सवाल
आचार्य भगवन् !
लोग आपको आहार के समय,
कितना तंग करते हैं
दिन भर आपके कमरे के सामने
शोरगुल करते रहते हैं
फिर भी आप के चेहरे पर,
वही सहजो मुस्कान छाई रहती है
सच अपने गुस्से पर विजय प्राप्त कर ली है ?
क्षमा की तो आप अद्भुत ही मूरत हैं
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
सुनिये,
गुस्से का जाना…
सो क्षमा का आ जाना
ऐसा नहीं है
‘लोग क्या सोचेंगे’
यह सोच के भी, आगे कदम बढ़ाते गुस्से के लिये, जबरन हाथ खींच के पीछे लाया जा सकता है
पद की गरिमा भी रखनी पड़ती है
कई भंग बनते हैं
हाँ…
बेच जरूर दिया है गुस्सा
लेकिन मन उसी दुकानदार के यहाँ,
उसकी बाहर लगी ‘बैंच’ पर बैठ के रह चला है
जब तब देख आता है नजरों को भेजकर के
हाँ…
आप लोग भले न देेख पायें
या नजर अंदाज कर दें
छात्र के किरदार को जो कर रहे अदा आप सभी
छाते के जैसे ढ़ाकने का प्रयास चलता है
आपका
वो भी, ऐसा वैसा नहीं भागीरथ
और यह कैसे दूँ
‘के खरीद पाया हूँ क्षमा
सिर्फ प्रारंभिक व्यंजन ‘क’ से कब बन पाया
शब्द क्षमा का ‘क्ष’
उपान्त ‘ष’
मिला तब जाकर के कहीं बनने वाला काम
और अभी काम बन ही चला,
सो ऐसा भी नहीं,
पीछे का व्यंजन हा ! न कह सके
इसलिए ऊपर चाँद सितार रूप
गुण गुनने में लगा हूँ
मुझे आपके घर के बाँट बँटखरों से,
नहीं तुलना है
आप मेरे प्रशंसक हैं
कुछ लोग निंदक भी हैं
जो कह रहे हैं
हो…शियार रँगा हूँ
सो बार-बार मन को गुस्से की दुकान की बैंच से
उठा कर के लाता हूँ
पर हा ! हाय !
क्षमा की दुकान के आने से पहले ही
भाग-भाग दिखलाता
हा ! हाय ! मेरे भाग विधाता
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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