भक्ता-मर-स्तोत्र ५७
जिनके नख दर्पण में भाई ।
मुकुट-बद्ध मुख शतक दिखाई ।।
वे जग तीन, अकेले स्वामी ।
सेवक ! बना रखें अनुगामी ।।१।।
शस्त्र सुसज्जित देवों द्वारा ।
जिनका अभिनन्दित जय कारा ।।
पार उतारन भव जल नैय्या ।
करें हमारे ऊपर छैय्या ।।२।।
ध्यायें बुध मन थिर इक करके ।
पाद-पीठ तुम मस्तक धर-के ।।
ऐसे तुम, मैं बालक नन्हा ।
थति तुम करना काले पन्ना ।।३।।
गुण तुमरे गा सका कौन है ।
सुर-गुरु भी जब लिया मौन है ।।
एक भक्त वत्सल तुम जग में ।
संस्थित करो हमें शिव-मग में ।।४।।
बचपन से मति मेरी मोटी ।
ऊपर से मति मेरी खोटी ।।
फिर भी गूँथूँ तुम गुण माला ।
कारज पुण्य कराने वाला ।।५।।
हँसी उड़ायेंगे बुध मेरी ।
प्रेरित करे भक्ति पर तेरी ।।
तभी करूँ जिनपति तुम पूजा ।
और न भक्त सहाई दूजा ।।६।।
आये पाप बँधे भव-भव से ।
आप आप छूटें तव-थव से ।।
तभी करूँ बस यजन आप का ।
और न हो आ-गमन पाप का ।।७।।
संस्तुति बेड़ा पार लगाई ।
ऐसा सुन, थुति आप रचाई ।।
आप धाम-शिव नाम किया है ।
तभी शाम तव नाम लिया है ।।८।।
रहे दूर गुण संस्तव थारा ।
अरुक-अथक सुर-गुरु विस्तारा ।।
व्यथा-कथा भी तुम हर लेती ।
अता पता नहिं लगने देती ।।९।।
होता निमिष न तुम्हें सुमरते ।
सुनते तुम समान खुद करते ।।
रस-पारस तुम आगे झूठा ।
थुति तुम पारस-पर्श अनूठा ।।१०।।
एक तुम्हारा साँचा द्वारा ।
दर्शन तुम निरसन भवकारा ।।
और दिलाते सिर्फ दिलासा ।
एक आप पूरण अभिलाषा ।।११।।
रूप आपका सुन्दर जैसा ।
कहाँ तीन जग अन्दर वैसा ।।
चन्दर-चन्दन दाग-नाग-से ।
सदा परेशां भान-आग से ।।१२।।
सुर-नर-नाग मान अपहारी ।
अनुपमेय तुम मुख अविकारी ।।
विरच आप मुख समेत काया ।
बचे द्रव्य से चाँद बनाया ।।१३।।
गुण-अनन्त ! जो तुम्हें सुमरते ।
निर्भय देव समान विचरते ।।
देखें उन्हें बलाएँ डरतीं ।
देखें उन्हें कलाएँ वरतीं ।।१४।।
शर-कटाक्ष ले सुर-तिय आईं ।
अचल आप मन डिगा न पाईं ।।
घुटने टेक झुका फिर माथा ।
चलीं भक्त भगवन् ले नाता ।।१५।।
जगत प्रकाशित करने वाले ।
आप अलौकिक दीप निराले ।।
नाम न निशाँ धूम का भाई ।
दीपक तले न तिमिर दिखाई ।।१६।।
आखर आप प्रभाकर न्यारे ।
पाप शर्बरी नाशन-हारे ।।
लख भवि पद्म तुम्हें खिल जाते ।
तभी भक्त-वत्सल कहलाते ।।१७।।
आप पूर्णिमा वाले चन्दा ।
सिन्धु-भविक इक प्रद आनन्दा ।।
न सिर्फ छिन, दिन रात अकेले ।
मेंट रहे पन-पाप अंधेरे ।।१८।।
दूर उठाना-नजर तुम्हारा ।
मुख हरने वाला अँधियारा ।।
कान्ति मान ही भान दूसरा ।
सौम्य सोम भी मान दूसरा ।।१९।।
देव ! पास तुम जो प्रभाव है ।
उसका औरों में अभाव है ।।
उर-सर भाँति विराजो हंसा ।
कौन सिवा-तुम पूरण मन्शा ।।२०।।
दर्पण जैसा दर्शन तेरा ।
मेंटे पाप कलंक घनेरा ।।
मन पावन क्या आप समाये ।
भर दामन खुशियों से जाये ।।२१।।
अद्भुत माँ-बेटे का नाता ।
बड़ी भागशाली वह माता ।।
जिसने जन्म दिया है तुम को ।
तुमने ‘दिया’ दिखाया हम को ।।२२।।
आप नाम जो सुमरण करते ।
आप शाम वो सु-मरण वरते ।।
पाप घातने भीतर जाऊँ ।
आप भाँत मैं भी-तर जाऊँ ।।२३।।
बुद्ध, ब्रह्म, क्या विष्णु, महेशा ।
ख्यात नाम अर देश विदेशा ।।
सभी आप गुण तथा नाम हैं ।
सिवा आप क्या चार धाम हैं ।।२४।।
