परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
भक्ता-मर-स्तोत्र ५०
नत चरणन भक्त अमर सारे ।
मण मुकुट बन चले शशि-तारे ।।
रवि ! पाप अंधेरा हरते हैं ।
भवि हृदय बसेरा करते हैं ।।
भव-सिन्धु आदि इक अवलम्बन ।
शत-बार तुन्हें करके वन्दन ।।१।।
जल द्वादश-अंग पार पाया ।
शचि-पति वह स्वर्ग देवराया ।।
सपने जैसा जन-मन हारी ।
अपने जैसा अतिशयकारी ।।
सहजो संस्तव रचता धन-धन ।
जिन आद रचूॅं मैं भी संस्तवन ।।२।।
तुम पाद-पीठ बुध अर्चित है ।
बुध जीवन तुम्हें समर्पित है ।।
मति उर मेरे न रही विराज ।
थुति तुम तत्पर मैं छोड़ लाज ।।
शशि बिम्ब दिखाई जल देता ।
शिशु सिर्फ पकड़ने चल देता ।।३।।
गुण-सिन्धु ! न तुम ऐसे-वैसे ।
गुण धवल चाँदनी के जैसे ।।
कर सका कौन तुम गुण वर्णन ।
लौटाये सुर-गुरु ने चरणन ।।
बल-बाहुन तट किसने पाया ।
घड़ियाल जाल सागर छाया ।।४।।
कर बद्ध खड़ा, अँखियाँ मींचे ।
तव भक्ति बलात् मुझे खींचे ।।
कुछ शक्ति न फिर भी हूँ प्रवृत्त ।
थव तव मेरा अविचार्य-कृत्य ।।
सिंह भिड़े, भले अबला-हिरणा ।
निज शिशु जो परिपालन करना ।।५।।
‘भी‘तर-भीतर ही ! रोऊॅंगा ।
मैं पात्र हँसी का होऊँगा ।।
मैं मन्द-बुद्धि, जग बुद्धि-मन्त ।
तुम भक्ति, करे जिह्वा स्वछन्द ।।
मधु कूके कोयल बौराई ।
कारण वन-आम्र बौर-छाई ।।६।।
परछाई-से पीछे-पीछे ।
ना दें उठने, खींचें नीचे ।।
करते ही आप थवन भगवन् ।
छू होते अपने-आप विघन ।।
तम भँवरे सा काला गहरा ।
कब देख सका सूरज चेहरा ।।७।।
माना ओछी मति मेरी है ।
यह चूँकि संस्तुति तेरी है ।।
आलोचक मित्र बना लेगी ।
चुटकी में चित्त चुरा लेगी ।।
जल-बिन्दु दल-कमल जब होती ।
लगती तब, हो मानो मोती ।।८।।
जो अलंकार से मण्डित है ।
खुद कहे रचयिता पण्डित है ।।
थुति दूर रहे ऐसी न्यारी ।
तुम कथा-व्यथा हरती सारी ।।
रवि दूर गगन रह, भिजा किरण ।
भर दे, कमलों में नव जीवन ।।९।।
यह बात कहाँ विस्मय कारी ।
जग-भूषण ! मग-दूषण हारी ।।
जो विरद आपका गाता है ।
बन तुरत आप सा जाता है ।।
बदलें न भाग सेवक तारे ।
वे सिर्फ नाम के धनवाले ।।१०।।
देखें दृग् टुकुर-टुकुर तुझको ।
मन देखे मुड़-मुड़ कर तुझको ।।
जो दर्श तुम्हारा पा जाता ।
कोई न और उसको भाता ।।
मीठा पानी पीने वाला ।
कब छुये नीर खारा प्याला ।।११।।
सित अद्भुत, शान्त प्रशान्त रूप ।
इक वीत-राग मनहर अनूप ।।
परमाणु रहे शायद उतने ।
पर्याप्त तुम्हें गढ़ने जितने ।।
प्रभु ! रूप आपका है जैसा ।
