भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पहला श्लोक
मरु नन्दन ।
करूॅं भक्ता-मर मैं शुरु वन्दन ।।१।।
जायें विक्रिया से देव ।
रहे पास आप सदैव ।।२।।
भींजी रहती जुबाँ देव ।
जिनेन्द्र जय सदैव ।।३।।
देते आपको ढ़ोक फर्सी ।
सौधर्म समेत शचि ।।४।।
भरूँ उड़ान छूने आस्मां ।
रहना आस-पास माँ ।।५।।
तिनके दिये माँ ने तोड़ ।
मंजिल ले अब दौड़ ।।६।।
अथ कराई थुति ।
आओ कराने माँ तुम्हीं इति ।।७।।
भरें दम ये मेरे कदम ।
भर दो माँ आ…दम ।।८।।
मॉं चढ़ाव ही चढ़ाव ।
आ पीछे से हाथ लगाव ।।९।।
चित्र विचित्र थव तव दो थमा ।
रंग दो जमा ।।१०।।
गोद उठा लो भगवन् ।
छूना चोटी तव थवन ।।११।।
डूब सिखा दो भगवन् ।
पार पाना तव थवन ।।१२।।
पंख लगा दो भगवन् ।
छूना थव तव गगन ।।१३।।
‘ई’ की सुन ली ।
‘उ’ की सुन ली ।
मैंने भी आवाज दी ।।१४।।
भूल भुलैय्या सफर ।
अंगुली लो मैय्या पकड़ ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
दूसरा श्लोक
सौधर्म साथ स्तुति प्रस्तुति देना ।
माँ देख लेना ।।१।।
इन्द्र विरचे रोज स्तवन नीका ।
मैं नवसीखा ।।२।।
नयना तीजे ।
‘और’
भगवन् मोर नयना भींजे ।।३।।
तव संस्तव दौड़ जामें ।
शशौर, कछुये सा मैं ।।४।।
सौधर्म सा न सही, स्तव दो लिखा ।
जो न हो लिखा ।।५।।
आगे सौधर्म से न आना ।
हँसे न बस जमाना ।।६।।
सौधर्म पार बेड़ा ।
आसरा मुझे भी सिर्फ तेरा ।।७।।
छाई चेहरे और मुस्कान ।
वन मैं छेडूॅं तान ।।८।।
सफल इन्द्र परिश्रम ।
बढ़ाता मैं भी कदम ।।९।।
संस्तुति तोर दौड़ ।
प्रस्तुति करा दो जोड़-तोड़ ।।१०।।
शायद पुण्य हो मेरा ।
रचूँ ‘मूढ़’ मैं स्तव तेरा ।।११।।
कलम तुझ पे चलाना ।
करूँ मैं क्या दे-बता ना ।।१२।।
करो मदद ।
मैंने उठाया बीड़ा तुम विरद ।।१३।।
औरों के हाथ मुकाम ।
दृग् सजल मैं माँ त्राहि माम् ।।१४।।
आ संभालों माँ कमान ।
खड़ी, घड़ी परीक्षा आन ।।१५।।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तीसरा श्लोक
हंसेगे सारे ।
मैं ‘निरा-वंश’, वंशी सेवक थारे ।।१।।
होगी हँसी, है बात ये पक्की ।
बुद्धि मेरी जो कच्ची ।।२।।
बढूॅं थामने चाँद परछाई ।
आ धाम लो माई ।।३।।
बल चन्द्र माँ ।
मचला मन, पाने जल चन्द्रमा ।।४।।
ए ! जश सूर्य उजाला ।
मैं दिवान्ध उलूक-बाला ।।५।।
सीधा चढ़ाव थारा जश ।
चाले न हमारा वश ।।६।।
गाथा आपकी गाना ।
बुंदिया ओस प्यास बुझाना ।।७।।
गा न पाऊँगा तेरा जश ।
मेरी तो जिद है बस ।।८।।
हँसेंगे लोग ।
तेरा जश पटरी-रेल संजोग ।।९।।
हँसेगा जग ।
नभ कुसुम तुम विरद मग ।।१०।।
भर चुटकी उठाना पारा ।
गाना गीत तुम्हारा ।।११।।
तव संस्तव, चढ़ बारिश डोर ।
लगना छोर ।।१२।।
तव संस्तव जा पकड़ना धूम ।
हाथ मासूम ।।१३।।
तव संस्तव, खुदाई मरुस्थल ।
ले आश जल ।।१४।।
तव संस्तव विद्वद् भोज जो ना ।
सो हँसी ही होना ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चौथा श्लोक
माँ ज़र्रा आना ।
घरौंदा रेत देव-देव तराना ।।१।।
हासिल शून ।
नाप आप खोजना खून नाखून ।।२।।
स्तवन तोर क्षितिज छोर भांत ।
न आना हाथ ।।३।।
थके द्यु गुरु ।
यात्रा तुम गाथा, मैं जाने क्यूँ करूँ ।।४।।
छोर द्यु गुरु न दीखा ।
थव तोर मैं तो नौसीखा ।।५।।
तेरे बारे में कुछ लिखना ।
दृगों से दृग् देखना ।।६।।
तव संस्तव आसमान ।
लगनी हाथ थकान ।।७।।
मैं होता कौन ? गा गुण आप ।
हाथ द्यु-गुरु हाँप ।।८।।
माला पे माला, पत्ती ताश-मकान ।
आप जै-गान ।।९।।
पांखी पोत का भूमि स्पर्शन ।
आप गुण वर्णन ।।१०।।
थे ‘बढ़े’ ।
तुम जश मग,
‘कि हाथ थे किये खड़े ।।११।।
जाने क्यूँ मैं जिद करूँ,
दिग्गज हारे ।
गा गुण थारे ।।१२।।
तेरा थवन ।
पार दरिया आग, मोम तरण ।।१३।।
आप थवन ।
जेवरी ले बिजुरी नाप गगन ।।१४।।
दृग् भर आना ।
नाप आप कंचे पे कंचे जमाना ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पांचवां श्लोक
धकाये भक्ति तेरी ।
ज़बाब देती सी शक्ति मेरी ।।१।।
थोड़ी कुछ ये जो दौलत ।
वो तेरी ही बदौलत ।।२।।
गोद तूने जो ले लिया ।
थी ठोकर आगे शुक्रिया ।।३।।
चला उड़ाने पतंग ।
रँग तोर भक्ति के रंग ।।४।।
धकाये लागी लौं बलात् ।
खूबी कोई न और हाथ ।।५।।
अगम तेरी संस्तुति ।
मन है ‘कि मानता नहीं ।।६।।
कोई खेल ना ।
तव स्तव पै मन माने तब ना ।।७।।
मुड़-मुड़ के मन देखे पीछे ।
ले चालो माँ खींचे ।।८।।
कहाये भक्ति तेरी बढ़-चढ़ ।
हूँ मैं अनपढ़ ।।९।।
तोर भक्ति के लगा पर ।
चला मैं छूने अम्बर ।।१०।।
बन पीछे की पवन ।
भक्ति तोर साधे स्तवन ।।११।।
धकाये भक्ति तोर ।
देवानाम् प्रिय बपौती मोर ।।१२।।
तेरी भक्ति के सहारे ।
निकला मैं गिनने तारे ।।१३।।
तेरी भक्ति के…बल ।
चला क्षितिज छूने पैदल ।।१४।।
वैसे मैं बाल-गुपाल ।
करें भक्ति तेरी वाचाल ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
छठवां श्लोक
रखना मुझे थामे ।
सहारे तेरे ही हूॅं खड़ा मैं ।।१।।
रहम तेरा ।
‘बढ़ा जा रहा’ बड़ा कदम मेरा ।।२।।
दिया हाथ न खींच लेना ।
अपना मेरा कुछ ना ।।३।।
है तुझे मेरी खबर ।
करना क्या मुझे फिकर ? ।।४।।
नैना न फेर लेना ।
करें काम दृग् मेरे अच्छे ना ।।५।।
करने चला पीछे जगती ।
जोर तोर भगती ।।६।।
कारण बौंर आम्र छाना ।
कोकिला मिश्री तराना ।।७।।
मूढ़ मैं बैठा कोविद् जगह ।
तोर भक्ति वजह ।।८।।
मो धी मूढ़ों में मुख ‘री ।
करे भक्ति तेरी मुखरी ।।९।।
बेशर्म की मैं लकरी ।
करे भक्ति तेरी मुखरी ।।१०।।
ले तोर भक्ति सहारा ।
निकला में चीरने धारा ।।११।।
धकायें भक्ति तेरी ।
गिनती नौ-सीखों में मेरी ।।१२।।
मैं मूढ़, और हाथ तूलिका ।
रही भक्ति ही लिखा ।।१३।।
तूने बिगड़ी दी सुधार ।
न बोली, बोली व्यापार ।।१४।।
भक्ति तोर जो पास सोपान ।
दूर न आसमान ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सातवां श्लोक
आई शामत पाप की ।
नजर क्या पड़ी आपकी ।।१।।
मनके आप ।
यहाँ ‘खिसके’ वहाँ,
मन के पाप ।।२।।
धराशाई हा ! पर्वत पाप ।
वज्र दर्शन आप ।।३।।
पलाया पाप घोर अँधेरा ।
भोर दर्शन तेरा ।।४।।
दीया दर्शन तेरा ।
नहीं तले भी पाप अँधेरा ।।५।।
