(१)
रहे न मैली ।
परणति मेरी ।।
और कुछ भी न चाहूँ मैं ।
सर समयसार अवगाहूँ मैं ।।
धोकर हाथ पड़ी है पीछे ।
अपनी और मुझे है खींचे ।।
मुँह की खाये अबकी वैरी ।
रहे न मैली ।
परणति मेरी ।।
और कुछ भी न चाहूँ मैं ।
छीने राग-द्वेष ने सपने ।
मोह रँगा लेता रॅंग अपने ।।
बदले दिन में रात अँधेरी ।
रहे न मैली ।
परणति मेरी ।।
और कुछ भी न चाहूँ मैं ।
स्वानुभवन हो स्वानुभूति हो ।
दर्शन, ज्ञान, चरित विभूति हो ।।
रहे न भीतर डूब पहेली
रहे न मैली ।
परणति मेरी ।।
और कुछ भी न चाहूँ मैं ।
सर समयसार अवगाहूँ मैं ।।
(२)
पुद्-गल कर्म प्रदेशों में ठहरा हूॅं ।
हाय ! मैं कब गहरे उतरा हूॅं ।।
क्यूँ न कहलाऊॅं ।
मूढ़ मत कहलाऊॅंगा ।।
क्यूँ न कहलाऊॅं ।
भूल रत कहलाऊँगा ।।
मूढ़ मत कहलाऊॅंगा ।।
लगाये चेहरे पे चेहरा हूँ ।
हाय ! मैं कब गहरे उतरा हूॅं ।।
पुद्-गल कर्म प्रदेशों में ठहरा हूॅं ।
हाय ! मैं कब गहरे उतरा हूॅं ।।
क्यूँ न कहलाऊॅं ।
जड़ बुद्ध कहलाऊॅंगा ।।
क्यूँ न कहलाऊॅं ।
अति-गृद्ध कहलाऊँगा ।।
जड़ बुद्ध कहलाऊॅंगा ।।
बदलने औरों को निकला हूँ ।
लगाये चेहरे पे चेहरा हूँ ।
हाय ! मैं कब गहरे उतरा हूॅं ।।
पुद्-गल कर्म प्रदेशों में ठहरा हूॅं ।
हाय ! मैं कब गहरे उतरा हूॅं ।।
सच
‘पुद्-गल कर्म प्रदेशों में ठहरा,
हा ! गया ठगा’
(३)
बन्ध के लिये न कहीं सन्ध है ।
एकत्व में आनन्द ही आनन्द है ।।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ।
कोई ।
जहाँ दोई ।।
जो सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ।
तो एकत्व है ।
न विसंवाद है, न द्वन्द है ।
एकत्व में आनन्द ही आनन्द है ।।
बन्ध के लिये न कहीं सन्ध है ।
एकत्व में आनन्द ही आनन्द है ।।
गदगद हृदय नैन नम ।
कोई ।
जहाँ दोई ।।
जो गदगद हृदय नैन नम ।
तो एकत्व है
स्वर्ण आत्म अनुभवन सुगंध है ।
न विसंवाद है, न द्वन्द है ।
एकत्व में आनन्द ही आनन्द है ।।
बन्ध के लिये न कहीं सन्ध है ।
एकत्व में आनन्द ही आनन्द है ।।
सच
‘खोजा बाहर
क्या सत्, शिव, सुन्दर ?
पाया अन्दर’
(४)
भाव ज्ञायक तूलिका ले,
चित्र लिखना मुझे अपना ।
चित्र खींचा और का हा !
स्वानुभूत विभूत सपना ।।
रहे पनदश जो प्रमादा,
रूप वह मेरा नहीं है ।
कहे पनदश निज प्रमादा,
कूप मण्डूका वही है ।।
कहो मैं कैसा ? सुनो तो,
एक ज्ञायक शुद्ध-बुद्धा ।
निराकुल मैं, निरा-कुल मैं,
ज्ञान-घन चिन्मय प्रसिद्धा ।।
देह मृणमय विनाशी है,
और मैं अविनाश साधो !
हेत मंगल चलो करते,
‘जय-निजातम’ मन्त्र जपना ।
चित्र खींचा और का हा !
स्वानुभूत विभूत सपना ।।
भाव जो अप्रमत्त चर्चित,
रूप वह मेरा नहीं है ।
जो कहे अप्रमत्त हूॅं मैं,
कूप मण्डूका वही है ।।
कहो मैं कैसा ? सुनो तो,
एक ज्ञायक शुद्ध-बुद्धा ।
निराकुल मैं, निरा-कुल मैं,
ज्ञान-घन चिन्मय प्रसिद्धा ।।
देह मृणमय विनाशी है,
और मैं अविनाश साधो !
हेत मंगल चलो करते,
‘जय-निजातम’ मन्त्र जपना ।
चित्र खींचा और का हा !
स्वानुभूत विभूत सपना ।।
सच
‘साधो !