नहिं रूप दूसरों का वैसा ।।१२।।
जन त्रिभुवन मन हरने वाला ।
कृत-कृत्य नयन करने वाला ।।
वो कहाँ आपका मुख ललाम ।
जीती जिसने उपमा तमाम ।।
शशि और कहाँ, हा ! दागदार ।
दिवि छवि पलाश का भागदार ।।१३।।
सम्पूर्ण कला रखने वाले ।
प्रतिकृति निशि पूनम उजियारे ।।
तुम गुण गण, धवल कान्ति जिनकी ।
सीमा उलाँघते त्रिभुवन की ।।
वो मन चाहा करते विचरण ।
डर किसका ? जब तुम संरक्षण ।।१४।।
रह गईं ठगीं सुर ललनाएँ ।
मन मार, कदम पीछे लाएँ ।।
यह बात कहाँ अचरज कारी ।
मन रहा आपका अविकारी ।।
चल भले पवन ले प्रलय-काल ।
कब झुका सकी गिर मेर-भाल ।।१५।।
बाती का जिसमें काम नहीं ।
कण जहाँ तेल का नाम नहीं ।।
जा कहीं धुंआ भी छू-मन्तर ।
नहिं तले दिखाई दे अन्धर ।।
कब मारुत जिसे बुझा पाई ।
तुम दिव्य दीप वो जिनराई ।।१६।।
नहिं डाले राहु नजर जिस पर ।
मेघों का भी न असर तिस पर ।।
कब केवल उदयाचल रिश्ता ।
नापा कब अस्ताचल रस्ता ।।
जग तीन अँधेरा करते गुम ।
ऐसे अद्भुत सूरज हो तुम ।।१७।।
निशि क्या दिवि, जिसे उदित रहना ।
करना प्रमुदित, प्रमुदित रहना ।।
कब आँखें राहु दिखाता है ।
बादल कब आड़े आता है ।।
शशि तुम अपूर्व ऐसे विरले ।
तम मोह तुम्हें देखे भग ले ।।१८।।
निशि-पति ये चंदा धृत कलंक ।
दिवि प्रद-आनन्दा अमृत-रंक ।।
क्यों आना-जाना करते हैं ।
तम पाप आप जब हरते हैं ।।
आ खेत खड़ी हों फसलें जब ।
घन गरज बरस क्या कर लें अब ।।१९।।
इक प्रत्युत्-पन्न मती हो तुम ।
सुत विश्रुत सरस्वती हो तुम ।।
तुम ज्ञान हिलोरें लेता जो ।
नहिं और दिखाई देता वो ।।
छवि हिस्से जो रत्नन आई ।
किरणा-कुल काँच कहाँ पाई ।।२०।।
दर देव-और आना जाना ।
बस रहा व्यर्थ ही ऐसा ना ।।
जो देख उन्हें पहले आये ।
तुम तभी हमारे मन भाये ।।
पर दिखे न आमद देख तुम्हें ।
वे रिझा न पाये पुनः हमें ।।२१।।
हर-रोज बने कोई माता ।
भुवि सुत अवतरण लगा ताँता ।।
पर कहाँ भाँत तुम माता है ।
सुत साँच नाम तुम आता है ।।
तारागण दिश्-दश अवतारी ।
इक पूरब, सूरज महतारी ।।२२।।
मानें ऋषि-मुनियों के स्वामी ।
पुरुषोत्तम आप एक नामी ।।
आदित्य दिव्य अपहर अन्धर ।
सत्-शिव सुन्दर बाहर अन्दर ।।
मृत्युंजय बनें, तुम्हें अपना ।
अपना कर देते शिव सपना ।।२३।।
तुम हो असंख्य, तुम हो अचिन्त्य ।
तुम हो अव्यय, तुम हो अनन्त ।।
तुम ईश्वर हो, योगीश्वर हो ।
हरि-हर-ब्रह्मा जगदीश्वर हो ।।
विभु ! विदित-योग तुम, नेक तुम्हीं ।
