जिसके हाथों में झूला की डोरी , वह नारी जगत का उध्दार करें ।
जिसके वचनों में जिनवाणी, वह अपने बच्चों का कल्याण करें ।।
जिसके सस्कारों से ही बच्चे , पाठशाला में संस्कार ग्रहण करें ।
ये बच्चे आगे जाकर के , भविष्य मे अपना कल्याण करें ॥
पिछले भाग में आपने जाना कि एक माँ मदालसा ने अपने बेटे को गर्भ, जन्म, बाल में कैसे शुभ धार्मिक सुसस्कारों से संस्कारित कर मोक्ष मार्ग पर भेजती है और वह आत्म कल्याण करता है । अब आप जानिये कि एक माँ अपने पुत्र के महापाप के बंध को कैसे सस्कारों से संस्कारित कर उसे तीव्र पुण्योदय में बदल डालती हैं ।
मृष्टदाना माँ ने अपने पुत्र को, ऐसे संस्कारों से पाला था ।
अकृत्य पुण्य के महापापों को संस्कारो से धो डाला था ।
आहार दान की महिमा बता कर, मुनि को रोके रखना कह डाला था ।
गद गद भाव से आहार दानकर , अपने पापों को धो डाला था ॥
मगध देशके अन्तर्गत भोगावती नाम की एक नगरी है उसके स्वामी का नाम
कामवृष्टि और उसकी रानी का नाम मृष्टदाना था । उनके घर में सुकृत्य पुण्य नाम का एक नौकर था । जब मृष्ठदाना गर्भवती हुई तब पापोदय से पति कामवृष्टि का मरण हो गया । तत्पश्चात ज्यों ज्यों गर्भ वृध्दिंगत होता गया, त्यों त्यों उसके परिवार के सभी मनुष्य मरते गये । जब पुत्र का जन्म हुआ तो मृष्टदाना की माता भी मर गई । पुण्य कर्म भी नष्ट हो गया जब मृष्टदाना के पास कुछ नही बचा तो वह उस पापी पुत्र का पेट, लोगों के यहाँ अनाज पीस पीस कर भरने लगी । कामवृष्टि के मरणोपरान्त उसका नौकर सुकृत्य-पुण्य पुण्योदय से भोगावती नगरी का स्वामी बन गया । अकृत्य पुण्य ने ऐसा कौन सा पाप किया था जिससे उसकी ऐसी दुःख दायक दशा हुई । अकृत्य पुण्य ने पूर्व भव में मंदिर का सामान, व्यसनो में खर्च किया था ।
“पूर्व-भव में कपटी ब्रह्मचारी बनकर, मंदिर के सामानों को बेचा था ।
जिससे महा पाप का बंध कर , नरको के दुःखो को भोगा था ॥
अकृत्य पुण्य ने जन्म से ही , पापों के फल को भोगा था ।
सुकृत्य पुण्य के व्दारा सोना देने पर, हाथो में अंगार बन जाता था ॥”
कपटी ब्रह्मचारी बनकर मंदिर में रहकर मंदिर के उपकरणों को बेचकर व्यसनों मे खर्च किया जिसमे तुरन्त कोढ़ फूट गया और मर कर सातवे नरक गया । फिर त्रस पर्यायों मे भ्रमण कर अकृत्य पुण्य हुआ । अधिक पाप या पुण्य का फल तुरन्त मिल जाता हैं । एक दिन अकृत्य पुन्य सुकृत्य पुण्य के खेत पर काम करने गया । अकृत्य पुण्य ने कहा-काम के बदले क्या दोगे ? सुकृत्य पुण्य ने सोचा देखो कर्मो की विचित्रता, जो स्वामी था वह नौकर हो जाता है । मेरे सेठ का पुत्र याचना कर रहा है धिक्कार है ऐसे कर्मो को ऐसा विचार कर उसने स्वर्ण से भरा कलश दे दिया परन्तु अकृत्य पुण्य के पाप कर्म इतने तीव्र थे कि स्वर्ण का कलश हाथ में लेते ही अग्नि के अंगारो की तरह जलने लगे । इससे अकृत्य पुण्य कहता है कि तुम दूसरों को चने दे रहे हो, मुझे ये अंगारे क्यों दे रहे हो ? सुकृत्य पुण्य ने सोचा- इसके पाप कर्म की दारूण दशा है । सुकृत्य पुण्य