भक्ता-मर-स्तोत्र ५५
इन्द्र शतक आभरणों में ।
खड़ा मुकुट रख चरणों में ।।
एक आदि जुग अवलम्बन ।
टेक माथ तिन जुग चरणन ।।१।।
पार सार श्रुत अधिकारी ।
रचे इन्द्र थुति मनहारी ।।
जग आराध्य प्रथम भगवन् ।
करूँ उन्हीं का मैं सुमरण ।।२।।
बुध-नुत पाद-पीठ थारी ।
नाहक थुति तुम तैयारी ।।
शशि प्रतिबिम्ब पकड़ने जल ।
कौन, छोड़ शिशु देता चल ।।३।।
शशि भा-से तुम गुण सागर ।
थके देव-गुरु भी गाकर ।।
मगर सिन्धु वह जल धारा ।
पार कौन भुजबल द्वारा ।।४।।
चढ़ा रंग तुम भक्ति घना ।
करुँ थवन तुम शक्ति बिना ।।
भिड़ी जा मृगी पंचानन ।
कारण निज शिशु परिपालन ।।५।।
चल देंगे हँस धी-धारी ।
भक्ति धकाये पर थारी ।।
बोल हुये मिसरी कोयल ।
हेत आम्र-उपवन कोंपल ।।६।।
तुम्हें बिठाते ही उर में ।
पाप पलायें पल भर में ।।
भँवरे सा निशि अंधियारा ।
किरण एक सूरज हारा ।।७।।
थुति यह पा थारी करुणा ।
होगी मन जन-जन हरणा ।।
पड़ीं दल-कमल बूँदें जल ।
भाँत चमकतीं मुक्ताफल ।।८।।
थुति सुदूर तुम अविकारी ।
पुण्य-कथा भी दुखहारी ।।
दूर दिवाकर अम्बर में ।
कमल खिल उठें सरवर में ।।९।।
करते-करते तुम सुमरण ।
तुम सा पा लेते गुण-धन ।।
सेवक करे धनी ना जो ।
हो कुछ भले धनी ना वो ।।१०।।
देख तुम्हें जो जाता है ।
और न उसे लुभाता है ।।
पी कर मीठा प्याला जल ।
कौन चाहता खारा जल ।।११।।
भुवि परमाणु दिव्य उतने ।
देह रचे तुम, बस इतने ।।
तभी रूप जैसा थारा ।
और न जग वैसा प्यारा ।।१२।।
कहाँ आपका मुख सुन्दर ।
सुर, नर, नाग नयन मनहर ।।
माथे शश कंलक टीका ।
दिन पलाश जैसा फीका ।।१३।।
शुभ्र चाँदनी गुण थारे ।
जग लाँघे जितने सारे ।।
कौन रोकने वाला है ।
सर पे हाथ तुम्हारा है ।।१४।।
ललनाएँ छलने आईं ।
रंच न तुम्हें ड़िगा पाईं ।।
प्रलय-पवन ले जोर चले ।
मेरु न विचलित और भले ।।१५।।
तेल, वर्तिका, धुआँ नहीं ।
ज्योत कौन जग छुआ नहीं ।।
झोंका बुझा न सके पवन ।
दीप अनोखे तुम भगवन् ।।१६।।
अस्त न कभी मेघ छाता ।
राहु न ग्रास बना पाता ।।
किया अँधेरा त्रिभुवन गुम ।
दिव्य दिवाकर भगवन् तुम ।।१७।।
सदा उदित, तम मोह दले ।
मेघ ढ़के न राहु निगले ।।
रोशन करे विश्व सारा ।
मुख सरोज शशि तुम न्यारा ।।१८।।
रवि-शशि क्यों नाहक आते ।
नयना तुम तम विघटाते ।।
खेत पके लहलहा रहे ।
शोर मेघ क्यों मचा रहे ? ।।१९।।
‘भी’तर आप ज्ञान जैसा ।
और न भेद ज्ञान वैसा ।।
जैसा पास प्रकाश रतन ।
कहाँ काँच आकुलित-किरण ।।२०।।
समुचित ही दर-दर भटका ।
मनवा आ’दर तुम अटका ।।
देख तुम्हें न लाभ निकला ।
पंछी पोत खिताब मिला ।।२१।।
माँ शिशु लिखा भाल लायें ।
तुम सा कहॉं लाल पायें ।।
दिश्-दिश् तारे अनगिनती ।
सूरज इक पूरब जनती ।।२२।।
और कौन पुरुषोत्तम तुम ।
भाँत भान करते तम गुम ।।
तुम मृत्युंजय कर देते ।
मोक्ष उठा तुम धर देते ।।२३।।
अव्यय तुम विभु ! अचिन्त्य तुम ।
असंख्य तुम पुरु ! अनन्त तुम ।।
हरि, हर, ब्रह्मा, योगीश्वर ।
एक, नेक, ज्ञानी, ईश्वर ।।२४।।
शंकर सौख्य प्रदाता तुम ।
प्रद शिव-पन्थ विधाता तुम ।।
