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जवाब लाजवाब आचार्य श्री जी

जवाब लाजवाब -305

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

सवाल
आचार्य भगवन् !
बचपन से ही खोजी मिजाज का हूँ,
ज़र्रा ज़र्रा छान आया सुकून कहीं मिला ही नहीं,
जाने मंजिल पर कभी पहुँचू‌ँगा भी या नहीं
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,

जवाब…
लाजवाब
न कहीं और जाना था
अपनी ही ओर आना था
कहाँ ड़ोलते हो
छोड़ अपने को
सारा जहाँ टटोलते हो

दरबदर
इधर-उधर
होकर मृग से बेखबर
खुशबू खोजते हो
वारिश में बार इस भी आँसू ढ़ोलते हो

चनें तुमने ही पकड़े हैं
पकड़ रक्खा न मटकी ने
जाल मे फाँस रक्खा हूँ, तुम्हें अपनी आसक्ति ने
तुम्हें अपनी नासमझी ने
तुम्हें अपनी मनमर्जी ने
जाल मे फाँस रक्खा हूँ, तुम्हें अपनी आसक्ति ने
क्यों अपनी मुट्ठी न खोलते हो
कहाँ ड़ोलते हो
छोड़ अपने को
सारा जहाँ टटोलते हो

भूल तुमने ही पकड़ी है
है दिया रस कब हड्‌डी ने
जाल मे फाँस रक्खा हूँ, तुम्हें अपनी आसक्ति ने
तुम्हें अपनी नासमझी ने
तुम्हें अपनी मनमर्जी ने
जाल मे फाँस रक्खा हूँ, तुम्हें अपनी आसक्ति ने
क्यों आँखन पट्टी न खोलते है
कहाँ ड़ोलते हो
छोड़ अपने को
सारा जहाँ टटोलते हो

न कहीं और जाना था
अपनी ही ओर आना था
कहाँ ड़ोलते हो
छोड़ अपने को
सारा जहाँ टटोलते हो

दरबदर
इधर-उधर
होकर मृग से बेखबर
खुशबू खोजते हो
वारिश में बार इस भी आँसू ढ़ोलते हो
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः

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