श्री योगि-भक्ति विधान
वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
योगी राज पूजन
==दोहा==
देह नगन दे देशना,
जग विरागता सार ।
जे धरती के देवता,
वन्दन बारम्बार ।।
सद्गुरु अपने जैसे एक
नरक दुख डर जो’वन चाले,
जगा अन्तर्मन हंस विवेक ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
आन तरु तल आसन माड़ा,
देख बिजुरी नभ काले मेघ ।।
सद्गुरु अपने जैसे एक
दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर सन्मुख ठाड़े अनिमेष ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ओढ़ धृति कम्बल चतुपथ बैठ ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
इत्याह्वानन
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधिकरणं
पुष्पांजलि क्षिपामि ।
कोई न सन्तों के जैसा
नरक दुख डर जो’वन चाले,
छोड़ के घर रुपया पैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा
आन तरुतल आसन माड़ा,
लगा ज्यों बरसा अन्देशा ।।
कोई न सन्तों के जैसा
दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर, तप तपें कहें कैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा
तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ढ़क धृति कंबल तन अशेषा ।।
कोई न सन्तों के जैसा
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।
दुख नारक डर ।
जो’वन तज घर ।
कच लुंचन कर ।
विचरण निर्भय ।।
जयतु जयतु जय ।
बिजुरी बादल ।
धारा मूसल ।
ठाड़े तरुतल ।
हित सुख अक्षय ।।
जयतु जयतु जय ।
गीष्म दोपहर ।
चढ पर्वत पर ।
तकें सूर खर ।
इक टक दृग् द्वय ।।
जयतु जयतु जय ।
शीत लहर पल ।
धर धृति कम्बल ।
आ चतुपथ चल ।
थित हित अघ क्षय ।।
जयतु जयतु जय ।
पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
सन्तों की बात निराली है
देख नरकों की वेदना,
जो’वन राह निहारी है ।
सन्तों की बात निराली है
सुनते ही मेघ गर्जना,
जोग तरुतल तैयारी है ।।
सन्तों की बात निराली है
सूर्य का करते सामना,
गिर शिखर गीष्म दुपारी है ।
सन्तों की बात निराली है
ओढ़ धृति कम्बल बैठना,
चतुपथ ठण्ड तुषारी है ।।
सन्तों की बात निराली है
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
जय पीछि कमण्डल धारी
वन जो’वन राह निहारी ।
डर नरक पतन दुख भारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
झिर मूसल धारा काली ।
तरतले खड़े अविकारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
चढ़ पर्वत गीष्म दुपारी ।
ठाड़े सम्मुख तिमिरारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
पवमान शीत निशि कारी ।
धृति कम्बल ओढ़ गुजारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
सन्त सन्तोषी वन्दना
जो’वन घर से निकल पड़े,
देख नरकों की वेदना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना
जोग तरुमूल साध बैठे,
सुनते ही मेघ गर्जना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना
चढ़ पर्वत ग्रीष्म दोपहर,
सूर्य का करते सामना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना
आन चौराहे ठण्ड में,
ओढ़ धृति कम्बल बैठना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
मैंने साधू देखे वन में
नरक पतन दुख से डरकर जो,
निकल पड़े जो’वन में ।
मैंने साधू देखे वन में
खड़े ग्रीष्म ऋतु, चढ़ पर्वत पर,
दुपहर सूर्य तपन में ।।
