भक्ता-मर-स्तोत्र ५६
सुर सविनत मणि मुकुट कान्ति उद्योत ।
सघन तिमिर पन पाप मिटावन ज्योत ।।
आदि पतित भव-जल इक तारणहार ।
वन्दन तिन्हें समर्पित कर शत-बार ।।१।।
सकल वाङ्मय तत्त्व बुद्धि सम्पन्न ।
सुरपति वह सौधर्म ऋद्धि सम्पन्न ।।
करे भक्ति साँझन कुछ अलग विशेष ।
मैं भी जजूँ तिन्हें वे आदि जिनेश ।।२।।
मैं अबोध तुम बुध वन्दित पद-पीठ ।
फिर भी रचूँ, थवन तव मैं बन ढ़ीठ ।।
जल में शशि प्रति-बिम्ब पड़ा निशि आन ।
छूने दौड़ा कौन छोड़ नादान ।।३।।
शशि गुण सिन्ध ! आप कह सकता कौन ।
सुर गुरु पहले ही ले बैठे मौन ।।
कौन भुजाओं से पहुँचा उस-पार ।
भँवर मगर जिस पारावार अपार ।।४।।
शक्ति बिना विरचूँ थुति तुम मुनि-नाथ ।
प्रेरित करे मुझे तुम भक्ति बलात् ।।
कारण शिशु पालन हिरणी अविचार ।
निर्बल भले करे सिंह ऊपर वार ।।५।।
हँसी उड़ायेंगे बुध मैं मति-मन्द ।
भक्ति कराये पर थुति तुम अनुबन्ध ।।
कोकिल छेड़े तान, तान सिर-मौर ।
और न कारण, सिर्फ आम्र-वन बौर ।।६।।
तव संस्तव भो ! आशुतोष-अविनाश ।
चिर संचित पापों का करे विनाश ।।
फैला मानस अंधकार घन-घोर ।
करे पलायन, झलक पलक लख भोर ।।७।।
मैं मानूँ भगवन् ! पा आप प्रसाद ।
थुति यह मनहर होगी पूर्ण-मुराद ।।
पड़ बूँदें जल जैसे कमलन पात ।
चमचम चमकें मुक्ता फल के भाँत ।।८।।
नख-शिख थव निर्दोष रहे तव दूर ।
आप कथा भी पाप करे चकचूर ।।
सूरज गगन भिजा भुवि रश्मि प्रजाल ।
भर देता सर कमल जाग तत्काल ।।९।।
इसमें अचरज करने की क्या बात ।
भक्त आप कर लेते अपने भाँत ।।
लाभ भला क्या करके उसकी सेव ।
निर्धन ही जो रखता बना सदैव ।।१०।।
एक बार लें तुम्हें देख भर नैन ।
और कहीं भी पाते ना फिर चैन ।।
मीठे जल की हाथ लगी जब राह ।
खारे जल की रही किसे फिर चाह ।।११।।
परमाणुक वे उतने ही परिमाण ।
हुआ आप तन का जिनसे निर्माण ।।
आप आप सा अद्भुत और अनूप ।
जैसा आप न वैसा तिहुजग रूप ।।१२।।
जिसे सभी उपमाएँ देती ढ़ोक ।
कहाँ आपका मुख मनहर तिहुँ लोक ।।
कहाँ चन्द्र मण्डल कलंक जिस पास ।
दिन में वैसे, जैसे लगे पलाश ।।१३।।
शगुन आप-गुण पूरणमासी चाँद ।
अखिल विश्व सीमाएँ रहे उलाँघ ।।
विचर रहे मनमाने लोक अलोक ।
टोक न पाया, कोई उन्हें न रोक ।।१४।।
पुष्प बाण ले सुर-तिय आईं पास ।
अपने पाश न तुमको पाईं फांस ।।
भले पवन ले प्रलय काल की घेर ।
डिगा जरा भी पाये कहाँ सुमेर ।।१५।।
तूफाँ करे न, जाँ से जिसकी खेल ।
धुँआ रहित जो बाती विरहित तेल ।।
आप अनोखे ऐसे दिव्य प्रदीव ।
जगत् प्रकाशित करते तीन सदीव ।।१६।।
दूर ओट घन, गिरहण राहु सुदूर ।
