(३३)
‘मं’दिर चल, सजल देवता भू ।
‘दा’ता-पन, करीब बेकाबू ।।१।।
‘र’हमत इक चर्चे गली-गली ।
‘सुन्दर’तम बड़ी कार्य शैली ।।२।।
‘न’ उठाते कदम जान-लेवा ।
‘मे’वा न चाहते कर सेवा ।।३।।
‘रु’ख सूरज मुखी भाँत बदलें ।
‘सु’ख खातिर छु न पाप हद लें ।।४।।
‘पा’बन्द वक्त ये भक्त बड़े ।
‘रि’श्ते लें ‘खे’ पैबन्द जुड़े ।।५।।
‘जा’दुई बड़ी आँखें इनकी ।
‘त’कलीफ उम्र कर दें छिन की ।।६।।
‘सं’तोष दया-धन अण्टी में ।
‘ता’बीज हया धन ! कण्ठी में ।।७।।
‘न’न्हे-मुन्ने दिल रहवासी ।
‘का’बा न कभी मिलते काशी ।।८।।
‘दि’ल नेक, मुस्कुरायें खुल के ।
‘कु’लदीप एक दोनों कुल के ।।९।।
‘सु’ख सहज बह पड़ा लो दरिया ।
‘मो’रा बन नाँचे, न क्यूँ हिया ।।१०।।
‘तक’ना न और बढ़ती आता ।
‘र’खते न खुली मुट्ठी नाता ।।११।।
‘वृ’ष-वृषभ नाथ इक अनुगामी ।
‘ष’ट् द्रव्य समुप-देशक नामी ।।१२।।
‘टि’क-टिक कह रही घड़ी मुझसे ।
‘रु’क, सीख आप लीनी उससे ।।१३।।
‘द’र्जे-दूजे कलि-इक पाठी ।
‘घा’टी चढ़ रहे, गैर-लाठी ।।१४।।
‘गन्धोद’क उड़ता हाथ हाथ ।
‘बि’न इन किरपा बनती न बात ॥१५।।
‘न’मकीन नीर दृग् लाते ना ।
‘दु’खती नस कभी दबाते ना ।।१६।।
‘शुभ’ हो, शुभ हो, दिन-रात कहें ।
‘मन’ गहरे चुभे न बात कहें ।।१७।।
‘दम’नी कषाय, बोया-काटा ।
‘रु’क गये, सोच यह धोखा खा ।।१८।।
‘त’ज दिया इन्होंने सोना है ।
‘प्र’तिमा ‘कि अप्रतिम होना है ।।१९।।
‘पा’नी बुल-बुला जिन्दगानी ।
‘ता’छिन सुन हुये निरभिमानी ।।२०।।
‘दि’ल्ली न दूर ज्यादा इनसे ।
‘व’न माड़े जा आसन मन से ।।२१।।
‘या’त्रा-तीरथ मन-रथ जायें ।
‘दि’वि निशि न कभी मन्मथ ध्यायें ।।२२।।
‘बह’ता खूँ दृग्, लख कर्म अत्त ।
‘प’हरे बखतर दश धर्म सत्य ।।२३।।
‘त’रतम-जिस रखे, विधाता है ।
‘ति’स-विध बस रहना आता है ।।२४।।
‘ते’रह किरिया हर-एक प्रिया ।
‘व’न क्यूँ आये न विसार दिया ।।२५।।
‘च’मके बिजुरी-चुगली न रंच ।
‘सां’सारिक तज दीने प्रपंच ।।२६।।
‘त’न वचन और मन साफ-साफ ।
‘ति’हु जगत् जगत, हन श्राप आप ।।२७।।
‘र’हते माहन ऋत धरम मगन ।
‘वा’हन सिर-दर्द न करें वहन ।।२८।।
मन्दार सुन्दर नमरु
सु-पारि-जात-
सन्ता-नकादि कुसु-मोत्-कर
वृष्टि-रुद्-घा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ मन्द
मरुत्-प्र-पाता,
दि(व्)-व्या दिवः पतति ते
व-चसां ततिर्-वा ॥३३॥
(३४)
‘शु’भ ध्यान उतर आना न हुआ ।
‘म’न अन्तर् पटल फिकर न छुआ ।।१।।
‘भ’व जनम-मरण भय खाये हैं ।
‘त’रने भव–जल, वन आये हैं ।।२।।
‘प्र’स्तावित कल त्रिभुवन ईश्वर ।
‘भा’रत इक जीवित परमेश्वर ।।३।।
‘व’रते न रंच अभिमान कभी ।
‘लय’ विलय किये अरमान सभी ।।४।।
‘भू’ नजर टिकाये रहते हैं ।
‘रि’श्ते रिसते फिर कहते हैं ।।५।।
‘वि’श्वास काम पर रखते है ।
‘भा’षण न नाम पल लिखते हैं ।।६।।
‘वि’द्या-जग अपर निपुण मानौ ।
‘भो’जन फन भ्रमर निपुण जानो ।।७।।
‘स’च पृथ्वी एक मनस्वी हैं ।
‘ते’जस्वी और तपस्वी हैं ।।८।।
‘लो’लुपता बाँध चली बिस्तर ।
‘क’र शपथ न देखूॅंगी मुड़कर ।।९।।
‘त्र’स, थावर हैं न त्रस्त इनसे ।
‘ये’ हैं आत्मस्थ जनम दिन से ।।१०।।
‘द्युति’ उपमाएँ इन हाथों में ।
‘म’त-भेद न इनकी बातों में ।।११।।
‘ता’ले बिन निधि-निज रखवाले ।
‘म’र्दक मन-मनसूबे काले ।।१२।।
‘द्युति’ और न फीकी करते हैं ।
‘मा’खन-सी परिणति धरते हैं ।।१३।।
‘क्षि’ति शिला, फलक, तृण करें शयन ।
‘प’र-भार बनें, न जियें वह क्षण ।।१४।।
‘न’श्वर करते अपना न खास ।
‘ती’ली करते ईधन न पास ।।१५।।
‘प्रो’त्साहन बने इन्हें करना ।
‘द’हलीज उलॉंघेंं निज घर ना ।।१६।।
‘य’ह दुख बन सके विहरते हैं ।
‘द’र साख न फीकी करते हैं ।।१७।।
‘दि’ल्लगी दूर हर मजाक से ।
‘वा’किफ दुनिया के मिजाज से ।।१८।।
‘कर नि’ज कर सिरहाना सोते ।
‘रं’जायमान न कभी होते ।।१९।।
‘तर’कीब खोज कर लाते हैं ।
‘भू’लें ले रबर मिटाते हैं ।।२०।।
‘रि’जुता इन भांत ऊन दुनिया ।
‘संख्या’ इन साथ, शून दुनिया ।।२१।।
‘दी’दार किया जा आप द्वार ।
‘पत’वार बिना कर रहा पार ।।२२।।
‘या’दों में, वादों में पीछे ।
‘जय’ स्वयं सुनी, कीं दृग् नीचे ।।२३।।
‘तय’ जाना ऊपर इन, भूपर ।
‘पि’ल पड़े कभी न विषय ऊपर ।।२४।।
‘नि’धि सामंजस इन हाथों में ।
‘शा’मिल भर-तिल न विवादों में ।।२५।।
‘म’कसद इक पाने बेकरार ।
‘पि’ञ्चरे आ निकले तोड़ द्वार ।।२६।।
‘सो’ने-सुहाग इनसे मिलना ।
‘म’न का इनके मन से मिलना ।।२७।।
‘सोम’न बेदाग-दार आते ।
‘यां’चा पर-हेत न सकुचाते ।।२८।।
शुम्-भत्-प्रभा-वलय-भूरि-
विभा वि-भोस्-ते,
लोक(त्)-त्रये(द्)-द्युति-मतां
द्युति-मा(क्)-क्षि-पन्ती ।
प्रो(द्)-द्यद्-दिवाकर-निरन्तर
भूरि-संख्या,
दीप्-त्या जय(त्)-त्यपि निशा-मपि
सोम-सौ(म्)-म्याम् ॥३४॥
(३५)
‘स्वर्’-गिक न चाहते सुविधाएँ ।
‘गा’ते जश भगवन् क्षण जायें ।।१।।
‘प’रिकर निज-पास रखें निन्दक ।
‘वर्-गन चतुष्ट इक हित-चिन्तक ।।२।।
