भक्तामर स्तोत्र १०७
हाई…को
सुनते, आदि तुमने तारा,
हम ने भी पुकारा ॥१॥
पुरु भगवन् ।
नीका, इन्द्र सरीखा करूँ स्तवन ॥२॥
जल में चाँद पकड़ने सा ।
प्रण ये, शिशु जैसा ।।३।।
स्तुति करना ।
गुण-सागर ! बाहु-बल तरना ।।४॥
शिशु हित जा भिड़े सिंह हिरण ।
वैसा ये प्रण ॥५॥
कोयल आम्र-मौर ।
करे चपल, त्यों भक्ति तोर ॥६॥
तव-संस्तव पाप ले हर ।
सूर्य जैसे अन्धर ॥७॥
मोती सा भासे ।
बिन्दु जल, कमल आप कृपा से ॥८॥
जिलाये ।
रश्मि दूरार्क, नाम आप पाप पलाये ॥९॥
करते सम ।
‘आप’ आगे पारस से दो कदम ॥१०॥
मोहन थारा ।
‘दर्शन’ और जल सागर खारा ॥११॥
थोड़ी वो होगी माटी ।
न तुम और देह दिखाती ॥१२॥
सम्मुख तुम मुख आके ।
चन्द्रमा बगलें झाँके ॥१३॥
एक विचरें ।
गुण ‘तेरे अपने’ किससे डरें ॥१४॥
‘पाई’ न डिगा ।
तुम मेरु, प्रलय हवा, अप्सरा ॥१५॥
आप दीपक विरले ।
रहता न अंधेरा तले ॥१६॥
राहु, बादल रोके न टोके ।
सूर्य तुम अनोखे ॥१७॥
तुम चन्द्रमा ।
जिसे स्वप्न में भी, न छू सकी अमा ॥१८॥
लें थाम एक कोना ।
सूरज चाँद तुम जो हो ना ॥१९॥
साँच में ।
आप मोती, वो ज्योति कहाँ, जहाँ काँच में ॥२०॥
और अपना ।
तुझे मानूँ मैं शिरमौर अपना ॥२१॥
बेटे माँ आप अपूर्व ।
सूर्य जन्म दे सिर्फ पूर्व ॥२२॥
शिव साम्राज्य दिलाते ।
तुम्हीं यमराज जिताते ।।२३॥
श्री हरि, ब्रह्मा, शंकर ।
तुम्हीं सत्य शिव सुन्दर ॥२४॥
प्रसिद्ध बुद्ध, प्रबुद्ध ।
तुम्हीं सिद्ध, शुद्ध, विशुद्ध ॥२५॥
मेरे खिवैय्या ! ।
जय हो तेरी पार-ऊ नैय्या मेरी ॥२६॥
‘रे और जब छोड़ें ।
दोष जा रिश्ता और से जोड़ें ॥२७॥
वृक्ष अशोक सार्थक नामी ।
तुम्हें अपना स्वामी ॥२८॥
भासे भा-तन सिंहासन ।
समान पूर्वाद्रि भान ॥२९॥
ढ़ोरें ऊपर आप सदैव ।
वर चँवर देव ॥३०॥
साम्राज्य एक-छत्र हवा-ले ।
नेक झालर वाले ॥३१॥
दुन्दुभि बाजे ।
‘कि भुवन-भगवन् यहाँ विराजे ॥३२॥
मन्द-पवन अनोखी ।
गन्धोदक वर्षा पुष्पों की ॥३३॥
तेज सूरज समाये ।
भामण्डल चाँद सा भाये ॥३४॥
भौ-सिन्धु प्राणी लो पार ।
छू सबिन्दु वाणी ओकार ॥३५॥
आप विहार-पल ।
रचते देव स्वर्ण कमल ॥३६॥
अनन्य आप विभुति ।
सूरज सी किस की ज्योति ॥३७॥
हो चुटकियों में आप भक्त साथी ।
हाथी उत्पाती ॥३८॥
सिंह दहाड़ ।
आप भक्त पाये न कुछ बिगाड़ ॥३९॥
पा नाम आप पानी ।
लापता अग्नि की मनमानी ॥४०॥
नाग दमनी नाम आप का ।
‘सुन्न’ भय सॉंप का ॥४१॥
चक्र पर खा गिरे चक्कर ।
आप नाम असर ॥४२॥
वाम संग्राम आप नाम रट ।
दे पाँसे पलट ॥४३॥
सिन्धु ‘मगर’ ।
आप भक्त भुजाओं से लेते तर ॥४४॥
ले दवा आप नाम जिनेश ।
रोगों की स्मृति शेष ॥४५॥
जुड़ी ‘कि प्रीति आप अटूट ।
जातीं साँकलें टूट ॥४६॥
भय सर के बल भागे ।
केवल आपके आगे ॥४७॥
आओ…चुनते ।
भक्तामर विपदा-हर सुनते ॥४८॥
भक्तामर स्तोत्र १०८
‘टू’ हाईकू
कीजिये मुझ पे करुणा ।
युगादि मुक्ति तरणा ।।
भक्त अमर शरणा ।
इक पाप ताप हरणा ॥१॥
इन्द्र सौधर्म श्रुत ज्ञाता ।
संस्तव-तव रचाता ।।
त्रिजगत् एक विधाता ! ।
मैं भी तव संस्तव गाता ।।२॥
मति से ज़्यादा छलावा ।
करुँ जाने क्यूँ स्तुति दावा ।।
कौन बालक अलावा ।
छूने जल चन्द्रमा धावा ।।३॥
कहते देव गुरु हारे ।
अनन्त गुण तुम्हारे ।।
कौन हाथों के सहारे ।
लग सका सिन्धु किनारे ॥४॥
