भक्ता-मर-स्तोत्र ६२
सुर-नत छव मण-मुकुट प्रसार ।
दलित दुरित अन्धर विस्तार ।।
आद पतित भव जल अवलम्ब ।
करो न, मेरी बार विलम्ब ।।१।।
पार सार श्रुत गंग अपार ।
रचे इन्द्र थुति तुम मनहार ।।
प्रथम जिनेश आदि भगवान् ।
बने करूँ मैं भी गुणगान ।।२।।
मैं नादां तुम बुध सरताज ।
थुति तुम सिर्फ गवाना लाज ।।
और कौन पकड़े तत्काल ।
जल शशि-बिम्ब, छोड़ बस बाल ।।३।।
गा गुण सागर ! विरद तुम्हार ।
गये देव गुरु आखिर हार ।
जलचर काल-प्रलय वातास ।
भुज-बल कौन पार जल-राश ।।४।।
भक्ति आप फिर भी बलजोर ।
प्रेरित करे शक्ति बिन मोर ।।
जा सिंह भिड़ी मृगी अविचार ।
खींच रहा, शिशु प्यार-दुलार ।।५।।
बुध परिहास लगेगा हाथ ।
करे मुखर तुम भक्ति बलात् ।।
मधु ऋतु मधुर कोकिला बोल ।
रही आम्र-वन मंजरि डोल ।।६।।
क्षण भर के सुमरण से आप ।
क्षण-भर में क्षय होते पाप ।।
निशि अन्धर काला अलि भाँत ।
छू-मन्तर खुदबखुद प्रभात ।।७।।
थुति यह पा तुम कृपा जिनेश ।
होगी चर्चित देश विदेश ।।
पड़ जल-बूँदें पत्र-पयोज ।
पातीं भांत मोतियन ओज ।।८।।
थुति निर्दोष रहे तुम दूर ।
कथा मात्र तुम दे अघ चूर ।।
सूरज रह सुदूर आकाश ।
भरे जलज जीवन उल्लास ।।९।।
करके तनिक बहुत तुम सेव ।
बनें भविक तुम से जिन-देव ।।
रखे सदैव बना जो दास ।
क्या करना तिस पास प्रवास ।।१०।।
देख तुम्हें क्या आते नैन ।
पाते और कहीं ना चैन ।।
पीकर पानी सागर क्षीर ।
छुये कौन बुध सागर नीर ।।११।।
बस परमाणु प्रशान्त गभीर ।
जिनसे विरचित आप शरीर ।।
ऐसा जगत न और अनूप ।
जैसा जन-मन-हर तुम रूप ।।१२।।
कहाँ दिव्य तुम मुख अभिराम ।
अभिजित उपमा जगत् तमाम ।।
कहाँ, कलंकित जिसकी साख ।
शशि वह दिन हतप्रभ ज्यों ढाक ।।१३।।
शुभ्र कान्ति शशि पूर्ण समान ।
लांघे तुम गुण तीन जहान ।।
रोके किसके वश की बात ।
सिर पर जिसके तेरा हाथ ।।१४।।
छोड़ बाण पहुपन सुर-नार ।
मन तुम जगा न सकीं विकार ।।
भले प्रलय झंझा ले घेर ।
जग डग-मगे, न डिगे सुमेर ।।१५।।
तेल बिना, बाती बिन धूम ।
अंधर तले न लौं झुक झूम ।।
एक प्रकाशक लोक अलोक ।
दीप अगम तुम मारुत झोंक ।।१६।।
राहु अगम्य न साँझ विलीन ।
युगपत् जगत् प्रकाशित तीन ।।
दल बल बादल सके न झाँप ।
सूरज आप अपूर्व प्रताप ।।१७।।
दलित मोह तम, उदित सदैव ।
विगत मेघ गत राहु फरेब ।।
शशि तुम और कमल-मुख कान्त ।
सकल प्रकाशित जगत् प्रशान्त ।।१८।।
क्या निशि शशि, दिवि रवि का काम ।
तमहर जब मुख आप ललाम ।।
फसल खड़ी होकर तैयार ।
धारें जलधर क्यों जल भार ? ।।१९।।
खास पास तुम ज्ञान-प्रदीव ।
भेद-ज्ञान ना और करीब ।।
यथा तेज मणि भले किरांच ।
किरणा-कुल ना टुकड़े काँच ।।२०।।
समुचित और देव गण दर्श ।
मन तुम देख समाया हर्ष ।।
लाभ भला क्या तुम्हें निहार ।
भाये और न किसी प्रकार ।।२१।।
जनमें सुत अनेक मां नेक ।
आप आप से मां सुत एक ।।
खाली कहाँ नखत दिश् चार ।
पूरब इक सूरज अव-तार ।।२२।।
भान तिमिरहर वर्ण सवर्ण ।
परम-पुरुष, इक त्रिभुवन शर्ण ।।
मेघ मृत्यु निरसक तुम पौन ।
और प्रदर्शक शिव पथ कौन ? ।।२३।।
अव्यय, आद्य, असंख्य, अचिन्त ।
विदित योग, योगीश्वर नन्त ।।
एक, नेक, संज्ञान, स्वरूप ।
हरि, हर, ब्रह्म, तुम्हीं शिवभूप ।।२४।।