विबुध समर्पित बुद्ध तुम्हीं ।
नरसिंह एक प्रसिद्ध तुम्हीं ।।२५।।
नमो नमः आपदा-हरण ।
नमो नमः क्षिति तला-भरण ।।
नमो नमः कलयुग शरणा ।
नमो नमः भव-जल तरणा ।।२६।।
आदर और न पाये गुण ।
आ निवसे उर आप शगुन ।।
दोष और छोड़ें तो पल ।
स्वप्न आप आये तब चल ।।२७।।
ऊँचे तरु अशोक नीचे ।
खोले दृग् कुछ-कुछ मींचे ।।
भासे तुम जैसे दिनकर ।
प्रकटा निकट मेघ तमहर ।।२८।।
खचित रतन मणि सिंहासन ।
अधर आपका तन कंचन ।।
भासे उदयाचल निकला ।
हर अन्धर सूरज विरला ।।२९।।
कुन्द-पुष्प से चारु चँवर ।
देह समान सुवर्ण अवर ।।
गिर सुमेर निर्झर झरता ।
तट शशि भा उछले लगता ।।३०।।
तीन छत्र झालर वाले ।
और पून शशि उजियारे ।।
रवि प्रतापहर, थित ऊपर ।
कहें आप इक परमेश्वर ।।३१।।
रव दश-दिश् गभीर फैला ।
शुभ संगम विभूति मेला ।।
जय सद् धर्मराज जय-जय ।
बाजे जश भेरी अक्षय ।।३२।।
नमेर, सन्तानक, सुन्दर ।
अविरल झिरें पुष्प अम्बर ।।
झिर गन्धोदक मन्द-पवन ।
खिरते आप अमन्द-वचन ।।३३।।
भामण्डल अतिशय कारी ।
मद द्युति उपमावन-हारी ।।
तेज कोटि सूरज जामें ।
शशि हतप्रभ शीतलता में ।।३४।।
नैय्या स्वर्ग-मोक्ष खेती ।
खोल नेत्र तीजा देती ।।
कल्याणी ऐसी वाणी ।
सहजो समझें सब प्राणी ।।३५।।
स्वर्ण नवल पंकज दमके ।
चाँद, बहाने नख चमके ।।
आप जहाँ पग रखते हैं ।
स्वर्ण कमल सुर रचते हैं ।।३६।।
समवशरण वैभव न्यारा ।
और न जग छाना सारा ।।
जिमि प्रकाश रवि तिमिर-हरण ।
विकसित पास न तारक गण ।।३७।।
मूल कपोल बने निर्झर ।
कोप बढ़ायें मत्त भ्रमर ।।
हाथी बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।३८।।
नख विदार गज कुम्भस्थल ।
श्रृंगारा मोती भू-तल ।।
मृग-पति बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।३९।।
छुये गगन बढ़ प्रलय पवन ।
चाह निगलना रख त्रिभुवन ।।
दावा बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४०।।
रक्त नयन कोकिला बदन ।
उठा फणा उगले विष कण ।।
मणिधर बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४१।।
सैन्य अश्व गज आवाजें ।
दूजे प्रलय मेघ गाजें ।।
अरि-कुल बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४२।।
गज-तन बना लहू झरना ।
रुधिर नदी चाहे तरना ।।
जोधा बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४३।।
जल-किरात, अजगर, कर्कट ।
गोधा, माही, जल-मर्कट ।।
जल-चर बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४४।।
पाण्डु, जलोदर, हृदयामय ।
पित्त-शूल-कफ आमय-क्षय ।।
गद-कुल बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४५।।
तंत्र-मंत्र कारा-साया ।
मूठ, धूलमोहन माया ।।
बन्धन बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४६।।
गज, भुजंग, सिंह, दावानल ।
रण, बन्धन, गद, वड़वानल।।
भय-कुल बढ़ा कदम आये ।
नाम लिया तुम थम जाये ।।४७।।
वर्ण सुमन महकाई चुन ।
यह गुणमाल रचाई सुन ।।
सदा कण्ठ जे धारेंगे ।
शिव निष्कण्ट पधारेंगे ।।४८।।
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