बुद्ध प्रबुद्ध सु-बुद्धि प्रदाता ।
कृत विधान शिव पन्थ विधाता ।।
शंकर ! कर देते सुखिया हो ।
पुरुषोत्तम, सुनु-मनु मुखिया हो ।।२५।।
विपदा-हरण आप की जय हो ।
जगदा-भरण आप की जय हो ।।
जय हो जय हो त्रिभुवन शरणा ।
जय हो जय हो तारण तरणा ।।२६।।
प्रभो आपके सद्-गुण उतने ।
है सागर में जल-कण जितने ।।
दोष कोश हाँ होगा कोई ।
इक निर्दोष जगत् तुम दोई ।।२७।।
पुण्य उदय तरु अशोक आया ।
करे घनी तुम ऊपर छाया ।
यथा नाम गुण तथा हुआ है ।
जब से पद जुग आप छुआ है ।।२८।।
मनहर सिंहासन सोने का ।
पार्श्व खचित मणि रत्न अनेका ।।
दल सहस्र तिस ऊपर साजे ।
थिर पद्मासन आप विराजे ।।२९।।
निर्मल जैसे गंगा धारा ।
चौंसठ वैसे चँवरों द्वारा ।।
देवों के मिल अधिपति सारे ।
अर्चन करें, लगा जयकारे ।।३०।।
राज त्रिजग इक छत्र प्रमाणा ।
छत्रत्-त्रय शशि कान्ति समाना ।।
जिन्हें रत्न झालर-कुल घेरे ।
घूम रहे प्रभु ऊपर तेरे ।।३१।।
बाजे नभ सुर गभीर भेरी ।
जय जय कार करे इक तेरी ।।
कहे यहाँ शिव नाव खिवैय्या ।
और अभी खाली शिव नैय्या ।।३२।।
बरसे गन्धोदक गद-हारी ।
बहे पवन धीमी गुण-कारी ।।
दिव्य नव्य पुष्पों की बरसा ।
देख जिसे मन कौन न हरषा ।।३३।।
अनगिन सूरज भी जिस आगे ।
लगते फीके-से हत-भागे ।।
रुतवा भा-मण्डल का इतना ।
फिर क्या तन-मण्डल का कहना ।।३४।।
नाव स्वर्ग शिव खेने वाली ।
राज हंस मति देने वाली ।।
दिव्य अलौकिक तेरी वाणी ।
सहज जिसे समझें सब प्राणी ।।३५।।
अवसर तव विहार जब आता ।
दल देवों का कमल बिछाता ।।
अंगुल चार अधर पग धरते ।
रख-‘कर-चार’ नजर पग धरते ।।३६।।
विभव आप का अद्भुत जैसा ।
वैभव और न त्रिभुवन वैसा ।।
दिन-तारक में तेज महा जो ।
तारक-गण में तेज कहाँ वो ।।३७।।
मद हाथी का लगता कँपने ।
‘मनके’ नाम आप बस जपने ।।
कर से फूल माल पहरा के ।
करे नमन गज सूड़ उठा के ।।३८।।
लाल लाल दृग् मानो शोला ।
सुन गर्जन मन दिग्-गज डोला ।।
लख ऐसा सिंह बढ़ते आते ।
भक्त तुम्हारे भय नहिं खाते ।।३९।।
झपटे जन-धन ग्रास बनाने ।
लपटें लगी गगन बतियाने ।।
पा यूँ आग नाम तुम पानी ।
रुख ले मोड़, छोड़ मनमानी ।।४०।।
खड़ा पूँछ-पे फणा उठाये ।
फुन्कारे भू-गगन डुलाये ।।
सम्मुख नाग भयंकर भारी ।
करे-पार तुम नाम-पुजारी ।।४१।।
तान भृकुटियाँ आँख दिखाये ।
हद उलाँघ बढ़ता ही आये ।।
रण अजेय पर-चक्र पलक में ।
आप भक्त के होता हक में ।।४२।।
शत्रु शक्तिशाली हा ! ज्यादा ।
करने रक्त पात आमादा ।।
भक्त आपका बाजी मारे ।
जोधा देखे दिन में तारे ।।४३।।
पवन-प्रलय जिसको झकझोरे ।
जहाँ न मच्छ-मगर हैं थोड़े ।।
सागर ऐसा अपरम्पारा ।
ले भुजबल तिर भक्त तुम्हारा ।।४४।।
रोग प्राण-लेवा आ कोई ।
आँखें भिंजा रहा हा ! दोई ।।
लेते ही तुम नाम दवाई ।
लेता अपने आप बिदाई ।।४५।।
नख-शिख बन्धन श्रृंखल वाला ।
छाया तम कारा-गृह काला ।।
नाम आप-भर लेता जाये ।
बाहर कारा आ दिखलाये ।।४६।।
ऐसी और और बाधाएँ ।
देख तुम्हें थर-थर कँप जायें ।।
पग उलटे फिर भागें ऐसे ।
देख मोर अहि-काले जैसे ।।४७।।
भक्तामर यह गौरव गाथा ।
कण्ठ इसे भवि जो पधराता ।।
भोग-भोग वो स्वर्गिक सारे ।
करे पहुँच शिव वारे न्यारे ।।४८।।
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