ने कहा जितने चने तुमसे ले जाया जा सको उतने ले जाओ । अकृत्यपुण्य जितने चने ले जा सका उतने बाँधकर घर ले गया । माता ने पूछा- तू ये चने कहाँ से लाया ? अकृत्य पुण्य ने कहा- मैं सुकृत्य पुण्य के यहाँ खेत पर काम करने गया था वहाँ से लाया हूँ माता विचार करती है जो हमारा नौकर था, वह मालिक हो गया, हम मालिक थे आज नौकर बन गये । कर्म की कैसी लीला है । माता-पुत्र दोनों अन्य गांव को रवाना हो गये, चलते चलते सोसवॉक गाँव में पहुँचे । मार्ग की थकावट दूर करने के लिए, उस गाँव के सेठ बलभद्र के घर के सामने जा बैठे । सेठ बलभद्र ने पूछा- बहिन आप कहाँ से आई हो, और कहाँ जाने के लिए निकली हो ? मृष्टदाना ने रोते हुये कहा- हम मगध देश से निकले है और जहाँ हमारी आजीविका चलें हमें वहाँ जाना है । सेठ बलभद्र को दया आई उसने कहा- तुम्हें आजीविका की आवश्यकता है तो मेरे यहाँ रहो और मेरी रसोई बना देना तथा तुम्हारा पुत्र मेरी गायों को चरा दिया करेगा । मैं आपको उचित वेतन भोजनादि दूँगा । मृष्टदाना ने स्वीकार कर लिया । अत: सेठ ने रहने के लिए घर के पीछे झोपड़ी दे दि ।
सेठ बलभद्र के सात पुत्र थे, उनके खाने के लिए प्रति दिन सबेरे खीर का भोजन बनता था । उसे लेकर अकृत्य पुण्य रोजाना अपनी माता से खीर खाने के लिए रोया करता था । माँ कहती है- तूने कोई पुण्य कर्म नही किया मैं उत्तम भोजन कहाँ से लाऊँ ? अकृत्य पुण्य था तो बालक, सेठ के पुत्रों को खीर खाता देखकर रोता था । यह देख सेठ के पुत्र उसे मारते थे , एक दिन उसे मारने से अधिक लग गई, जिससे उसका मुँह सूज गया । अकृत्य पुण्य की ऐसी दशा देखकर सेठ बलभद्र ने पूछा – इसका मुख कैसे सूज गया ? तब उसकी माता ने कहा- यह खाने के लिए खीर मांगा करता था, पाप के उदय से खीर कैसे मिल सकती है ? उसके बदले में आपके पुत्रो ने यह दशा की है । यह सुनकर सेठ को बहुत दया आई उसने अकृत्य पुण्य की माता से कहा- तू मेरे घर से घी, दूध, शक्कर, चाँवल अपने घर ले जाकर उसकी खीर बनाकर पुत्र की अभिलाषा पूर्ण करो । सेठ के कहे अनुसार सामग्री घर लाई और पुत्र से कहा- आज तुझे खीर बनाकर खिलाऊँगी, तू बछड़ों की टहल करके शीघ्र वापिस आ जाना । अकृत्य पुण्य प्रसन्नचित्त से बछडो की चर्या करने गया, माता के कहे अनुसार जल्दी आ गया । इतने में माता ने खीर बनाकर तैयार कर दी । माता ने अकृत्य पुण्य से कहा- बेटा मैं पानी भरकर अभी आती हूँ । यदि इतने में कोई साधु आये तो उन्हें मत जाने देना, क्यों कि उत्तम पात्रदान से महान पुण्य बंघता है । उत्तम भोजन, उत्तम पात्रदान, गृहस्थाश्रम की सफलता है । आहार दान से बडे बडे पाप कट जाते हैं । हमने कभी आहार दान नही दिया इस कारण दरिद्रता का दु:ख सहन कारना पड़ रहा है । इस तरह धार्मिक भावना समझाकर माता घड़ा लेकर पानी भरने गई ।
“अकृत्य पुण्य के जीवन में ये, कैसा शुभ दिन आया था ।
माँ के कहने पर साधु को, आहार के लिए रोके रखा था ॥
माँ ने आके पड़गाहन कर , साधु को खीर का आहार कराया था ।
