भक्ता-मर-स्तोत्र ५३
सुर उर प्रमोद ।
तम विहर ज्योत ।।
जुग आदि पोत ।
लो उठा गोद ।।१।।
नित निरत सेव ।
सिर-मौर देव ।।
वन्दूॅं सदैव ।
जिन देव-देव ।।२।।
बुध वक्र खीर ।
थव-तव गभीर ।।
हित चाँद नीर ।
बस शिशु अधीर ।।३।।
गुण आप भाष ।
सुर-गुरु निराश ।।
असफल प्रयास ।
तट नीर-राश ।।४।।
दे रति तुम्हार ।
थुति तव प्रभार ।।
रत सिंह प्रहार ।
मृग हित कुमार ।।५।।
तव-थवन दौड़ ।
बल भक्ति तोर ।।
पिक चित्त-चौर ।
इक हेत बौर ।।६।।
तुम नाम जाप ।
दे मेंट पाप ।।
तम, तर-प्रलाप ।
लख रवि प्रताप ।।७।।
पद रज अबीर ।
तव थवन तीर ।।
दल-कमल नीर ।
मोतियन झील ।।८।।
जप पाप चूर ।
तव थव सुदूर ।।
रवि भले दूर ।
प्रद पद्म तूर ।।९।।
भवि किया तथा ।
तुम गुणी यथा ।।
नहिं सुने व्यथा ।
धनवान वृथा ।।१०।।
तुम पद निहार ।
दृग् और भार ।।
पा दुग्ध धार ।
कब रुचा क्षार ।।११।।
माटी बखूब ।
तुम रचा डूब ।।
तुम सा अनूप ।
दूजा न रूप ।।१२।।
तुम मुख ललाम ।
नयनाभि-राम ।।
शशि दाग चाम ।
दिन हास-धाम ।।१३।।
गुण प्रभा चन्द ।
विचरें स्वछन्द ।।
को ? रोक-वन्त ।
जब आप कन्त ।।१४।।
तिय नेत्र तीर ।
नहिं तुम अधीर ।
कब लय-समीर ।।
प्रद मेरु पीर ।।१५।।
बाती न तेल ।
जग तीन केल ।।
गत वात खेल ।
दीवा अकेल ।।१६।।
गत राहु ग्रास ।
गत मेघ पाश ।।
प्रद जग प्रकाश ।
रवि कान्त-राश ।।१७।।
गत राहु ग्राह ।
गत मेघ छाह ।।
भवि विहर दाह ।
शशि दूज राह ।।१८।।
तुम चन्द्र-भान ।
ले कर प्रयाण ।।
पक खड़ी धान ।
घन वृथा-गान ।।१९।।
जग और बाल ।
मति तुम मराल ।।
कब काँच चाल ।
ज्यों मणि प्रवाल ।।२०।।
देखा सराग ।
तुम हुआ राग ।।
हा ! सूर्य आग ।
चन्द्रमा दाग ।।२१।।
माँ नार खूब ।
तुम सुत बखूब ।।
तारक अपूर्व ।
माँ भानु-पूर्व ।।२२।।
वर-नर ! भदन्त ! ।
तम-हर ! अनन्त ! ।।
अवलम्ब अन्त ।
प्रद मोक्ष-पन्थ ।।२३।।
विभु ! काम-केत ।
अवगम समेत ।।
पुरु ! आद्य ! एक ! ।
ईश्वर ! अनेक ।।२४।।
इक ! शुद्ध ! बुद्ध ।
शंकर ! विशुद्ध ! ।।
हर ! ब्रह्म ! सिद्ध ! ।
नर-सिंह ! प्रसिद्ध ।।२५।।
हर भुवन पीर ।
त्रिभुवन अबीर ।।
जै गुण गभीर ।
भव सिन्धु-तीर ।।२६।।
गुण सकल जोड़ ।
गत आप होड़ ।।
दें और छोड़ ।
बद तकें तोर ।।२७।।
नहिं और लोक ।
तन तर अशोक ।।
रवि, तिमिर सोख ।
घन निकट, ढ़ोक ।।२८।।
सिंहासनेक ।
तन स्वर्ण नेक ।।
रवि लिखे लेख ।
गिरि उदय देख ।।२९।।
चामर सलील ।
कंचन शरीर ।।
तट मेर नीर ।
झरना सुनील ।।३०।।
हर रवि प्रताप ।
त्रिक छतर आप ।।
झालर अलाप ।
विभु ! अपर आप ।।३१।।
जय धर्म-वीर ।
बिखरा अबीर ।।
नभ रही चीर ।
भेरी गभीर ।।३२।।
गुल भॉंत-भाँत ।
बरसात साथ ।।
कण-गंध वात ।
तुम वचन पॉंत ।।३३।।
भा-वलय आप ।।
भा-कुल विलाप ।
रवि-लख प्रताप ।
छवि शशि प्रमाप ।।३४।।
इक मुक्ति द्वार ।
इक तत्त्व सार ।।
धुनि ओम-कार ।
भाषा ‘स्व’ धार ।।३५।।
ना चॉंद दोज ।
तर, पद पयोज ।
रचते सरोज ।
सुर सयुत ओज ।।३६।।
समशरण यहॉं ।
जग और कहाँ ।।
रवि तेज महा ।
तारक न जहाँ ।।३७।।
गज मदा-सक्त ।
अल-कुपित मत्त ।।
भय यम प्रदत्त ।
तुम भक्त भक्त ।।३८।।
गज कुम्भ चूर ।
भुवि मणि प्रपूर ।।
सिंह यथा शूर ।
वशि जप हुजूर ।।३९।।
लय वायु कान्त ।
हा ! पुरु-उपान्त ।।
दव, दूर दान्त ।
तुम जप प्रशान्त ।।४०।।
दृग् रक्त, श्याम ।
विष रद तमाम ।।
अहि यथा वाम ।
वशि आप नाम ।।४१।।
रत मार-धाड़ ।
‘बल’ चीतकार ।।
हो शत्रु-हार ।
लें तुम पुकार ।।४२।।
शोणित प्रपात ।
अरि मुख-प्रसाद ।।
रण, करे-हाथ ।
तुम-भक्त नाथ ।।४३।।
घड़ियाल जाल ।
बड़वा कराल ।।
जल-यान धार ।
तुम नाम पार ।।४४।।
प्रद पीर-चूल ।
कफ-पित्त-शूल ।।
मेंटे समूल ।
तुम नाम धूल ।।४५।।
यम और दाम ।
छिल गई चाम ।।
बन्धन तमाम ।
हर आप नाम ।।४६।।
दुख और घोर ।
लें राह, छोड़ ।।
सुन नाम तोर ।
अहि यथा मोर ।।४७।।
गुल-वर्ण चार ।
गुण रचित हार ।।
भवि कण्ठ धार ।
निष्कण्ट पार ।।४८।।
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