विहँस जाना किला पाप ।
बिजुरी दर्शन आप ।।६।।
तम शर्बरी गुम ।
दर्शन’ रश्मि सहस्र’ तुम ।।७।।
आप नाम की रटन ।
दे…खो जन्मों की भटकन ।।८।।
क्या नैन झील झलके आप ।
वहाँ छलके पाप ।।९।।
छू पाप सांप मन चन्दन ।
मोर तोर दर्शन ।।१०।।
देख के आप को ।
भागने मिले न राह पाप को ।।११।।
जाप, छूते ही आप, जाते विघट ।
पाप विकट ।।१२।।
न कौन सर स्वानुभौ डूबा ।
तोर दोर अनूठा ।।१३।।
दर्शन आप खोता ।
पुराना ‘पाप’ नया न बोता ।।१४।।
दर्शन तोर ।
लाख चौरासी जोन नर्तन तोड़ ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
आठवां श्लोक
रह हवा के आस-पास ।
छू ही ले खुशबू आकाश ।।१।।
दूर कितना ? पौधे नन्हें आस्माँ ।
जो पास बागबाँ ।।२।।
शिल्पी के हाथ पाहन लागा ।
सोया सो…भाग जागा ।।३।।
बना पतंग का काम ।
ली आपने जो डोर थाम ।।४।।
परचम वो मंजिल दिखा ।
तुम जो रहे धका ।।५।।
समझो बनी बात ।
माटी क्या लागी कुम्हार हाथ ।।६।।
स्तवन तोर ये मोर ।
जोर-तोर होगा बेजोड़ ।।७।।
तेरे प्रसाद से ।
तीर राशि-नीर तैर हाथ से ।।८।।
तेरे प्रभाव से ।
लागेगी ये स्तुति नाव गाँव से ।।९।।
कोई भी आया द्वार ।
तुमने खोल दिया भण्डार ।।१०।।
माँगा सो पाया ।
तुमसे न माँगा,
तो गुना सौ पाया ।।११।।
छोड़ी थमा के ही मुकाम ।
अंगुली श्री जी ने थाम ।।१२।।
आखर ढ़ाई पढ़ा ।
द्वार श्री जी दृग् भिंजाई खड़ा ।।१३।।
न पड़ा तुम्हें सिखाना ।
आँसु औरों के पौंछ आना ।।१४।।
जो भी आया ।
दे दिया ‘कि इतना,
न झोली समाया ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
नवमां श्लोक
दूर स्तवन,
संकथा श्रवण भी तोर ।
बेजोड़ ।।१।।
दूर स्तवन, व्यथा-हरण ।
आप कथा श्रवण ।।२।।
दूर स्तवन, करे व्यथा गुम,
श्री जी कथा तुम ।।३।।
दूर संस्तुति, पुण्य कथा तुम्हारी ।
व्यथा संहारी ।।४।।
लिया नाम भी, है कम नहीं तेरा ।
गुम अँधेरा ।।५।।
कोई है जहाँ दोई काम…गो ।
तो है तेरा नाम वो ।।६।।
संस्तवन दूर,
लेते ही आप नाम ।
बनता काम ।।७।।
आपका नाम भी ।
कम नहीं,
राखे लाज शाम की ।।८।।
आपकी कथा की क्या कहें कथा ।
छू-मन्तर व्यथा ।।९।।
सुदूर स्तव,
छुआ क्या नाम तुम ।
भै शाम गुम ।।१०।।
श्रुति छोड़िये थुति,
गाथा आपकी ।
घाता पाप की ।।११।।
द्यु यूं ही नहीं चर्चित आप नाम ।
संवारे काम ।।१२।।
छुट्टी पाप की ।
महिमा बढ़ी आप नाम जाप की ।।१३।।
आप नाम की महिमा बड़ी ।
बन चाले बिगड़ी ।।१४।।
नाम करता सुख द्यु-शिव धाम ।
आपका नाम ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
दशमां श्लोक
सिर दिखाती पद दलिता माटी ।
तुम्हें क्या पाती ।।१।।
तुम्हें आता ही न ।
ए ! जिया दरिया, करना मना ।।२।।
नाम जपते-जपते तेरा ।
लाखों का पार बेड़ा ।।३।।
चिन्तामणी जो सोचा सो…दे ।
दें आप बिना ही सोचे ।।४।।
भगत आप, आप छाप ।
भजत भजत आप ।।५।।
भाग उसके हाथ में ।
जिसके तू रहे साथ में ।।६।।
घिस जादुई चिराग ।
‘आप’ देते हो बेहिसाब ।।७।।
आपने खुद सा किया ।
बदले में कुछ न लिया ।।८।।
घड़ी घुमानी पड़े ।
दें बना ‘आप’ काम बिगड़े ।।९।।
तेरा आशीष जिस पर ।
महके बन इतर ।।१०।।
छूने पे छोड़ चाले महक ।
आप चन्दन इक ।।११।।
न मदर सा ‘मदर्-सा’ ।
आप महत्-माँ नमो नमः ।।१२।।
दूज मिलन कला सीखे ।
भगवन् दूध सारीखे ।।१३।।
कल्प तरु न तुमसे आगे ।
कहाँ दे बिना माँगे ।।१४।।
आँखों का पानी
छूके आप चरण मोती रतन ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
ग्यारहवां श्लोक
देखें तुम्हें दृग् खुली या बन्द ।
एक अपूर्वानन्द ।।१।।
नूर अद्भुत सा एक ।
मिले नैनों को तुझे देख ।।२।।
खोजे जैसे माँ को छोना ।
वैसे तुझे खोजते नैना ।।३।।
औरों का सिर्फ होना ।
चाहे दुनिया तुझमें खोना ।।४।।
और गौर ।
दृग् देख तुम्हें,
न पाते हैं और ठौर ।।५।।
खोज आँखों की हुई गुम ।
टकरा जो चाले तुम ।।६।।
आँखों के रस्ते ।
आप हृदय में हैं जाते धसते ।।७।।
तुम जो चाले मिल ।
नैनों को मिल चली मंजिल ।।८।।
नैन पा चाले सुकून ।
देख तुम्हें ए ! चाँद पून ।।९।।
अमृत बिन्दु ।
तोर ‘दर्शन’, और अमित सिन्धु ।।१०।।
आंखों को नासा भाई ।
दृष्टि क्या आप पर टिकाई ।।११।।
पलकें भूलीं झपना ।
देख तुम्हें स्वप्न अपना ।।१२।।
और दर्शन खारा ।
सागर मीठा दर्श तुम्हारा ।।१३।।
और याद ही न आया ।
दृग् इन्होंने तुम्हें क्या पाया ।।१४।।
जुड़े बिछुड़े और से ।
दृग् तोर से जुड़े तो जुड़े ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
बारहवां श्लोक
वो माटी रही होगी और ।
गौर न तुम सा और ।।१।।
दिल नेक हो ।
आप अपने जैसे सिर्फ एक हो ।।२।।
चन्दन अग्नि परीक्षा गुम ।
सिर्फ तुम से तुम ।।३।।
आपके जैसा दूजा नहीं ।
क्या माटी लगाई वही ।।४।।
बेजोड़ गुण मणि जोड़ जोड़ ।
की रचना तोर ।।५।।
उगाल भू सो…ना गुमसुम ।
सिर्फ तुम से तुम ।।६।।
आप रचना की ।
लगा लगा गुण रतन माटी ।।७।।
कुछ हटके प्रतिमा तौर ।
नामो-निशां न खोर ।।८।।
तुम्हें विरच वो माटी गुम ।
सिर्फ तुम से तुम ।।९।।
गुण शगुन मणियों की पिटारी ।
मूर्ति तुम्हारी ।।१०।।
निर्झर झाग ।
सिर्फ तुम से तुम, जहर नाग ।।११।।
कोयला एक हीरा कुटुम ।
सिर्फ तुम से तुम ।।१२।।
करुणा अंग अंग ।
कुछ हटके प्रकृति रंग ।।१३।।
रचना तुम, चुन-चुन गुण ।
ए ! गुम औगुण ।।१४।।
कमल आस पास कर्दम ।
सिर्फ तुम से तुम ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तेरहवां श्लोक
नाम ही रक्खा आन…न ।
क्योंकि आप सा जहान ना ।।१।।
नाम ही रक्खा मुख ।
आप जैसा न युग प्रमुख ।।२।।
बंकिम ।
चाँद ‘मुखड़ा’
आप एक पूर्व पश्चिम ।।३।।
फूल चम्पक न लागे ।
आप शुक नासिका आगे ।।४।।
रात,
छुप के आत,
चाँद ‘मुखड़ा’ आप ।
निष्पाप ।।५।।
सूर तेजोमै माथा ।
देख गिर सु-मेर लजाता ।।६।।
क्षमा, करुणा धारा ।
दृग् आगे फीका झील नजारा ।।७।।
न सिर्फ वक्त्र ही ।
सत्, शिव, सुन्दर आप वक्त भी ।।८।।
आप-से जगत् ।
टपकती चहरे मासूमियत ।।९।।
रस्ते आँखन ।
जा वसे धस दिल आप आनन ।।१०।।
बड़ा पुण्य है ।
मुख प्रमुख आप सा न अन्य है ।।११।।
