पूजन आचार्य श्री समय सागर जी
मुनि श्री निराकुल सागर जी द्वारा विरचित
श्रद्धा सुमन चढ़ाता हूँ मैं,
श्रीगुरु के चरणों में ।
कौन सिवा गुरु सुमरण करता,
आवीची मरणों में ।।
गुरु धरती के देव कहाते ।
तरु से परहित बनते छाते ।
कुछ न माँगते, देते जाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
देख पीर पर आँखें गुरु की,
बस आतीं झरनों में ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाता हूँ मैं,
श्रीगुरु के चरणों में ।।स्थापना।।
नीर क्षीर सागर भर झारी,
देता चरणन धारा ।
घूमा सारा जगत् एक बस,
गुरु का सांचा द्वारा ।।
कुछ हट सदय हृदय दुनिया से ।
टिकें न एक जगह दरिया से ।
बरस न, बस करुणा बरसाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
नहीं पराया, मैं भी थारा,
सुनते अंजन तारा ।
नीर क्षीर सागर भर झारी,
देता चरणन धारा ।।जलं।।
बड़ा सुगंधित मलयज चन्दन,
लाया गुरु सेवा में ।
सूरज आग, दाग चन्दा में,
झाग नदी रेवा में ।।
लिपटे नाग वृक्ष चन्दन से ।
सांठ गाँठ रखता सिंह वन से ।
श्री गुरु दया, क्षमा से नाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
खोजे भी सपने ना मिलते,
अवगुण गुरुदेवा में ।
बड़ा सुगंधित मलयज चन्दन,
लाया गुरु सेवा में ।।चन्दनं।।
‘सार्थ’ नाम अक्षत अनटूटे,
रखता गुरु चरणन में ।
भाग्यवान वह जिसे मिल गई,
गुरु शरणा जीवन में ।।
बनी गगरिया माटी सुनते ।
बांस मुरलिया श्री गुरु चुनते ।
कर्म निधत्त निकाच नशाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
परहित संपादन इक कारज,
चर्चित गुरु त्रिभुवन में ।
‘सार्थ’ नाम अक्षत अनटूटे,
रखता गुरु चरणन में ।।अक्षतं।।
पुष्प नमेर, सुपारिजात ले,
आया पूजन करने ।
‘मरहम बनें’ भाव ले श्री गुरु,
लगे घाव पर भरने ।।
छूते पांव काम बन जाते ।
पलक उठा अंधियार मिटाते ।
शगुन शुभ मुहूरत में आते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
तारण तरण जहाज चरण गुरु,
भव-जल पार उतरने ।
पुष्प नमेर, सुपारिजात ले,
आया पूजन करने ।।पुष्पं।।
छप्पन भोग थाल मनहारी,
तुम्हें भेटता स्वामी ।
दृढ़ निमित्त सम्यक्-दर्शन इक,
श्री गुरु अन्तर्यामी ।।
कर लेते विश्वास सभी पे ।
बस न एक गुरु भार जमीं पे ।
जाते ठगे, न ठगने जाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
छव अभिरामी, शिरपुर गामी,
गुण अनन्त आसामी ।
छप्पन भोग थाल मनहारी,
तुम्हें भेटता स्वामी ।।नैवेद्यं।।
अठपहरी घृत दीप जगाऊॅं,
करूॅं आरती तेरी ।
चरण शरण गुरु भुला लगाऊॅं,
हा ! भव कानन फेरी ।।
व्यथा किसी की भी सुन लेते ।
छल छिद्रों पर दृष्टि न देते ।।
पत्थर बदले फल लौटाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
पहले तुम विश्वास, तुम्हीं हो,
आश आखरी मेरी ।।
अठपहरी घृत दीप जगाऊॅं,
करूॅं आरती तेरी ।।दीपं।।
सुरभी फूट रही कस्तूरी,
खेऊॅं में अगनी में ।
भव भव ठगा, ठगूॅं इस बारी,
दुठ माया ठगनी मैं ।।
कांधे बैठा गगन छुवाते ।
बन कर पाछी पवन धकाते ।
चल आगे चुन लेते कांटे ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
करो ‘कि अब इक और रुलाऊॅं,
ले दीक्षा जननी में ।
सुरभी फूट रही कस्तूरी,
खेऊॅं में अगनी में ।।धूपं।।
ऋत ऋत के मीठे फल लाया,
श्री गुरु चरणन रखता ।
तुम अनन्य भक्तों में अपना,
नाम आज मैं लिखता ।।
गांठ न देते रिश्ते धागे ।
श्री गुरु मण पारस से आगे ।
कुछ न कहे बस सहते जाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
बन चकोर, गुरु-चांद तुम्हें मैं,
अपलक नैन निरखता ।
ऋत ऋत के मीठे फल लाया,
श्री गुरु चरणन रखता ।।फलं।।
जल, गंधाक्षत, दिव्य पुष्प, चरु,
दीप, धूप, फल लाया ।
दुनिया तपती ग्रीष्म दुपहरी,
गुरु किरपा तरु छाया ।।
गुरुवर सर्व अमंगल-हारी ।
जगत् एक गुरु मंगल कारी ।
प्यार बिना व्यापार लुटाते ।
गुरु धरती के देव कहाते ।
यही खेद गुरु देव अभी तक,
क्यों कर तुम्हें भुलाया ।
जल, गंधाक्षत, दिव्य पुष्प, चरु,
दीप, धूप, फल लाया ।।अर्घ्यं।।
=दोहा=
गुरु कीर्तन से आप ही,
झर झर झरते पाप ।
बोल मोर सुन झर चलें,
ज्यों चन्दन तरु सांप ।।
जयमाला
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
सदलगा शरद् पून चन्दा ।
पिता श्री मल्लप्पा नन्दा ।
फांस कब सका विषय फन्दा,
बन चले शिव मारग पन्थी ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।१।।
महावीरा व्रत ब्रम-चारी ।
अघन सित पद क्षुल्लक धारी ।
नैन-गिर क्षुल्लक दीक्षा ‘री,
द्रोणगिर खड़े श्रमण पंक्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।२।।
आठ प्रवचन माता गोदी ।
शुद्ध परिणत, समाध-बोधी ।
जागती क्यों न ज्ञान-ज्योती,
निरत गुरु, देव, शास्त्र भक्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।३।।
शान्ति, गुरु वीर, शिव महन्ता ।
ज्ञान, विद्या कल-अरहन्ता ।
समय-सागर फिर गुणवन्ता,
सूरि परिपाट ख्यात धरती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।४।।
कहां तक कहूॅं गुण अनेका ।
थके सुर गुरु वृस्-पत देखा ।
सोच बस यही माथ टेका,
मांगते हुये क्षमा गलती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।
आंख तारे मॉं श्री मन्ती ।
तुम्हें वन्दन हैं अनगिनती ।।५।।
जयमाला पूर्णार्घं
=दोहा=
श्री गुरु चरणों की रही,
जिसके सिर पर छांव ।
संध्या पहले आ चले,
सौख्य ‘निरा-कुल’ गांव ।।
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