खोना-वाले बाबा
तीर्थ क्षेत्र खरगोन जी
आदिनाथ भगवान् पूजन
खोना वाले बाबा आओ ।
मन मेरा मंदिर कर जाओ ।।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।।
दुनिया यह दोगली बहुत है ।
दुनिया की अटपटी गणित है ।।
दुनिया का दू-निया भुलाऊँ ।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
जल का कलश लिये हाथों में ।
मन आया किल्बिष बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
चन्दन घिस लाया हाथों में ।
मन आया औगुन बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
दाने अछत लिये हाथों में ।
मन आया गफलत बातों में ॥
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
पुष्प पिटार लिये हाथों में ।
मन आया मन्मथ बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
घृत निर्मित व्यंजन हाथों में ।
मन आया गिरगिट बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
दीपाली गो-घृत हाथों में ।
मन आया मर्कट बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
धूप अनूप लिये हाथों में ।
मन आया कर्कट बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
श्री फल थाल लिये हाथों में।
मन आया ना…गिन बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
अर्घ-परात लिये हाथों में ।
मन आया उत्पथ बातों में ।।
‘कि तुम्हारे भक्तों में आऊँ ।
गद-गद हृदय गुहार लगाऊँ ।।
कल्याणक
गर्भ महीना षट् पूरब से ।
झिर लग रत्न गगन से बरसे ।।
देवि अष्ट कुमारिंयाँ आईं ।
भेंट विविध हाथों में लाईं ।।
जन्म हुआ देवी, शचि आई ।
तीर्थक-बाल गर्भ गृह लाई ।।
हित दर्शन दृग् सहस बनाया ।
न्हवन मेर सौधर्म रचाया ।।
राज-पाट तृण-जीरण छोड़ा ।
मुख अपना वन तरफी मोड़ा ।।
आके वस्त्र उतारे वन में ।
सारे केश उखाड़े छिन में ।।
घात घात पाया समशरणा ।
बैठा सिंह करीब ही हिरणा ।।
प्रातिहार्य आठों मनहारी ।
प्रभु चन्द्रा, चातक नर नारी ।।
ह्रश्व पाँच आखर पढ़ पाते ।
गुणस्थान ऊपर उठ जाते ।।
घात अघात समय इक लागा ।
निज घर लगे, भाग शिव जागा ।।
जयमाला
दोहा
मंशा पूरण नाम से,
चर्चित तीन जहान ।
खोना अतिशय क्षेत्र के,
आदि नाथ भगवान् ।।
खोना वाले बाबा का जयकार
खाली गया न कभी, लगा इक बार
सम्यक् दर्शन होते देखा ।
देखा भाग सुलटते लेखा ।।
कहें कहाँ तक, सुने यहाँ तक,
खिंची हाथ पद-शाश्वत रेखा ।।
जपा, हुआ बड़भागी छिन में ।
दवा दुआ है लागी छिन में ।।
कहे कहाँ तक, सुने यहाँ तक,
स्वयम्भुवा है जागी छिन में ।।
बिगड़ा काम बना इक पल में ।
दुखड़ा नाम फना इक पल में ।।
कहें कहाँ तक, सुने यहाँ तक,
द्यु-शिव स्वाम चुना इक पल में ।।
खुली गाँठ न टूटा धागा ।
आप पार उस बेड़ा लागा ।।
कहें कहाँ तक, सुने यहाँ तक,
उड़ा रंग शिव खेले फागा ।।
चूनर टकते चाँद सितारे ।
मावस पूनम चाँद नजारे ।।
कहें कहाँ तक सुने यहाँ तक,
द्यु-पुर शिवपुर खुलते द्वारे ।।
दोहा
ढ़ोक, भेंट ले, कर रहे,
भक्तों का कल्याण ।
खाना अतिशय क्षेत्र के,
आदि नाथ भगवान् ।।