चाँद झाँकता बगल ।
मुख आप आप नकल ।।१२।।
नयनहार ।
मुख आपका आप सा मनहार ।।१३।।
चन्द्रमा खोर जोड़ ।
सार्थक नाम वद…न तोर ।।१४।।
कैसे कह दूँ मुख आप जल’ज’ ।
है जो अन्त्यज ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चौदहवां श्लोक
तू रक्खे आँखें नम ।
कोई भी जाता सुना ‘आ..गम’ ।।१।।
तुझे आता है खूब ।
आखर ढ़ाई पढ़ना डूब ।।२।।
अपना,
‘भारी’
बोझ तुम्हें न और का,
बलिहारी ।।३।।
अजनबी से वैसे ।
मिलता जैसे तू अपने से ।।४।।
कण कण से आती महक ।
तेरे नाम की यक ।।५।।
एक तेरा ही तो जशोगान गायें ।
दशों दिशाएँ ।।६।।
विरख पाती पाती ।
एक तेरा ही विरद गाती ।।७।।
झुका आसमाँ ।
क्षितिज के बहाने, तुम्हें छू पाने ।।८।।
तुम्हारे गुणों से ही चुराई ।
चाँद ने रोशनाई ।।९।।
न सिर्फ रास्ता दिखाये ।
तू अंगुली थाम चलाये ।।१०।।
कहाँ से पढ़ा तू ।
मिला बॉंटते जो औरों को खुश्बू ।।११।।
आया मैं झोली छोटी ले ।
दिया तूने तो हाथ ढ़ीले ।।१२।।
था निजी कोई दूर मुझसे ।
लागा मिल तुझसे ।।१३।।
बिगड़ी और की बनानी ।
आदत तेरी पुरानी ।।१४।।
किस जहां का तू ।
पर पीड़ा देख जो ढ़ोले आंसु ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पन्द्रहवां श्लोक
लौटाई आप ‘दीया’ दिखा ।
उर्वशी, रम्भा मेनका ।।१।।
उर्वशी लिया नमा तिलोत्तमा ।
श्री जी नमो नमः ।।२।।
था संभाल ‘मैं’ रखा ।
‘मे…न…का’ श्री जी सामने हवा ।।३।।
रोये जा रही तिलोत्तमा ।
श्री जी से माँग के क्षमा ।।४।।
न रिझा पाएं ।
अप्सराएं, घुटने टेक लजाएं ।।५।।
रम्भा रमण-भा नाकामयाब ।
दृग् तुम नायाब ।।६।।
नाक जो राखी आप आँख ।
उर्वशी वापिस नाक ।।७।।
दृग् उठा तुम ने न देखा ।
बगलें झाँके मेनका ।।८।।
नाम उवर्शी सार्थकता छू ।
तुम से जो रूबरू ।।९।।
रम्भा ने तुम आगे पकड़े कान ।
खो पुष्प बाण ।।१०।।
तुम्हें चला न सका विकार पन्थ ।
स्वैरणी तंत्र ।।११।।
भगवन् आप अकेले जित-रण ।
स्त्री चितवन ।।१२।।
जोर काफी ला ।
तोर डिगा न सका,
हूर काफिला ।।१३।।
भी’ तर आप,
क्या रोपेंगे लगाव ।
स्त्री हाव-भाव ।।१४।।
घुँघरू छार-छार ।
दृष्टि न पाई पे एक बार ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सौलहवां श्लोक
तले न तम परचम ।
अद्भुत दीपक तुम ।।१।।
हवा जान से न खेले ।
आप दीवा ऐसे अकेले ।।२।।
गिर के टूटें ।
और दिया, आप न किसी पे टूटें ।।३।।
जलायें जलें ।
और दिया आप न किसी से जलें ।।४।।
आपने सब दिया ।
दीया ने छुपा अंधेरा लिया ।।५।।
स्नेह वगैर जाग चाले ।
प्रदीवा आप निराले ।।६।।
दीप दूसरे जुगनू समां ।
आगे आप चन्द्रमा ।।७।।
और दीपों को श्वास ले छल ।
दीप आप अचल ।।८।।
न कौन कौन हवा हवाले ।
दीया आप निराले ।।९।।
दीये पड़ते कम ।
पा तुम्हें बढ़ चलता तम ।।१०।।
कज्जल को न लगाते गले ।
दीप आप विरले ।।११।।
न कुतरत बाती ।
दीपक आप त्रिजगत् थाती ।।१२।।
पीछे फूटते भाग ।
तुम सिवा न और चिराग ।।१३।।
टिमटिमाते ।
और दीपक तुम जगमगाते ।।१४।।
ए ! दृग् सजल ! ।
और दीप तो छोड़ चले कज्जल ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सत्रहवां श्लोक
गई आ शाम, पर न ढ़ले ।
सूर्य आप विरले ।।१।।
प्रताप, बिन आताप ।
दिन कर इतर आप ।।२।।
तपता रहे दिन भर ।
सूरज आप इतर ।।३।।
आताप नामो-निशान दूर ।
आप अद्भुत सूर ।।४।।
सिर्फ सुदिन मणी ।
सूर्य आप त्रिभुवन मणी ।।५।।
न झॉंके किस दिश् से आप ।
सूरत हिस्से हॉंप ।।६।।
दौड़ सुदर-दूर होड़ ।
सूरज आप बेजोड़ ।।७।।
वो अंगारे-सा धधके ।
‘सूर्य’ आप कुछ हटके ।।८।।
ढ़लता उग प्रगे ।
सूरज आप उगे तो उगे ।।९।।
साधा सूर्य ने एक लोक ।
न कहाँ आप आलोक ।।१०।।
याद शेष भू-द्यु-तम ।
‘ओ जश’ सूर्य अगम ।।११।।
लगी सू…रज में रज ।
आप जल भिन्न नीरज ।।१२।।
पानी जुबानी ।
सूर्य बढ़के,
आप राखते पानी ।।१३।।
बाद बाद’ल लगाये ।
आप सूर्य न झाँप पाये ।।१४।।
बहिरन्तर तम गुम ।
बढ़के सुरज तुम ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
अठारहवां श्लोक
सम्पूर्ण ।
आप और चन्द्रमा और
प्रायश: ऊन ।।१।।
भीतर ।
आप और चन्द्रमा और
नाम मात्र शीतल ।।२।।
निशंक ।
आप और चन्द्रमा और
राहु सशंक ।।३।।
चाँद अनूठे दूजे आप ।
बेदाग एक निष्पाप ।।४।।
स’मुद्र तुम ।
रीता अमृता चाँद समुद्र गुम ।।५।।
चॉंद बढ़ते बढ़ते घट चले ।
आप विरले ।।६।।
आप दूसरे नाम क्षमा ।
कलंक नामे चन्द्रमा ।।७।।
अक्षर आप के किस्से ।
घटा-बढ़ी चन्द्रमा हिस्से ।।८।।
चांद को मेघा झॉंप चले ।
किसी को न आप खले ।।९।।
उजाला थारी थाती ।
मुँ छुपा चॉंद निकले रात्री ।।१०।।
शश सिवाय शशि और कछु ना ।
आप क…छुआ ।।११।।
आप पंकज भिन्न पंक ।
मयंक हिस्से कलंक ।।१२।।
दुनिया थारे पीछे ।
इन्दु केवल सिन्धु को खींचे ।।१३।।
चॉंद पे रीझा चकोर ।
मुख मुख आपकी ओर ।।१४।।
आपने साक्षात् तारे ।
चॉंद के साथ नाम के तारे ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
उन्नीसवां श्लोक
निशि-नूर में दाग ।
आप से आप, सूर में आग ।।१।।
निकलें खोज आप पॉंवन रज,
चन्दा सूरज ।।२।।
चाँद भी, तुम सूर्य भी,
नहीं क्या क्या ? ।
ए ! तमहरा ।।३।।
नूर ‘मही’ के हैं ।
आप आगे सूर चाँद फीके है ।।४।।
मॉं मरु नन्दा ।
प्रति-छवियाँ तेरीं हीं सूर्य चन्दा ।।५।।
जायें तो जायें बुझ ।
चन्द्रार्क तुम जो अनबुझ ।।६।।
आपके आगे ।
नूर चन्द्रमा सूर किनारे लागे ।।७।।
विश्व रोशन ।
आप चन्द्रार्क और बस रोशन ।।८।।
खोलें न खुलें दृग् ।
चन्द्रार्क तेजो-मै तुम्हें निरख ।।९।।
हर तरफ से बौने ।
चाँद सूर्य आप सामने ।।१०।।
ओ’ शर्मा जाते ।
चन्द्रार्क जो आप से टकरा जाते ।।११।।
ज्यों ही आपसे मिलें ।
चन्दा सूरज झॉंकें बगलें ।।१२।।
ले तुम्हीं से तो नूर ।
बाँटते विश्व को चाँद सूर ।।१३।।
तेजो-मै देह आप ।
जुगनू चॉंद सूर्य प्रताप ।।१४।।
उग डूबना ।
और चन्द्रार्क आप भाँत डूब ना ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
बीसवां श्लोक
निराकुलता करीब आप ।
और करीब हाँप ।।१।।
मानस शान्त निराकुल आप ।
औ’ मावस छांप ।।२।।
आपके जैसा निराकुल कौन ?