अलि अन्धर, पल अन्दर करते चूर ।।
खिलते कमल भविक मन तुमको देख ।
आप अनोखे ऐसे सूरज एक ।।१७।।
गिरहण राहु सुदूर, दूर घन ओट ।
अस्त न होना जिसे, न जिसमें खोट ।।
उमड़े सिन्धु भविक मन लख तुम-रूप ।
इन्दु अनोखे ऐसे तुम शिव-भूप ।।१८।।
निशि में शशि, क्या दिन में रवि का काम ।
मुख तव करे तिमिर जब काम तमाम ।।
खेत फसल लहलहा रही चहुओर ।
लाभ भला क्या ? क्यों बरसें घन घोर ।।१९।।
जैसा पास आपके सम्यक् ज्ञान ।
वैसा और न पास भेद-विज्ञान ।।
मणि रत्नों का जैसा दिव्य प्रकाश ।
किरणाकुल भी कहाँ काँच के पास ।।२०।।
समुचित ही जो देखे दूजे देव ।
तुमसे हो अनुराग गया स्वयमेव ।।
तुम्हें देखना गया किन्तु बेकार ।
पाँखी पोत भाँत लौटा मन हार ।।२१।।
जन्म दे रहीं माएँ अनगिन लाल ।
कहाँ पुत्र पर, तुम सा उन्नत भाल ।।
नक्षत्रों से भरा पड़ा आकाश ।
गौरव सूर्योदय पर पूरब पास ।।२२।।
परम पुरुष इक माने तुम्हें मुनीश ।
हर अन्धर ! आदित्य ! नित्य ! आदीश ।।
चर्चित जग-दर्चित ! मृत्युंजय नाम ।
तुम्हीं नेक इक पधराते शिव धाम ।।२३।।
तुम असंख्य ! अव्यय ! अचिन्त्य ! विभु ! नन्त ।
एक ! अनेक ! अनंग-केत ! पुरु ! सन्त ।।
ईश्वर ! योगीश्वर ! विद्-जोग जिनेश ।
आदि-ब्रह्म ! हरि ! ज्ञान स्वरूप महेश ।।२४।।
जगत ! विबुध अर्चित इक तुम्हीं प्रबुद्ध ।
जगत् क्षान्तिकर शंकर तुम्हीं विशुद्ध ।।
तुम्हीं विधाता पथ-शिव किया विधान ।
देह चरम परमोत्तम तुम्हीं पुमान ।।२५।।
नमो नमः जगदापद हरण प्रवीण ।
नमो नमः इक परमेश्वर जग तीन ।।
नमो नमः संपोषक जग श्रृंगार ।
नमो नमः शोषक भव पारावार ।।२६।।
गुण-गण मिला न और कहीं अवकाश ।
तभी सभी दौड़े आये तुम पास ।।
दोष विविध आश्रित हो मद में चूर ।
रहें स्वप्न भी तुमसे कोसों दूर ।।२७।।
विरले वृक्ष अशोक तले छविवन्त ।
किरणोन्नत तुम रूप अनूप भदन्त ।।
दिपै मनोहर निकट पयोधर भान ।
तिमिर मदिर-चिर काल चीरता मान ।।२८।।
रत्न खचित सिंहासन ऊपर आप ।
वर्ण सुवर्ण विराजे वपु निष्पाप |।
उदयाचल से मानो किरण समेत ।
उदित भान-भवि पंकज विकसन हेत ।।२९।।
अमर ढ़ोरते चमर पुष्प सित कुन्द ।
वर्ण सुवर्ण आप तन स्वर्ण सुगन्ध ।।
झर झर झरती सुमेर निर्झर धार ।
मानो चन्द्र प्रभा सी जनमन-हार ।।३०।।
भासे शशि भा से छत्रत्-त्रय आप ।
करते हतप्रभ रश्मि सहस्र प्रताप ।।
बोलें ढुल झालर मुक्ताफल नेक ।
तीन तीन जग परमेश्वर तुम एक ।।३१।।
जन-त्रिभुवन सम्पद शुभ संगम दक्ष ।
कहें विराजे यहाँ धर्म अध्यक्ष ।।
नभ गभीर बाजे दुंदुभि दिश् चार ।
लगा अहिंसा धर्म सत्य जयकार ।।३२।।
