सवाल
आचार्य भगवन् !
आपने एक दोहे में
‘दीप बनूँ, जलता रहूँ
गुरु पद पद्म समीप’
ऐसा लिक्खा है,
पर भगवन !
दीप तो कज्जल छोड़ता है
और अपने तले
अंधेरे को पनाह देता है,
फिर क्या आपने
‘दिया’
ऐसा सुनकरके
अपना लिया है उसे
या कोई दूसरा राज छुपा के रक्खा है,
भगवन् मैं मण्डीबामौरा का
एक श्रावक हूँ,
हमारे यहाँ के बड़े बाबा
बड़े चमत्कारी है
और आप छोटे बाबा है
कभी कृपा-दृष्टि डालकर
सोने सुहाग कर दीजिये ना
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
अरे भाई,
सिर्फ मैं कहाँ कह रहा हूँ
आपका ग्राम भी
कुछ कुछ नहीं,
बल्कि सब कुछ
यही तो कह रहा है,
बस मन के बाद रुकना है,
दी और वा को मिलाकर के बोलना है
‘के मन दीवा मोरा
अब आप ये मत कहने लगना
के भगवन् ‘न’ की जगह ‘ण’ है,
सुनो
मण दीवा मोरा तो,
मोड़ा मोड़ा
यानि ‘कि बच्चा-बच्चा बोल देगा,
पर कोई सार्थक नाम छोरा होगा
जल से ऊपर,
तैरने वाले घी के जैसे,
जिसका मन दीवा बन चला होगा
कुछ पा के जिसने,
पी के उड़ा नहीं दिया है,
शब्द ‘पापी’
जिसकी परछाई भी नहीं दाबता है,
और देखो,
कुछ कह रहा है
जिसने खुद की परवाह न करके
औरों को रोशनी से भर दिया है
उसके मनके पाप रूप कज्जल
देखते ही देखते
काफूर हो चालते हैं
छोटी बात नहीं है ये
समझ में आ चले तो
चोटी का विद्वान बना देगी
और रही कृपा-दृष्टि वाली बात
तो आप अपने बड़े बाबा से मिलियेगा
जिस रोज उनकी कृपा-दृष्टि हो चालेगी
तो मैं
पूर्वजों के द्वारा दिया सार्थक नाम
‘सरोज-पुर,
हाँ हाँ
सिरोंज नाम तो
आप नये लोगों का दिया हुआ है,
सो उसके नजदीक
और मेरे हृदय के समीप
जो मण्डीबामौरा है
‘कि मैं भी कभी कह सकूँ
मन् दीवा मोरा
ऐसी पुरुदेव जी से
मेरे अपने गुरु देव जी से
मेरी अनन्य प्रार्थना
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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