हाँ, हाँ ! तीन भौन ।।३।।
‘रे कहाँ हर-द्वार ।
निराकुलता झो’री तुम्हार ।।४।।
तेरे अलावा ।
है कोई निराकुल,
तो, ना बाबा ना ।।५।।
निरा-कुल ।
तू खुश्बू
और ये सारी दुनिया गुल ।।६।।
सिवा तुम ।
न निराकुलता जल-भिन्न कुसुम ।।७।।
आगे हो ।
पंक्ति निराकुल,
तुम ओ ! बड़भागे हो ।।८।।
थारी बपौती ।
निराकुलता,
हर दीप न ज्योती ।।९।।
थारी बपौती ।
निराकुलता,
हर सीप न मोती ।।१०।।
निराकुलता पर-छाई धी गो’री ।
न हर झोरी ।।११।।
निराकुलता चिन्तामण ।
चन्दन न वन-वन ।।१२।।
लागा न हर दाव ।
निराकुलता पुण्य प्रभाव ।।१३।।
निराकुल तू ।
एक सिर्फ और सिर्फ
निरा…कुल तू ।।१४।।
तू जैसा निरा…कुल ।
वैसा न कोई, मिला के कुल ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
इक्कीसवां श्लोक
भटकन न गई खाली ।
मिला तू, मनी दीवाली ।।१।।
पाया भटक-भटक तुम्हें ।
छोड़ न देना हमें ।।२।।
भटकन भी भली ।
लागी हाथ जो तुम्हारी गली ।।३।।
‘रे भटकना भी अच्छा ।
मिला द्वारा जो सच्चा ।।४।।
भटकन ने आस्मां छुवाया ।
तुम से जो मिलाया ।।५।।
गया न व्यर्थ भटकना ।
तुमसे हुआ मिलना ।।६।।
न भटकन, रास्ता मंजिल ।
तुम जो गये मिल ।।७।।
मिले भटक भटक आप ।
बड़ा पुण्य प्रताप ।।८।।
भटक रहा था, टूट ही जाता ।
जो तुम्हें न पाता ।।९।।
भटकन से लाभ हुआ ।
द्वारा जो तिहारा छुआ ।।१०।।
पाया भटक भटक दर तेरा ।
सौभाग्य मेरा ।।११।।
भटकन न विरथा ।
मिला चाला, जो तेरा पता ।।१२।।
देवता और किरपा ।
जो खुश हूँ, तेरा दर पा ।।१३।।
खोज देवता विराम ।
तेरा पाया क्या सांचा धाम ।।१४।।
द्वार तुम्हार क्या दीखा ।
लागा द्वार और फीका ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
बाईसवां श्लोक
लाल न हाथ हाथ ।
आप सी आप की मात ।।१।।
आप सा पाय पुत्र अनन्य ।
नारी पर्याय धन्य ।।२।।
भागवान् ।
जिसे पुकारें कह के माँ
स्वयम् भगवान् ।।३।।
अनूठा ।
पाया तोर, ‘माँ’ और
सब कुछ ही झूठा ।।४।।
देके जनम ।
तव मात भ्रमण भव खतम ।।५।।
आप नन्दन ।
माँ वन-वन बीच भाँत चन्दन ।।६।।
जन्म सूरज पूरब ।
जन्म आप माँ अपूरब ।।७।।
आप माँ बेटे न कम ।
न करना आगे दृग् नम ।।८।।
पूर्व विरली ।
‘माँ सूर’ आप मिले न गली-गली ।।९।।
माई कतार ।
पूर्व भाँत अपूर्व माई तुम्हार ।।१०।।
चाहिये पुण्य बेजोड़ ।
बनने के लिये माँ तोर ।।११।।
लेख भवेक अवतारी ।
थारी माँ ने बाजी मारी ।।१२।।
माँ तोर धन्य ।
पलड़े ‘पर’ जग भर का पुण्य ।।१३।।
रक्खा मॉं तोर ।
सार्थक अनामिका अंगुली और ।।१४।।
सिरफ आप पात सपूत ।
पांत मात अटूट ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तेईसवां श्लोक
दीया जलाना ।
तम ‘भगाने’ यम
तुम्हें रिझाना ।।१।।
काल ।
आपके भक्त का,
न कर सका बाँका बाल ।।२।।
मिलना हाँप ।
करे तो पीछा,
मौत क्यों भक्त आप ।।३।।
थारे भक्त ।
न भिंगातें दृग्,
दुनिया से जाते वक्त ।।४।।
मौत देखे दृग् तरेर जगत् ।
छोड़ तोर भगत ।।५।।
तलक आज ।
भक्त तुम रूबरू न यमराज ।।६।।
तोर करुणा ।
मृत्युंजय ले बना और अपना ।।७।।
मौत को कोई कामयाब हराने ।
तो-‘रे दीवाने ।।८।।
भक्त तेरे न जबर कम ।
टेके घुटने यम ।।९।।
तेरे भक्त ने धूल चटाई ।
यम स्वयम् बताई ।।१०।।
ढ़क न पाया कफन तिन्हें ।
तेरी शरण जिन्हें ।।११।।
मौत उसका न काटे टिकट ।
जो तेरे निकट ।।१२।।
जिन्दगी और मौत से न लड़ते ।
तेरे लाड़ के ।।१३।।
चिट्ठी मौत, आ पड़ी न किसी द्वारे ।
तो भक्त थारे ।।१४।।
सुना न देखा ।
मौत ने भक्त तेरे हो पत्र लिक्खा ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चौबीसवां श्लोक
पुरु तुम हो ।
पुरु प्रथम तुम, पुरुषोत्तम हो ।।१।।
अजरामर ।
जिष्णु, विष्णु भी तुम शिव शंकर ।।२।।
दूर प्रपंच कोई ।
तो तुम, तुम विरंच सोई ।।३।।
भोला भण्डारी हो तुम ।
त्रिपुरारी कोई तो तुम ।।४।।
ब्रह्मा, नृसिंहा, हरि-हर ।
तू शम्भू, शिव, शंकर ।।५।।
जहाँ दोई ।
श्री हरि, कहे तो तुम्हें शंकर कोई ।।६।।
तुम जिष्णु हो ।
अतनु हो, अणु हो,
तुम विष्णु हो ।।७।।
रुद्र हो, बुद्ध हो
तुम्हीं प्रबुद्ध हो, अनिरुद्ध हो ।।८।।
रह रहा न शब्द ही गुमसुम ।
मद…न तुम ।।९।।
दृगेक नम ।
भू तुम शंभू तुम, स्वयम्-भू तुम ।।१०।।
गणधरप, दिगम्बर भेष ।
सो तुम्हीं गणेश ।।११।।
लिया जो मोह मन, त्रिभुवन ।
सो तुम्हीं मोहन ।।१२।।
करने से गो ‘लोगों’ की देखभाल ।
तुम्हीं गोपाल ।।१३।।
बुद्ध कहते ।
बौद्ध, तुम्हें ही शैव रुद्र कहते ।।१४।।
शबरी राम तुम्हीं चन्दन वीरा ।
गोपाल मीरा ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पच्चीसवां श्लोक
कोई मंगल ।
तो धर्म, श्री जी,
सिद्ध प्रसिद्ध कल ।।१।।
कोई उत्तम ।
तो अरिहन्त, सिद्ध, साधु, धरम ।।२।।
कोई शरण ।
तो धर्म, अरिहन्त, सिद्ध, श्रमण ।।३।।
तुम मंगल प्रथम हो ।
शरण हो, उत्तम हो ।।४।।
तू न मंगल ही ।
एक उत्तम भी, शरण तुम्हीं ।।५।।
कोई ।
मंगल, उत्तम, शरण
तो तू जहाँ दोई ।।६।।
मंगल तुम ।
लोक उत्तम तुम, शरण तुम ।।७।।
आप मंगलों में मंगल पहले ।
हैं ही विरले ।।८।।
तुझे दूँ ढ़ोक मैं ।
कोई जो उत्तम तो तू लोक में ।।९।।
जगत जगत् में तू ।
यूँ ही न तेरा भगत मैं हूँ ।।१०।।
तुम उत्तम नेक ।
मंगल तुम शरण एक ।।११।।
मंगलकर तुम हो ।
अमंगल-हर तुम हो ।।१२।।
ग्रन्थ, माहन्त, सिद्ध नन्त सन्त जै ।
चैत्य चैत्यालै ।।१३।।
उमंग लाते तुम ।
‘मंगल’
अहम् गलाते तुम ।।१४।।
भी-धी, असि, आउसा मंगलम् ।
सत्यं शिवम् सुन्दरम् ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
छब्बीसवां श्लोक