रख पा रहा न मौना ।
भक्ति तेरी धकाये जो ना ।।
छोड़ के मृग रोना ।
जाता ही सिंह पास, जो छौना ॥५॥
सुन हँसेगाँ जमाना ।
करे भक्ति तेरी दीवाना ।।
वजह आम्र-बौंर आना ।
कोकिला मीठा तराना ॥६॥
तेरे नाम की माला ।
छुई, छू हुई पापों की ज्वाला ।।
प्रातः उजाला ।
छु, हुआ छू अंधेरा रात का काला ॥७॥
तुम्हारी कृपा से, होगी लासानी ।
ये मेरी नादानी ।।
दल कमल बूँदे पानी ।
भासीं सीं मोती सुहानी ॥८॥
दूर निर्दोष आप गाथा ।
नाम भी पाप नशाता ।।
खिल कमल भू पर जाता ।
आस्माँ सूरज नाता ॥९॥
भक्त अपने सा ही ।
करते आप विमुक्ति राही ।।
करे अपने-सा धनी नाहीं ।
धनी वो नाम का ही ॥१०॥
दूसरा कौन ? रुचने वाला ।
देख रूप तुम्हारा ।।
मीठा जल वो पीने वाला ।
पियेगा क्यूँ जल खारा ॥११॥
थी उतनी ही माटी ।
देह जिससे तेरी सजा दी ।।
नहीं देखने में आती ।
देह और जगमगाती ॥१२॥
मन-हरण मुखड़ा नीका ।
आप आप सरीखा ।।
किसे वो चाँद नहीं दीखा ।
पड़ता दिन में फीका ॥१३॥
विचरे गुण शगुन दस्ता ।
‘जहाँ’ जहाँ रुचता ।।
तुमसे रिश्ता ।
रोके-टोके वो कौन, उसका रस्ता ॥१४॥
तुम्हें जरा भी न पाई डिगा ।
स्वर्ग से आ अप्सरा ।।
कब सुमेरु पाई हिला ।
प्रलय कालीन हवा ।।१५॥
जले जो तेल बिना बाती ।
जिसका न धुँआ साथी ।।
हवा जिसे न बुझाती ।
आप उस दीप की भाँति ॥१६॥
जो नहीं अस्त होते ।
देख राहु न उड़ते तोते ।।
जिसे बादल न रोके ।
वो सूरज तुम अनोखे ॥१७॥
कभी अस्त न होने वाले ।
त्रिजगत् एक उजाले ।।
बने न कभी राहु निवाले ।
चाँद आप निराले ॥१८॥
आ रवि-शशि नीर बिलौना ।
तुम जो दोनों हो ना ।।
खेत सोना ।
क्या न नाहक मेघ दृग् कोर भिंगोना ॥१९॥
ज्ञान जो आप परिपाटी ।
न रही और वो साथी ।।
कहाँ काँच में दिखाती ।
कान्ति रही जो रत्न थाती ॥२०॥
भाग उदय आया ।
मैंने जो औरों को अपनाया ।।
तुमने मुझे रिझाया ।
बाद कोई न और भाया ॥२१॥
पूरित किलकार क्षमा ।
पै आप अपूरब माँ ।।
भरा नक्षत्रों से आस्मां ।
पै सूरज की पूरब मॉं ॥२२॥
नरोत्तम में आते ।
भान से तुम, तम नशाते ।।
जय श्री मृत्यु पर दिलाते ।
शिव पन्थ थमाते ॥२३॥
ब्रह्मा हो, हरि-हर हो ।
सत् हो शिव औ सुन्दर हो ।।
ईश्वर, तुम अक्षर हो ।
सद् ज्ञान समुन्दर हो ॥२४॥
बुद्ध, सुबुद्धि प्रदाता ।
शंकर ओ ! हो सुख दाता ।।
दाता सद्पन्थ, विधाता ।
नृसिंह ओ ! ओ ! जग त्राता ॥२५॥
जै त्रिभुवन दृग्-तारे ।
जै जग-पालन हारे ।।
जै जै शरण सहारे ।
जै जै भव तारण हारे ॥२६॥
गुणों ने ठाना, तुम्हें अपनाना ।
न और ठिकाना ।
जाने जमाना ।
न हो औरों से दोषों का ठुकराना ॥२७॥
नीचे अशोक तरु प्यारा ।
विलसे रूप तुम्हारा ।।
बीच मेघों के न्यारा ।
प्रकटा रवि किरणों वाला ॥२८॥
तुम कंचन समान ।
सिंहासन विराजमान ।।
मानो प्रकटा भान ।
उदयाचल प्रकाशमान ॥२९॥
भा कुन्द पुष्प मनहर ।
ढुरते चारु चँवर ।।
झिरे निर्झर मेरु झर-झर ।
भा लिये चन्दर ॥३०॥
चन्दर तीन छतर ।
शोभें तपहर ऊपर ।।
कहती ढुल झालर ।
तुम जगत् तीन ईश्वर ॥३१॥
स्वर गम्भीर लिये गाजे ।
विदिश्-दिश् दुन्दुभि बाजे ।।
शुभ सङ्गम साजे ।
यहाँ सद्धर्म-राज विराजे ॥३२॥
बरसा दिव्य सुमन ।
गन्धोदक, मन्द पवन ।।
छू मानो पंक्ति-बन्धन ।
खिरते हों आप वचन ॥३३॥
गुमाँ गुमाये ।
भामण्डल भौ सात साथ दिखाये ।