‘गम’ ज़ेहन देर न पाल रहे ।
‘मार्ग’ण कर कमियाँ टाल रहे ।।३।।
‘वि’वहार अभद्र न करें कभी ।
‘मार्ग’ण पर छिद्र न करें कभी ।।४।।
‘ने’की टपके इन अंग अंग ।
‘ष’ड़यन्त्र चढ़ा रक्खा न रंग ।।५।।
‘ट’प-टप न परेशाँ करती है ।
‘ह’र-दर श्रद्धा न ठहरती है ।।६।।
‘सद्-धर्म’ अमोल धिया धरते ।
‘तत्व’न तल पर्श किया करते ।।७।।
‘क’र रहे न नाहक पल व्यतीत ।
‘थ’प्पड़ मन-श्वान करें रसीद ।।८।।
‘नै’तिकता आँख चार कीनी ।
‘क’ड़वाहट दर-किनार कीनी ।।९।।
‘प’र दुख हरने कर होड़ रहे ।
‘टु’कड़े, देखा पर जोड़ रहे ।।१०।।
‘स’र काँधे धरा धरा बोझा ।
‘त्रि’भुवन न मिला इनसा खोजा ।।११।।
‘लो’री गा सुला रहे मन को ।
‘क’ब देखा, झुला रहे मन को ।।१२।।
‘या’पन सरहद-सरहद करना ।
‘ह’स्ताक्षर दया क्षमा-करुणा ।।१३।।
‘दि’न ढ़ले दौड़ घर आते हैं ।
‘व्य’य बचते, खूब कमाते हैं ।।१४।।
‘ध्वनि’ दिव्य दूज दीवाली है ।
‘र’स्ते पे लाने वाली है ।।१५।।
‘भव’, भोग, शरीर विरक्त शूर ।
‘ति’कड़म से निकले बहुत दूर ।।१६।।
‘ते’वर देखे, बदले न चढ़े ।
‘वि’पदा लख हुये न भाग खड़े ।।१७।।
‘श’रणागत हृदय पास रखते ।
‘दा’सी रखते न दास रखते ।।१८।।
‘र’ण हो अपनों से, देते चल ।
‘थ’ल-मरु न भागते पीछे जल ।।१९।।
‘सर’-दर्द न होता अब इनको ।
‘व’शिभूत कर चुके हैं मन को ।।२०।।
‘भाषा’ माँ और इन्हें माँ सी ।
‘स’रसुति सेवा, काबा-काशी ।।२१।।
‘व’सुधा बस, सिन्धु सुधा विशाल ।
‘भा’ई-चारे की इक मिसाल ।।२२।।
‘व’र राह हस्त करने वाले ।
‘प’र-वाह भक्त करने वाले ।।२३।।
‘रि’श्ता टूटे, करते न पहल ।
‘ना’शें बन पवन विघन बादल ।।२४।।
‘म’न चक्र व्यूह न फंसे दीखें ।
‘गु’जरे-पल-शिक्षक से सीखें ।।२५।।
‘नै’य्या-शिव आज खिवैय्या हैं ।
‘ह’र-दिल अज़ीज़ वर-छैय्या हैं ।।२६।।
‘प्र’तिभा-मण्डल इक प्रत्याशी ।
‘यो’नियन न भटकन चौरासी ।।२७।।
‘ज’न मानस के रहते मन में ।
‘यह’ कहाँ नहीं, हैं कण-कण में ।।२८।।
स्वर्गा-पवर्ग-गम-मार्ग-
विमार्ग-णेष्-ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-क-थनैक-पटुस्-
त्रि-लो(क्)-क्याः ।
दिव्य(ध्)-ध्वनिर्-भ-वति ते
वि-शदार्थ-सर्व-
भाषा(स्)-स्व-भाव-परिणाम-
गुणैः प्र-यो(ज्)-ज्यः ॥३५॥
(३६)
‘उ’द्धरण आप जा दिल धसते ।
‘न’व-युवक-युवति पाते रस्ते ।।१।।
‘निद्र’न, निंदन काफी सुदूर ।
‘हे’रा-फेरी से कोस दूर ।।२।।
‘म’न आप, बात टाले हँस के ।
‘न’र्मी कुछ वसी हृदय धस के ।।३।।
‘व’श भूत-विभूत सुकून श्वास ।
‘पं’छी आ बैठें आस-पास ।।४।।
‘क’मियाँ, मन खोज न लाता है ।
‘ज’लसे, मन साँझ मनाता है ।।५।।
‘पुं’जेक भेंटते आत्म-देव ।
‘ज’ब-तब मिल जाते निरत-सेव ।।६।।
‘कान’न न कभी विकथा करते ।
‘ति’न कान व्यथा सुनते मिलते ।।७।।
‘पर’लोक रख रखा हाथों में ।
‘यु’ग पलटा सकते बातों में ।।८।।
‘ल’ट्टू मन वाना मुख मोड़ा ।
‘ल’ड्डू मन खाना, छक छोड़ा ।।९।।
‘स’र देव झुकाते बड़े-बड़े ।
‘न’भ लेते छू-भू खड़े-खड़े ।।१०।।
‘नख मयूख’ तम करती सी गुम ।
‘शि’ल्पी दूजी प्रतिकृति ही तुम ।।११।।
‘खा’ने में कब चाही चुगली ।
‘भि’क्षुक, पै रहे न छान गली ।।१२।।
‘रा’जा-शिव होना, जा इनको ।
‘मौ’खिक हर वेद रिचा इनको ।।१३।।
‘पा’पों का बोझ न दें सर को ।
‘दौ’रे से, लौट रहे घर को ।।१४।।
‘प’ल छुये जिन्हें बेताबी ना ।
‘दा’रोगा होता हावी ना ।।१५।।
‘नित’ निज-निध पीछे मन भागे ।
‘वय’ पीछे, कद भागे आगे ।।१६।।
‘त्र’स-थावर बनता देते हैं ।
‘जि’तना मिलता रख लेते हैं ।।१७।।
‘नेन’न जा धसते अंतरंग ।
‘द्र’ष्टव्य विवेचन सप्त-भंग ।।१८।।
‘ध’मकी न रोग देते इनको ।
‘त’नख्वाह सिर्फ देते मन को ।।१९।।
‘त’ल्लीन रहें अपनी धुन में ।
‘ह’र्षित रहते मन ही मन में ।।२०।।
‘पद्मा’ जिन पाने मचले हैं ।
‘नि’श्चल बन पाने निकले हैं ।।२१।।
‘त’ड़फन न किसी की देख सकें ।
‘त्र’स जीव बचा, पग देख रखें ।।२२।।
‘वि’चलन सुदूर, अविचल मन के ।
‘बु’ध आते सेवक में इनके ।।२३।।
‘धा’रा-प्रवाह प्रवचन इनका ।
‘ह’र बोझ उतार रखे मन का ।।२४।।
‘प’र्यूषण हटके रहे मना ।
‘रि’पुता बढ़-आगे करें फना ।।२५।।
‘क’च्छप-मति, मति मिलती जुलती ।
‘ल’क्ष्मण-रेखा इन अन-गिनती ।।२६।।
‘प’हचान उड़ा न धूल रहे ।
‘य’ह गुमान कर-निर्मूल रहे ।।२७।।
‘न’जरों में रखते अपने को ।
‘ति’हु साँझ पूरते सपने को ।।२८।।
उन्-निद्र-हेम-नव-पङ्कज-
पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-
शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र
जिनेन्द्र ! धत्-त:,
पद्-मानि त(त्)-त्र वि-बुधाः
परि-कल्-पयन्ति ॥३६॥
(३७)
‘इत’-उत न फेंकते हैं नजरें ।
‘थम’ सकें ‘कि इतनी चाल वरें ।।१।।
‘य’ह जलें दीप-से और हेत ।
‘था’ली न जीम-कर, करें छेद ।।२।।
‘त’स्कर प्रवृत्ति इक परिहारी ।
‘व’न्दन करती जगती सारी ।।३।।
‘वि’ख्यात भक्त वत्सल जगती ।
‘भू’ चर्चित इनकी गुरु भगती ।।४।।
