सवाल
आचार्य भगवन् !
आपके हाथों की, हथेलिंयों के,
गुरु आदि पर्वत,
आकाश से जा लगते हैं,
बताते हैं,
बता दीजिये ना क्यों राज रखते हैं ?
हम तो आपके अपने ही हैं,
अपनों से क्यूँ छुपाते हैं
हम किसी से न कहेंगे
बता भी दीजिये ना
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
बिलकुल,
सौ फीसदी सचाई है,
आपकी बात में
जितने आप होकर आ गये
भी’तर उतने तो,
मैं कभी गया ही नहीं,
अपने हाथ में,
अपने हाथ में,
नज़र पारखी रखते हैं, आप
इतना कुछ जो जान लिया है
मेरे बारे में
सिर्फ और सिर्फ
वो भी एक ही मुलाकात में
वैसे ज्यादा तो कुछ नहीं जानता
मगर इतना जरूर जानता हूँ, भ्रात मैं
‘के
‘जगत’ उस के
या कभी फैलाता हूँ हाथ अपने आगे
जगत् इस के
तब जरूर
मेरे गुरु आदि पर्वत,
जा आकाश से लगते हैं
और आँसु मेरी आँखों से,
टप-टप टपकते हैं
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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