इन्दौर
स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान्
पूजन
संकट मोचन ! मंशा पूरण,
इन-सा कहाँ जहान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
कृपा बनाये रखना भगवन् !
सिर्फ तुम्हीं इक मेरे ।
शरण मुझे बस, चरण आपके,
संध्या और सबेरे ।।
आओ मेरे हृदय विराजो,
करे भक्त आह्वान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
आँखों से अशुअन की अविरल,
बहती रहती धारा ।
आ शबरी के राम गये,
नहिं तुम, क्या दोष हमारा ।।
मेरे राम ! खबरिया ले लो,
भेंटूँ जल अम्लान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
बाट जोहते निकले दिन,
रजनी निकले गिन तारा ।
आ मीरा के श्याम गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मेरे श्याम ! खबरिया ले लो,
भेंटूँ गंध प्रधान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
मेरे अपने सपने का,
सपना है अभी नजारा ।
आ चन्दन के वीर गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मेरे वीर खबरिया ले लो,
भेंटूँ सुरभित धान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
चाँद न मेरी झोली का,
हो पाया एक सितारा ।
आ मयूर घन-श्याम गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मम घन-श्याम खबरिया ले लो,
भेंटूँ गुल बागान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
आते आते हाथ हाथ से,
जाता फिसल किनारा ।
आ कुमुदों के चाँद गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मेेरे चाँद खबरिया ले लो,
भेंटूँ घृत पकवान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
मेरे एक एक मिल तलक न
अब हो पाये ग्यारा ।
आ कमलों के सूर्य गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मेरे सूर्य ! खबरिया ले लो,
भेंटूँ दीपक भान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
मेरा छोड़ मकान खिलाये,
धूप छका दिनतारा ।
आ चातक के श्वास गये,
नहिं तुम क्या दोष हमारा ।।
मेरे श्वास ! खबरिया ले लो,
भेंटूँ धूप सुहान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
लगा हाथ अब तलक उठाना,
भर चुटकी में पारा ।
आ कोयल मधुमास गये,
नहिं तुम, क्या दोष हमारा ।।
मम मधु-मास खबरिया ले लो,
भेंटूँ फल रस-खान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
प्रासुक जल, सुरभित चन्दन,
सित अक्षत, पुष्प अनूठे ।
घृत नैवेद्य, प्रदीप, धूप फल,
आप वृक्ष से छूटे ।।
वत्सल भक्त खबरिया ले लो,
भेंटूँ अर्घ महान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
कल्याणक
गर्भ पूर्व छह महिने बरसे,
कोटि रत्न अम्बर से ।
लेख देख नर नारी हरषे,
हरख हरख अन्दर से ।।
गर्भ प्रथम कल्याण मनाये,
आ सौधर्म विमान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
रिझा न पाया विभव स्वर्ग का,