कोटि सूर्य का तेज समाये ।
भाँति चाँद पै भाये ॥३४॥
सौख्य द्यु-मोक्ष आसामी ।
सद्धर्म दिग्-दर्शिका नामी ।।
वाणी तुम ओम्-कार स्वामी ।
भाषा स्व-स्व अनुगामी ॥३५॥
और कमल फबते ।
नख पून-चन्द्र लगते ।।
देव कमल रचते ।
पग आप जहाँ रखते ॥३६॥
आप के जैसी महिमा ।
दिखी और कहीं मही ना ।।
कहाँ नक्षत्र भले आस्माँ ।
सूरज जैसी गरिमा ॥३७॥
वृक्षों को रहा उखाड़ ।
जो जोरों से रहा चिंघाड़ ।।
तुम भक्त न करे बिगाड़ ।
ऐसा हाथी खूँ-खार ॥३८॥
हा ! दिये गज गण्डस्थल चीर ।
जो गर्जे गम्भीर ।।
सींह वो थामे धीर ।
माथे ‘कि तुम नाम अबीर ॥३९॥
लीलेगी चल, जन-धन सकल ।
ऐसी अनल ।।
पा तुम नाम जल ।
हो के ‘सर’, ले खिला कमल ॥४०॥
बाना ललाई नैना ओड़े ।
लहरा लहरा दौड़े ।।
नाम आप जो रिश्ता जोड़े ।
‘कि साँप वो रस्ता छोड़े ॥४१॥
चिंघाड़ा गज, अश्व हुंकारा ।।
मचा हा ! हाहाकारा ।।
आप भक्त से शत्रु हारा ।
सूरज ज्यों अँधियारा ॥४२॥
अरि आतुर करने पार ।
नदी रक्त अपार ।
अरि कर चित् खाने चार ।
जै पाता भक्त तुम्हार ॥४३॥
उठे उत्ताल लहर ।
जलयान बीच भॅंवर ।।
सागर खूब मगर ।
भक्त आप पै जाये तर ॥४४॥
जी नाम सुने घबराई ।
जाँ लेवा जो दुखदाई ।।
लेते वो रोग विदाई ।
लेते तुम नाम दवाई ॥४५॥
कण्ठ तलक पाँवन ।
साँकल से जकड़ा तन ।।
किया ‘कि तुम सुमरण ।
खुलते सारे बन्धन ॥४६॥
और और भी संकट ।
आने वाले पथ कण्टक ।।
लगाते तुम नाम-रट ।
होते छू-मन्तर झट ॥४७॥
ले भक्ति-डोर तुम्हारी ।
गूँथी गुण-माल निराली ।।
कण्ठ ‘कि बना कण्ठी डाली ।
उसकी मनी दिवाली ॥४८॥
भक्तामर स्तोत्र १०९
त्रि…हाईकू
भक्तों को, सिवा आपके चरणा ।
क्या और शरणा ।।
अंधेरा पाप का ।
छिन्न-भिन्न, सुन नाम आप का ।।
जुगादि जल-भौ जहाज ।
राखना मेरी भी लाज ।।१।।
जन्मी सकल वाङ्मय तत्त्व-बोध से धी ।
वो सुधी ।।
इन्द्र लाजिमी, मन हरण ।
करे तुम-स्तवन ।।
बनता जैसे ।
मैं भी तुम स्तवन करता वैसे ।।२।।
अद्भुत पाद पीठ थारी ।
रखते माथे धी धारी ।।
गवा के लाज ।
गाता गाथा, निर्जन देता आवाज ।।
शिशु केवल ।
पकड़े चाँद जल, घुटने बल ।।३।।
भा निशाकर ।
पास आप शगुन, गुणसागर ।।
गा गुण आप द्यु गुरु मौन ।
नादाँ मैं होता कौन ।।
सिन्धु मगर, लगा कौन किनारे ।
बाहु सहारे ।।४।।
उठाऊँ सिर बीड़ा यह ।
आपकी भक्ति वजह ।।
मृगी दुबली पतली ।
भिड़ने लो सिंह से चली ।।
वजह और क्या ? वो देखो ना ।
सिंह शिकंजे छौना ।।५।।
मैं माटी माधो ! कहाँ मुझमें बुद्धि ।
हँसेंगे सुधी ।।
सिर्फोर सिर्फ करे मुझे मुखरी ।
भक्ति तुमरी ।।
कूक कोकिल चित् चुराई ।
मंजरी आम जो छाई ।।६।।
इक झलक ।
किया दर्शन तेरा इक पलक ।।
विहँसे जन्मों के पाप ।
न पलक भी पाते झाँप ।।
घना अंधेरा भागे ।
किरण एक सूरज आगे ।।७।।
हर लेगा ये मेरा, तेरा-स्तवन ।
लोगों का मन ।।
हाथ इसमें न मेरा है ।
स्तव ये चूँकि तेरा है ।।
दल-कमल बुँदिया-जल ।
भासे ही मुक्ताफल ।।८।।
शुभ्र स्तवन वो आप ।
हरता ही हरता पाप ।।
पुण्य कथा भी आप की ।
है दुश्मन-जानी पाप की ।।
भरे, कमलों में जान ।
आसमान सुदूर भान ।।९।।
है अचरज की इसमें क्या बात ।
ए ! जगन्नाथ ।।
आप आईने सा ।
कर लेते भक्त अपने जैसा ।।
नाम का धनी ।
रक्खे बना सेवक जो निर्धन ही ।।१०।।
पलक झाँपे न झाँपती ।