प्रभु ! आदि-ज्ञानमय एक तुम्हीं ।।२४।।
बुध भी तुम सेवक में आते ।
इसलिये बुद्ध तुम कहलाते ।।
सिर नाया उसने सुख पाया ।
तुम नाम अतः शंकर गाया ।।
तुमने शिव पन्थ किया विधान ।
इसलिये विधाता तुम प्रधान ।।२५।।
अपहर आपद ! हरतार शोक ।
अद्वितिय आभरण तीन लोक ।।
जय हो, जय हो भगवन् तेरी ।
क्षय हो, क्षय हो भव-वन फेरी ।।
अव-शोषक जनम-मरण सागर ।
परमेश्वर त्रिभुवन शिव नागर ।।२६।।
शुभ शगुन सुगुण मिल कर सारे ।
आये हित शरण आप द्वारे ।।
यूँ वसे, रहा अवकाश नहीं ।
इसलिये दोष तुम पास नहीं ।।
आयें न स्वप्न भी और छोड़ ।
वे दोष सभी जी और जोड़ ।।२७।।
थित ऊँचे तरु अशोक नीचे ।
तुम दृग् खोले कुछ-कुछ मींचे ।।
तब उन्मयूख तव दिव्य रूप ।
ऐसा भासा त्रैलोक्य-भूप ।।
तमहर दिनकर किरणें बिखरा ।
हो मानो घन समीप निकला ।।२८।।
सिंहासन बड़ा सुहाना है ।
मणियों का ओढ़े बाना है ।।
तिस आप विराजे, महा-भाग ।
तन कंचन तुम सोने सुहाग ।।
मानो उदयाचल तुंग शिखर ।
प्रकटा सूरज ले किरण निकर ।।२९।।
जो कुन्द पुष्प से सित सुन्दर ।
वो चौसठ अद्भुत चारु चँवर ।।
ढुरते तब लगता ऐसा है ।
तन चूँकि स्वर्ण के जैसा है ।।
चोटी गिर सुमेर अवतरता ।
करता झर-झर झरना झरता ।।३०।।
जैसे चन्दा प्रद आनन्दा ।
छत्र-त्रय तुम माँ मरु नन्दा ।।
हो संस्थित ऊँचे आप-आप ।
सूरज का हरते हैं प्रताप ।।
ढुल कहे मोतियों की झालर ।
तुम जगत् तीन इक प्रभुता-धर ।।३१।।
गम्भीर न स्वर ऐसे दूजे ।
दिश् और विदिश् जा जा गूँजे ।।
शिव सगंम हेत बुलाती है ।
जश आप ध्वजा फहराती है ।।
बज रही गगन वह तुम भेरी ।
सद्-धर्मराज जय-जय तेरी ।।३२।।
सन्तानक, सुन्दर, पारिजात ।
बरसात पुष्प इन भाँत-भाँत ।।
रिमझिम रिमझिम जल-कण सुगन्ध ।
पवमान बह रही मन्द-मन्द ।।
दिवि दिव्य झिरें, मानो छिन-छिन ।
तुम वचन अमोलक ही अनगिन ।।३३।।
भामण्डल आप सरीखा है ।
द्युति परिकर मिलकर फीका है ।।
है लिये कोटि सूरज प्रताप ।
पर रंच मात्र भी कहॉं ताप ।।
जीते शशि को शीतलता में ।
भव सात साथ झलकें जामें ।।३४।।
जो स्वर्ग मार्ग दिखलाती है ।
अपवर्ग मार्ग दिखलाती है ।।
गृहि-सन्त-धर्म सिखलाती है ।
निर्ग्रन्थ धर्म सिखलाती है ।।
परिणमन आप भाषा स्वरूप ।
ध्वनि-दिव्य आप विशदार्थ नूप ।।३५।।
वो खिला खुला, जो नवल-नवल ।
ओ सहस्र-दल, वो धवल कवँल ।।
नख-नख द्योतित चन्द्रमा पून ।
जुग चरण आप द्युति करें दून ।।
हो इनका जहाँ-जहाँ रखना ।
आ देव कमल करते रचना ।।३६।।
