सवाल
आचार्य भगवन् !
बालक तीर्थंकर की माँ को
दो नहीं,
नौ नहीं,
पूरे सोलह सपने देखने पड़े
तब कहीं जाकर के कुछ अपूर्व
पूर्व दिशा के भाँति हाथ लागा,
भाग जागा,
किन्तु परन्तु भगवन्
माँ श्रीमन्ति का कितना पुण्य है
जाने, कितने भवों से बटोरती आई है,
माँ श्री मन्ति,
लगता है, पाई भी खर्च नहीं की,
तभी हो भगवन्,
सिर्फ सौ नहीं,
नौ नहीं,
दो सपने में ही,
अपने सपनों को साकार रुप दे दिया,
और पा लिया वो ‘दिया’,
जिसके तले अंधेरा नहीं,
हवा से जो बुझता नहीं
कज्जल जो उगलता नही
न बाती न तेल,
विश्व भर में कर रहा है केल,
अकेल
वाह भगवन् वाह,
धन हैं माँ श्री मन्ति
सचमुच आज अकेली यही एक वह माँ है
जिसके आगे नतमस्तक,
मिला के आसमां सारा जहाँ है
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
सत् ! श्री मन्ति जी ‘आई’
पथ श्री मन ! ‘तीजी-आई’
चालने जिस क्षण थीं हुईं तैयार
‘के हो चले थे उनके सपने साकार
पर्याय
‘नर’ आय
स्त्री पर्याय को इति श्री
‘कि माँ श्री मति
वन चालीं
बन चालीं
आर्यिका माँ समय मति
सहजो सार्थक नाम यानि ‘कि
शम, यम ‘ति’ मतलब तीसरा पद
‘दम’
जो ऐसे ही न प्राप्त होते
सीधे सीधे तो, कोई भी पढ़ सकता है
अखर पर पलट कर पढ़ने में,
सामने आता जो अर्थ उभर
वह अद्भुत है
शिव सुन्दर सत् है
वह अद्भुत है
श…म, म…स यानि ‘कि
स्याही परिणाम बदले
य…म, म…य यानि ‘कि
मैं की हाला न रखी गले
द…म, म…द, जो गले तक भर रखे थे,
वो उगले
‘रे पग…ले, सही रास्ते पर
मिथ्यात्व के साथ आया था,
मैं माँ की कूख से निकाल कर
दो सपने
‘दोष पने’ को पा गये थे
वो तो शुकर हैं भगवान् का,
जो ‘सद’लगा सूरि देश भूषण जी आ गये थे
धन ! भाग, धन ! घड़ी
दूषण जी शरमा गये थे
सोने सुहाग
भी’तर जाग
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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