मैंने साधू देखे वन में
वृक्ष तले ठाड़े बरसा में,
उठे तरंग न मन में ।
मैंने साधू देखे वन में
ओढ़ धीर कम्बल गुजरे निशि,
बहती शीत पवन में ।।
मैंने साधू देखे वन में
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
साधु दिगम्बर मेरे
जो’वन निकल पड़े हैं घर से,
डर दुख नरक घनेरे ।
साधु दिगम्बर मेरे
साध जोग तरुमूल खड़े हैं,
बरसा सांझ सबेरे ।।
साधु दिगम्बर मेरे
ग्रीष्म खड़े चढ़ गिर रवि सम्मुख,
खा लू लपट थपेड़े ।
साधु दिगम्बर मेरे
ओढ़ कबरिया धीर शिशिर निशि,
चतुपथ खड़े अकेले ।।
साधु दिगम्बर मेरे
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धन धन
साधु जीवन धन धन
जर, जन्म, मरण ।
दुख नरक पतन ।
भयभीत श्रमण ।
वन ओर गमन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
बादल गर्जन ।
झिर जल वर्षण ।
माड़े आसन ।
तरुतल मुनिगण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
ऋत ग्रीषम क्षण ।
चढ़ गिर शिखरन् ।
खर सूर किरण ।
सहते सिरमण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
धृति कम्बल तन ।
चतुपथ थिर मन ।
गुजरी तपधन ।
निशि शीत पवन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
दैगम्बर गुरू हमारे
दुःसह नरक पतन दुख से डर,
जो’वन राह निहारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
खड़े योग तरु मूल साध कर,
बिजुरि देख घन कारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
ग्रीष्म दोपहर, चढ़ पर्वत पर,
सूर सामने ठाड़े ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
ओढ़ शीत ऋतु धीरज कम्बल,
चतु-पथ आन पधारे ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
==विधान प्रारंभ==
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
दुख जरा,जनम मरन ।
भीत गति नरक पतन ।
हंस मत लगा लगन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन
मेघ बिजुरी से चपल ।
भोग विष विषय सकल ।
मार सो तरंग मन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन
क्षण क्षयी जल बुदबुदा ।
जिन्दगी चपल तथा ।
जोड़ सुख अखर नयन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
व्रत समिती गुप्ति भज ।
झर चले ‘कि कर्म रज ।
ध्यान, जिन वचन रमन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
मल पटल कतार लग ।
नग्न-दिगम्बर सजग ।
विगत-राग, गत-मदन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
शिला तप्त रवि प्रखर ।
पाँव नाप गिरि शिखर ।
सूर मुख तपश्चरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
अमृत ज्ञान पान नित ।
क्षमा, छत्र-तोष धृत ।
सहज परीषह सहन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
इन्द्र धनुष श्याम घन ।
बिजुरी जल, नम-पवन ।
योग मूल तरु शरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
ताड़ित शर धार जल ।
धीर वीर दृग्-सजल ।
विचलित कब आचरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
धृति कम्बल ओढ़ तन ।
निश व्यतीत शीत क्षण ।
चुराहे तले गगन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
धारक इमि योग त्रय ।
पुण्य तन, सदय हृदय ।
दें तैरा वैतरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
*दुवई छन्द*
जाति-जरोरु-रोग,
मर-णातुर-शोक, सहस्र-दीपिता ।
दुःसह-नरक-पतन,
सन्त्रस्त-धियः, प्रति-बुद्ध-चेतसः ।।