नमन सिद्ध अरिहन्त ।
नमन सन्त निर्ग्रन्थ ।।१।।
सिद्धों की जय ।
अरिहन्तों की जय,
दो सन्तों की जय ।।२।।
जयन्त सिद्ध-प्रसिद्ध अरिहन्त ।
सन्त निर्ग्रन्थ ।।३।।
जै अरिहन्त ।
जै सिद्ध, जै सूरि,
जै पाठी, जै सन्त ।।४।।
अरिहन्त जै, सिद्ध अनन्त जै ।
निः ग्रर्न्थ सन्त जै ।।५।।
सिद्ध वन्दना, अरिहन्त वन्दना ।
सन्त वन्दना ।।६।।
जै जै जै सिद्ध अरिहन्त ।
जै जै जै सन्त निर्ग्रन्थ ।।७।।
नमन सिद्ध अनन्त ।
अरिहन्त नगन सन्त ।।८।।
सिद्ध अनन्त, अरिहन्त ।
जै हो, जै हो साधु सन्त ।।९।।
ॐ नमो नमः ।
असिसा नमो नमः
जूं नमो नमः ।।१०।।
आ जयति जै ।
सि जयति जै
आउसा जयति जै ।।११।।
सिद्ध अनन्त अरिहन्त ।
जयति जय निर्ग्रन्थ ।।१२।।
प्रणाम,
गुणधाम बीस-आठ’ ।
‘छ: चालीस आठ ।।१३।।
जयवन्त हों ।
विशुद्ध सिद्ध, बुद्ध
जयवन्त हों ।।१४।।
नमन निशि-दीस ।
शीश ईश, शिरीष, ऋषीश ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सत्ताईसवां श्लोक
काँधे अपने रक्खे तू मिले रोज ।
और का बोझ ।।१।।
और की चोट पे पड़ना चीख ।
ली कहाँ ये सीख ।।२।।
हो चाले नैना आप नम ।
सुनके औरों का गम ।।३।।
जोड़ने नाता ।
द्वारे तुम्हारे गुण लगा के ताँता ।।४।।
कर किनारे दोष कुटुम ।
गुण पिटारे तुम ।।५।।
दोष खा रहे हैं महत ।
औरों के बन भगत ।।६।।
पराश्रित औ’गुण ।
आप चमन गुण सुमन ।।७।।
प्रभावित औ’ गुण और ।
सगुण सो आप ठौर ।।८।।
औरों को पाके औ’गुण ।
सार्थ नाम आप स….गुन ।।९।।
गणनातीत ।
तोर गुण ।
औ’गुण औरन मीत ।।१०।।
करें तुमसे कैसे दोष दोस्ती ।
न थारे साथ स्त्री ।।११।।
दोष आते न थारे पास ।
बने जो ओरों की श्वान ।।१२।।
ओरों से मिले जो इतना ।
दोषों ने न तुम्हें गिना ।।१३।।
औरों से जोड़ डोर ।
दोष देखें क्यों तोर ओर ।।१४।।
स्वप्न भी झांकें कैसे दोष ? ।
सदैव आप सहोश ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
अट्ठाईसवां श्लोक
तिहार पाँव पखार ।
अरु-तरु सदाबहार ।।१।।
जो रूबरू तू, क्यूँ न तोड़े ।
रु-तरु हाथ से तारे ।।२।।
वृक्ष अशोक तर गया ।
पा तुम्हें क्या ‘तर’ गया ।।३।।
हो चला शोक वृक्ष अशोक गुम ।
मिले जो तुम ।।४।।
आ बैठा पाँत आप भाँत रू-तरू ।
तू जो रूबरू ।।५।।
किस्मत वाला ।
तर अशोक तुम आसन माड़ा ।।६।।
नाचे रु-तरु बिन बाजे ।
तुम जो आन विराजे ।।७।।
आ बैठे तुम जो अरु तरु ।
अच्छे दिन रूबरू ।।८।।
थिरके वृक्ष अशोक पात-पात ।
पा आप साथ ।।९।।
मन भाता रु-तरु छाता ।
विराजे आके विधाता ।।१०।।
रु-तरु चाँदी चाँदी ।
तुमनें ‘जी’ में जो जगह दी ।।११।।
वृक्ष अध्यक्ष, दे तुम्हें ढ़ोक, खूब ।।
कमाये डूब ।।१२।।
‘पा-तर’ तुम्हें बैठा ।
रु-तरु भाग चमक उठा ।।१३।।
हाथ रु-तरु जादू चिराग ।
तुम्हें पा ‘महाभाग’ ।।१४।।
हाथ रु-तरु जादू-छड़ी ।
नजर तेरी क्या पड़ी ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
उन्तीसवां श्लोक
माड़ा क्या तुमनें आसन ।
सुर्ख़ियों में सिंहासन ।।१।।
सिंहासन भौ-जल तरण ।
धन ! आप शरण ।।२।।
सिंहासन छू चला अम्बर ।
तुम से जुड़ कर ।।३।।
बढ़ पारस सिंहासन ।
पा आप रज चरण ।।४।।
बाजे थे जेते बाजे ।
सिंहासन क्या आप विराजे ।।५।।
पीठ विहर-दीठ तोर ।
देखते ही हाथ भोर ।।६।।
किरपा दृष्टि तुम्हारी ।
सिंहासन ने बाजी मारी ।।७।।
रत्नों से जड़ा ।
मोहन सिंहासन सुन्दर बड़ा ।।८।।
नासा नजर ।
सिंहासन विराजे आप अधर ।।९।।
पा गया न क्या कुछ सिंहासन ।
पा आप पाँवन ।।१०।।
तरफ पीठ पीठ माया ।
तुमने क्या अपनाया ।।११।।
छुये आसमाँ सिंहासन पतंग ।
आप के संग ।।१२।।
औ’भाग ऊन ।
तुम्हें पा सिंहासन सौभाग पून ।।१३।।
बदल चला सिंहासन रंग ।
पा आपका संग ।।१४।।
खजाना हाथ सिंहासन ।
माडा क्या तूने आसन ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तीसवां श्लोक
ऊपर, नीचे से ले जाते ।
चँवर देव बताते ।।१।।
चॅंवर बड़े अच्छे ।
फूलों के खिले खुल्ले ज्यों गुच्छे ।।२।।
चौंर बहाना ।
देवों को निकटता और जो पाना ।।३।।
दल अमर ।
नैनाभिराम लिये चल चॅंवर ।।४।।
सार्थक संज्ञा अमर ।
ढ़ोरने से आज चामर ।।५।।
चँवर रास्ते रोड़े गुम ।
पास जो इतने तुम ।।६।।
चामर मृग कस्तूरी ।
की कम क्या तुमने दूरी ।।७।।
चामर कृपा तोर पा ।
खुश भव जल छोर पा ।।८।।
अम्बर ।
झिलमिल झिलमिल चौं-सठ चॅंवर ।।९।।
तुझे पाकर ।
रुतबा हटके ही कुछ चामर ।।१०।।
चॅंवर ।
गिन न पाते अगुलियों पर अमर ।।११।।
चाँदनी चाँद शर्माई ।
भा चँवर न देख पाई ।।१२।।
सोने-सुहाग ।
दोर तोर पाकर चामर भाग ।।१३।।
चँवर और पुष्प कुन्द ।
ढ़ोरते अमर वृन्द ।।१४।।
चँवर चॉंदी ।
वाह ढ़ोरने वालों की चॉंदी-चॉंदी ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
इकतीसवां श्लोक
छतर नैय्या पार ।
ज्यों ही तुम से अखियाँ चार ।।१।।
दो जहाँ में छा गये ।
छत्र आप से जुड़ क्या गये ।।२।।
कहते तीन छतर ।
आप तीन लोक ईश्वर ।।३।।
छतर और चन्दर ।
मनहर जग अन्दर ।।४।
छतर तीन ।
फिरते शीश ईश प्रवर चीन ।।५।।
सबसे आगे हुये छतर ।
आप से जुड़कर ।।६।।
तुम क्या मिले ।
अदब से छतर से जहां मिले ।।७।।
टके चादर छतर चाँद तारे ।
द्वारे आ थारे ।।८।।
शिव सुन्दर सत् ।
अधर छतर चिन-भूपत ।।९।।
चॉंद छतर तारा छल्लरी ।
आप सुषमा निरी ।।१०।।
चॉंदी चॉंदनी फीकी ।
सुषमा आप छतर नीकी ।।११।।
चॉंद सिर पे बन छत्र छा गया ।
पा आस्मां गया ।।१२।।
बहाने छत्र छा सिर ।
पायी चाँद कीमत फिर ।।१३।।
नीचे ऊपर ।
बड़ा, छोटा, मंझला बीच छतर ।।१४।।
सूर प्रताप हर आप सर ।
छा चले छतर ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