अकृत्य पुण्य ने आहार दान देकर के देव आयु का बंधकर डाला था ॥”
इतने में महान पुण्योदय से अकृत्यपुण्य को मासोपवासी अनेक ऋध्दियो के धारी महापात्र “सुव्रत” नामक मुनिराज पारणा के लिए बलभद्र सेठ के घर की तरफ आते दिखाई दिये थे । यह देखकर अकृत्य पुण्य शुध्दमन से विचारता है कि ये महान साधु महात्मा इनके पास वस्त्रादिक कुछ भी नहीं है, ये महान पुण्योदय से पधारे हैं मैं इनको नहीं जाने दूंगा । इस प्रकार विचार कर मुनिराज के पास जाकर -सामने खडे होकर विनती करने लगा, कि हे प्रभो- मेरी माता ने बहुत ही सरस खीर बनाई है वह आपको भोजन में देनी है । मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप यहीं ठहरें, मेरी माता अभी पानी भर कर आती है । परन्तु मुनिराज का यह चर्या वाला, ऐसा मार्ग नहीं है इसलिए वे धीमे धीमे आगे बढने लगे तब अकृत्यपुण्य ने मुनिराज के चरण पकड़कर विनय पूर्वक पुनः बोलता है कि हे तात् मेरे उपर दया करो, कुछ देर खड़े रहिये, आप यहाँ से आगे मत पधारो, इस प्रकार प्रार्थना करने लगा । इतने में उसकी माता पानी भरकर आ जाती है और मुनिराज को आहार के लिए जाते देख अत्यन्त प्रसन्नता होती है जैसे अनायास दुर्लभ धन मिलने से प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता इस समय उसे हुई । उसने तुरन्त अपने सिर से पानी का घड़ा उतारकर मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और कहने लागी – हे स्वामी नमोस्तु, नमास्तु, नमोस्तु,अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ कहकर मुनिराज का पडगाहन किया । तत्पश्चात मुनिराज को घर ले जाकर उच्च आसन पर विराजमान किया और नवधा भक्ति से अत्यन्त हर्षित होकर पुत्र के साथ आहार दान दिया । मुनिराज को आहार करते देखकर अकृत्य पुण्य बहुत ही आनन्दित हुआ । महाराज को एक टक निहारता रहा, कि कितने शांत भाव से खीर खा रहे हैं । उसने यह नहीं सोचा कि मेरे लिए खीर बचेगी कि नहीं, इस कारण उसने महान पुण्य का उपार्जन किया । वह विचारने लगा कि अहो आज मैं कृतार्थ हुआ । आज महादान से मेरा जन्म सफल हुआ, अहो आज मैं कितना भाग्यशाली हूँ देव, राजा, महाराजा और विद्याधरों से वंदनीय महापात्र मुनिराज आज मेरे घर आहार कर रहे हैं । इस प्रकार महान पुण्य का उपार्जन करता है । मुनिराज जितेन्द्रिय योगीराज ने खड़े – खड़े शांत भाव से पाणिपात्र में आहार करके दाता को पावन किया और शुभ आर्शीवाद प्रदान कर वन-जंगल की तरफ विहार कर गये ।
अहो देखो बालक की उत्तम भावना खीर खाने के लिए रोता था, सेठ की कृपा से खीर मिली, तो खाने की लोलुपता नहीं की । कितनी कठिनाई से मिली है, किसी को खाने नहीं दूँगा, पर साधु महाराज को खीर देने के लिए धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करता रहा । सद्भाव से मुनिराज के आ जाने पर भी निर्लोभता से भक्ति एवं उत्साह पूर्वक खीर का दान देकर आनन्दित हुआ । वे मुनिराज अक्षीण ऋध्दि से विभूषित थे इस कारण से खीर
