पावागिर स्थित
मुनि मणि-भद्रादि-पूजन
मणि भद्र, जयतु-जय, स्वर्ण-भद्र ।
गुण-भद्र, जयतु-जय, नील-भद्र ।।
तट नदी चेलना शिव गामी ।
पावागिरि सिद्ध क्षेत्र नामी ।।
आवाज दे रहा दृग् सीले ।
आओ भी उतर गगन नीले ।।
‘मन-दर’ तुुम बिन खाली खाली ।
आ कर, दो मनवा दीवाली ।।
ॐ ह्रीं श्री पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनीन्द्र ! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनीन्द्र !अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनीन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (इति सन्निधिकरणम्
पाने तुम चरण शरण आया ।
जल प्रासुक कर, घट भर लाया ।।
मुझको अपने जैसा कर लो ।
अपना रुपया-पैसा धर लो ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
घिस कर मलयज चन्दन लाया ।।
लो उठा इधर भी एक नजर ।
जाये ‘कि उतर सब थकन सफर ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
सित साबुत शालि धान लाया ।।
सर मेरे रख दो आप हाथ ।
कर लिया करो ना रोज बात ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
कुछ हटके महक पुष्प लाया ।।
पा जाऊँ पावन पाँवन रज ।
बन सकूँ निराकुल और सहज ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
मनहर मनभर व्यन्जन लाया ।।
चिर-मिलन भक्त भगवान् रेख ।
दो भेंट मन्द-मुस्कान एक ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
अठपहरी घृत दीपक लाया ।।
छू पाया सपने सपनों में ।
बैठा लो अपने अपनों में ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
दश-गंध अनूप धूप लाया ।।
जर्रा ही जगह पास चरणन ।
दो भेंट समय-साँझन सुमरण ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाने तुम चरण शरण आया ।
रसदार सुगंधित फल लाया ।।
दो भेंट आप आशीष छाँव ।
लग सके ताकि तट-मोक्ष नाव ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: मोक्षफल-प्राप्तये-फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
भेंटूँ जल, चन्दन, शाली धाँ ।
फुलवा प्रफुल्ल, गो-घृत पकवाँ ।।
घृत दीप, धूप, फल, अष्ट दरब ।
करने अरि अष्टक नष्ट सरब ।।
ॐ ह्रीं पावागिर स्थित मणि-भद्रादि मुनि वरेभ्यो: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
दोहा
सुना ! आप दुखड़ा सुने,
आया रख विश्वास ।
मत ठुकरा देना हमें,
रख लो चरणन पास ।।
जयमाला
जयकारा गया न खाली है ।
अब तलक मनी दीवाली है ।।
दरबार इक सवाली आते ।
झलकत भर ले झोली जाते ।।
अंधों ने आ पाई आँखें ।
बहरे न कभी बगलें झाँकें ।।
साढ़े-साती मिलती माटी ।
बाधा-ऊपर, ऊपर जाती ।।
गुम काल-सर्प इक योग तुरत ।
झट सर्व-रोग गुम तुम सुमरत ।।
हो जाती मन-मुराद पूरी ।
खो जाती दो मन की दूरी ।।
खुशिंयों से जुड़ जाता नाता ।
आ नाम सुर्ख़िंयों में जाता ।।
जिसको चाहे दुनिया सारी ।
हो स्वानुभूति वो, बलिहारी ।।
घुर चले भले पेंसिल भाई ।
पे ‘शिल’ में रहे रबर भाई ।।
यानी गलती नहिं करता वो ।
पग फूँक-फूँक के धरता वो ।।
कुछ न कहता, सब कुछ सहता ।
सोने सा जग कीचड़ रहता ।।
यानी वो जल से भिन्न कमल ।
रहने लगता जागृत पल-पल ।।
अब दूर न उससे शिव राधा ।
सब सधे कहाँ, अब इक साधा ।।
कुछ और न यह, है प्रभु किरपा ।
वो रहे सुखी अपना घर पा ।।
दोहा
बच्चा ही देवे बता,
माँ को अपना लाल ।
नहीं कौन सा कीमती,
माँ अवतार दयाल ।।
।। आरती ।।
आरती उतारूँ,
मणि भद्र महराज की ।
स्वर्ण भद्र महराज की ।।
आरती उतारूँ,
गुण भद्र महराज की ।
नील भद्र महराज की ।।
मूरत निहारूँ,
चौखट पखारूँ,
आरती उतारूँ,
जनम यह वारूँ,
रत्नों से दीपक सजा के ।
बाती कपूर की बना के ।।
आरती उतारूँ,
मणि भद्र महराज की ।
स्वर्ण भद्र महराज की ।।
आरती उतारूँ,
गुण भद्र महराज की ।
नील भद्र महराज की ।।
मूरत निहारूँ,
चौखट पखारूँ,
आरती उतारूँ,
जनम यह वारूँ,
ज्योत भीतर की जगा के ।
इक-टक पलकें न झपा के ।।
मूरत निहारूँ,
आरती उतारूँ,
मणि भद्र महराज की ।
स्वर्ण भद्र महराज की ।।
आरती उतारूँ,
गुण भद्र महराज की ।
नील भद्र महराज की ।।
मूरत निहारूँ,
चौखट पखारूँ,
आरती उतारूँ,
जनम यह वारूँ,
झिर सावन-भादों लगा के ।
आँखों को निर्झर बना के ।।
चौखट पखारूँ
आरती उतारूँ,
मणि भद्र महराज की ।
स्वर्ण भद्र महराज की ।।
आरती उतारूँ,
गुण भद्र महराज की ।
नील भद्र महराज की ॥
मूरत निहारूँ,
चौखट पखारूँ,
आरती उतारूँ,
जनम यह वारूँ,
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