सत् शिव सुन्दर मूर्ती ।।
देख के जिसको नैन ।
कहीं और न पाते चैन ।।
जल मीठा वो पीने वाला ।
छुयेगा क्यों जल खारा ।।११।।
सोने सुहाग ।
फूँटे खुशबू अंग अंग वैराग ।।
जिन्हें विरच, वो रज अनुपम ।
हुई खतम ।।
तभी रूपसी ।
काया न और आप सी अनूप सी ।।१२।।
नयन सुख ।
तीन-भुवन एक भगवन् मुख ।।
क्यों ? क्योंकि दूर दाग ।
लकीर भाग हा ! सूर आग ।।
और चन्द्रमा ।
रात अमा, प्रभात पलाश समाँ ।।१३।।
भासे शशि-भा-से गुण आप ।
रहे भुवन नाप ।।
वो भी उलांघ सीमाएँ ।
दिशाएँ जो भी मन भायें ।।
अरे ! रक्षा जो आप करें ।
कहो ? वो किससे डरें ।।१४।।
रम्भा रम्य भा लिये ।
आई उर्वशी बसाने हिये ।।
पर नासिका नज़र देख ।
लौटीं घुटने टेक ।।
प्रलय वायु चले ।
और भले, क्या मेरु भी हिले ।।१५।।
वर्तिका तेल निगले ।
और दिया धुंआ उगले ।।
छोड़ के आप ।
दिया और रहता अंधेरा तले ।।
पा हवा, कहाँ हवा ।
आप सच में दीया विरले ।।१६।।
एकात्मस्थ, न राहु ग्रसित ।
न अस्त, नित्य उदित ।।
समस्त जगत् ।
जगमगा उठते वो भी युगपत् ।।
दल बादल सके न झाँप ।
सूर विरले आप ।।१७।।
निर्मोह ! मोह अंधकार ।
करते हो छार-छार ।।
भरते जाग, लोक लोक ।
साष्टांग दे राहु ढ़ोक ।।
चित् चोर तुम और चन्दर ।
सत्य शिव सुन्दर ।।१८।।
मुख मयंक तुम ।
घनेरा जब अंधेरा गुम ।।
किस काम का ।
निशि चन्द्रार्क दिवि बस नाम का ।।
फसल खेत ।
आये सजल मेघ तो किस हेत ।।१९।।
हंस विवेक ।
पास आपके, भेद विज्ञान एक ।।
कक्षा दूसरी की लिखाई-पढ़ाई ।
आखर ढ़ाई ।।
ज्योति मोती न होती ।
किरणाकुल भी काँच, साँच ।।२०।।
न गया वृथा ।
और पास सुनाने जो गया व्यथा ।।
टकरा गये जो तुम ।
चक्कर खा व्यथा लो गुम ।।
मिली कस्तूरी ।
अब करना और क्या जी हजूरी ।।२१।।
माता जनमें ।
नेक पुत्र अनेक त्रिभुवन में ।।
पर, तुम सी न माता ।
पुत्र तुम सा न दिखाता ।।
नखत जाई ।
सब दिशा पूरब सूरज माई ।।२२।।
गुरुर गुम ।
तुम्हीं पुरुषोत्तम पुरु सो तुम ।।
तेरे अपनों में आते ।
मृत्युंजय वे बन जाते ।।
मिलता मोक्ष का रस्ता ।
जुड़ते ही तुमसे रिश्ता ।।२३।।
अव्यय तुम ।
विभु अनंग केतु, असंख्य तुम ।।
अचिन्तय तुम ।
नेक, एक, अनेक, अनन्त तुम ।।
श्रीश्वर तुम ।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ईश्वर तुम ।।२४।।
विबुध वन्द्य, अभिनन्द्य ।
संबुद्ध आप धी-मन्त ।।
कर्त्ता विधान शिव पन्थ ।
विधाता आप भदन्त ।।
शंकर शम-कर वन्त ।
नृसिंह आप श्री मन्त ।।२५।।
त्रिभुवन के दुख हरने वाले ।
तुम्हें नमन ।।
त्रिभुवन में सुख भरने वाले ।
तुम्हें नमन ।।
तुम्हें नमन अ-सि-सा ।
श्री आ उ-सा तुम्हें नमन ।।२६।।
लिया गुणों ने बस आप आश्रय ।
कैसा विस्मय ।।
तलक मुख औरन ।
भर लिये रख औगुन ।।
अशेष गुण शेष दौड़े दौड़े ।
आ आप से जुड़े ।।२७।।
तरु अशोक पुण्य घना ।
आपने जा उसे चुना ।।
खोले अँखियाँ कुछ कुछ मींचे ।
आ बैठे जो नीचे ।।
निकट मेघ प्रकाशमान ।
मानो आकाश भान ।।२८।।
मणि रत्नों का ।
सिंहासन आपका बड़ा अनोखा ।।
और नीरोग तन कंचन ।।
जोग मणि कांचन ।।
गिरि उदय उदित ।
और रवि ही प्रमुदित ।।२९।।
ऐसे न वैसे ।
ढुरें चॅंवर कुन्द पुष्प के जैसे ।।
और आपका तन ।
कमन ऐसा जैसे कंचन ।।
सुमेरु तीर ।
झर-झर झरता झरना नीर ।।३०।।