अक्षीण हो गई (चक्रवर्ती की समस्त सेना भोजन करे तो भी उस दिन अक्षीण ऋध्दि के कारण भोजन खत्म नही होगा ) जब मुनिराज आहार करके गये तो मृष्टदाना ने अकृत्यपुण्य को बहुत खीर खिलाई और स्वयं पेट भरकर खाई । खीर रंचमात्र भी कम नहीं हुई, यह देखकर उसको आश्चर्य हुआ और सेठ बलभद्र के कुटुम्ब को भोजन के लिए बुलाया, तो भी भोजन कम नहीं हुआ, तब पूरे गाँव को भोजन कराया । इस महादान से माता पुत्र की बहुत प्रशंसा, प्रसिद्धि हुई ।
खीर खाकर अकृत्यपुण्य बछड़ो को चराने जंगल में ले गया, किन्तु पेट में गरिष्ठ भोजन जाने से निद्रा आ गई, गाये स्वयं वापिस आ गई । गायों को अकेले आते देख माता सोचने लगी कि पुत्र वापिस क्यों नहीं आया ? चिन्ता हुई मृष्टदाना ने सेठ से कहा । सो सेठ नौकर सहित अकृत्य पुण्य को खोजने के लिए निकला । इधर अकृत्यपुण्य की निद्रा उड़ी (खुली) तो गायों को नहीं देखा व्याकुल होकर खोजने लगा, इतनें में सेठ बलभद्र को आते देखकर ड़रकर पर्वत पर चढ़ गया । सेठ बलभद्र ने खोज की, नहीं मिलने पर घर वापिस आ गया । अकृत्यपुण्य पर्वत के ऊपर गुफा के दरवाजे पर खड़ा रहा । गुफा में सुव्रत मुनिराज धर्म का उपदेश दे रहे थे । अकृत्यपुण्य भी उसे प्रसन्नता पूर्वक सुनने लगा । उपदेश पूर्ण होने के बाद सभी श्रावक गण णमो अरिहन्ताणं का उच्चारण करते हुये गुफा से बाहर निकले । अकृत्य पुण्य भी उनके पीछे-पीछे मंत्र का उच्चारण करते हुये जा रहा था । इतने में क्षुधातुर बाघ ने उसे पकड़ लिया और अकृत्य पुण्य ने णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुये समाधिमरण पूर्वक देह का त्याग किया । और उपार्जित पुण्य के उदय से सौधर्म स्वर्ग में महर्धिक देव हुआ ।
“अकृत्यपुण्य ने मुनिराज के दर्शन कर, णमोकार को याद कर डाला ।
णमोकार पढ़ते पढ़ते ही , बाघ ने उसका भक्षण कर डाला ॥
णमोकार , आहार दान के प्रभाव से , स्वर्ग में देव पद पाया ।
स्वर्ग से आकर धन्यकुमार बन , तपश्चरन कर अहमिन्द्र पद पाया ॥
अहो देखो कहाँ तो उसके प्रबल पापोदय और कहाँ दुर्लभ पात्रदान का योग और
कहाँ उत्तम भावना से प्राप्त स्वर्ग । इधर रात भर पुत्र के न आने से चिन्तातुर माता सबेरा होते ही सेठ बलभद्र को लेकर पुत्र को खोजने निकली । खोजते खोजते उसी पर्वत पर जा पहुँची, जहाँ पुत्र का आधा खाया हुआ शरीर पड़ा था । पुत्र की मृत्यु जानकर रूदन करने लगी । इधर अकृत्यपुण्य का जीव स्वर्ग में उत्पन्न होने पर विचार करने लगा “मैं कौन हूँ” और “यह सुखमय स्थान कौन सा है” ? इत्यादि विचार कर अवधिज्ञान प्रगट हो गया । पूर्व जन्म की सारी बातें जानकर माता का रूदन देखकर सर्व प्रथम उसने सोचा अहो मैं णमोकार मंत्र के प्रभाव से देव बना । मैं पहले जिन मंदिर में जिनेन्द्र भगवान की महापूजा करूँगा अतः जिनेंद्र भगवान की महा पूजा की और अपार वैभव के साथ माता को समझाने के लिए पृथ्वी पर आया । शोक से रूदन करती माता को देख कर उसने कहा- हे माता तू रूदन मत कर मैं तेरा ही पुत्र हूँ । परन्तु पात्रदान और नमोकार मंत्र के प्रभाव से देव हुआ हूँ । स्वर्ग के सुखो का वर्णन किया अन्त में कहा हे माता यह प्रताप, दान, व्रत आदि का है अत: तू भी व्रतादि का पालन कर और रूदन छोड़ । रूदन करने से पाप बंध होता है अत: तू दुर्लभ संयम को धारण कर मनुष्य जन्म को सफल कर, इत्यादि सम्बोधन देकर स्वर्ग चला गया ।