एक ज्ञायक सिवाय
औ’ गुण कहाय’
(५)
फीका ना व्यवहार ।
नासा भार उतार ।
उठा न लाठी ।
प्रकटा बाती ।।
क्षण भंगुर अँधियार ।
फीका ना व्यवहार ।।
साधक, श्रद्धा चारित ज्ञाना ।
नय व्यवहार न कम गुणवाना ।।
हाथ ताँव सोला जब लौं ना ।
भुला ताँव पन्द्रादिक दो ना ।
सुन लो बाल सुनार ।
फीका ना व्यवहार ।।
नासा भार उतार ।
उठा न लाठी ।
प्रकटा बाती ।।
क्षण भंगुर अँधियार ।
फीका ना व्यवहार ।।
परम भाव दर्शी, व्रति, ज्ञानी ।
स्वर्ण शुद्ध नय सोला-वानी ।।
भुला ताँव पन्द्रादिक दो ना ।
हाथ ताँव सोला अब लो ना ।।
चुन लो बाल सुनार ।
फीका ना व्यवहार ।।
नासा भार उतार ।
उठा न लाठी ।
प्रकटा बाती ।।
क्षण भंगुर अँधियार ।
फीका ना व्यवहार ।।
(६)
नव सीखा लेय सहारा ।
सम्मत सन्मत व्यवहारा ।।
पर द्रव्य अछूता मैं ।
चिन्मात्र अनूठा मैं ।।
बह चलूँ न क्यूँ शुध धारा ।
सम्मत सन्मत व्यवहारा ।
नव सीखा लेय सहारा ।।
गतराग अनोखा मैं ।
निम्मम निम्मोहा मैं ।।
मैं केवल जाननहारा ।
सम्मत सन्मत व्यवहारा ।
नव सीखा लेय सहारा ।।
निस्संग निराला मैं ।
मति हंस मराला मैं ।।
शुध रत्नत्रयी पिटारा ।
सम्मत सन्मत व्यवहारा ।
नव सीखा लेय सहारा ।।
(७)
नव तत्त्वों में रहती है ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
चुन नय शुद्ध प्रकटती है ।।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
वर्ण वर्ण आ मिल चाले ।
दिये ताव सोला न्यारे ।
हाथ स्वर्ण निध होती वह
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
नव तत्त्वों में रहती है ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
चुन नय शुद्ध प्रकटती है ।।
अन्य द्रव्य से भिन्न सदा ।
तद् नैमित्तिक भाव जुदा ।
आद अनाद बपौती वह
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
नव तत्त्वों में रहती है ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
चुन नय शुद्ध प्रकटती है ।।
चिच्-चैतन्य चमत्कारी ।
पर्यय-पर्यय बलिहारी ।।
एक स्वरूप अनोखी वह
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
नव तत्त्वों में रहती है ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
आत्म ज्योति वह ।
चुन नय शुद्ध प्रकटती है ।।
(८)
नमो नमः, नमः नमः, नमो नमो ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
भेद नाश के
जो भी अनुभवे ।।
तेज पुंज आत्मा
नत विनत नय रमा ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
नमो नमः, नमः नमः, नमो नमो ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
निक्षेप अवसान ।
अस्त लो प्रमाण ।।
लो छुआ आसमाँ ।
नत विनत नय रमा ।
लो छुआ आसमाँ ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
नमो नमः, नमः नमः, नमो नमो ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
क्या बताये हम ।
द्वैत भाव गुम ।।
‘रे न जाने कहाँ ।
नत विनत नय रमा ।
लो छुआ आसमाँ ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
नमो नमः, नमः नमः, नमो नमो ।
तेज पुंज आत्मा नमो नमः ।।
(९)
सुनो सुनो, सुनो सुनो, सुनो सुनो ।
है शुद्ध नय वो ।
निज स्वभाव का दे परिचय जो ।।
है शुद्ध नय वो ।
पर भाव भिन्न ।
निजात्म अनन्य ।।
विगत संकल्प ।
आत्म निर्विकल्प ।।
चुनो चनो, चुनो चुनो, चुनो चुनो ।
सुनो सुनो, सुनो सुनो, सुनो सुनो ।।
है शुद्ध नय वो ।
निज स्वभाव का दे परिचय जो ।।
है शुद्ध नय वो ।
विमुक्त आद्यन्त ।
निजात्म सुगन्ध ।।
आपूर्ण एक ।
निजात्म, सुलेख ।।
चुनो चनो, चुनो चुनो, चुनो चुनो ।
सुनो सुनो, सुनो सुनो, सुनो सुनो ।।
है शुद्ध नय वो ।
निज स्वभाव का दे परिचय जो ।।
है शुद्ध नय वो ।
(१०)
विद्रूप, मिध्यात्व रूप,
अज्ञान क्या हटा ।
वो भगवान् ।
जो भीतर विराजमान ।
हटात् प्रकटा ।।
विद्रूप, मिध्यात्व रूप,
अज्ञान क्या हटा ।
स्वानुभव गम ।
सत्यं शिवं सुन्दरम् ।।
अतिशय महिमावान ।
वो भगवान् ।
जो भीतर विराजमान ।
हटात् प्रकटा ।।
विद्रूप, मिध्यात्व रूप,
अज्ञान क्या हटा ।
व्यक्त निकलंक ।
विभक्त कर्म पंक ।
जग शून, अंक समान
वो भगवान् ।
जो भीतर विराजमान ।
हटात् प्रकटा ।।
विद्रूप, मिध्यात्व रूप,
अज्ञान क्या हटा ।
ध्रुव, नित्य, एक ।
शाश्वत अभिलेख ।।
सहजो सौख्य निधान ।
वो भगवान् ।
जो भीतर विराजमान ।
हटात् प्रकटा ।।
विद्रूप, मिध्यात्व रूप,
अज्ञान क्या हटा ।
वो भगवान् ।
जो भीतर विराजमान ।
हटात् प्रकटा ।।
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