बत्तीसवां श्लोक
भेरी दे रही आवाज ।
आओ यहाँ सद्धर्म राज ।।१।।
भेरी किस्मत जागी ।
खातिर तेरी जो दौड़ी भागी ।।२।।
दो जहां बस एक तू ही ।
दिश् विदिश् कहे तुरही ।।३।।
क्षय हो पाप ढ़ेरी ।
कहती भेरी जय हो तेरी ।।४।।
अद्भुत नाद तूर्य ।
विराजे यहाँ सद्धर्म सूर्य ।।५।।
पास ही भॉंत-भॉंत के ढ़ोल ।
पर सुहाने बोल ।।६।।
बाजे बाजे ।
‘कि सत्य धरम राज यहाँ विराजे ।।७।।
दुन्दभी बाजी ।
‘कि आपने ली जीत द्वन्द ही बाजी ।।८।।
कोन कोन से ।
सुर बाजे बाजे न कौन कौन से ।।९।।
लगाती फेरी भेरी दिश् दश ।
गाती तुम्हार जश ।।१०।।
भेरी की चाँदी चाँदी है ।
कीरत जो थारी गाती है ।।११।।
कुछ हटके भेरी गई पा स्वर ।
तुम्हें पाकर ।।१२।।
भेरी किस्मत वाली ।
ले पाती तेरी दिश् विदिश् चाली ।।१३।।
कांधे किसी के जगाने का काम ।
तो भेरी के नाम ।।१४।।
रवि न कवि
जहाँ पहुँच वहाँ तुर्ही तुमरी ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तेतीसवां श्लोक
अपूर्व पुष्पों की बरसात ।
मन्द पवन साथ ।।१।।
नाम सुन्दर, सुन्दर वर्षा फूल ।
तरु अमूल ।।२।।
देखा ‘कि जिया हर्षा ।
वन नन्दन पुष्पों की वर्षा ।।३।।
दिव्य, सुन्दर, पारिजात ।
पुष्पों की बरसात ।।४।।
भू विस्फारित देखे नयन ।
वर्षा पुष्प गगन ।।५।।
सुगन्ध मन्द-मन्द पवन ।
वर्षा पुष्प गगन ।।६।।
फूलों की झड़ी लागी ।
देखने आई वसुधा भागी ।।७।।
मनमोहक,
वो गन्धोदक वर्षा फूल ।
अमूल ।।८।।
चाले पवन अनुकूल ।
पवन बरखा फूल ।।९।।
नीले अम्बर से ।
नन्दन वन के कुसुम वर्षे ।।१०।।
अजूबा, वर्षा रहा गगन ।
भाँत पानी सुमन ।।११।।
देव हरषा-हरषा ।
कर रहे पुष्प बरसा ।।१२।।
हर्षा सु-मन ।
धन सम-शरण वर्षा सुमन ।।१३।।
लग कतार ।
बरसात सु-मन जगत पार ।।१४।।
सौख ।
वारिस सुमन,
हा ! बारिश सु-मन मोख ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चौंतीसवां श्लोक
विचित्र ।
देखा भा-मण्डल में,
दीखे भवों के चित्र ।।१।।
हस्तामलक भाँत ।
भा-मण्डल में दीखे भौ सात ।।२।।
श्री जी अंक भा-वृत्त शून ।
आ पीछे मयंक पून ।।३।।
दूर आताप ।
भा-मण्डल कोटिक सूर प्रताप ।।४।।
जीते गुमाँ भा कुटुम ।
भा-मण्डल भा हेतु तुम ।।५।।
भा-मण्डल भा नीकी ।
आगे भा कोटिक चन्द्रमा फीकी ।।६।।
शुभ शगुन ।
भा-मण्डल भा सभा करे दुगुण ।।७।।
तुमसे जुड़ी क्या प्रीत ।
न कौन भा-मण्डल मीत ।।८।।
चित्त-चोर ।
भा-मण्डल आ प्रतिभा मंडल तोर ।।९।।
‘भी’ कुटुम ।
भा-मण्डल आ प्रतिभा मण्डल तुम ।।१०।।
केवली देखा ।
भा-वृत्त भव भव भा लेखा जोखा ।।११।।
क्षितिज छोर तक ।
भा भा-मण्डल और बनक ।।१२।।
सूर-करोड़ ।
भा-मण्डल भा जीते, सोम बेजोड़ ।।१३।।
भामण्डल दृग् धारी बनाता ।
भव सात दिखाता ।।१४।।
जग-मग भा-मण्डल,
जग मग जो पाया ।
माया ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पैंतीसवां श्लोक
भी भींजे तुम वयन ।
देते खोल तीजे नयन ।।१।।
अंधेरे लड़ ना
जगा दीया,
कहें तेरे वयना ।।२।।
जहान,
आप वचनामृत पान ।
अंजुली कान ।।३।।
सुहानी, तेरी वाणी कल्याणी ।।
गंगा पानी लासानी ।।४।।
कभी न हारी ।
‘भी-वाणी’ चाहे ही न जीतना पारी ।।५।।
अनोखी है ।
‘भी’ वाणी
सोने जैसी सौ टंच चोखी है ।।६।।
अन्तर् अन्धर गुम ।
वचन जादू मन्तर तुम ।।७।।
हर प्रश्न का राखी उत्तर ।
वाणी ‘भी’ अनुत्तर ।।८।।
दे बना जन्मों की बिगड़ी ।
वाणी ‘भी’ जादुई छड़ी ।।९।।
भवि ‘भी’ वाणी अक्षर अक्षर ।
सत् शिव सुन्दर ।।१०।।
सराहनीय मुक्त कण्ठ सुरभि
और सुर ‘भी’ ।।११।।
सीधे दिल में जा धसे ।
‘भी’ वाणी न किसी पे हँसे ।।१२।।
तू तू मैं मैं को पीछे आई छोड़ ।
‘भी’ वाणी बेजोड़ ।।१३।।
मिसरी घुरी ।
वाणी कल्याणी,
आप सुर मुरली ।।१४।।
बोल निसरे मुख श्री जी ।
ऐसे न वैसे सुर’भी’ ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
छत्तीसवां श्लोक
कमल ।
चालें पर आप अधर विहार पल ।।१।।
चल कतार पन्द्रा-पन्द्रा कमल ।
विहार पल ।।२।।
दीखें धरा पे कमल ही कमल ।
विहार पल ।।३।।
देवों के द्वारा ।
कमलों की रचना साथ जैकारा ।।४।।
पुण्य करते जेब ।
पद्म रचना करके देव ।।५।।
सामने शिव सद्म ।
देव करके रचना पद्म ।।६।।
कमाये खूब बिना खरच ।
देव कमल रच ।।७।।
दीखे नवल धवल ।
भू कमल विहार पल ।।८।।
प्रभु ने नहीं पर्से ।
‘सु-मन’ कौन पै नहीं हर्षे ।।९।।
वसुधा बनी वनी कमल ।
आप विहार पल ।।१०।।
पद्म रचना ।
सिवाय आप कहीं और सच ना ।।११।।
ली पुण्य पद्मा झोली भर ।
‘द्यु’ पद्म रचना कर ।।१२।।
कम… ल लाये था न सुनना,
सो…न कमल लाये ।।१३।।
बेमोल बिक चले ।
देव कमल विरच चले ।।१४।।
ओ ! शिव सद्म परछाई ।
न सिर्फ पद्म विछाई ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सैंतीसवां श्लोक
महिमा सम-शरण ।
जमान्ध पा जाते नयन ।।१।।
अन्तर तम न तले भी जिया ।।
सम-शरण दीया ।।२।।
सम-शरण वैर दूर ।
अदूर साँप मयूर ।।३।।
प्रश्नों के हल पा ।
सम-शरण, हो मनवा हल्का ।।४।।
वैर छोड़ के सिंह पास हिरण ।
सम-शरण ।।५।।
कहीं और न त्रिभुवन ।
विभव सम-शरण ।।६।।
पाय सोपान सम-शरण ।
आय पास भगवन् ।।७।।
तारे, उतारे अपने गाँव ।
सम-शरण नाव ।।८।।
बढ़ चढ़ के ही सम-शरण ।
‘गो’-तम गौतम ।।९।।
अनुत्तर, दे उत्तर पूछे बिन ।
सम-शरण ।।१०।।
सम-शरण ।
सभाएँ तारा शशि जिन भगवन् ।।११।।
देखें साक्षात् समव-शरण ।
वे धन्य नयन ।।१२।।
भक्तों की लागी पाँत ।
सम-शरण अपने भाँत ।।१३।।
सम-शरण न सिर्फ उपदेश ।
स’भा स्व-देश ।।१४।।
सम-शरण ऐसी कहाँ ।
नागिन मैं…ढ़क जहाँ ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