माता मृष्टदाना को महान आश्चर्य हुआ कि अहो कहाँ वो अकृत्यपुण्य की दारूण दुःखमय दशा और कहाँ महापात्र का दान लाभ और व्रतादि की भावना से स्वर्ग का उत्तम सुख । ऐसा जानकर वह भी घर-बार का परित्याग करके संसार से विरक्त होकर के दीक्षित हुई और यथायोग्य तपादि करके समाधिपूर्वक प्राणों का परित्याग किया । जहाँ अकृत्यपुण्य का जीव था वहीं बलभद्र सेठ का जीव देव और मृष्टदाना का जीव देवी हुआ । वहाँ से च्युत होकर अकृत्यपुण्य का जीव धन्यकुमार बन, बलभद्र का जीव धन्यकुमार के पिता-धनपाल, और माता मृष्टदाना का जीव धन्यकुमार की माता, बलभद्र के सात बेटे धन्यमुमार के भाई हुये । धन्यकुमार ने तपश्चरण कर अहमिन्द्र देव बना, आगे अगले भव मे मोक्ष जायेगा ।
जरा सी बात पर मनाना तुम्हारा, मुझको याद आता है ।
तेरी छाँव में गुजरा वो , जमाना जब याद आता है ॥
किसी पत्थर से ठोकर लगती थी , जब मुझको तो ।
तेरी अँगुली का पकड़ना, माँ मुझको तो याद आता है ॥
गुरू के द्वारा बाल संस्कार
एक गुरू के चार शिष्य थे गुरू अपने शिष्यों के साथ एक बार जंगल से गुजर रहे
थे । एक स्थान पर गुरू व शिष्य रूक गये, गुरूजी ने अपने शिष्यों से एक-एक पेड उखाड
कर लाने का आदेश दिया ।
१) पहले शिष्य ने एक नन्हा सा पेड़ शीघ्र ही एक हाथ से उखाड़ दिया ।
२) दूसरे शिष्यने एक पेड़ उखाड़ा उसमें उसे थोडा सा परिश्रम करना पड़ा ।
३) तीसरे शिष्य ने पूर्ण शक्ति लगाकर दोनो हाथ से एक पेड़ उखाड दिया ।
४) चौथे अंतिम शिष्य ने जिस पेड़ को उखाड़ना चाहा, वह हिल तक नही सका, उसे उखाड़ना तो दूर रहा ।
अंत में चारो शिष्यो ने गुरूदेव से पूछा – हे गुरदेव इन क्रिया से आप हमें क्या शिक्षा देना चाहते है ? तब गुरूदेव ने कहा-
१) पहले शिष्यने नन्हा सा पेड शीघ्र उखाडा – उसका मतलब यह है कि मनुष्य बाल्य काल में उत्पन्न बुराइयो को उसी समय उखाड़कर फेक दे, उस नन्हें से पौधे की तरह आसानी से दूर हो सकती हैं ।
२) दूसरे शिष्य को पेड उखाड़ने में थोडा परिश्रम करना पड़ा – उसका मतलब है कि आगे चलकर वह बुराइयाँ अधिक मजबूत हो जाती हैं । उन्हें दूर करने में कठिनाई महसूस होती है, लेकिन दूर की जा सकती है ।
३) तीसरे शिष्य ने पूर्ण शक्ति लगाकर पेड उखाड़ा- उसका मतलब यह है कि यौवन अवस्था में उन बुराइयों को बहुत कठिनाई से, पूर्ण परिश्रम करने से उन बुराइयों को दूर किया जा सकता है ।
४) चौथा अंतिम शिष्य पूरी ताकत लगाने पर भी पेड़ को हिला तक नहीं सका, उसका मतलब यह है कि यदि यौवन अवस्था में उन बुराइयो को दूर नही किया गया तो आगे अधिक मजबूत गहरी हो जाती हैं, अंत समय तक बुराईयाँ बनी रहती हैं । जैसे मजबूत पेड़ को उखाडना तो दूर हिला भी नही सकते, हर माता पिता को अपनी संतान के बाल्यकाल में उत्पन्न बुराइयों को उसी समय दूर करना चाहिये ।