जैसी विभूति तुमरी, जिनेश ।
नहिं और, समय धर्मोपदेश ।।
हरने वाला अन्धर काला ।
जैसा सूरज का उजियारा ।।
कब नक्षत्रों के पास दिखा ।
हो किस्मत भले विकास लिखा ।।३७।।
जुग लोल कपोल मूल द्वारा ।
झिरती अविरल मद की धारा ।।
अलि-गण करते गुंजन गुन-गुन ।
क्रोधित हो उठा उसे सुन-सुन ।।
हा ! उत्पाती ऐसा हाथी ।
सुन नाम आप हो, गो-भाँती ।।३८।।
थल-कुम्भ ‘राज-गज’ चीर दिया ।
बिखरा मिस रक्त अबीर दिया ।।
भर-भर मुट्ठी गज मुक्ताफल ।
हा ! पाट दिया सारा भूतल ।।
मारे दहाड़, सिंह दिखा दाड़ ।
तुम भक्त न पाये कुछ बिगाड़ ।।३९।।
बन प्रलय काल की पवन सखा ।
हा ! जिसे क्षितिज तक रही धका ।।
उठ करें फुलिंगे बात गगन ।
ज्वालाएँ छूतीं हाथ गगन ।।
दावा जग भखने मुँख बाये ।
जल नाम आप पा बुझ जाये ।।४०।।
कोकिला कण्ठ जैसा काला ।
अहि लाल-लाल लोचन वाला ।।
ले रहा क्रोध अन्दर उफान ।
छूता फन जिसका आसमान ।।
तुम नाम नाग-दमनी आगे ।
बल सिर वल्मीक तरफ भागे ।।४१।।
गज भर चिंघाड़ जहाँ दोड़ें ।
घोड़े हुँकार जहाँ छोड़ें ।।
रण सर सैनिक अवगाह रहे ।
मरना ‘कि मारना चाह रहे ।।
तुम भक्त पट्ट जय लिखता है ।
तम रवि आगे कब टिकता है ।।४२।।
हा ! भाले पैंनी नोंकदार ।
गज देह बहाते रक्त-धार ।।
बह पड़ी खून की नदी बड़ी ।
अरि सेना तरने जिसे खड़ी ।।
दुर्जेय शत्रु भी हारा है ।
तुम चरणन जिसे सहारा है ।।४३।।
अनगिनती मच्छ विशाल जहाँ ।
हा ! बिछा जाल घड़ियाल महा ।।
लहरें उत्ताल उठें पल-पल ।
उठ रही भयंकर बड़वानल ।।
हो भँवर बीच जल-यान फँसा ।
तुम नाम लिया बस मिले दिशा ।।४४।।
थी हल्की कब गठरी सर की ।
ऊपर से पीर जलोदर की ।।
मन करने लगी सोच वासा ।
दी तज ही जीवन अभिलाषा ।।
ली सिर क्या तुम पद रज अबीर ।
हो कामदेव जैसा शरीर ।।४५।।
मोटी-मोटी साँकल द्वारा ।
जकड़ा शरीर नख-शिख सारा ।।
कंधे छिल गये, छिली जंघा ।
बहने को खून जमुन-गंगा ।।
ऐसा प्रगाढ़ खुलता बन्धन ।
करते ही नाम आप सुमरण ।।४६।।
दावानल, मतवाला गजेन्द्र ।
सागर जल, विकराला मृगेन्द्र ।।
संग्राम-वाम अहि जहरीला ।
भय बन्धन, रोग जनित पीड़ा ।।
इन-इन आदिक वे सभी कष्ट ।
जश गाते ही तुम, हों विनष्ट ।।४७।।
तैयार माल-गुण तुम बुन के ।
वर्णों के पुष्प विविध चुन के ।।
तुम भक्ति हेत बस इक इसमें ।
वैसे बालक, लायक किस मैं ।।
जो कण्ठ इसे पधरायेगा ।
शिव मान-तुङ्ग श्री पायेगा ।।४८।।
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