‘तिर’छी कर दृग् कब ताँके हैं ।
‘भू’चाल थमा इन राखे हैं ।।५।।
‘ज’ग भेद ज्ञान नहिं इन समान ।
‘जि’ज्ञासा जग, यह समाधान ।।६।।
‘नेन’न सुखकारी, मौन झलक ।
‘द्र’व नोन भिगोंये कोन-पलक ।।७।।
‘धर’नी लज्जा बहनों, कहते ।
‘मो’टा जीमों, पहनों कहते ।।८।।
‘प’श्चिमी हवा बच, बचा रहे ।
‘दे’खा-देखी अपना न रहे ।।९।।
‘श’हरी कोलाहल दूर कोस ।
‘न’जदीक रमा-शिव, आशुतोष ।।१०।।
‘वि’द्युत सी दिखा झलक निकलें ।
‘धौ’री धारा मन गले मिलें ।।११।।
‘नत’ मस्तक सतत जिनेन्द्र चरण ।
‘था’ती सु-मरण, सम्यक्त्व मरण ।।१२।।
‘पर स’र बन बोझ न चढ़ते हैं ।
‘य’ह औरन गिरा न बढ़ते हैं ।।१३।।
‘या’त्रा इन तलक विमुक्ति थान ।
‘दृ’ढ़-मति यह दृढ़ संकल्पवान ।।१४।।
‘क’ल चले, वहीं चलते न रहें ।
‘प्र’ति शोध अनल, जलते न रहें ।।१५।।
‘भा’वों से सहज-निराकुल हैं ।
‘दिन’रातरि सजग मिला कुल हैं ।।१६।।
‘कृत’कृत्य, देख इनको नैना ।
‘ह’रकत, दे हर मन को चैना ।।१७।।
‘प्रह’री दोपहरी सुबह-साँझ ।
‘ता’-साँझ आप लें हृदय माँज ।।१८।।
‘न’मतर न नैन केवल, तन-मन ।
‘ध’ड़कन न जैन केवल, जन-जन ।।१९।।
‘का’नन करते खिलवाड़ नहीं ।
‘रा’ई का करें पहाड़ नहीं ।।२०।।
‘ता’नाशाही विसराई है ।
‘दृ’ष्टि इक लक्ष्य टिकाई है ।।२१।।
‘क’ठपुतली भाँत न श्रम करते ।
‘कु’दरत सँग मिला कदम चलते ।।२२।।
‘तो’बा, कीना कब याद न ‘जी ।
‘ग्र’ह त्राहि-माम् फरियाद न की ।।२३।।
‘ह’त प्रभ करते रवि, चाँद नूर ।
‘ग’ण्डा-ताबीज सुदूर दूर ।।२४।।
‘ण’वकार आश पूरण जपते ।
‘स’ब रितुओं में सब तप तपते ।।२५।।
‘य’ह हंस-वंश इक वंशज हैं ।
‘वि’ध्वंश-वंश, न प्रशंसक हैं ।।२६।।
‘का’तर नजरें निज रखें नहीं ।
‘सि’मरन भगवन् बिन रहें नहीं ।।२७।।
‘नो’टों का भूले हाथ-भार ।
‘पि’छला न आज ज्यादा उधार ।।२८।।
इत्-थं यथा तव वि-भूति-
रभूज्-जिनेन्द्र !
धर्मो-पदेशन विधौ
न तथा पर(स्)-स्य ।
या-दृक्-प्र-भा दिन-कृतः
प्र-हतान्-धकारा,
ता-दृक्-कुतो(ग्)-ग्रह-गण(स्)-स्य
वि-कासि-नोऽपि ॥३७॥
(३८)
‘श’क रख न मोल लेते सर पर ।
‘च’ख-चख न मोल लेते सर पर ।।१।।
‘यो’गासन सिध्द-हस्त योगी ।
‘तन म’न प्रशस्त, निज-रस-भोगी ।।२।।
‘दा’मन माँ थाम चले जाते ।
‘विल’सित कर ग्राम, चले जाते ।।३।।
‘वि’पदा लें हर, साहस अपना ।
‘लो’हा दें कर पारस, अपना ।।४।।
‘ल’य लें बैठा, न कभी हारे ।
‘क’ञ्चें लें जमा कई सारे ।।५।।
‘पो’थी हासिये पढ़े होते ।
‘ल’ख हावी अत्त, खड़े होते ।।६।।
‘मू’रत सुन्दर भीतर-अन्दर ।
‘ल’ग चरण अमृत बाँटे चन्दर ।।७।।
‘मत’ बैठो, उठो न कहते हैं ।
‘त’ल्लीन स्वयम् में रहते हैं ।।८।।
‘भ्रम’ कभी न सर माथे लेपा ।
‘द’र कदम बढ़ा मंजिल लें पा ।।९।।
‘भ्रमर’न वृत्तिन रख, रहे जीम ।
‘ना’ता न रखे चल-मन गनीम ।।१०।।
‘द’स्तक दे द्वार धकाते हैं ।
‘वि’निमय न विनय में लाते हैं ।।११।।
‘वृ’द्धों को कर आगे दौड़ें ।
‘द’र्पण दर्श न अवसर छोड़ें ।।१२।।
‘ध’स दिल गहरे जा लाये रस ।
‘को’री बातें नहिं रहे परस ।।१३।।
‘प’ल बैठ, रहे सुलझा धागे ।
‘म’तलबी जहाँ, निकले आगे ।।१४।।
‘ऐ’वें उतार राखीं सर से ।
‘रा’स्ता पूछा न, करें हर-से ।।१५।।
‘व’र जो ले माँग सवाली, दें ।
‘ता’ली, न बिठाने वाली दें ।।१६।।
‘भ’र नेह खड़े ले हाथ दिये ।
‘मि’त व्यय हस्ताक्षर पात्र लिये ।।१७।।
‘भ’रसक पत राखी घड़ी-घड़ी ।
‘मुद’दत हुई न मसखरी करी ।।१८।।
‘ध’ब्बा न एक, पोशाक धवल ।
‘त’र जल संसार विभिन्न कँवल ।।१९।।
‘मा’नस, मानस-सरवर समान ।
‘प’ल पलक न खोया स्वाभिमान ।।२०।।
‘तन’ नूर आसमानी नाता ।
‘तम’ देखे इन्हें बिला जाता ।।२१।।
‘दृष्ट’व्य उठाये कदम सजग ।
‘वा’कई भरें दम-खम रग-रग ।।२२।।
‘भय’भीत नहीं भव-भीत भले ।
‘म’शहूर सुदूर-दूर, विरले ।।२३।।
‘भव’ मानुष वृथा न रहे बिता ।
‘ति’नके भर नोंक न करें खता ।।२४।।
‘नो’धा भक्ति के वश में हैं ।
‘भ’र शक्ति निभाते कसमें हैं ।।२५।।
‘व’श में ‘कि अबकि मंजिल आये ।
‘दा’खिला जैन गुरुकुल पाये ।।२६।।
‘श्रि’त-आश्रित इन दुनिया सारी ।
‘ता’रो ‘कि समय आया भारी ।।२७।।
‘ना’ता सीधा रखते भगवन् ।
‘म’न्नत पूरें, सुलझा उलझन ।।२८।।
(शि)-च्यो-तन्-मदा-विल-वि-लोल-
कपोल-मूल,
मत्त(भ्)-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-
वि-वृद्ध-कोपम् ।
ऐरा-वताभ-मिभ मुद्धत
मा-पतन्तं,
दृष्-ट्वा भयं भवति नो
भव-दा(श्)-श्रि-तानाम् ॥३८॥
(३९)
‘भि’ड़ रहा और, माँगे माफी ।
‘न’ रखे ‘कि कदम हावी हाँपी ।।१।।
‘ने’किक दो-गले जमाने में ।
‘भ’र यौवन आ बैठे खेमें ।।२।।
‘कुम्’-हार कला पारंगत हैं ।
‘भ’टके-अटके करते भट हैं ।।३।।
‘गल’बाह दिये बैठे संयम ।
‘दु’पहरी निकलते घर से कम ।।४।।
‘ज’म्हाई पूर्व कब लेटे हैं ।
‘ज’त्-नन माई के बेटे हैं ।।५।।
‘व’श में दुनिया की नब्ज रखें ।
‘ल’व जनमें ऐसे लफ़्ज़ रखें ।।६।।
‘शोणि’त कल दूध-भाँत होना ।