अड़तीसवां श्लोक
लेते ही आपका नाम ।
भय गज काम तमाम ।।१।।
ज्यों ही तुमको पुकारा ।
भय गज यम को प्यारा ।।२।।
जुबाँ छुवा ज्यों ही नाम तुम ।
भय गजेन्द्र गुम ।।३।।
पा तेरी छत्र-छाँव ।
उखड़ें भय गजेन्द्र पाँव ।।४।।
भय गज छू-मन्तर ।
पलक, तुम्हें लें क्या सुमर ।।५।।
जप क्या नाम आप संजोया ।
भय गजेन्द्र खोया ।।६।।
पुकारते ही तुम्हें दृग् नम ।
भय गज खतम ।।७।।
तेरी भक्ति में मन क्या लागा ।
भय गजेन्द्र भागा ।।८।।
कहा त्राहि माम्, कहाँ हो तुम ।
भय गजेन्द्र गुम ।।९।।
भय गज ले आप राह ।
लेते ही आप पनाह ।।१०।।
भय गजेन्द्र स्मृति शेष ।
पा तेरी छाँव विशेष ।।११।।
भय गजेन्द्र धरासाई ।
तेरी क्या शरण पाई ।।१२।।
जुड़ा क्या तुमसे रिश्ता ।
भै गज जा जमीं धसता ।।१३।।
तुम्हें बस लें पुकार ।
भय गज चित् खाने चार ।।१४।।
भय गजेन्द्र नापा रास्ता ।
जुड़ा क्या तुमसे रिश्ता ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
उन्तालीसवां श्लोक
मग्न भक्ति जो तुम हो गया ।
भय सिंह खो गया ।।१।।
तुम्हारा जय कारा क्या छुआ ।
भय सिंह छू हुआ ।।२।।
जै मातु मरु दृग् नूर ।
भै सिंह चकनाचूर ।।३।।
जुदा जिनेन्द्र जय रिश्ता ।
मृगेन्द्र भय रिसता ।।४।।
तार मन क्या तुमसे जुड़े ।
सिंह-भै दो टुकड़े ।।५।।
भय केशरी किनारे ।
सुन सिरी जी जयकारे ।।६।।
सिंह ने छोड़ी क्रूरता ।
भक्त तेरा अभी दूर था ।।७।।
भय मृगेन्द्र भागे ।
रटना जय जिनेन्द्र आगे ।।८।।
ओट पर्वत तेरी भक्ति ।
काफूर केशरी शक्ति ।।९।।
बर्बर शेर बब्बर आप भक्त आगे ।
अभागे ।।१०।।
केशरी दाबी दुम ।
था पूछा, क्या ? श्री जी भक्त तुम ।।११।।
केशरी लगा के पंख छू ।
कम न जै श्री जी जादू ।।१२।।
काफी जै श्री जी आखर ।
भरता हांपी नाहर ।।१३।।
कहते ही जै आद नृसींह ।
घात, भै-नाद-सींह ।।१४।।
नाद जै आद कानन ।
डब-डब दृग् पंचानन ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चालीसवां श्लोक
काफी है आप नाम जल ।
बुझाने सभी अनल ।।१।।
वैरागी !
आप नाम जल से ।
आगी, बुझे जल्द से ।।२।।
छू आप नाम पानी ।
न चाले अग्नि की मनमानी ।।३।।
अग्नि आप ही समाती ।
आप नाम पानी क्या पाती ।।४।।
समेटी अग्नि ने माया ।
आप नाम पानी क्या पाया ।।५।।
नाम तिहार पानी, क्या मिली ? ।
अग्नि ‘के बुझ चली ।।६।।
पा आप कृपा, बुझनी ही बुझनी ।
ज्वाला अगनी ।।७।।
आ चली आपे में आगी ।
लगन क्या तुम से लागी ।।८।।
अग्नि की गर्मी छू-मन्तर ।
जै जै श्री जी छू मन्तर ।।९।।
दव दबने के रास्ते चली ।
भक्त आप क्या मिली ।।१०।।
दाब दबा ली जाती ।
हो बस भक्ति तिहारी थाती ।।११।।
अनूठी तेरी भक्ति ।
दाबा दावे के साथ बुझती ।।१२।।
पा पानी तोर नाम ।
ठगनी अग्नि काम तमाम ।।१३।।
दाब प…वन जलाती ।
पानी नाव आप सिराती ।।१४।।
अग्नि ले मुंह फेर ।
तुझे बुलाने भर की देर ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
इकतालीसवां श्लोक
सामने आप महाकाल ।
न गली काल की दाल ।।१।।
सरफ ।
किसी का जो भक्त,
तो भक्त आप सिरफ ।।२।।
नागन ।
आपके भक्त का,
छूती भी नहीं आंगन ।।३।।
नाग,
बुझाते होंगे चिराग,
छोड़ ।
पे भक्त तोर ।।४।।
छू बिन बोले ।
साँप सामने भक्त तोर सपोले ।।५।।
सांप खोजते पिटारी ।
देख तोर भक्त पुजारी ।।६।।
शामत सांपों की ।
इबादत भक्त तोर अनोखी ।।७।।
तोर भक्त क्या आया नजर ।
साँप के लागे ‘पर’ ।।८।।
धरती धरे रहो तक्षक ।
श्री जी मेरे रक्षक ।।९।।
फण दूर, दृग् न उठा पाया साँप ।
किरपा आप ।।१०।।
बदला साँप ने रस्ता ।
था जुड़ा ही आपसे रिश्ता ।।११।।
सामने तोर भक्त अही ।
रह भी रहता नहीं ।।१२।।
उरग मग पकड़ते ।
न भक्त-तोर भिड़ते ।।१३।।
भागा धरण रण छोड़ ।
देखते ही भक्त तोर ।।१४।।
आप कीर्तन भजन ।
साँप मंत्र वशीकरण ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
ब्यालीसवां श्लोक
न कौन छोड़ मैदान भागे ।
तोर भक्त के आगे ।।१।।
लड़े तो लड़े कौन ।
तुम्हार भक्त प्रलय पौन ।।२।।
‘राज’-भक्त से ताकत आजमाना ।
शामत लाना ।।३।।
थारे भक्त से झगड़ना ।
‘आ बैल मार कहना’ ।।४।।
गले न शत्रु की दाल ।
बने भक्ति भगवत् ढ़ाल ।।५।।
तोर भक्त को ललकारना ।
हाथ वामी डालना ।।६।।
दौड़ गीदड़ गाँव तरफ ।
भक्त तोर झड़प ।।७।।
देख सामने भक्त तुम ।
सशस्त्र भी दावे दुम ।।८।।
बताते ।
तेरे अपने,
सपने भी न मात खाते ।।९।।
लेते ही आप का नाम ।
रफा दफा भय संग्राम ।।१०।।
मेहरबान तू ।
मजाल क्या ? ले दृग् शैतान छू ।।११।।
रण भूम ।
जै श्री पाते,
तोर भक्त जी जो मासूम ।।१२।।
लड़ाई ।
थारे भक्तों के ऊपर,
‘रे लाड़ दिखाई ।।१३।।
भले सामने भट्ट ।
लिखता तोर भक्त जै पट्ट ।।१४।।
प्रतिद्वन्दी का फूटता सर ।
भक्त थारे वज्जर ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
तैंतालीसवां श्लोक
टूक ज़िगर ।
क्यूॅं न रक्खें भगवन्,
भक्त खबर ।।१।।
मेरा सिर पा रहा तेरी किरपा ।
डर फिर क्या ? ।।२।।
मोती आँखों का था गिरने वाला ।
आ तूने संभाला ।।३।।
काफी दी एक आवाज ।
आ भगवान् राखते लाज ।।४।।
बला खो चली ।
दी थी आवाज मैंने तुझे अकेली ।।५।।
बुलाने भर की देर ।
न देखे तू सांझ सबेर ।।६।।
मुझे तो नहीं ध्यान ।
‘के भक्त हुआ हो परेशान ।।७।।
गलत ।
आना न पड़ता,
भगवन् आते भगत ।।८।।
बुलाते,
आते भगवन् दौड़ ।
भक्ति की शक्ति और ।।९।।
ख़ुशी के आंसू बताते ।
‘के भगवन् भगत आते ।।१०।।
भक्त करे, तो क्यूॅं न फक्र ।
भगवन् जो करें फ़िक्र ।।११।।
रहते आस-पास ।
मेरे भगवन्,
बन के श्वास ।।१२।।
जानें कौन ?