चालीसा
भारत देशा, मध्यप्रदेशा ।
रायसेन इक जिला विशेषा ।।
नगर बरेली जाना माना ।
तीर्थ क्षेत्र खरगोन पुराना ॥1॥
आस-पास ‘इक्यावन’ मन्दर ।
सार्थ-नाम चर्चित जग-अन्दर ।।
कहीं और ना वैभव ऐसा ।
नीर नदी का मिसरी जैसा ।।2।।
दूर-दूर तक, हरियाली है ।
दोर-दोर इक-खुशहाली है ।।
मनती रोज दीवाली, होली ।
फिरे न कोई ले कर झोली ।।3।।
सिर्फ न बच्चे पढ़ें बच्चियाँ ।
कीर्तिमान नव गढ़ें बच्चियाँ ।।
शरमो-हया-लाज के गहने ।
न बच्चिंयाँ, बच्चे भी पहने ।।4।।
निशा ध्यान में इन्हें बिताना ।
‘न…शा शा…न’ न इनने माना ।।
पहने मोटा, मोटा जीमें ।
निरख-निरख पग रखते धीमें ।।5।।
कहे ‘ओढ़नी’ क्या जाने हैं ।
चलते कभी न मनमाने हैं ।।
चादर खींच आँख निशि मीचें ।
उठ, सूरज की चादर खीचें ।।6।।
गो महुये सी प्रीत धरम से ।
लड़ नव कर्म न, लड़े करम से ।।
हंस-बुद्ध नर, नार प्रभावा ।
प्रसिद्ध खोना वाले बाबा ।।7।।
पता नाम यह पड़ा किसलिये ।
मिलती खोई चीज इसलिये ।।
सहज-निराकुल श्री फल लाना ।
दुख बुदबुदा सिर्फ रख आना ।।8।।
न आज की मान्यता पुरानी ।
झिरे आँख खुशिंयों का पानी ।।
बड़ी दूर से ध्वजा दिखाती ।
कहती थको न मंजिल आती ।।9।।
पता ? कहाँ बैठे हैं बाबा ।
मीठी इमली की है छावा ।।
बाबा खुले अकाश विराजे ।
विनत खड़े राजे महराजे ।।10।।
उड़ती धूल अंग जा लागी ।
चन्दन बनी, बड़ी बढ़भागी ।।
इन्द्र करे अभिषेक चुमासा ।
रहे सहस-अख भी लख प्यासा ।।11।।
पड़े धूप, तरु बनते छाता ।
पंखा मारुत्-मन्द झलाता ।।
चिड़िया चहक गीत गाती है ।
बगिया महक अगर बाती है ।।12।।
खुद को बड़ा भागवाँ गिनते ।
ताजे-ताजे फुलवा गिरते ।।
कच्ची पकी इमलिंयाँ अनगिन ।
चढ़ी रहें चरणों में निशदिन ।।13।।
जब तब जन ग्रामीण निकलते ।
रोक-टोक बिन दर्शन मिलते ।।
गद-गद हो जाता है हिवड़ा ।
बने देखते, प्रमुदित मुखड़ा ।।14।।
आते विहार करते साधू ।
ठहरे बिना न रहते, जादू ।।
श्रमण सरल सागर जी आये ।
ध्यान लगा कुछ अद्भुत पाये ।।15।।
छोटे बाबा यहाँ पधारे ।
नहीं अकेले संघ महा ले ।।
सामायिक से उठ बतलाया ।
स्वानुभवन कुछ हट के पाया ।।16।।
बाबा बड़े चमत्कारी हैं ।
तभी सवाली नर, नारी हैं ।।
साँचा एक द्वार जग दोई ।
खाली झोली गया न कोई ।।17।।
साढ़े साती आप विलीना ।
जोड़ हाथ क्या श्री फल कीना ।।
सिर बाबा क्या ढ़ारी झारी ।
मूठ, धूल-मोहन भी हारी ।।18।।
काफी इक गुहार मन सच्चे ।
रोजगार से लगते बच्चे ।।
गन्धोदक क्या माथ चढ़ाया ।
रोगों से छुटकारा पाया ।।19।।
काल सर्प इक योग टला है ।
माँ मुड़ेर कागा बोला है ।।
कोट-कचहरी छूटी देखा ।
श्रृद्धा सहित माथ क्या टेका ।।20।।
दृग् चरणन क्या जोड़ा नाता ।
कण्ठ समायीं सरसुति माता ।।
चलता अंधा धंधा-पानी ।
बस बाबा जयकार लगानी ।।21।।
देर माँगने की बस मन्नत ।
बाबा आतुर देने जन्नत ।।
यूँ ही लगा न रहता ताँता ।
गुड़ चींटी का अनाद नाता ।।22।।
आश दरश गुरु-विद्या नामी ।
मुनि भूषण कुल-रत्नन् स्वामी ।।
जिन संस्कृति संरक्षक न्यारे ।