माँ का मान बढ़ाया ।
पिता, पितामह, पुर-परिजन मन,
फूला नहीं समाया ।।
जन्म द्वितिय कल्याण मनाये,
आ सौधर्म विमान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
चुकने को जीवन, धारा बहु-
रूप हहा भेषों को ।
वस्त्राभूषण दिये उतार,
उखाड़ लिया केशों को ।।
तप तृतीय कल्याण मनाये,
आ सौधर्म विमान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
ज्ञान ध्यान बल केवल पा,
विभव समशरण पाया ।
सँग बैठा मृग छोड़-छाड़ के,
जात वैैर वन राया ।।
ज्ञान तुरिय कल्याण मनाये,
आ सौधर्म विमान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
पाँच ह्रश्व अक्षर अवशेष,
आयु सद्ध्यान लगाया ।
समय मात्र में जा ऋजु गति से,
सिद्ध शिला को पाया ।।
मोक्ष और कल्याण मनाये,
आ सौधर्म विमान ।
वन्दों नित स्मृती-नगर के,
मुनि सुव्रत भगवान् ।।
दोहा
यदपि आप गुणगान में,
असफल सुर-आचार्य |
माँ-के मुख बचपन सुना,
पुण्य कराये कार्य ।।1।।
बस भक्ति वश आ गया,
आगे आप प्रमाण ।
बस इतना मैं जानता,
माँ को शिशु का ध्यान ॥2।।
तेरी रहमतों का न जबाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
मुझे नहीं कहना पड़ता ।
रुका काम आगे बढ़ता ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
मोती आँख न झल पाये ।
चेहरे नूर पलट आये ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
पलक उठाना छूमन्तर ।
दर-किनार गहरा-अन्धर ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
काँटे मेरी राहों के ।
मुझसे मिलें फूल हो-के ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
हाथ सितारे चाँद लगे ।
कब सोया, जो भाग जगे ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तूँ बड़ा ही लाजबाब है ।।
जोरों की बरसा आँधी ।
दिया-जिया विन घृत बाती ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तूँ बड़ा ही लाजबाब है ।।
पतवार नहीं, पाल नहीं
साहिल छुये नाव फिर भी ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
तेरी रहमतों का न जबाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
तेरा एहसान मुझ पे बेहिसाब है ।
बाबा तू बड़ा ही लाजबाब है ।।
दोहा
और नहिं इक प्रार्थना,
दूँ जब जब आवाज ।
आगे भी रखना यूँ हीं,
बाबा मेरी लाज ।।
चालीसा
यहाँ न ठण्डी पड़ती ज्यादा ।
यहाँ न गरमी पड़े जियादा ।।
ऐसा यह इन्दौर शहर है ।
जहाँ वसा स्मृति-नगर है ॥१।।
मृदुभाषी नर-नार यहाँ के ।
सन्तोषी परि-वार यहाँ के ।।
करजा हाथ न अपने करते ।
‘पर’ पा बात गगन से करते ।।२।।
डाल अँगुलिंयाँ पाँचों घी में ।
खीर स्वर्ण थाली में जीमें ।।
बन्दर-बाँट न हाट बिमानी ।
चलता अंधा धंधा पानी ।।३।।
गुल है आस-पास बतलाये ।
खुशबू अपने-आप न आये ।।
खुशिंयाँ खुशबू गुल मन्दर है ।
श्रृद्धा हर इक दिल अन्दर है ।।४।।
संवर्धक संस्कृति जिन माहन ।