‘ता’ने न मारते ये जो ना ।।७।।
‘क’म देना इन्हें न आता है ।
‘त’र नयना माँ से नाता है ।।८।।
‘मु’रझाना-खिलना फूल सफर ।
‘क’रवट ‘कि वक्त ले कसी कमर ।।९।।
‘ता’उम्र कहा ना लिख लेना ।
‘फ’रियाद कान जा निकले ना ।।१०।।
‘ल’हजे से टपक रही नरमी ।
‘प्र’वचन पर-वचन दूर गरमी ।।११।।
‘क’रुणा धन-धनिक सहज विरले ।
‘र’खते फिर कदम, समझ पहले ।।१२।।
‘भूषित’ अदृश्य तमगों से हैं ।
‘भू’ पूर्ण कामना-गो से हैं ।।१३।।
‘मि’ल-जुल कर रहना सिख’लाते ।
‘भा’रत गौरव-गाथा गाते ।।१४।।
‘ग’हराई रख आचरण रहे ।
‘ह’म तुम सबके इक शरण रहे ।।१५।।
‘बद’-दुआ जायका जानें ना ।
‘ध’क्का, धोखा पहचानें ना ।।१६।।
‘क्रम’ करें कदम के नीचे ना ।
‘ह’क हिस्से पल नीचे नैना ।।१७।।
‘क्र’य चीज विदेश न करते हैं ।
‘मग’ हस्त-शिल्प आदरते हैं ।।१८।।
‘त’कना विसराया टुकुर-टुकुर ।
‘म’न होने को अब मुकुट-मुकुर ।।१९।।
‘ह’मराह चाहता करना जग ।
‘रि’जुता, मिस-लोहु बहे रग-रग ।।२०।।
‘ना’याब प्रपूरें यूँ सपने ।
‘धि’क्कारा, तो मन को अपने ।।२१।।
‘पो’शाक बना आकाश रखा ।
‘पि’छला सब पढ़ इतिहास रखा ।।२२।।
‘ना’ता कर संजीवन देते ।
‘क्रा’न्ती ला, नव जीवन देते ।।२३।।
‘म’द-मान-मोह मत्सर त्यागी ।
‘ति’हु जग ! गिरि-कन्दर-अनुरागी ।।२४।।
‘क्र’न्दन वन-निर्जन मुख मोड़ा ।
‘म’न-गणंत-फन नाता तोड़ा ।।२५।।
‘यु’ग-दृष्टा भावी शिव-नागर ।
‘गा’गर मन भरा प्रेम सागर ।।२६।।
‘चल’ जा छूते नभ ज्यों पाखी ।
‘संश्रित’ आश्रित कब वैशाखी ।।२७।।
‘म’न करे न अब गुप-चुप गुनाह ।
‘ते’ली-नंदी नापें न राह ।।२८।।
भिन्-नेभ-कुम्भ-गल-दुज्-ज्वल-
शोणि-ताक्त,
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर
भू-षित-भूमि-भागः ।
बद्ध(क्)-क्रमः क्रम-गतं
हरि-णा-धिपोऽपि,
ना(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगाचल-
सं(श्)-श्रितं ते ॥ ३९॥
(४०)
‘कल’कल-रव हृदय थान देते ।
‘पा’हन परमात्म मान देते ।।१।।
‘नत’मस्तक सुबह साँझ सच-पर ।।
‘का’जर कोठी आये बच कर ।।२।।
‘ल’गते जग किसके जिगर नहीं ।
‘प’र देश टिकाते नजर नहीं ।।३।।
‘व’रदान मुकरते दीखे ना ।
‘नो’ जात भले, नो-सीखे ना ।।४।।
‘द’फने न स्वयम् जा जियत कभी ।
‘ध’न अधिक न दें अहमियत कभी ।।५।।
‘त’क रही ‘कि इन रस्ता मंजिल ।
‘वह’ जज्बा रखते अन्दर दिल ।।६।।
‘नि’शि-दिन स्वयम् भुवा आदरते ।
‘कल्’-मष हर दफ़ा, दफा करते ।।७।।
‘प’क्के घर, वैसे घर कच्चे ।
‘म’न से बिलकुल माफिक बच्चे ।।८।।
‘दावानल’ भव बुझने वाली ।
‘म’नने वाली कल दीवाली ।।९।।
‘ज’ख्मों को कहॉं कुदेर रहे ।
‘व’न निर्जन लगा न टेर रहे ।।१०।।
‘लि’खना न लुभाया पानी का ।
‘त’र्पण हित-आप जवानी का ।।११।।
‘मु’जरिम आ जुर्म कुबूल रहा ।
‘ज’न्नत सुख पद इन धूल रहा ।।१२।।
‘जब-ल’ग आराधें आत्म-शोध ।
‘मु’ख तक भरने को आत्म बोध ।।१३।।
‘तस्’-वीर नयन सुखदाई है ।
‘फु’रसत से गई बनाई है ।।१४।।
‘लिं’गानु-शासनन जानकार ।
‘गम’ के खुशबू इन द्वार-द्वार ।।१५।।
‘विश्’-वस्त हरिक शरणागत है ।
‘वं’चना ‘कि हुई नदारद है ।।१६।।
‘जि’ह्वा दो टूक न कीनी है ।
‘घ’बड़ाहट प्रशय न दीनी है ।।१७।।
‘त’ह-दिल कर ली पुस्तक जो ली ।
‘सु’ख चैन भरी मुख-तक झोली ।।१८।।
‘मि’ट सके-बाद लिखते ऐसा ।
‘व’क्तव्य इन्हीं का इन जैसा ।।१९।।
‘सम्मुख’ बाधक आये न डरें ।
‘माप’न ले मानक-और करें ।।२०।।
‘तन’ बैठ खोज करते अपनी ।
‘तम’ पैठ खोज करते अपनी ।।२१।।
‘त’हखाने आते, बाँध खूब ।
‘वन’ साधें जा अध्यात्म डूब ।।२२।।
‘ना’जुक पा वक्त हुये दूनर ।
‘म’न रखते उड़ा प्रशम चूनर ।।२३।।
‘कीर्तन’ से जी न चुराते हैं ।
‘ज’ल दृग् हित-पर छलकाते हैं ।।२४।।
‘ल’लचाई नजरें मार चुके ।
‘म’न चिन्मय ऊपर वार चुके ।।२५।।
‘शम’ यम, दम कलि अधिकारी हैं ।
‘यत्’-नन अनबन परि-हारी हैं ।।२६।।
‘य’ह लखते अधिक, तनिक लिखते ।
‘शे’खर इन तेज बने लखते ।।२७।।
‘ष’ट्-सप्त आचरण आभरणा |
‘म’रु मृग-मरीचिका अपहरणा ॥२८।।
कल्-पान्त काल प-वनोद्-धत –
वह्-(हि)नि-कल्पम्,
दावानलं ज्वलित-मुज्-ज्वल
मुत्स्-फुलिङ्-गम् ।
विश्वं जिघत्-सुमिव सम्-मुख
मा-पतन्तं,
त्वन्-नाम-कीर्तन-जलं
शम-य(त्)-त्य-शेषम् ॥४०॥
(४१)
‘र’खते यह थोड़ा पेट बड़ा ।
‘क’र रखते सारे राज गड़ा ।।१।।
‘ते’रा लें, तो सपना लेते ।
‘क्षण’ सोचे बिन, अपना देते ।।२।।
‘म’न निश्चल-निश्छल किसका भय ।
‘सम’यानुकूल इनके निर्णय ।।३।।
‘द’र्पन इन देख लजा जाई ।
‘को’ना मन-हर मनहर भाई ।।४।।
‘कि’श्ती पतवार बिना खे लें ।
‘ल’ग पीछे तलक-मोक्ष ठेलें ।।५।।
‘कं’बल वर, वरें न नादानी ।
‘ठ’हरा हुआ न बनते पानी ।।६।।
‘नी’यत के इन से कहाँ सभी ।
‘लम’हा न करें जाया इक भी ।।७।।
‘क्रो’धित हैं, कभी न देखा है ।
‘धो’खा न दें, भले मौका है ।।८।।
‘द’बदबा न घर कर पाया है ।
‘ध’ब्बा चूनर न लगाया है ।।९।।
‘त’कलीफ न ये पहुँचाते हैं ।
