सवाल
आचार्य भगवन् !
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें,
यह एक कविता
आपने स्वामिन् मुझे आज आकर के
सपने में सुनाई थी
मैं भूल चला हूॅं
कृपया पुनः सुना दीजिए ना
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
मिटाने भूख-तन
न ‘कि भूख-मन
‘घूरे’ तक ही घूरे
‘चील’
चूँकि स्याही बादलों को लेता चीर
फेर, गैर के नाम की उलटी माला
कर सुई आर-पार
डाल धागा काला
फेंके न नीबू ‘रे
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
जहर मुख से,न इतना उगलता
नाग ‘मणी-दार’
टेढ़ा लहर-लहर,न इतना चलता
बरखुरदार
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
हड्डी मुख में, देर न रखता
कुत्ता बफादार
‘छी’ दृग् में, देर न रखता
बरखुरदार !
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
मटकी न फॉंसे हाथ अपना बार-बार
वा…नर
न नकलची इतना किरदार
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
न उठा पाता इतनी गर्दन अपनी उतंग
गिरगिट
न बदल पाता जल्दी इतनी रंग
न कह सकूँगा मैं…
नादान तुम्हें.
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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