‘अन्त-र्मना’ नींव के पाहन ।।
‘भी’ से हरे भरे गुम-ही हैं ।
जिसके शिखर गगन चुम्बी हैं ।।५।।
ठहर ठहर सत् संगत कहते ।
लहर लहर पच-रंग लहरते ।।
वरवश कहे मुझे देखो ना ।
सोने का ध्वज-दण्ड सलोना ।।६।।
गुम, मद घने देखते जैसे ।
गुंबद बने देखते ऐसे ।।
वही भाँत पानी धन-राशी ।
है बारीक बड़ी नक्काशी ।।७।।
चित्र उकेरे पाथर-पाथर ।
कालजयी रचना भक्तामर ।।
यथा नाम, गुण रखने वाला ।
पत्थर मानस्तम्भ विशाला ॥८॥
सिर्फ निकलना करे पार है ।
सर्व कला सम्पन्न द्वार है ।।
चौपट पाप कर्म सब करती ।
चौखट आप शर्म शिव धरती ।।९।।
कुछ-कुछ अर्श-चाँद ग्रह-तारा ।
फर्श जहाँ जग भर से न्यारा ।।
पश्चिम, पूर्व, दक्षिण, उत्तर ।
ऐसा घण्टा नाद-अनुत्तर ।।१०।।
कुछ कुछ राम-राज दीवाली ।
गुण-मण्डप की छटा निराली ।।
भवन, विमान, ज्योतिषी, व्यन्तर ।
वन्द्य वेदिका सत् शिव सुन्दर ।।११।।
स्वामिन् जिन पद्मासन माड़ा ।
रिश्ता कच्छप चिन्ह प्रगाढ़ा ।।
चिकनी घनी रेशमी कालीं ।
अलकें जिनकी घूँघर वालीं ।।१२।।
वंश हंस-धी गौरव गाथा ।
तेजो-मयी समुन्नत माथा ।।
बाँकी भ्रुएँ धनुष के जैसी ।
सुर ना किसी मनुष के ऐसी ।।१३।।
कुछ-कुछ यूँ पाखुड़ि पद्मों की ।
पलकें बिन टिम-कार अनोखी ।।
जाने लाज कहाँ थी सीखी ।
ऐसी आँखें झील भी फीकी ।।१४।।
तोल अमोल मृदा ही विरले ।
गोल कपोल जुदा ही विरले ।।
आगे गल दल-उपमा झूठे ।
होंठ बिम्ब प्रति बिम्ब अनूठे ।।१५।।
कर्ण-लोल छूते काँधे हैं ।
स्वर्ण-गिर अछूत काँधे हैं ।।
पद्म-पाखुड़ी सीं कर तलिंयाँ ।
पद्म-पाखुड़ी हीं पग तलिंयाँ ।।१६।।
नख नख झाँके पूनम चन्दा ।
दृष्टि नासिका स्वर्ण सुगंधा ।।
चम्पक पुष्प नासिका मिलती ।
कहना जिन जिन भाँत न गलती ।।१७।।
जिनकी एक झलक क्या पाई ।।
पाप निकाचित आप विदाई ।।
महा-रोग भी करे किनारा ।
ली मस्तक गन्धोदक धारा ।।१८।।
की मस्तक गन्धोदक धारा ।
दे दस्तक न रोग दुबारा ।।
चँवर ढुराये जिन के आगे ।
डर, डर पूँछ दबाये भागे ।।१९।।
जिन के ऊपर छतर चढ़ाया ।
छू-मन्तर रज-मोहन माया ।।
लिया दिया घी, कीं आरतिंयाँ ।
पाप अशुभ विघटाईं गतिंयाँ ।।२०।।
हेत न पुण्य-कमाई दूजा ।
भक्ति समेत रचाई पूजा ।।
धूूप सामने जिनके खेना ।
सेना कर्म चटा रज देना ।।२१।।
नाम जपा जिन फेर सुमरनी ।
रफा-दफा छिन करनी भरती ।।
चढ़ा चँदोबा आया कोई ।
नाम जहाँ में छाया दोई ।।२२।।
मंगल अष्ट-द्रव्य क्या भेंटे ।
भाव अमंगल उसने मेंटे ।।
ज्योत अखण्ड जगाई घृत-की ।
पाई चिर-झिर कण्ठ अमृत की ।।२३।।
शीश उठा रख दिये सिंहासन ।
अश्रु खुशी झिर लागी आँखन ।।
रज क्या पर्शी पॉंवन पावन ।
खुशिंयाँ बरसीं सावन आँगन ।।२४।।
तलघर मन्दिर ध्यान अजूबा ।
नहीं कौन आतम में डूबा ।।
पश्चिम संस्कृति करते झूठे ।
यहाँ प्रकृति के रंग अनूठे ।।२५।।
आ प्रदक्षिणा त्रय कर कीना ।
जन्म-जरा-यम क्षय कर दीना ।।