दृग् मींचे ।
भगवत् या, भगत पीछे ।।१३।।
भक्त हृदय परमात्मा ।
दूर न ‘कि कहीं आस्मां ।।१४।।
बस भक्ति से भरना ।
आगे फ़िक्र नहीं करना ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
चबालीसवां श्लोक
लेते ही नाम तोर ।
पनडुबिया लगती छोर ।।१।।
डूबूँ मैं, हाथ देकर ।
लो मुझको खींच ऊपर ।।२।।
हृदय आप नाम ज्योत ।
लहर खा पार पोत ।।३।।
हो कभी डूबी,
भक्त पनडुबी न देखा ।
न लेखा ।।४।।
आप जाप की कम न खूबी ।
पार ऊ पनडूबी ।।५।।
देर फंसी न रहती जहाज ।
दे तुम्हें आवाज ।।६।।
नौ डगमग ।
पा तुम कृपा,
जाती किनारे लग ।।७।।
हिम-खण्ड,
न हो सकी खण्ड-खण्ड नौ ।
जै हो प्रभो ।।८।।
बेड़ा पार हो चला ।
आप से तार मन क्या जुड़ा ।।९।।
लगी किनारे नावा ।
सहाई कौन थारे अलावा ।।१०।।
नाव ने गाँव पाया ।।
तोर ‘नाव’ जै कारा लगाया ।।११।।
छू जल-धारा मनमानी ।
करुणा तेरी लासानी ।।१२।।
बची डूबते-डूबते नाव ।
‘नाव’ तोर प्रभाव ।।१३।।
डूब ही जाती मोरी नैय्या ।
तू जो ना होता खिवैय्या ।।१४।।
लहर कांधे नाव पार ।
था लिया ‘नाव’ तिहार ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
पैंतालीसवां श्लोक
तेरी पड़ती क्या नजर ।
ज़िन्दगी जाती सॅंवर ।।१।।
देहरी छूते ही तुम्हारी ।
छू होती दुख बीमारी ।।२।।
तेरा विरद ।
बातों ही बातों में, दे मेंट दरद ।।३।।
गन्धोदक क्या माथे चढ़ाया ।
रोग शोक सफाया ।।४।।
हाथ आप क्या पकड़ा ।
थमा सिन्धु पीर उमड़ा ।।५।।
पाँव रखते ही तोर पाले ।
रोग खिसक चाले ।।६।।
जुबां छुवाई, तुम नाम दवाई ।
रोग विदाई ।।७।।
विघटे मेघ रोग ।
पा तुम नाम हवा संजोग ।।८।।
छू तुम नाम मिहिर ।
छू-मन्तर रोग तिमिर ।।९।।
शोर मोर छू के नाम तुम ।
रोग नागिन गुम ।।१०।।
तेरा क्या नाम लिया ।
रोगों ने जाने का नाम लिया ।।११।।
रोगों ने मुड़ न लक्खा ।
तेरा नाम जुबाँ पे रक्खा ।।१२।।
मुझे चन्दन मलयज ।
आपके पैरों का रज ।।१३।।
कहा जै आदि ।
नाम तोर बेजोड़ सुदूर व्याधि ।।१४।।
रोग हवाले हवा ।
आप चरण जुग क्या छुवा ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
छियालीसवां श्लोक
करो न देर ज्यादा ।
जादू टोना,
मैं अकेला नादां ।।१।।
तेरी चौखट छुई ।
बाधा ऊपरी चौपट हुई ।।२।।
डाली तूने क्या नजरे-रहम ।
छू-मन्तर गम ।।३।।
आदि कृपा से ।।
सुलटते तुरत ही उलटे पांसे ।।४।।
कहते ही जै आद ।
आप ऊपरी बाधा निजात ।।५।।
दुठ जन्तर मन्तर नौ दो ग्यारा ।
आद पुकारा ।।६।।
पढ़ जै आद, पल अन्दर झूठ ।
मन्तर मूठ ।।७।।
जै आद छुआ ।
बन्धन कोई भी हो, दो टूक हुआ ।।८।।
बन्धन टूट चला ।
मुख से आद जै क्या निकला ।।९।।
काली नज़र करे किनारा ।
सुन आद जै कारा ।।१०।।
गुम ताकतें शैतानी ।
लगन जै आदि लगानी ।।११।।
काली शक्तियाँ जातीं हैं सिहर ।
जै आदि सुमर ।।१२।।
नजर काला मुँ किया ।
जागा आद नाम क्या दीया ।।१३।।
ऊपर बाधा ऊपर से चल दी ।
जयतु आदी ।।१४।।
लगा लौं आदि, आराधा ।
छू-मन्तर व्यन्तर बांधा ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
सैंतालीसवां श्लोक
जगाते ही जै आद दीया ।
हाथ-हाथ ‘भै’ चल दिया ।।१।।
जै आदि कल्प-द्रुम आगे ।
‘भै’ दाब के दुम भागे ।।२।।
भय भागता दिखाता ।
जुड़ते ही जै आद नाता ।।३।।
न ऐसा वैसा ।
नाम तोर लेते ही भय परेशां ।।४।।
भय तितर बितर ।
उठाई क्या तूने नजर ।।५।।
‘भै’ काला साया छू हुआ ।
थारा जय कारा क्या छुआ ।।६।।
तेरा रहमो करम ।
नामो-निशाँ भय खतम ।।७।।
दृग्-भक्त पड़े ना भिंगोने ।
जा लगे ‘भै’ एक कोने ।।८।।
बस जै आद पुकारा ।
मिला भय से छुटकारा ।।९।।
भक्त जै आद लागे जपने ।
भय टेके घुटने ।।१०।।
जुड़ा जै आद रिश्ता ।
बदला ‘भै’ ने अपना रस्ता ।।११।।
जयत आद जपत जपत ।
ले ‘भै’ रुखसत ।।१२।।
‘भै’ से बाहर निकलने का पथ ।
जै आद रट ।।१३।।
जै आद जै क्या कहने ?
‘सुनते’ ‘भै’ लगे कँपने ।।१४।।
भय चलता बना ।
मनके जय आद कम ना ।।१५।।
भक्ता-मर-स्तोत्र
हाई-को ?
१४१से१५५
अड़तीसवां श्लोक
श्री मान-तुंग बाग ।
बागवाँ होना मेरा सौभाग ।।१।।
रास्ता श्री मान-तुंग बनाया ।
बस चला मैं आया ।।२।।
श्री मान-तुंग पीछे पर्दे के ।
मुझे दुनिया देखे ।।३।।
कोकिल मान-तुंग ।
भिनभिनाऊँ बस मैं भृंग ।।४।।
श्री मान-तुंग क्षीर ।
‘कि घुल मिल सका मैं नीर ।।५।।
मेरे तो श्रद्धा सुमन ।
श्रम मान-तुंग श्रमण ।।६।।
वृक्ष श्री मान-तुंग ।
मैं बेलि भले झाकूँ उतुंग ।।७।।
श्री मुनि मान-तुंग लाये धका ।
में तो नवसीखा ।।८।।
मेरा तो बस गरब ।
मुनि मान-तुंग का सरब ।।९।।
मूल तो मुनि मान-तुंग छापी ।
मैं कार्बन कॉपी ।।१०।।
श्री मान-तुंग नैय्या,
खिवैय्या भी वो ।
आ बैठा में तो ।।११।।
श्रम श्री मान-तुंग ।
मेरी तो उड़ी हवा पतंग ।।१२।।
मेरा क्या, श्रुति वचना ।
मुनि मान-तुंग रचना ।।१३।।
जाती फिसल,
संभाले संभाले भी जुबाँ ।
दो क्षमा ।।१४।।
हूँ, था भी तेरा ही रहूॅंगा ।
मैं जब तक जिऊँगा ।।१५।।
ओम्
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