परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
भक्तामर स्तोत्र ४९
एकाक्षरी
भक्तामर मन्त्र
ओं नु प: झः
रः धी रु ता
गा शं ई छ:
खं गो जै लौं
ख: शु च ण:
औ ष:
ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्र:
भू कं शा ल:
त्रि ढ: य: भा
भी रा श्री मा
व: दौ ॡ न:
ह: मं क्षं मुः
भै जूं
मम रक्ष रक्ष स्वाहा
मम रक्ष रक्ष स्वाहा
मम रक्ष रक्ष स्वाहा
ओं ( प्रारम्भ, आदि-जुग, पञ्च परमेष्ठी )
नु ( ‘स्तुति’ करता हूँ )
पः ( ‘रक्षा’ करें मेरी, लाज रखें )
झः ( ‘वृहस्पति’ हारे आपकी स्तुति गा करके )
रः ( भक्ति ‘प्रेम’, ‘इच्छा’ वशात् स्तुति संलग्नता )
धी ( मुझे बुद्धि प्रदान कीजिए )
रु (‘भय’ से आप स्तुति रक्षा करती,
जैसे ‘सूर्य’ अंधेरा गुम कर देता )
ता ( ‘दया’ से आप स्तुति मनहर होगी )
गा ( आपका ‘गुणगान’ गाना
हे ! ‘गणेश’ पापों को हरता है )
शं ( सम कर लेते आप ‘सुखी’ )
ई ( ‘कामदेव’ से भी सुन्दर हैं )
छः ( छटे हैं, आप ‘स्वच्छ’ विनिर्मल हैं)
खं (‘मुख’ आपका ‘सुख’कारक है )
गो ( ‘९ की संख्या’ अखण्ड गुण के पिण्ड हैं आप)
जै (आप की जय हो, आपने इन्द्रिय ‘विजय’ की,
अप्सरा भी आपको न हरा पाई )
लौं ( अपूर्व दीप-‘शिखा’ हो जग प्रकाशक )
ख: ( ‘सूर्य’ राहु अगम्य )
शु ( ‘चन्द्रमा’ पूर्ण )
च ( सूर्य और चन्द्रमा ‘दोनों’ आप हो )
ण: ( ‘निश्चय’ ज्ञान, भेद ‘विज्ञान’ )
औ ( ‘और’ ने आप ‘अनंत’ प्रभु से मिला दिया )
षः (‘गर्भधारण’ माँ आपकी
‘सवोत्तम’ आप पुत्र )
ह्रां ( समस्त ‘अरिहन्त’ वंदन )
ह्रीं ( ‘सिद्ध’ २४ तीर्थंकर )
ह्रौं ( ‘उपाध्याय’ )
ह्र: ( ‘समस्त साधु’ )
भू ( गुणों के ‘स्थान’ ब्रह्म ज्ञानी,
भू जैसे क्षमाशील )
कं ( ‘आनंद’ अशोक शोक रहित )
शा ( ‘शोभा’ सिंहासन आदिक )
लः ( ‘इन्द्र’ ढ़ोरते ‘चल’ रहते वे चॅंवर )
त्रि ( ‘तीन’ छतर )
ढ़: (दुन्दुभि का स्वर )
यः (मन्द ‘हवा’, ‘यश’ पुष्प-वृष्टि )
भा ( ‘भा मंडल’ )
भी ( दिव्य-ध्वनि ‘अनेकांत माँ वाणी’)
रा (‘मेघ-आवाज-जय हो जय हो,
स्वर्ग’-देव कृत कमल रचना )
श्री ( समो शरण ‘विभूति’ )
मा ( ‘हाथी’ )
वः ( ‘व्याघ्र, सिंह )
दौ ( ‘दव’, दावानल )
ॡ ( ‘सर्प’ )
नः ( ‘युद्ध’ )
हः ( ‘आक्रमण’ ‘रुधिर’ ऐसा अरिकुल हा ! )
मं ( ‘जल’ )
क्षं ( कुशल ‘क्षेम’ ‘रक्षा’ रोग आदि से )
मुः ( ‘बंधन’ )
भै ( ‘भय’ )
जूं ( ‘मॉं सरस्वती’ कृपा हुई,
सहज-निराकुलता छुई )
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