यंदन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२३।।
हरि-हर-ब्रह्मा त्रिपुरारी ।
शंकर भोला भण्डारी ।।
गोपाल तुम मदन-मोहन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२४।।
बुध वन्दित बुद्ध तुम्हीं हो ।
अभिनन्दित रुद्र तुम्हीं हो ।।
तुम पुरुष-पुराण अजन्मन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२५।।
भव पीर आप मरहम हो ।
भव तीर ! आप दृग्-नम हो ।।
शत-सतत् तुम्हें मम वन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२६।।
गुण किस तुम नाम सुना ना ।
अव-गुण ने तुम्हें चुना ना ।।
फँस नेह-पाश अर सुर-गण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२७।।
तर अशोक किस्मत जागी ।
आ बैठे आप विरागी ।।
रवि प्रकट निकट घन सावन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२८।।
तन कंचन स्वर्ण रचित है ।
सिंहासन रतन खचित है ।।
गिर उदय उदित दिन-करणन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।२९।।
ले चँवर खड़े अनिमेषा ।
तन आप स्वर्ण के जैसा ।।
झरता झरना गिर-सुवरण ।।
माता देवी मरु नन्दन ।।३०।।
रवि ताप छत्र अपहरते ।
झालर मणि रतन दमकते ।।
धर रूप तीन शशि चरणन ।।
माता देवी मरु नन्दन ।।३१।।
बहरा दिश् विदिश् बनाते ।
सद्-धर्म राज जश गाते ।।
बाजे बाजे नभ अनगिन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३२।।
झिर लगी पुष्प नभ अँगना ।
गन्धोदक मोहक पवना ।।
लग-पंक्ति वचन तुम बर्षण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३३।।
रवि कोटि कान्ति भी फीकी ।
छवि सौम्य सोम-सी नीकी ।।
भामण्डल भव भव दर्पण ।।
माता देवी मरु नन्दन ।।३४।।
ध्वनि दिव्य स्वर्ग शिव दाता ।
सद्धर्म तत्व व्याख्याता ।।
सब भाष स्वभाव नु-वर्तन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३५।।
नख मिस शशि इतिवृत लिखते ।
तुम चरण जहाँ भी रखते ।।
सुर रचे कमल नन्दन-वन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३६।।
करुणा का असर अनूठा ।
नजदीक सिंह हिरण बैठा ।।
तमहर तुम अर तारक-गण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३७।।
मद मूल कपोल बहाया ।
सुन अलि-गुन-गुन बौराया ।।
तुम भज प्रशान्त गज तत्क्षण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३८।।
मुक्ता खूँ-युक्ता छीने ।
भू-तल श्रृंगारा जीने ।।
सिंह वशी, किया तुम कीर्तन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।३९।।
भूखी जग भखने भागी ।
सखि प्रलय-पवन दव आगी ।।
जल बुझे नाम-तुम सिंचन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४०।।
आरक्त-रक्त दृग् वाला ।
कोकिला कण्ठ सा काला ।।
अहि दमन मन्त्र तुम सिमरण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४१।।
हुंकार अश्व बड़ भरते ।
गज आपस में लड़ मरते ।।
रण गुम, मन-तुम, न लगा क्षण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४२।।
दरिया बह निकला खूनी ।
बल तरे शक्ति ले दूनी ।।
ध्या तुम, दावें दुम अरि-गण ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४३।।
आ जलचर कौन न घेरे ।
बड़वानल आँख तरेरे ।।
तट नाव नाव-रट तुमरन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४४।।
पड़ पीछे रोग हहा ‘रे ।
ले चलें धका यम द्वारे ।।
जप दवा बाण-रघुनन्दन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४५।।
सुन रहा न कोई दुखड़ा ।
तन लौह श्रृंखला जकड़ा ।।
छू वन्दन तुम, छू बन्धन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४६।।
सिंह, गज, दव, जल, बीमारी ।
रण, बन्धन, नागिन कारी ।।
भय गुम, ध्या तुम अन्तर्-मन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४७।।
गुण-बाग अखर-गुल चुन-के ।
तैयार माल यह बुन-के ।।
धारी क्या ? कंठ, निरंजन ।
माता देवी मरु नन्दन ।।४८।।
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