करें स्थिगित भान प्रताप ।
स्थित ऊपर आप ।।
तीन छतर ।
कान्ति में ऐसे जैसे पून चन्दर ।।
झालर वाले ।
जगत् तीन भगवन् एक हवाले ।।३१।।
जिन्हें दें ढ़ोक राजे-महाराजे ।
वो यहाँ विराजे ।।
देती भुवन-भुवन फेरी ।
आप गम्भीर भेरी ।।
अपनी खोई निधि ।
मिले, बतायें ‘कि यहाँ विधि ।।३२।।
विविध कल्प-तरु सुमन ।
वृष्टि मनहरण ।।
पवन मन्द-मन्द ।
गगन बिन्दु उदक गन्ध ।।
आप वचन दिव्य वर्षात ।
मानो बाँध के पाँत ।।३३।।
देख आप भामण्डल शरमाएं ।
भा उपमाएं ।।
सूरज कोटि प्रताप ।
किन्तु कुछ भी न आताप ।।
दरश सात भौ जामे ।
शशि पीछे शीतलता में ।।३४।।
स्वर्ग मारग ।
दिखाने वाली अपवर्ग मारग ।।
लाली जगाने वाली ।
साधो भी’तर कराने वाली ।।
वाणी अनूप ।
परिणाम तमाम भाषानुरूप ।।३५।।
और पदम ।
जन्मे देखके जिन्हें भ्रमर भ्रम ।।
नख चन्द्रमा पून ।
करते कान्ति जिनकी दून ।।
देव कमल रचते ।
आप जहाँ पाँव रखते ।।३६।।
और तो छोड़ो कथन ।
नाम सभा समशरण ।।
विभौ समय देशना ।
और पास लव-लेश ना ।।
विकासमान ।
पर नक्षत्र भा न समान भान ।।३७।।
कपोल मूल आमूल चूल ।
बने, मद झरने ।।
कुप् आया नैन उतर ।
सुन गुन गुन भ्रमर ।।
तुम्हें भज ।
छू-मन्तर ऐरावत सा ऐसा गज ।।३८।।
कर नखन प्रहार ।
थल कुम्भ-गज विदार ।।
आरक्त रक्त छीन मुक्ता फल ।
भू-तल श्रृंगार ।।
दहाड़े सिंह ऐसा ।
आप भक्त न करे परेशाँ ।।३९।।
अग्नि बढ़ाये जिसकी आयु ।
काल प्रलय वायु ।।
स्फुलिंग छूते गगन ।
चाह चाह विश्व भक्षण ।।
बुझ वो जाती ।
आपका नाम मंत्र जल क्या पाती ।।४०।।
कण्ठ कोकिला सा काला ।
लाल लाल लोचन वाला ।।
कुपित फन उठाये विकराल ।
दूसरा काल ।।
लिया क्या नाम आप ।
ऐसा वो साँप जाता है काँप ।।४१।।
रव करते ऐसा अश्व ।
हो चला बहरा विश्व ।।
जोरों से घन सजल जैसे ।
गज रहे गरज ।।
ऐसा संग्राम ।
लेता विराम, लेते ही आप नाम ।।४२।।
भाले हाथियों पर जो टूटे ।
फूटे खूनी झरने ।।
जिन्हें तरने ।
मचले अरि जोधा कह बच ले ।।
ऐसा रण ।
ले जीत आप भक्त न लगता क्षण ।।४३।।
जल किरात जाल ।
बड़वा नाम अग्नि कराल ।।
अथाह जल ।
गर्जन लहरों का करे विकल ।।
लिया ‘कि नाम आप सादर ।
पार ऐसा सागर ।।४४।।
जाँ लेवा किया रोग घर ।
सूखें, ‘कि हो आँखें तर ।।
सोच किया हा ! जिया निवासा ।
छोड़ी जीने की आशा ।।
करे नीरोग तन ।
ऐसे में आप रज चरण ।।४५।।
घोर हा ! काला काला अन्धर ।
और क्या कारा-घर ।।
कन्धे, घुटने गये छिल ।
घर्षण हहा ! साँकल ।।
ऐसे में आप सिमरण ।
करे दो टूक बन्धन ।।४६।।
गज मदान्ध, सिंह क्रोधान्ध ।
विषधर, समर ।
जलधि, जड़ धी ।
जाँ लेवा आमय, हा ! कारा भय ।।
सभी साधते पर-लोक ।
आप को देते ही ढ़ोक ।।४७।।
भक्ति के वश ।
चुन के पुष्प नेक वर्ण सरस ।।
सहज बुन के ये तैयार ।
आप गुणों की माल ।।
पायेगा मुक्ति-श्री निष्कण्ट ।
धारेगा इसे जो कण्ठ ।।४८।।
भक्तामर स्तोत्र ११०
चौ…हाईको
भक्त अमर,
जिनके अनुचर, नमन तिन्हें ।
नमन तिन्हें,
छू तिन्हें, छू मन्तर पाप अन्धर ।।
नमन तिन्हें,
जो आदि-जुग में थे एक सहारे ।
तारण हारे,
भौ-जल पतितों के, सारे भक्तों के ।।१।।
नमन तिन्हें,
जिनकी गाथा, स्वर्ग इन्द्र रचाता ।
माँ चारों रीझीं,
रहें आँखें जिसकी हज़ारों भींजीं ।।
करती मन हल्का,
वो जो हरती मन हर का ।