कर्नाटक से यहाँ पधारे ।।23।।
देख प्रभू तरु इमली नीचे ।
सिसकी भरते, आँखें मींचे ।।
जाने तब क्या मन में आया ।
नाम विनोद शिल्पि बुलवाया ।।24।।
युग-चतुर्थ से चूॅंकि यहीं थे ।
नैन-नक्स घिस चुके सभी थे ।।
शिल्पी देख-परख करता है ।
कमर बाँध आगे बढ़ता है ।।25।।
कुछ ग्रामीण विपक्ष खड़े थे ।
नव न गढ़े मरती अड़े थे ।।
स्वप्न रात्रि में उनको आया ।
है यह बाबा की ही माया ।।26।।
विघ्न न डालो, पुण्य कमालो ।
आपस में हिल-मिल कर चालो ।।
फिर क्या पलक बिठा निर्ग्रन्था ।
मंजिल दिखी नाप डग पन्था ।।27।।
मूर्ति सविधि निष्ठापन कीनी ।
शिल्पकार छेनी चल दीनी ।।
पैनी नजर पारखी ऐसी ।
मूरत गढ़ दी पहले जैसी ।।28।।
काल जेय मूरत हो अबकी ।
वज्र लेप मन-भावन सब की ।।
वज्र-लेप चढ़ते ही भाई ।
देह रूपसी और दिखाई ।।29।।
माथ चमकता सूरज देखा ।
आँख दमकता नूर अनोखा ।।
घूँघर वाली अलकें दीखीं ।
पद्म पाँखुरी पलकें नीकीं ।।30।।
जो काँधों तक करती नर्तन ।
बिना चीन दिखलातीं दर्पन ।।
एक-आदि युग भव जल माँझी ।
आदि ब्रह्म की यह प्रतिमा जी ।।31।।
भ्रू समक्ष धनु बाजी हारे ।
गोल कपोल बड़े ही प्यारे ।।
चम्पक जैसी रम्यक नासा ।
होंठ बिम्ब-फल इक परिभाषा ।।32।।
कर्ण लोल आ काँधे झूलें ।
काँधे ककुद आसमाँ छू लें ।।
गला शंख आवर्ती वाला ।
सदय हृदय श्री-वत्स निराला ।।33।।
भ्रमर भ्रमित करती कर तालिंयाँ ।
दल सहस्र पंकज पग तलिंयाँ ।।
रखे हाथ पे हाथ जतन से ।
सहज विराजे पद्मासन से ।।34।।
हुई प्रतिष्ठा धूम-धाम से ।
भक्त जुड़े आ दूर ग्राम से ।।
जैनी थे, कब बात अजूबा ।
इतर समाज भक्ति में डूबा ।।35।।
नार न्यार मंगल ले कलशा ।
आगे चलें, सुशोभे जलशा ।।
ढ़ोलक, ढ़पली, तुरही बाजी ।
शंख, मजीरा, मुरली साजी ।।36।।
छिड़के रंग उड़ाये कोई ।
थिरके रंग जमाये कोई ।।
और अभी अतिशय था बाकी ।
नभ ने गंधोदक वर्षा की ।।37।।
साफ आसमाँ धूप खिली थी ।
तलक सुदूर न इक बदली थी ।।
तेज हवा का झोंका आया ।
तरु इमली ने मौका पाया ।।38।।
टप-टप इमली गिरने लागी ।
माने तरु खुद को बड़भागी ।।
हुआ चढ़ावा अन्तिम लाना ।
चूँकि बाद अब छप्पर छाना ।।39।।
कहूँ कहाँ तक छोरे न आता ।
शशि हित शिशु पै दौड़ न जाता ।।
बस वैसी थिति आज हमारी ।
रखी, राखना लाज हमारी ।।40।।
दोहा
सहज निराकुल लो बना,
आप मुझे निज भाँत ।
ओ ! खोना बाबा बड़े,
विनय यही नत माथ ।।
आरती
निहारूॅं मूरतिया
पखारूॅं पगतलिया
खोना वाले बाबा की उतारूॅं आरतिया
निहारूॅं मूरतिया
आरती उतारूॅं पहली, गर्भ कल्याण की ।
रत्न वर्षा देवों ने, स्वर्गों से आन की ।।
आरती उतारूॅं दूजी, जन्म कल्याण की ।
खुशी जाहिर देवों ने, स्वर्गों से आन की ।।
आरती उतारूॅं तीजी, त्याग कल्याण की ।
अनुमोदना देवों ने, स्वर्गों से आन की ।।
आरती उतारूॅं चौथी, ज्ञान कल्याण की ।
पद्म रचना देवों ने, स्वर्गों से आन की ।।
आरती उतारूॅं और, मोक्ष कल्याण की ।
पर्याय धन देवों ने, स्वर्गों से आन की ।।
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