सवाल
आचार्य भगवन् !
मेरे दिन का चैन,
रातों की नींद उड़ गई है मेरी ।
मैनें पण्डित जी के मुख से, जबसे यह सुना है
‘कि सम्यग्-दृष्टि लाख, हजार नहीं,
इस समय सिर्फ दो चार ही हैं ।
अँगुलियों पर गिनने के लायक ही बस ।
भगवन् ! आप तो अन्तर्यामी हैं,
कृपया बता दीजिये,
मैं भव्य हूँ, या नहीं ?
‘देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन,
धर्म दया जुत सारो’
भगवन् ! इस लाईन पर ही चल रहा हूँ मैं,
मेरा कल्याण होगा या नहीं ?
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
सुनिये,
आचार्य पुज्यपाद, गुरु भगवन्त,
ज्ञान सागर जी ने कहा था
‘मैं भव्य हूँ, या हूँ अभव्य मैं’
जिसे ऐसी चिन्ता लागी है
निश्चित ही वह भव्य है, बड़भागी है
और देखो, दो चार कम नहीं होते हैं
मिल कर छटे होते हैं
अब अँगुलिंयाँ बचती ही कितनी हैं
किन्तु परन्तु हाँ…
इस चार : छह के रेशों को पाने के लिये
पार जरूर करना पड़ता है तीन, छह का आंकड़ा
खड़ा, जो इसके पार है
उसका उद्धार ही उद्घार है
बस ‘सारो’ के साथ साथ
अगली लाईन के ‘धारो’ रुप धारों पर
‘कल’ कल्याण यान
झुमते-झूमते
लागता पट्टन मोख
कहाँ,
और कहीं
सिर्फ यहीं
सहजो निरा’कुल सौख
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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