दें आशीष, वे आदीश
उनकी गाथा, मैं भी गाता ।।२।।
नमन तिन्हें,
वन्दित बुध, पाद पीठ अद्भुत ।
जिन की,
तिन की संजोता संस्तुति, मैं मन्द मति ।।
खोकर लाज
‘तारक राज’ छाया थामने आया ।
कौन और,
ले देके सिवा बालक के दौड़-दौड़ ।।३।।
नमन तिन्हें,
कह गुण-सिन्धु ! दे आवाज जिन्हें ।
गुण जिन-के कैसे,
सौम्य धवल चांदनी जैसे ।।
जिन्हें कहने आये,
देवों के गुरु पीछे लजाये ।
वह सागर ‘मगर’,
कौन हाथों से पाया तर ।।४।।
नमन तिन्हें,
खिताबे यतिराज नवाजा जिन्हें ।।
जिनका स्तव,
नाहक बालक मैं माटी-माधव ।।
रचाता बिन शक्ति,
धकाये करूॅं क्या, जिन भक्ति ।
देखो ना,
भिड़ी जा सिंह मृगी, बचाने छोना ।।५।।
नमन तिन्हें,
कह भक्त वत्सल पुकारें जिन्हें ।
जिनका गुणगान,
दिखाना दीप, समीप भान ।।
बनना हॅंसी का पात्र,
पर भक्ति धकाये बलात् ।
कूक कोकिला मिश्री,
अवतरी जो आम्र मंजरी ।।६।।
नमन तिन्हें,
इति भव-सन्तति सुमर जिन्हें ।
सुमरण से जिन के
त्रिभुवन जन-जन के ।।
संचित, चिर सिंचित पाप
खोते अपने आप ।
काफ़ी किरण एक सूरज
तम चटाने रज ।।७।।
नमन तिन्हें,
कह के जगन्नाथ बुलाते जिन्हें ।
स्तुति ये जिन की,
इसलिये होगी चोर मन की ।।
ऐसा सोच के बढ़ा रहा कदम,
ले आँखें नम ।
बुन्दिया जल,
पत्र-कमल, पाती भा मुक्ताफल ।।८।।
नमन तिन्हें
पार संसार, रख नयन जिन्हें ।
दूर निर्दोष थवन,
किया जिन कथा श्रवण ।।
हा ! वंज्राकित भी पाप,
प्रक्षालित करता आप ।
सर कमल भरे विकास,
भान भले आकाश ।।९।।
नमन तिन्हें,
कहते भूत-नाथ ! सुजन जिन्हें ।।
कहें भुवन भूषण जिन्हें,
शत नमन तिन्हें ।।
जिन्हें करना आया,
और अपने सा जिनराया ।
रक्खे आश्रित ही बना,
है लाभ क्या ? उसे अपना ।।१०।।
नमन तिन्हें,
देख टकेक भरे न मन जिन्हें ।
जिन को देख के नैन,
कहीं और न पाते चैन ।।
ऐसा न वैसा,
चाँदनी जैसा, नीर सागर-क्षीर ।
पीने वाला,
क्यों कर पियेगा, जल सागर खारा ।।११।।
नमन तिन्हें,
कहा अहा ! सत् शिव सुन्दर जिन्हें ।
सहित जाग,
कण कण जिन का रहित राग ।।
वे परमाणु मात्र उतने,
गात्र ‘कि आप बने ।।
तभी भुवन भूप !
जिन जैसा न किसी का रूप ।।१२।।
नमन तिन्हें,
शर्माता चाँद रख नमन जिन्हें ।
सुख सुर, नृ, नागन नयन का,
मुख जिन का ।।
दुख कलंक सिवा,
मुख मयंक और है ही क्या ।
दीन दिन में वैसा,
जैसा पलाश छवि विहीन ।।१३।।
नमन तिन्हें,
चाहे कण कण त्रि-भुवन जिन्हें ।
गुण जिनके
उलॉंघ रहे छोर त्रिभुवन के ।।
शगुन
सारे वे गुण, लिये छवि चाँद पूरण ।
लिया आप जो सहारा,
कौन फिर रोकने वाला ।।१४।।
नमन तिन्हें,
देता फर्शी सलामी मदन जिन्हें ।
अपने नेन नक्स दिखा,
रिझा न सकी मेनका ।।
क्षण
जिन के चरण से, हटा न सकी नयन ।
प्रलय वायु चले,
और भले न सुमेरु डुले ।।१५।।
नमन तिन्हें,
कहाँ दीप भुवन-भुवन जिन्हें ।
है नदारद धूम,
न शरारत झूम, जिसमें ।।
नाम मात्र भी न तेल का नाम,
न बाती का काम ।
तम न तले,
न बुझे, भले वायु प्रलय चले ।।१६।।
नमन तिन्हें,
कहा जगत जगत्-तरण जिन्हें ।
निबाला राहु न बनाता,
बादल न झाँप पाता ।।
न नामो निशॉं तपन,
दौड़-धूप दूर थकन ।।
बिन आयास,
त्रिभुवन भर में भरें प्रकाश ।।१७।।
नमन तिन्हें,
कहा चन्द्रमा तीन भुवन जिन्हें ।
मेघ आड़े न आता है,
