भक्ता-मर-स्तोत्र ६५
शत इन्द्र एक विश्वास ।
आ निवसो श्वासोच्छ्वास ।।१।।
तुम थवन सौधर्म नाम ।
मैं भी पा सकूँ मुकाम ।।२।।
मति हंस आप सरताज ।
थुति आप गवाना लाज ।।३।।
साधा सुर-गुरु ने मौन ।
तट कौन जल प्रलय पौन ।।४।।
है शक्ति न वैसे मोर ।
पै भक्ति धकाती तोर ।।५।।
कोकिला कूक मनहार ।
कारण बन आम्र बहार ।।६।।
करते ही सुमरण आप ।
क्षण लगा न इक क्षय पाप ।।७।।
थुति यह पा आप प्रसाद ।
होगी तिहुजग विख्यात ।।८।।
जप जाप, आप थव दूर ।
गिर पाप आप चकचूर ।।९।।
देकर भव धारा हाथ ।
करते तुम अपने भाँत ।।१०।।
लख नैन, तुम्हें निर्दोष ।
पाते न और सन्तोष ।।११।।
रज उतनी सिर्फ अनूप ।
सुन्दर विरचे तुम रूप ।।१२।।
मुख तुम जित उपमा राश ।
शशि मुख दिन भाँत पलाश ।।१३।।
गुण विचरें, कर हद-गौण ।
तुम शरणागत, भय कौन ।।१४।।
लख नख-शिख तुम अविकार ।
दे ढ़ोक चलीं सुर-नार ।।१५।।
रोशन बाती बिन तेल ।
तुम दीप गुम हवा खेल ।।१६।।
कब राहु से परेशान ।
बादल अगम्य तुम भान ।।१७।।
भी…तर बाहर न कंलक ।
नित्योदित आप मयंक ।।१८।।
रवि-शशि भव-पूरति हेत ।
तुम तम-हर कला समेत ।।१९।।
अर, ज्ञान न जो तुम पास ।
मणि भाँत न काँच प्रकाश ।।२०।।
देवता और अहसान ।
तुमसे ‘कि हुई पहचान ।।२१।।
माँ बेटे आप अपूर्व ।
हूबहू भान अर पूर्व ।।२२।।
दे दिला मृत्यु से जीत ।
लागी तुम चरणन प्रीत ।।२३।।
बुध ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।
तुमरे ही नाम अशेष ।।२४।।
तुम नृसिंह विधाता एक ।
शमकर ! छव हंस-विवेक ।।२५।।
जय सिद्ध नन्त अरिहन्त ।
आचारज पाठक सन्त ।।२६।।
मन भाई और कुटेव ।
सम्पद-गुण तुम स्वयमेव ।।२७।।
तन कंचन वृक्ष अशोक ।
घन अर रवि जुत आलोक ।।२८।।
तन आसन स्वर्ण विशेष ।
उदयाचल उदित दिनेश ।।२९।।
चामर तन कनक पवित्र ।
निर्झर तट मेरु विचित्र ।।३०।।
इक भान प्रताप विलीन ।
तुम छतर अपर शशि तीन ।।३१।।
करती तेरी जयकार ।
बाजे भेरी दिश् चार ।।३२।।
पहुपन झिर उदक सुवास ।
धीमी-धीमी वातास ।।३३।।
रवि कोटिक तेज समाय ।
भामण्डल अर निशि-राय ।।३४।।
भाषा परिणमन स्वभाव ।
धुनि दिव्य पोत शिव-गाँव ।।३५।।
तुम रखते अपने चर्ण ।
सुर चरते कमल सुवर्ण ।।३६।।
सम…शरण धरम-उपदेश ।
वैभव न और लवलेश ।।३७।।
गज कुपित भ्रमर मद मत्त ।
बस वशीभूत तुम भक्त ।।३८।।
नख तीक्ष्ण दाढ़ सिंह क्रूर ।
तुम नाम लिया भय दूर ।।३९।।
दव त्रिभुवन भक्षण चाह ।
प्रशमित तुम नाम पनाह ।।४०।।
काला विषधर दृग् लाल ।
वशि जाप आप तत्काल ।।४१।।
गज, अश्व भयंकर नाद ।
संग्राम भक्त तुम हाथ ।।४२।।
अरि कुल सेना चतुरंग ।
ले जीत भक्त तुम जंग ।।४३।।
जल भँवर मगर अम्बार ।
तुम नाम दे लगा पार ।।४४।।
जाँ लेवा रोग अनेक ।
तुम नाम औषधी एक ।।४५।।
तुम रिश्ता जुड़ा अटूट ।
बन्धन होते दो टूक ।।४६।।
इन आद और भय नन्त ।
क्षय जाप आप भगवन्त ।।४७।।
यह वर्ण पुष्प गुण माल ।
रखते ही कण्ठ, निहाल ।।४८।।
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