भामण्डल से जोड़ा, नाता ।
लाभ-सुमंगल दौड़ा आता ।।२६।।
सीढ़ी चढ़कर पहुँचे ऊपर ।
कहाँ नजारा ऐसा भूपर ।।
जगत् प्रसिद्धि फिकर हने हैं ।
चौषठ रिद्धि शिखर बने हैं ।।२७।।
प्रथम तीर्थकर जग नामी की ।
मूूरत प्रथम मोक्ष गामी की ।।
कामदेव वर मूर्ति विराजी ।
प्रथम चक्र-धर कीर्ति अहा जी ।।२८।।
चौबीसी जिन वर्तमान की ।
बीस तीर्थकर विद्यमान भी ।।
मंगलकर चौबीसी भावी ।
अर चौबीसी भूत प्रभावी ।।२९।।
दिश् इकेक एकेक जिनेशा ।
चार सिद्ध प्रतिमा अवशेषा ।।
फूट आपसी हनने वाले ।
बने कूट चौबीस निराले ।।३०।।
बाबा मुनि सुव्रत वरदानी ।
जन्मे राज गृही रजधानी ।।
माँ पद्मा आँखों के तारे ।
नृप सुमित्र के राज दुलारे ।।३१।।
कहते त्राहि माम् जग त्राता ।
आते भक्त लगाये ताँता ।।
अंधे पा जाते आ आँखें ।।
बहरे भी बगलें ना झाँकें ।।३२।।
वाणी मिसरी लगें घोलने ।
गूँगे आके लगें बोलने ।।
काल-सर्प हा ! योग विलाये ।
साढ़े-साती मुँह की खाये ।।३३।।
उलझीं साकें सुलझें पल में ।
प्रश्न बदलते अपूर्व हल में ।।
करे किनार ऊपरी बाधा ।
आँखें चार करे सुख-साता ।।३४।।
रोग विदाई जाँ लेवा भी ।
शत्रू न हो पाता हैं हावी ।।
उग्र नवग्रह सौम्य सुहाने ।
भय उल्टे पग लगता जाने ।।३५।।
मैं चाकर, तुम ठाकुर मेरे ।
मेरा और न सिवाय तेरे ।।
कह बेचारा जगत् पुकारा ।
हूँ भी और भाग्य का मारा ।।३६।।
फेकूँ, पड़ते उल्टे पाँसे ।
रिश्ता जुड़ा न किसी विधा से ।।
साधूँ कहीं निशाना लागे ।
मंजिल मिले न भागे-भागे ।।३७।।
खोदूँ पहाड़ निकले चुहिया ।।
बो दूँ अषाढ़ चुग ले चिड़िया ।।
गलती पर गलती अनगिनती ।
लगती माटी माधौ गिनती ।।३८।।
विनती यही प्रार्थना मेरी ।
बिखरे पाप निकाचित ढ़ेरी ।।
मेरी मति, हो हंसी जाये ।
वंश कीर्ति, हो वंशी जाये ।।३९।।
ठग जग और न ठगने पावे ।
पग मग धर्म न ड़िगने पावे ।।
सोऊँ, उठूँ सेज दिव नगरी ।
सन्त पन्थ पहुँचूँ शिव नगरी ।।४०।।
दोहा
गरमी का या ठण्ड का,
या मौसम बरसात ।
राखी मेरी राखना,
यूँ-हि लाज दिन रात ।।
आरती
दीप के थाल हाथ में
मजीरे झाँझ साथ में
उतारूॅं आरती तेरी
लगी तुझसे लगन मेरी
स्वप्न सोलह जुड़ा नाता ।
देवी पद्मा जगत् माता ।।
राजगृहि भागवाँ घनेरी ।
लगी तुझसे लगन मेरी ।।
स्वप्न-फल विद् निमित्त ज्ञानी ।
पिता तुम नृप सुमित्र दानी ।।
खरच भी कम न पुण्य ढ़ेरी |
लगी तुझसे लगन मेरी ।।
देव लौकान्तिक सम्बोधन ।
पञ्च मुष्टि, दिव-कच लुञ्चन ।।
परम वीतरागता चेरी ।
लगी तुझसे लगन मेरी ।।
महिमा समो-शरण न्यारी ।
नदारद मारी-बीमारी ।।
विदिश्-दिश् बाजी जश भेरी ।
लगी तुझसे लगन मेरी ।।
कर्म ध्यानाग्नि धरासाई ।
शर्म शिव पाई ठकुराई ।।
खत्म यम जरा जन्म फेरी ।
लगी तुझसे लगन मेरी ।।
दीप के थाल हाथ में
मजीरे झाँझ साथ में
उतारूॅं आरती तेरी
लगी तुझसे लगन मेरी
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