अन्तर् रुख संवर्धक बुद्ध ।
शंकर सुख संवर्धक, शुद्ध ।।
किया विधाता ! मुक्ति विधान ।
पुरुषोत्तम युगपुरुष प्रधान ।।२५।।
नमो नमः हर त्रिभुवन पीर ।
नमो नमः भू-लोक अबीर ।।
नमो नमः भव जलधि जहाज ।
नमो नमः जग छतरिक राज ।।२६।।
आप पास गुण किया निवास ।
दोष न कहीं रहा अवकाश ।।
विविधाश्रित भर दोष गुमान ।
तकें स्वप्न भी तुम्हें न आन ।।२७।।
तर अशोक तर मूरत-क्षेम ।
शोभित देह आप अर-हेम ।।
निकट मेघ ले किरण प्रजाल ।
प्रकट भान अर अंधर काल ।।२८।।
खचित सिंहासन रत्न विचित्र ।
देह विनिर्मित स्वर्ण पवित्र ।।
गूंजे धर्म अहिंसा तूर्य ।
उदित उदय गिरि मानो सूर्य ।।२९।।
ढुरें चॅंवर अर पहुपन कुन्द ।
तन तुम कंचन स्वर्ण सुगन्ध ।।
गिरे मेर गिर धार प्रपात ।
उछले शशि भा तट दिन-रात ।।३०।।
सुषमा छत्रत्-त्रय दुति चन्द ।
करे उपरि थित छवि रवि मन्द ।।
मिस झालर मुक्ता-फल दोल ।
कहें त्रिजग तुम एक अमोल ।।३१।।
स्वर गभीर दिश् इस-उस पूर ।
जय सद्धर्म राज जिन सूर ।।
दुन्दुभि कीरत आप बखान ।
शुभ संगम सुर, उरग, पुमान ।।३२।।
सुन्दर, पारिजात, मंदार ।
पुष्प वृष्टि कृत अमर-उदार ।।
झिर गन्धोदक मन्द समीर ।
भाँति वचन तुम दिव्य गभीर ।।३३।।
उत्तर, दक्षिण, पश्चिम, पूर्व ।
भामण्डल भा विजित अपूर्व ।।
लिये तेज रवि कोटिक संख ।
सौम्य सुशीतल अपर मयंक ।।३४।।
स्वर्ग मोक्ष दिखलाये पन्थ ।
धर्म सिखाये गृहि निर्ग्रन्थ ।।
धुनि तुम दिव्य लिये गहराव ।
सब भाषा परिणमन स्वभाव ।।३५।।
कान्त प्रफुल्ल सरोज नवीन ।
भा नख शशि मन-हरण प्रवीण ।।
रखें आप पद समय-विहार ।
रचें देव दल कमल हजार ।।३६।।
जैसी तुम विभूति सर्वेश ।
पास न और समय उपदेश ।।
कहाँ और तारागण पास ।
जैसा दिनकर दिव्य प्रकाश ।।३७।।
मूल कपोल झिरे मद-धार ।
हुआ कुपित सुन अलि गुंजार ।।
गज ऐरावत ऐसा क्रूर ।
आप भक्त से रहता दूर ।।३८।।
दिये कुम्भ-थल नखन विदार ।।
भू-गज मुक्ताफल श्रृंगार ।
सिंह लथपथ मुख पंजे रक्त ।
कर न सके बिगाड़ तुम भक्त ।।३९।।
प्रलयी धका रही पवमान ।
छूने नभ जा करे प्रयाण ।।
विश्व निगलती ऐसी आग ।
बदले जल में तुम अनुराग ।।४०।।
श्याम कण्ठ कोकिल दृग् लाल ।
फैलाये फण कुपित कराल ।।
अहि दमनी तुम नाम प्रभाव ।
चले न सर्प एक भी दाव ।।४१।।
गज चिंघाड़ अश्व हुंकार ।
चौतरफ़ा बस हाहाकार ।।
ऐसा जाँ-लेवा संग्राम ।
ले, लेते तुम नाम विराम ।।४२।।
गज भालों से लहू-लुहान ।
रुधिर नदी में उठे उफान ।।
अरि ऐसा दुर्जेय दुरन्त ।
मित्र बने जप तुम्हें तुरन्त ।।४३।।
घड़ियालों का फैला जाल ।
उठती हा ! बडवानल ज्वाल ।।
लहर भँवर वह पारावार ।
करे भक्त तुम बल-भुज पार ।।४४।।
मार कुण्डली बैठे रोग ।
मानो तलक मरण संयोग ।
लेते ही औषध तुम नाम ।
सब रोगों का काम तमाम ।।४५।।
जकड़े सॉंकल कण्ठर-पाँव ।
रिसते जंघा, कंधे घाव ।।
लिया नाम क्या आप प्रशस्त ।
खुलते बन्धन आप समस्त ।।४६।।
संकट ऐसे और अनेक ।
मस्तक आप चरण में टेक ।।
पलक न झाँपी, भागें दौड़ ।
मुड़ के कभी न देखें और ।।४७।।
गूँथी शगुन आप गुणमाल ।
वरन वरन चुन सुमन संभाल ।।
जे धारें इसको निज कण्ठ ।
मान-तुंग परसें निष्कण्ट ।।४८।।
Sharing is caring!