“दशवर्षाणि ताड़येत”
१) चार वर्ष तक के बच्चों को चिल्लाना , डाँटना , मारना पीटना नही चाहिये । प्रेम से
समझाना चाहिये, क्यों कि डाँटने पीटने चिल्लाने से बच्चे सहम जाते हैं । मस्तिष्क की नसे विकृत हो सकती हैं ।
२) चार वर्ष से दस वर्ष तक अर्थात चौदह वर्ष की आयु तक के बच्चों को अपने निरीक्षण में रखना अर्थात स्कूल में किस प्रकार के मित्रों की संगति कैसी रखता है ? क्या खाते हैं ? कहाँ जाते हैं ? अर्थात उनके हर क्रिया पर निगरानी रखना । पाठशाला भेजना, अभिषेक के लिए मंदिर भेजना , रविवार को और प्रतिदिन मंदिर भेजना या स्वयं ले जाना । दान, पूजा, सेवा की आदत डालना, गुरूओं की एवं बड़ो का विनय करना । बारह भावना, भक्तामर पढ़ना, पूछना, याद कराना ये मांगलिक संस्कार बच्चो पर डालना चाहिये ।
३) “प्राप्ते तू षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रवदाचरेत्” – सोलह वर्ष तक उसे परिपक्व करने के पश्चात उसमे मित्रवत अर्थात मित्र के समान व्यवहार करना चाहिये । शाम को स्कूल से आने के बाद उनसे प्रेम से पीठ पर हाथ फेरकर पुचकार कर पूछना-आज क्या क्या हुआ ? किसी ने क्या कहा है ?, किसने क्या दिया? किसने फोन किया ? किसीने कहा हैं –
“ बालक रखिये हरक में , नही चढाओ शीश ।
नित प्रति लाड़ लड़ाय के, बिगरत बिव्वावीस ॥”
बच्चों को अधिक लाड प्यार में न रखना, हर माँग पूरी नहीं करना । संतान की प्रथम गुरू माँ होती है, परिवार उसकी प्रथम पाठशाला होती है ।
एक बच्चा था जिसका नाम एक स्कूल में दाखिल किया । गुरूजी ने प्रथम दिन पढाया – “सदा सत्य बोलना चाहिये” बालक घर आया कुछ समय पश्चात मकान मालिक किराया मांगने आया । बेटे से पूछा – पिता जी कहाँ है ? मकान का किराया चाहिये । बेटा अन्दर गया पिता को बताया ।
पिता ने कहा – जाओ उनसे कह दो पिता जी घर पर नही है ।
बेटे ने जैसा पिता ने कहा उसने बाहर जाकर कह दिया- पिताजी घर पर नही है । पिता ने अपने बेटे से झूठ बुलवाया और स्वयं झूठ बोला ।
दूसरे दिन स्कूल में पढ़ाया गया “सब जीवों से प्रेम करना चाहिये” । बालक घर गया, घर आकर क्या देखता है ? माता पिता आपस में झगड़ रहे हैं ।
तीसरे दिन स्कूल में पढाया गया “कभी किसी को सताना नही चाहिये” । बालक
घर आया तो देखा कि उसका बड़ा भाई एक अपंग भिखारी को डिब्बे से मार रहा है ।
चौथे दिन जब उस बालक से स्कूल जाने को कहा तो वह बालक बोला – माँ हमारे स्कूल के शिक्षक सही नही पढाते । माँ ने कहा- क्यों ?
बच्चा बोला – क्योकि प्रथम दिन पढ़ाया सदा सत्य बोलना, पर घर आकर देखा पापा ने झूठ बोला और बुलवाया । मकान मालिक किराये माँग ने आया पूछा-पिताजी (पापा) ने कहा- कह दो पापा घर पर नहीं हैं । दूसरे दिन पढ़ाया – सब जीवो से प्रेम करना लेकिन आप और पापा आपस मे झगड़ रहे थे । तीसरे दिन बताया गया- किसी को कभी सताना नहीं, लेकिन बड़े भैया एक अपंग भिखारीको डिब्बे से मार रहे थे । माँ अब आप ही बताइये शिक्षा स्कूल की महत्वपूर्ण है या हमारे आचार, व्यवहार, आचरण ?