‘म’न रस्ते-नैन समाते हैं ।।१०।।
‘फणि’-मणि इन रग-रग काँच एक ।
‘न’ पलट पड़ते मग काँच देख ।।११।।
‘मु’नि, मौन रहें प्राय:-कर के ।
‘त’ल्लीन स्वात्म, माया हर के ।।१२।।
‘फण’ णन से नाता तोड़ा है ।
‘मा’नवता वाना ओढ़ा है ।।१३।।
‘प’त्थर खा आँसू पोंछ लिये ।
‘त’रु जैसी कुछ कुछ सोच लिये ।।१४।।
‘न’ और इनसा ऊरध-रेता |
‘तम’ इन्हें न फिरके में लेता ।।१५।।
‘आ’खिरी आसरा, जग-जाहिर ।
‘क्रा’न्ती ला देने में माहिर ।।१६।।
‘मति’ सम्पद हित कर सफर रहे ।
‘क्रम’ लाँघ कर्म ले खबर रहे ।।१७।।
‘यु’क्ती फिर पूर्व रखें आगम ।
‘गे’हों में रमना हुआ खतम ।।१८।।
‘ण’वकार तुरत मुख रख लेते ।
‘नि’चली प्रवृत्ति क्या चख लेते ।।१९।।
‘रस्’-ते-रस्ते ना चलते हैं ।
‘त’कदीर चाल आदरते हैं ।।२०।।
‘शं’का हर शल्य विनाशक हैं ।
‘कस’रत-द्राविड न उपासक हैं ।।२१।।
‘त’न, साथ भेज मन देते ना ।
‘वन’ मात्र भेज तन देते ना ।।२२।।
‘ना’समझ न समझा, समझ रहे ।
‘म’न फितूरियन कब उलझ रहे ।।२३।।
‘ना’सा पर दृग् धर बैठे हैं ।
‘ग’पसप, गप सब कर बैठे हैं ।।२४।।
‘दमनी’ गम ! खुशियाँ बाँट रहे ।
‘हृ’द रीझ न बारा-बाट रहे ।।२५।।
‘दि’न झपकी लगी, न आया दिन ।
‘य’श बड़ा जा रहा, दिन पे दिन ।।२६।।
‘स’त् खोज सकें, निकले घर से ।
‘य’ह बनने मचले ईश्वर-से ।।२७।।
‘पुं’ क्लीव, स्त्री जानें स्वभाव ।
‘सह’चर सिर रखते बना छाँव ।।२८।।
रक्ते(क्)-क्षणं समद कोकिल
कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्-धतं फणिन-मुत्-फण-
मा-पतन्तम् ।
आ(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगेण
निरस्त-शङ्कस्-
त्वन्-नाम-नाग-दमनी
हृदि य(स्)-स्य पुंसः ॥४१॥
(४२)
‘व’सुधा न कहीं इन सा विरक्त ।
‘लग’ता न वक्त, कर रहे भक्त ।।१।।
‘त’न दिया, सभी वापिस लेते ।
‘तु’क बिठा खूब आपस लेते ।।२।।
‘रं’गत इनसे जग दोई है ।
‘ग’हरा इन से कब कोई है ।।३।।
‘ग’र्दन सीधी रख करें ध्यान ।
‘ज’प तप का करते कब गुमान ।।४।।
‘गर्’-जन ‘कि कर्म अरि काँपें हैं ।
‘जित’ना बनता पथ नापें हैं ।।५।।
‘भी’ एक नेक-पथ राहगीर ।
‘म’न बहिरन्तर पहुँचा फकीर ।।६।।
‘ना’मुमकिन कर देते मुमकिन ।
‘द’स्तक निज घर देते छिन-छिन ।।७।।
‘मा’फिक मासूम रहे गाने ।
‘जौ’हरी आज जाने माने ।।८।।
‘बल’वा ‘कि मचे, करते न पहल ।
‘म’नवा ‘कि अब न रुचती अटकल ।।९।।
‘व’रवश देते झट सुलट-भाग ।
‘लव’-लेश द्वेष रखते न राग ।।१०।।
‘ता’दाद बड़ी जप लगने को ।
‘म’नसूबे अरि-वसु चिगने को ।।११।।
‘पि’क गाये विरद कुहुक इनका ।
‘भू’ नाम क्षमा सार्थक इनका ।।१२।।
‘प’रिकल्पन सभी साँच करते ।
‘ती’-नौरन दो न पाँच करते ।।१३।।
‘ना’ना न नीति आती नारद ।
‘म’न से निकली प्रीती स्वारथ ।।१४।।
‘उ’त्सव से सजीं-धजीं साँझें ।
‘दय’ काजर दृग् तीजीं आँजें ।।१५।।
‘द’र खुले तलक-तब इन रुकते ।
‘दि’ग्गज इन पद-रज हित झुकते ।।१६।।
‘वा’पिस लौटा ले पग-मंगल ।
‘कर-मयूख’ कर इन भामंडल ।।१७।।
‘शि’कवा न शिकायत रखते हैं ।
‘खा’मोशी से, पत रखते हैं ।।१८।।
‘प’थ पागल-पंती से बचते ।
‘विद्’ बिच रद लें अँगुली, रचते ।।१९।।
‘ध’न अक्षर ढ़ाई हुआ खूब ।
‘म’नमानी लें अध्यात्म डूब ।।२०।।
‘त’कते न गढ़ा के दृग् अपने ।
‘व’श कर लेते देखे सपने ।।२१।।
‘त’कना मुख और न आया है ।
‘कीर्त’न न कीर्ति का गाया है ।।२२।।
‘ना’समझ-समझ अनुयायी ना ।
‘त’क निकले घर से आईना ।।२३।।
‘त’र्पण कर देते अपनी जिद ।
‘म’शविरा मांगते कोविद्-विद् ।।२४।।
‘इ’नकार न हामी भरते हैं ।
‘वा’दा करके न मुकरते हैं ।।२५।।
‘सु’नते हैं सभी की, हैं विरले ।
‘भि’ड़ंते न किसी से, भीड़ भले ।।२६।।
‘दा’ता हैं, भाग विधाता हैं ।
‘मु’श्किल घाता, जगत्राता हैं ।।२७।।
‘पै’ना दिमाग रखते सबसे ।
‘ति’हु जगिक बात करते नभ से ।।२८।।
वल्-गत्-तुरङ्ग-गज गर्जित-
भीम-नाद-
माजौ बलं बल-वता मपि
भू-पती-नाम् ।
उद्यद्-दिवा-कर मयूख
शिखा-पविद्धं,
त्वत्-कीर्तनात्-तम इवाशु
भिदा-मुपैति ॥४२॥
(४३)
‘कु’ल धर्म निभाने में आगे ।
‘न’क्षत्र गगन-मुनि बड़भागे ।।१।।
‘ता’गा दो टूक न करते हैं ।
‘ग्र’ह इनके बीच न पड़ते हैं ।।२।।
‘भि’त्ती घिस की निज आईना ।
‘न’श्वर हित, खोई पाई ना ।।३।।
‘न’म नजर, नजर क्या आते हैं ।
‘ग’हरे जा हृदय समाते हैं ।।४।।
‘ज’बरन न प्रशय रग दिया कभी ।
‘शोणित’ न प्रशय दृग् दिया कभी ।।५।।
‘वा’चन इनका बढ़िया सबसे ।
‘रि’श्ते-दारी रखते रब से ।।६।।
‘वा’जिब क्या ? हदय समाया है ।
‘ह’द पार कदम न बढ़ाया है ।।७।।
‘वे’दन करते हल्के-पन का ।
‘गा’यब उतार-चढ़ाव मन का ।।८।।
‘व’श मे नस कर राखी मन की ।
‘ता’कत जवाब दे क्यों इनकी ।।९।।
‘र’हते हैं आपे में हरदम ।
‘त’मतमा, पड़ी करनी दृग् नम ।।१०।।
‘र’स्तों से नहीं खींझते हैं ।
‘ना’रों से नहीं रीझते हैं ।।११।।
‘तु’मड़ी नर-भव लग तैर रहे ।
‘र’स्ते न बढ़ा पग वैर रहे ।।१२।।
‘यो’जन सुदर मन-नागन से ।
