भक्ता-मर-स्तोत्र ६४
द्युति सुर नत मुकुट रतन ।
नुति आदि ! हित शिव गमन ।।१।।
मैं धावूँ घुटने बल ।
थुति तुम सौधर्म सफल ।।२।।
बुधजन सेवक थारे ।
थुति तुम गिनना तारे ।।३।।
हारे सुर-गुरु आखिर ।
कब पार सिन्धु भुज-तिर ।।४।।
मम शक्ति लजाती है ।
तुम भक्ति धकाती है ।।५।।
मीठा गाये कोयल ।
पा विपिन आम्र कोंपल ।।६।।
क्या किया आप सुमरण ।
दुख पीठ दिखाते रण ।।७।।
तुम कृपा दिव्य होती ।
जल कमल दिपै मोती ।।८।।
थव दूर, नाम तेरा ।
मेंटे नव-नव फेरा ।।९।।
लो-हा सो-ना पारस ।
करते तुम स्वयं सदृश ।।१०।।
जो तुम्हें देख जाता ।
उसको न और भाता ।।११।।
वे-कण माटी उतने ।
तन सुन्दर आप बने ।।१२।।
तुम मुख दुनिया में इक ।
शशि दिन पलाश माफिक ।।१३।।
गुण मन-माने विचरें ।
तुम छाँव, किससे डरें ।।१४।।
चल दी लो माँग क्षमा ।
रम्भा पाई न रमा ।।१५।।
जाँ से न हवा खेले ।
तुम दीप यूं अकेले ।।१६।।
तम त्रिभुवन करते गुम ।
इक अद्भुत सूरज तुम ।।१७।।
अपहर विमोह अन्धर ।
मुख आप चाँद मनहर ।।१८।।
रवि शशि नाहक विचरण ।
तम हरण तुम अवतरण ।।१९।।
मति आप आप जैसी ।
द्युति मणि, न काँच वैसी ।।२०।।
मैंने तुमको पाया ।
देवन सराग माया ।।२१।।
माँ बेटे तुम विरले ।
पूरब सूरज निकले ।।२२।।
जप तुम जपते-जपते ।
जन मृत्युंजय बनते ।।२३।।
श्री हरि, ब्रह्मा, शंकर ।।
तुमरे ही नाम अपर ।।२४।।
इक बुद्ध, विधाता तुम ।
शिव, रुद्र, सुजाता तुम ।।२५।।
अरिहन्त, सिद्ध नंता ।
जय सूर, पाठि, सन्ता ।।२६।।
मन ‘औ औगुन भाये ।
गुण हिस्से तुम आये ।।२७।।
तर अशोक तर तुम तन ।
तमहर रवि समीप घन ।।२८।।
तन सिंहासन सुन्दर ।
गिरि-उदय उदित दिनकर ।।२९।।
तन कनक, चॅंवर चौंसठ ।
झिर निर्झर सुमेर तट ।।३०।।
ढुल कहें छतर झालर ।
त्रिभुवन तुम परमेश्वर ।।३१।।
जग फेरी दे भेरी ।
जयकार करे तेरी ।।३२।।
जल गन्ध सुमिष्ट पवन ।
कृत देव सुवृष्ट सुमन ।।३३।।
रवि कोटि विहर अन्धर ।
भा मण्डल अर चन्दर ।।३४।।
वरदात्री सुख दिव का ।
तुम वाणी शिव शिविका ।।३५।।
अद्भुत तुम विहार पल ।
रचना सुर करे कमल ।।३६।।
निधि तुम समय देशना ।
न बस देश, विदेश ना ।।३७।।
जुड़ता तुमसे नाता ।
गज वश में आ जाता ।।३८।।
जुड़ता तुमसे रिश्ता ।
सिंह ले अपना रस्ता ।।३९।।
तव सुमरण हो साथी ।
दव गुमसुम हो जाती ।।४०।।
तुम नाम नाग दमनी ।
हट तजे नाग अपनी ।।४१।।
तुम नाम जुबाँ ले ले ।
खूँ खेल दूर ठेले ।।४२।।
बस ध्यान तुम लगाया ।
अरि मित्रों में आया ।।४३।।
जल राश मगर जिनमें ।
तुम भक्त पार छिन में ।।४४।।
ली नाम तुम क्या दवा ।
जाँ-लेवा रोग हवा ।।४५।।
करते ही तुम्हें नमन ।
तड़-तड़ टूटें बन्धन ।।४६।।
तुम चरण नयन रखते ।
भय, भय खाने लगते ।।४७।।
कुछ भी न मुझे आता ।
हो मति सन्मति नाता ।।४८।।
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