सवाल
आचार्य भगवन् !
तीर्थकर सर्वज्ञ, निर्ग्रन्थ जैसे दुकानदार
अनेकांत, अहिंसा जैसा चोखा माल
फिर भी देवों को
छह, दह, नहीं चौदह अतिशय करने पड़े
इतनी सारी अनुकूलता देनी पड़ी
नाट्य शालाएँ, उपवन, और जाने क्या क्या ?
ऐसा क्यों ?
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
दुकानदार
माल असबाब न्यार
न चला पाते हैं
ग्राहक
जश-विरद गा हाँक…हॉंक
दुकान खूब चलाते हैं
ग्राहक के लिए खुश रखना पड़ता है
खस्ता तो खुसखुसा जगह-जगह मिलता है
बुराई सिखलाने के लिये,
कोई मदरसा नहीं
सिर्फ कहना पड़ता दम मारों दम,
और बच्चे कहते हैं,
अरे हम कब किसी से कम
और अच्छाई सिखाने के लिये,
देना पड़ता बच्चों के लिये हवाला
‘कि मदरसा यह भी
पानी ढ़लान से ढ़ोल दो,
लेकिन चढ़ाने के लिये
ढ़ोल बजाना पड़ता है,
जगना, जगाना पड़ता है
देखा नहीं सीड़ को बड़ी ‘ई’ की मात्रा लगा,
सीढ़ी बन चढ़ना पड़ता
सरपट भागा होगा पानी तो नीचे की ओर
सच ऊपर और
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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