‘ध’क-धकी बड़ी न कई दिन से ।।१३।।
‘भी’ माँ का थाम हाथ चलते ।
‘मे’घा-फन कुछ-कुछ आदरते ।।१४।।
‘यु’ग पीछे, आगे दीखें ये ।
‘द’बना न दाबना सीखें ये ।।१५।।
‘धे’ला न पास रखते अपने ।
‘जय’ इनके नित देखे सपने ।।१६।।
‘म’ञ्जिल मुख देख सके जन-जन ।
‘वि’नती करते रहते मन-मन ।।१७।।
‘जि’तनी बन सके मदद करते ।
‘त’त्काल सुदूर दरद करते ।।१८।।
‘दुर्जय’ जीते मद सारे हैं ।
‘जे’बन इन चाँद-सितारे हैं ।।१९।।
‘य’श वंश न धूमिल करें कभी ।
‘प’रवश रहते न पलक-पल भी ।।२०।।
‘क्षा’यिक लब्धियन उपासक हैं ।
स’त-जुग से, कलजुग साधक हैं ।।२१।।
‘त’म हरने वालों में आते ।
‘व’चनों से ठेस न पहुँचाते ।।२२।।
‘त’ज दिये ‘दिये’ चाहत वाले ।
‘पा’, लिये ‘दिये’ राहत वाले ।।२३।।
‘द’म इन्हें न अब दे जनम-मरण ।
‘पंकज’-पद भगवत्-परम शरण ।।२४।।
‘व’णिकों की हरिक हुनर अपना ।
‘ना’राज कर रहे ग्राहक ना ।।२५।।
‘श्र’म से न कभी कतराते हैं ।
‘यि’तवार न कभी मनाते हैं ।।२६।।
‘णो’कार कई धुन में गा लें ।
‘ल’ग पीछे मन-ठाना पा लें ।।२७।।
‘भं’गों का मर्म समझते हैं ।
‘ते’तीस-तीन पथ-बचते हैं ।।२८।।
कुन्ता(ग्)-ग्र भिन्न-गज शोणित-
वारि-वाह,
वेगा-वतार त-रणा-तुर
योध भीमे ।
युद्धे जयं विजित दुर्जय-
जेय पक्षास्-
त्वत्-पाद-पङ्कज-वना(श्)-
श्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
(४४)
‘अं’तर्यामी पन रखते हैं ।
‘भो’गन कब रचते, पचते हैं ।।१।।
‘नि’यमावलि से चलने वाले ।
‘धौ’री परिणति धरने वाले ।।२।।
‘क्षु’ध् शान्त कामिनी, कंचन की ।
‘भि’क्षा सुदूर माफिक मन की ।।३।।
‘त’लवार-धार मग-लग दौड़ें ।
‘भी’नी संयम खुशबू छोड़ें ।।४।।
‘ष’ट् भाव सभी छोड़े रस के ।
‘ण’वकार वसा नस नस धस के ।।५।।
‘न’जदीक भर-पलक में करते ।
‘क्र’य विक्रय प्रेम न आदरते ।।६।।
‘च’रितार्थ किये बिन गाया ना ।
‘क्र’म-लोक लाँघना आया ना ।।७।।
‘पाठी’ पुराण, बोधी-पोथी ।
‘न’हिं परिणति-मन कागा-धोती ।।८।।
‘पी’यूष झिरे हर एक रोम ।
‘ठ’ग विद्या को कह चुके ओम् ।।९।।
‘भ’गवन् जिन शरण एक इनको ।
‘य’म दाबे दुम ‘कि देख इनको ।।१०।।
‘दो’षों के रहें न आस-पास ।
‘लव’-लेश न होता मन उदास ।।११।।
‘न’म-दृग्, कर-पात्री पावन हैं ।
‘वा’हन-मन, यात्री-माहन हैं ।।१२।।
‘ड’पली निज राग अलापें ना ।
‘वा’हन-पथ पग-इक नापें ना ।।१३।।
‘ग’ऊ-काम नाम सार्थक कीना ।
‘नौ’का शिव जग बैठा लीना ।।१४।।
‘रं’गीन काँच चश्मा न रखें ।
‘गत’ गत-नागत, वर्तमाँ तकें ।।१५।।
‘त’हजीब जायका चखते हैं ।
‘रं’जिश न किसी से रखते है ।।१६।।
‘ग’र किये, निभाते हैं वादे ।
‘शिख’-नख नख-शिख सीधे-सादे ।।१७।।
‘र’हनुमा आज कहलाते हैं ।
‘स्थित’ प्रज्ञों में आते हैं ।।१८।।
‘या’मिनी रह ‘निराकुल’ बीते ।
‘न’यना तीजे रखते तीते ।।१९।।
‘पा’री न हार वाली खेलें ।
‘त्रास’दी और सर-पर ले लें ।।२०।।
‘त्रा’णन प्राणन, तर दृग् सरोज ।
‘सं’बोधन, सर थोपें न बोझ ।।२१।।
‘वि’कसित कण्टक विरहित गुलाब ।
‘हा’जिर जबाब यह लाजवाब ।।२२।।
‘य’म रक्षण खूब लुभाता है ।
‘भ’रमाना इन्हें न आता है ।।२३।।
‘व’ह कौन तर्जुना नया इन्हें ।
‘तह’ से रखना आ गया इन्हें ।।२४।।
‘स्म’रण आज-कल कल बातें ।
‘र’खते अध-खुली रात आँखें ।।२५।।
‘ना’समझी से निकले आगे ।
‘द’हलीज न मर्यादा लाँघे ।।२६।।
‘व्र’त लिये खुशी से निभा रहे ।
‘ज’य-घोष अहिंसा लगा रहे ।।२७।।
‘न’ किसी से रखे बिगाड़ कभी ।
‘ति’ल का न बनाये ताड़ कभी ।।२८।।
अम्भो-निधौ(क्)-क्षुभित-भी-षण-
नक्र-चक्र-
पाठीन पीठ-भय-दोल्-वण
वाड-वा(ग्)-ग्नौ ।
रङ्गत्-तरङ्ग-शि-खरस्-थित-
यान पा(त्)-त्रास्-
त्रासं वि-हाय भ-वतः
स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥
(४५)
‘उ’स पार ‘कि होने निकले हैं ।
‘द’र्पन-पन बोने निकले हैं ।।१।।
‘भू’लन सुधार को निकले हैं ।
‘त’करार हार हो निकले हैं ।।२।।
‘भीषण’ भी सह लेते गरमी ।
‘ज’य हो, रखते ज़ेहन नरमी ।।३।।
‘लो’हे के चने चबा लेते ।
‘दर’ दिग्गज नृसिंह नवा लेते ।।४।।
‘भा’ता बस सिर्फ इन्हें आतम ।
‘र’ट लगा रखी जय-परमातम ।।५।।
‘भु’वि कहाँ और कवि इन समान ।
‘ग’हरा हिलोर ले आत्म ज्ञान ।।६।।
‘ना’जों से पाल रहे व्रत-धृत ।
‘ह’र वक्त, बने बाँटें अमृत ।।७।।
‘शो’भा माहन-मत बढ़ा रहे ।
‘च’रणा माहन-पथ बढ़ा रहे ।।८।।
‘यां’चे कोई सुर-तरु बनते ।
‘द’र दस्तक सुनकर-पुरु बनते ।।९।।
‘शा’स्त्रों का सार समझते हैं ।
‘मु’स्कान हाथ-हर करते हैं ।।१०।।
‘प’ल में दुख-दर्द विहर लेते ।
‘ग’णना पर निज में कर लेते ।।११।।
‘ता’ले-चाबी बातें इनकी ।
‘श’बनमी और आँखें इनकी ।।१२।।
‘च्युत’ तलक आज संकल्प नहीं ।
‘जीवि’त मन-पटल विकल्प नहीं ।।१३।।
‘ता’रे दे चार-चाँद आते ।
‘शा’हन के शाह कहे जाते ।।१४।।
‘त’र्जन क्षण प्राय: बचते हैं ।
‘व’ञ्चन मन आया, बचते हैं ।।१५।।
‘त’लफते न देख सकें, भाई !