राहु आंखें न दिखाता है ।।
चकोर साथ सभी को भाते,
निशा मोह नशाते ।
सदा उदित,
मॅंगा के, न चुरा के बाँटें अमृत ।।१८।।
नमन तिन्हें,
जिन शशि वदन, तम हरण ।
रात से प्रात,
घूम फिर के फिर प्रात से रात ।।
किस काम का,
चन्दार्क आना जाना बस नाम का ।
पकी फसल,
आ अब गायें तो क्यों मेघ सजल ।।१९।।
नमन तिन्हें,
शुकल ध्यानी कहें, सुजन जिन्हें ।।
सुमन जिन्हें,
केवल ज्ञानी कहें, नमन तिन्हें ।।
ज्ञान स्व-पर प्रकाशक,
न और पास बेशक ।
नूर रत्नन सॉंच,
दूर किरणा-कुलित काँच ।।२०।।
नमन तिन्हें,
माने कुछ हटके भुवन जिन्हें ।
कराने वाली जिन मिलन,
दर औ’ भटकन ।।
पर हुआ तो जिन पर फिदा,
न हुआ फायदा ।।
भवान्तर भी,
भाया न लुभा पाया सरागी कभी ।।२१।।
नमन तिन्हें,
न रुलाना, आगे माँ को अब जिन्हें ।
ओड़ती माई बाना,
कोई न कोई नारी रोजाना ।।
पर न पाती अनुत्तर,
जिनके भांति पुत्तर ।
पुण्य अपूर्व,
सूर-जन्म न और सिवाय पूर्व ।।२२।।
नमन तिन्हें,
माना वक्त मरण शरण जिन्हें ।
न प्रश्न ?
जिन्हें माना सौक्ख सदन, नमन तिन्हें ।।
नमन तिन्हें,
माना हर अन्धर तरणि जिन्हें ।
भुवन जिन्हें,
माना नर-नाहर नमन तिन्हें ।।२३।।
नमन तिन्हें,
कहे अजेय जेय मदन जिन्हें ।
श्रमण जिन्हें,
कहें अमेय, ध्येय नमन जिन्हें ।।
नमन तिन्हें,
कह ब्रह्मा पुकारा, मोहन जिन्हें ।
गोधन जिन्हें,
है प्राणों से भी प्यारा नमन तिन्हें ।।२४।।
नमन जिन्हें,
कहा बुद्ध, विबुद्ध नमन जिन्हें ।
शगुन जिन्हें,
कहा रुद्र, विशुद्ध, नमन तिन्हें ।।
नमन तिन्हें,
कहा पुरु, प्रथम किरण जिन्हें ।
सुजन जिन्हें,
कहा पुरुषोत्तम नमन तिन्हें ।।२५।।
नमन तिन्हें,
कहते भव पीर हरण जिन्हें ।
सुमन जिन्हें,
कहते भु अबीर नमन जिन्हें ।।
नमन तिन्हें,
कहते भव तोय तरण जिन्हें ।
श्रीमन् जिन्हें,
कहते भव दोय नमन तिन्हें ।।२६।।
नमन तिन्हें,
भाया आतम राया रमण जिन्हें ।
जिन्हें गुणों ने चाहा बेवजह,
न ‘विस्मै’ जगह ।।
भरे दोषों से औ’ देव नाम राश,
निरवकाश ।
फिरते भगे,
क्यों कर आने लगे, आपके पास ।।२७।।
नमन तिन्हें,
वृक्ष अशोक धन्य पाकर जिन्हें ।
सिर्फ नाम का नाम
अ’शोक आज लो कृत-काम ।।
तर अशोक तर,
नयनहर तन सुन्दर ।
भाषित घन करीब,
प्रकाशित दिन प्रदीव ।।२८।।
नमन तिन्हें,
जन्म सिंहासन, पा के धन जिन्हें ।
भले अधर,
गये विराज गत-अन्धर आज ।।
सलोना
गात भॉंत सोना, देखते ही बने ऐसा ।
लगता वैसा,
उदयाचल रश्मि सहस्र जैसा ।।२९।।
नमन तिन्हें,
चामर, लो अम्बर पाकर जिन्हें ।
चमर चार तीस-तीस,
अमर इन्द्र बत्तीस ।।
ढ़ोरते ऐसे न वैसे,
अरे ! कुन्द पुष्प के जैसे ।।
तन कंचन अर,
तट सुमेर मानो निर्झर ।।३०।।
नमन तिन्हे,
पतंग-छतर पा गगन जिन्हें ।
ऽधर छतर
असर चूर भूर नूर भास्कर ।।
एक नहीं, दो नहीं,
तीन छतर, रत्न झालर ।।
मानो प्रमाण,
सिर्फ एक भगवान् तीन जहान ।।३१।।
नमन तिन्हें,
दुन्दुभि चांदी-चांदी पाकर जिन्हें ।
भुवन तीन,
एक शुभ संगम भूति प्रवीन ।।
स्वर गंभीर दिश् दिश् रहा व्याप
ले अमिट छाप ।
आ पधारो सा, यहॉं रहे विराज,
सद्-धर्म राज ।।३२।।
नमन तिन्हें,
देव स्वदेश ‘जाये दें’ मन जिन्हें ।
वन नन्दन,
कल्पवृक्ष सुमन वर्षात धन ।।
मन्द पवन,
साथ साथ सुगंध उदक कण ।