गन्धदार मन्दार सु-पारजात ।
आद-आद इन पुष्पों की बरसात ।।
साथ वृष्टि-गन्धोदक, मन्द बयार ।
पंक्ति बद्ध तुम पंक्ति शब्द अवतार ।।३३।।
भा-मण्डल तुम विभा विभो ! अक्षीण ।
करे भुवन द्युति उपमावन छवि क्षीण ।।
कोटिक सूर्य प्रताप, न पै आताप ।
जीत रहा छवि सौम्य सोम भी आप ।।३४।।
एक प्रदर्शक स्वर्ग मोक्ष सद्पन्थ ।
उपदेशक सद्धर्म गृहस्थ महन्त ।।
दिव्य ध्वनि तुम लिये अर्थ गहराव ।
भाषा आप आप परिणाम स्वभाव ।।३५।।
पुलकित नूतन शतदल कमल प्रसून ।
नख शशि करते आभा जिनकी दून ।।
जहाँ आप पद रखते दिव्य ललाम ।
वहाँ कमल जा रचते सुर अभिराम ।।३६।।
तुम विभूति जिन जैसी पल-उपदेश ।
दिखी न वैसी और कहीं लव-लेश ।।
तेज दिवा-कर में जैसा भर-पूर ।
कहाँ भाग तारागण वैसा नूर ।।३७।।
मद के झरने जिसके मूल कपोल ।
छेड़ें जिसे विहरते शिलिमुख बोल ।।
क्रोधित गज ऐरावत दूजा काल ।
कर न सका बाँका तुम-भक्तन बाल ।।३८।।
गण्डस्थल करके गज लोहु-लुहान ।
गज मुक्ता चादर दी जिसने तान ।
बढ़ा चला आये सिंह मार दहाड़ ।
कर पाये कब भक्तन आप बिगाड़ ।।३९।।
थाम हाथ बढ़ रही वायु कल्पान्त ।
नहीं सिन्धु जल से भी होगी शान्त ।।
दावानल वो निगला चाहे लोक ।
आप भक्त आगे आ देती ढ़ोक ।।४०।।
फणा उठाये, हो क्रोधित विकराल ।
समद कण्ठ कोकिल काला, दृग्-लाल ।।
ऐसा सर्प न उसका करे विघात ।
नाम-नाग दमनी तुम जिसके साथ ।।४१।।
जहाँ अश्व हुँकार, दन्ति चिंघाड़ ।
शूर सैन्य मिस रही मृत्यु मुख फाड़ ।।
हार सुनिश्चित हा ! दुर्गम संग्राम ।
पल में दे पलटा पाँसे तुम नाम ।।४२।।
बहे रक्त गज, हा ! भालों की मार ।
आतुर शूर रुधिर जल करने पार ।।
अरि दुर्जेय, सहज लेते वह जीत ।
जिन्हें घनी तुम पद-पकंज से प्रीत ।।४३।।
छिलती मगर मगर आपस में पीठ ।
उठती लहर भंवर ही तो भी ठीक ।।
वडवानल भी ऐसा सिन्धु गभीर ।
यान नाम तुम पर्श, दे लगा तीर ।।४४।।
जन्मा रोग न जिसका कहीं निदान ।
जाने वाला नाँहि लिये बिन प्राण ।।
आप जलज पद-रज मलते ही माथ ।
रोग विदाई लेते हाथों हाथ ।।४५।।
हों साँकल से जकड़े आंगोपांग ।
छिले जा रहे कंधे घुटने जाँघ ।।
आप नाम जपते ही मनके-माल ।
खुल जाते बन्धन सारे तत्काल ।।४६।।
और और भी ऐसे कष्ट अनेक ।
तुम चरणों में मस्तक अपना टेक ।
छू-मन्तर हो जाते अपने आप ।
मोर शोर सुन जैसे चन्दन साँप ।।४७।।
चुन-चुन विविध वर्णमय पुष्प संभाल ।
की तैयार गूँथ ये तुम गुण माल ।।
जो इसको धारण करते भवि कण्ठ ।
मान तुंग श्री शिव पाते निष्कण्ट ।।४८।।
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