‘पा’ समझो ली शिव ठकुराई ।।१६।।
‘द’क्षिण-तिल खिल संस्कारित हैं ।
‘पंकज’ से बड़े प्रभावित हैं ।।१७।।
‘र’ण, हेत विजय श्री जोर-दार ।
‘जो’ड़ा सब आये छोड़-छाड़ ।।१८।।
‘मृ’दु यही, मही मृदुतर, मृदुतम ।
‘त’ल-पर्श रहा मन परम-रहम ।।१९।।
‘दिग्’-दिगन्त जा फैली कीरत ।
‘ध’रती चलते-फिरते तीरथ ।।२०।।
‘देहा’दि नेह विसराया है ।
‘ह’रना जो भव इस माया है ।।२१।।
‘मर’ना न हुआ जड़ के ऊपर ।
‘त’रु घने छाँव बड़ के भूपर ।।२२।।
‘या’त्रा निकले, दिल गहराई ।
‘भव’ मनुज छू रहे ऊँचाई ।।२३।।
‘न’ नृभव हो पुनः फना, निकले ।
‘ति’रने का भाव बना निकले ।।२४।।
‘म’न से भीतर हैं, तन बाहिर ।
‘कर’तब माहिर, है जग-जाहिर ।।२५।।
‘ध्वज’ लिये अहिंसा आगे हैं ।
‘तु’म, हम, सब में बड़-भागे हैं ।।२६।।
‘ल’श्कर न लिये, पीछे लश्कर ।
‘य’म मिले सिर्फ इन-से हँसकर ।।२७।।
‘रू’-बरू खींझ ना होते हैं ।
‘पाह’न पर बीज न बोते हैं ।।२८।।
उद्भूत भी-षण-जलोदर-
भार-भुग्-ना:,
शो(च्)-च्यां दशा-मु-प-गताश्-
च्युत-जीवि-ताशाः ।
त्वत्-पाद-पङ्कज-रजो-मृत-
दिग्ध-देहाः,
मर्-त्या भवन्ति मकर(ध्)-ध्वज-
तुल्य-रूपाः ॥४५॥
(४६)
‘आ’लोचक बनने से बचते ।
‘पा’दान नित नये शिव रचते ।।१।।
‘द’म्भादि दूर, इक जगत् दान्त ।
‘कं’कर न फेंकते सरित् शान्त ।।२।।
‘ठ’प पलक न इन व्यापार पड़ा ।
‘मु’दु व्यवहारी ! व्यापार बढ़ा ।।३।।
‘रु’तवा इनका देखा सबने ।
‘श्रृं’गार सहित भेजा रब ने ।।४।।
‘खल’ कर सके न शान्ति भंग ।
‘वेष्टि’त करुणा खिल अंतरंग ।।५।।
‘तान’स बहती इक लाज, शरम ।
‘गा’गर में सागर भरे कलम ।।६।।
‘गा’ रही प्रीत के गीत साँस ।
‘ढ़’क रहे छिद्र-पर कर प्रयास ।।७।।
‘म’न मर्म-धर्म में लगा रखा ।
‘वृ’क्षों-से दें फल पाहन-खा ।।८।।
‘हन’ सकें कर्म खिल निकले हैं ।
‘नि’धि निज जाये मिल निकले हैं ।।९।।
‘ग’त धूल-तूल, हत भूल-चूक ।
‘ड’ग रखते अपने फूँक-फूँक ।।१०।।
‘को’रे थे आये गुरु समीप ।
‘टि’क पाये मोती नृ-तन सीप ।।११।।
‘नि’कले ‘कि न कोई गैर रहे ।
‘घृ’त भाँत सिन्धु भव तैर रहे ।।१२।।
‘ष’ट् जीव-निकाय दया पालें ।
‘ट’ल सके ‘कि मति किल्विष,चालें ।।१३।।
‘जं’गल खींचें मंगल रेखा ।
‘घा’ई करते न कभी देखा ।।१४।।
‘त’बदील करें सरगम में गम ।
‘व’जनी न शूल पे रखें कदम ।।१५।।
‘न’जरन प्राय:-कर बात करें ।
‘ना’ नजर मिला कर बात करें ।।१६।।
‘म’न सकारात्मक इन-सा ना ।
‘मन’ नकारात्मक इनका ना ।।१७।।
‘त्र’स-थावर सीख रहे सब से ।
‘म’नवा मिलता जुलता रब से ।।१८।।
‘नि’:स्वारथ साधें स्वारथ हैं ।
‘शं’का मन हुईं नदारद हैं ।।१९।।
‘मनु’जन में हैं बिलकुल हटके ।
‘जा’, देंय परीक्षा न रट के ।।२०।।
‘ह’रफन मौला ! कल्याण मित्र ! ।
‘स्मरन’ शक्ति अद्भुत विचित्र ।।२१।।
‘त’ट बाद पाँव रखते न नाव ।
‘ह’ट गया घाम क्या काम छाँव ।।२२।।
‘सद्यः’ प्रसूत शिशु ! निर्विकार ।
‘स्वय’मेव लिये सिर और भार ।।२३।।
‘म’त रखा, और पहले सुन के ।
‘वि’द्वान पठाये जग चुन के ।।२४।।
‘ग’ल गये जलन के पाप भाव ।
‘त’रबतर हृदय कब आप दाँव ।।२५।।
‘बंध’न गुर्वाज्ञा सर माथे ।
‘भ’व, मन-की-मान रहे जाते ।।२६।।
‘या’दों में झूले प्रिया-एक ।
‘भव’-दूध न उफने, रहे देख ।।२७।।
‘न’हिं लेना पड़े ‘कि जन्म नया ।
‘ति’ल-सी दिल तैरे एक दया ।।२८।।
आ-पाद कण्ठ-मुरु-शृङ्खल-
वेष्-टि-ताङ्गा,
गाढं-बृ-हन्-निगड-कोटि
नि-घृष्ट जङ्घाः ।
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं
मनुजाः स्मरन्तः,
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-
भया भवन्ति ॥४६॥
(४७)
‘मत’ डरो, कहें आओ आगे ।
‘त’नते ही भृकुटि शत्रु भागे ।।१।।
‘द’य करुणा क्षमा रँगा दामन ।
‘वि’द्याएँ सब खेलें आँगन ।।२।।
‘पे’शा पीछे छोड़ा अन्धा ।
‘न’गदी वाला इनका धंधा ।।३।।
‘द्र’व्यों का जाने सब स्वभाव ।
‘मृ’त्यू का रखते कब तनाव ।।४।।
‘ग’त स्वारथ साँस-साँस इनकी ।
‘रा’हत प्रद साँस-साँस इनकी ।।५।।
‘ज’कड़े प्रज्ञा-अपराध नहीं ।
‘द’स्तक दें वाद-विवाद नहीं ।।६।।
‘वा’जिब क्या सोच उठाते पग ।
‘न’जरें बस उठा, जीत लें जग ।।७।।
‘ला’ता न ढूंढ़ मन साज़िश है ।