दिव्य वचन आप बौछार,
मानो बाँध कतार ।।३३।।
नमन तिन्हें,
भामण्डल सुर्खियों में, पाके जिन्हें ।
भा उपमाएँ
नायाब भा-मण्डल आगे लजायें ।।
निष्प्रभ शशि नूर,
जोड़ प्रताप कोटिक सूर ।
कराने वाला मुलाकात,
दर्पन भौ सात साथ ।।३४।।
नमन तिन्हें,
सुना जा सकता है साँझन जिन्हें ।
जिन के दिव्य वयन,
न किनके दिव्य नयन ।।
सन्मार्ग चिन्ह चरण,
एक जिन के प्रवचन ।
अपनी भाषा में जा सकती सुनी,
जिन की धुनि ।।३५।।
नमन तिन्हें,
सिद्ध रिद्ध आकाश चारण जिन्हें ।
अंगुल चार ऊपर,
गमन न जिन भूपर ।।
पद्य चरण,
जिन, जिन में नख चन्द किरण ।
रखते,
वहॉं देव दल सहस्र पद्य रचते ।।३६।।
नमन तिन्हें,
है रुचे देना सम शरण जिन्हें ।
सम शरण
झगड़ा छोड़, बैठे सिंह हिरण ।।
ऐसी महिमा
देखी जा मही-मही दिखी कहीं ना ।
मित्र ! नक्षत्र भान समान
कहाँ प्रकाशमान ।।३७।।
नमन तिन्हें,
विभज भीति गज कहते जिन्हें ।
विलोल, मूल कपोल,
झिरे धार मद अपार ।।
सुन, बाबरे भँवरे गुन गुन,
रहा कुप् चुन ।
उत्पाती, ऐसा हाथी,
जिन को जपा, ‘कि रफा दफा ।।३८।।
नमन तिन्हें,
ढ़ेर, विभीति शेर सुमर जिन्हें ।
विदारा
थल कुम्भ कुंजर तीक्ष्ण नखों के द्वारा ।।
समेत रक्त धारा,
मुक्ताफल भू तल श्रृंगारा ।
औ’ काल, सिंह कराल,
भजा जिन भागा तत्काल ।।३९।।
नमन तिन्हें,
शमन दौ अगन सुमर जिन्हें ।
हाथ प्रलय पवन
हाथ-हाथ साथ गगन ।।
चाह, कर लूँ त्रिभुवन निवाला ।
अंगार वाला ।।
वो दावानल,
बुझता पाता जिन ‘कि नाम जल ।।४०।।
नमन तिन्हें,
जीते जंग भुजंग सुमर जिन्हें ।
लाल लाल दृग् वाला,
हा ! कोयल के कण्ठ सा काला ।।
फण विशाला,
उगले विष धार, मार फुंकार ।।
ऐसा पन्नग,
उलाँघे जिन भक्त बढ़ा के डग ।।४१।।
नमन तिन्हें,
प्यारा भगत एक तरफा जिन्हें ।
हाथी चिंघाड़ रहे,
हा ! जहॉं घोड़े हुंकार रहे ।।
दिखाई देती मार-धाड़,
सुनाई देती चीत्कार ।।
गुमान पर चक्र दे भक्त चूर,
ज्यों तम सूर ।।४२।।
नमन तिन्हें,
आता दिखाना शुभ शगुन जिन्हें ।
गज तन से वही रक्त धार,
खा भालों की मार ।।
बढ़े शत्रु ले जुनून,
करूॅं पार दरिया खून ।
रहते वक्त,
ले जीत जिन भक्त ताज औ’ तख्त ।।४३।।
नमन तिन्हें,
आता है हारी पारी जिताना जिन्हें ।
मच्छ मगर घड़ियाल,
हा ! अग्नि बड़वा ज्वाल ।।
तूफान और पानी,
चक्कर चक्र भँवर प्राणी ।
पार लगता जलयान,
करते ही जिन ध्यान ।।४४।।
नमन तिन्हें,
रुला देता भक्त का रुदन जिन्हें
असहनीय पीर
मनवा रह-रह अधीर ।।
दुर्दैव योग,
न औषध संयोग, जाँ लेवा रोग ।
छुई पॉंवन धूल जिन,
छू हुई पीर तत्-छिन ।।४५।।
नमन तिन्हें,
आता भिजाना भक्त गगन जिन्हें ।
बेड़ी पैरों में पड़ी,
देह श्रृंखला लोह जकड़ी ।।
घुटने कन्धे लहलुहान,
बस अटके प्राण ।
बन्धन ऐसा भै-कारा
छू छूते ही जिन जै-कारा ।।४६।।
नमन तिन्हें,
जाते भग विघन दृग् रख जिन्हें ।
मृगेन्द्र, रोग, आग-वन-
मण्डल बध, बंधन ।
गजेन्द्र, ‘भोग-नाग’
बडवानल भीषण रण ।।
आठ ये भय और भी,
जिन्हें ध्याते ही क्षय सभी ।।४७।।
नमन तिन्हें,
‘सहजो निराकुल’ कहते जिन्हें ।
पुष्प वरन-वरन
वर्ण चुन, तैयार बुन ।।
ये गुणमाला,
कण्ठाभरण इसे बनाने वाला ।
मान-तुंग पा जाता,
नीचे न जहाँ से आया जाता ।।४८।।
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