‘हि’स्से न रंच इन रंजिश है ।।८।।
‘संग्राम’ न मन इनके मचता ।
‘वा’दों से मन इनका बचता ।।९।।
‘रि’पुता बस आठों कर्मों से ।
‘धि’क् बोली हिंसा धर्मों से ।।१०।।
‘म’न्नत पूरें, लें पैसा ना ।
‘हो’-हल्ला करे परेशाँ ना ।।११।।
‘दर’ दर भटकन थामी अपनी ।
‘बन’ सका छका खामी अपनी ।।१२।।
ध’क्का दे और निकलते ना ।
‘नो’टों को देख फिसलते ना ।।१३।।
‘त’ज दीं सारी निधियाँ जग की ।
‘थम’ गये देख गफलत-मृग-की ।।१४।।
‘तस्’वीर दूसरी ही भगवन् ।
‘या’त्रा इन दर्शन से पूरण ।।१५।।
‘शु’भ चिन्तन रत परिणति इनकी ।
‘ना’हक मुखरी कब मति इनकी ।।१६।।
‘श’गुनों की पंक्ती में आगे ।
‘मु’स्कान बाँटते, बड़-भागे ।।१७।।
‘प’न्ने की कीमत करें दुगुण ।
‘या’चे तो बस श्री जी सद्गुण ।।१८।।
‘ति’थि से आते कब जाते हैं ।
‘भय’ सब, भय इनसे खाते हैं ।।१९।।
‘म’शगूल भलाई में रहते ।
‘भि’त्ति न टिके, परिषह सहते ।।२०।।
‘ये’ रखते मान सभी जन का ।
‘व’र्चश्व जगत् माने इनका ।।२१।।
‘य’श निरखे दिश्-दिश् ढूँक इन्हें ।
‘स’हलना आता खूब इन्हें ।।२२।।
‘ता’ल्लुक न रखते चिन्ता से ।
‘व’र्तमाँ-रसिक अच्छे खासे ।।२३।।
‘कं’चन से जग कर्दम भीतर ।
‘स’त साँई घाँई नम ‘भी’ तर ।।२४।।
‘व’श-भक्ति पंक्ति में आते हैं ।
‘मि’ल भक्त डोर सुलझाते हैं ।।२५।।
‘मं’त्रों से लाभ न चाह रहे ।
‘मति’ सन्मति सर अवगाह रहे ।।२६।।
‘मा’फिक रवि कब तारक ज्योती ।
‘न’हिं माफिक इन सागर मोती ।।२७।।
‘धी’रज से नाता गहरा है ।
‘ते’जोमय इनका चेहरा है ।।२८।।
मत्त(द्)-द्वि-पेन्द्र-मृग-राज
दवा-नलाहि-
संग्राम-वा-रिधि-महोदर
बन्ध-नोत्-थम् ।
त(स्)-स्याशु नाश मु-पयाति
भयं भियेव,
यस्-तावकं स्तव-मिमं
मति-मा-नधीते ॥४७॥
(४८)
‘स्तोत्र’ रचें ऐसे मनहर ।
‘स्र’ज भाँत कण्ठ धारे सुर-नर ।।१।।
‘जं’जीर न बनते और पाँव ।
‘त’य रस्ता करने छाँव-छाँव ।।२।।
‘व’र माँगा बस, दे वो देते ।
‘जि’स चाहे खातिर रो देते ।।३।।
‘ने’त्रों में निवसे एक लाज ।
‘न्’-यारे, ‘दिल हर-के’ करें राज ।।४।।
‘द्र’विभूत पलक में हो जाते ।
‘गु’दड़ी के लालों में आते ।।५।।
‘णै’तिकता सत्य, अहिंसा का ।
‘र’स्ता इक आज हृदय राखा ।।६।।
‘नि’श्चित, ‘छल’ प्रद-भव कारा है ।
‘बद’ली बरताव विसारा है ।।७।।
‘धा’गे देने से गाँठ बचें ।
‘म’न छूता जीवन-पाठ रचें ।।८।।
‘भक्’-ती में पीछे मीरा है ।
‘त’ज घर, वस्त्रों को चीरा है ।।९।।
‘या’त्रा पर हैं निकले एकल ।
‘म’न भी चाले सँग, करे विकल ।।१०।।
‘या’त्रा पूरी हो, इस बारी ।
‘वि’धिवत् कर राखी तैयारी ।।११।।
‘वि’सरा जो दिया नमन धन का ।
‘ध’सने का करे न मन इनका ।।१२।।
‘वर्ण’न श्रुत इनका मन-भावन ।
‘वि’ख्यात-विश्व सुत, माँ-माहन ।।१३।।
‘चि’ढ़ छोड़ चुके पीछे काफी ।
‘त्र’स-थावर से ले, दें माफी ।।१४।।
‘पुष्’-पों सा कोमल अन्तरंग ।
‘पाम’रता से ली जीत जंग ।।१५।।
‘ध’किया ले चलना आया है ।
‘त’र, मारुत हुनर समाया है ।।१६।।
‘ते’ली नन्दी विद् गहल एक ।
‘ज’य धर-मानस हँसी विवेक ।।१७।।
‘नो’-कर्म किसी के बनते ना ।
‘य’ह पाप जाल नव बुनते ना ।।१८।।
‘इह’ लोक अपर दोंनो इनके ।
‘कं’चन के मन न जपे मनके ।।१९।।
‘ठग’ विद्या छोड़, सिखाते सब ।
‘ता’मसता दिखे रिझाते कब ।।२०।।
‘म’लना क्यों ‘कर’, सर धुनना है ।
‘ज’ब तब अब केवल सुनना है ।।२१।।
‘स्र’ज लिये खड़ी इन शिव-राधा ।
‘म’न सहज और सीधा-सादा ।।२२।।
‘तं’द्रा सिर पर रक्खा न चढ़ा ।
‘मा’ला, सुमेर पा रहे बढ़ा ।।२३।।
‘न’रमी का ओढ़ा बाना है ।
‘तुं’कारी याद फसाना है ।।२४।।
‘गम’ बने उठा लेते सर पर ।
‘व’सुधा-कुटुम्ब भावन-अनुचर ।।२५।।
‘शास’न इनको निज-पर-करना ।
‘मु’ख तलक लबालब उर करुणा ।।२६।।
‘पै’रों में इनके चार धाम ।
‘ति’रने दें आ फरसी सलाम ।।२७।।
‘लक्ष्मी’-शिव ‘थुति-यह’ देती है ।
‘ह’ट ए ! विपत्ति कह देती है ।।२८।।
स्तो(त्)-त्र(स्)-स्रजं तव जिनेन्द्र
गुणैर्-नि-बद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-
विचि(त्)-त्र-पुष्पाम् ।
धत्-ते जनो य इह कण्ठ-
गता-मज(स्)-स्रं,
तं मान-तुङ्ग-मवशा-
समु-पैति लक्ष्मीः ॥४८॥
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