जीवित-मम्बु बिन्दु,
चपलं तडिदभ्र, समा विभूतयः ।
सकल-मिदं विचिन्त्य,
मुनयः प्रशमाय, वनान्त-माश्रिताः ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
रोग पीड़ित जर जन्म मरण ।
भीत दुख दुःसह नरक पतन ।।
मेघ बिजुरी से भोग चपल ।
देख जल बुद-बुद जीवन पल ।।
जोड़ मति हंस एक नाता ।
सिर्फ बन दृष्टा अर ज्ञाता ।।
ले चले वन के मध्य शरण ।
सुख अलौकिक रख चाह श्रमण ।।
महाव्रत समिति गुप्ति धारी ।
सुरत स्वाध्याय ध्यान न्यारी ।।
धाम शाश्वत निवास करने ।
तपें तप कर्म नाश करने ।।
विगत मद-मोह, दृग् पनीले ।
क्यों न हों कर्म बंध ढ़ीले ।।
मल पटल आभूषण तन पे ।
लगा रक्खी लगाम मन पे ।।
सूर्य किरणन संतप्त शिला ।
सुखा चाली लू-लपट गला ।।
शिखर पर्वत पग रखते तब ।
घोर तप तपते कँपते कब ।।
पान संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
क्षमा जल अभिसेचित पुन तन ।।
छत्र छाया संतोष वरण ।
क्यों न परिषह हो चलें सहन ।।
श्याम घन कण्ठ मोर जैसे ।
भ्रमर-कज्जल कुछ कुछ ऐसे ।।
इन्द्र ले धनुष निकल आया ।
भयंकर घन-गर्जन माया ।।
हवा ठण्डी ओला-पानी ।
हाय ! मौसम की मनमानी ।।
तपोधन ! निर्भय वे विरले ।
आ विराजे तब वृक्ष तले ।।
बाण बौछार धार जल की ।
धीरधर ! फिकर कहाँ कल की ।।
जीत परिषह ! भयभीत जनन ।
नृसिंह ! कब विचलित सदाचरण ।।
जम चली हिम रस्ते-रस्ते ।
झिर चले वृक्ष-वृक्ष पत्ते ।।
शब्द हा ! साँय-साँय होता ।
सब्र का उड़ चाले तोता ।।
लहर ठण्डी जा फिर आती ।
शुष्क लकरी तन इक भॉंती ।।
गुजारें ओढ़ धीर कम्बल ।
चतुष्पथ खड़े शिशिर निश पल ।।
योग त्रय धारक वे ऋषिगण ।
सकल तप साधक ये ऋषिगण ।।
सातिशय-पुन, अन-सुख रशिया ।
मुझे कर देवें शिव पुरिया ।।
*भद्रिका छन्द*
व्रत-समिति-गुप्ति-संयुताः
शिव-सुख-माधाय, मनसि वीतमोहाः ।
ध्या-नाध्य-यन-वशं-गताः
विशुद्धये कर्मणां तपश्चरन्ति ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
साँचा श्री गुरु का द्वारा
जय कारा जय जयकारा
जर जनम मरण ।
डर नरक पतन ।
मत हंस नेह विस्तारा ।
जय कारा जय जयकारा
अख-विषय चपल ।
लख जीवन पल ।
वन भेष दिगम्बर धारा ।
जय कारा जय जयकारा
व्रत गुप्त समित ।
श्रुत ज्ञान सुरत ।
रत जप-तप हित क्षय ‘कारा’ ।
जय कारा जय जयकारा
मल पटल कोश ।
तन, विकल दोष ।
गिर कर्म-बन्ध हिल चाला ।
जय कारा जय जयकारा
शिल तप्त भान ।
गिर शिखर आन ।
खड्गासन सूर निहारा ।
जय कारा जय जयकारा
झिर अमृत अखर ।
सन्तोष छतर ।
पुन तन ! सहिष्णु अवतारा ।
जय कारा जय जयकारा
सुर धनु दर्शन ।
झिर घन गर्जन ।
आ तरुतल आसन माड़ा ।
जय कारा जय जयकारा
जल धार बाण ।
अर धैर्य वान ।
नग चरित भीत संसारा ।
जय कारा जय जयकारा
हिम-थर रस्ते ।
पतते पत्ते ।
स्वर साँय-साँय विकराला ।
जय कारा जय जयकारा
कम्बल धीरज ।
निश शिशिर सहज ।
चतुपथ व्यतीत ‘तर’-तारा ।
जय कारा जय जयकारा
त्रय योग वन्त ।
रूख-सुख भदन्त ।
दें धरा, धरा सिर भारा ।
जय कारा जय जयकारा
*दुवई छन्द*
दिनकर-किरण-निकर,
सन्तप्त-शिला, निचयेषु निःस्पृहा ।
मल पटलावलिप्त तनवः
शिथिली कृत, कर्म-बन्धनाः ।।
व्यपगत-मदन-दर्प,
रति-दोष-कषाय, विरक्त-मत्सरा ।
गिरि-शिखरेषु,
चण्ड-किर-णाभि-मुख, स्थितयो दिगम्बराः ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
संत्रस्त जन्म जर मरणा ।
दृग् भी’तर गंगा जमना ।।
दुख नरक पतन भयभीता ।
हित मानस तरंग रीता ।।
चल बिजुरी मेघ समाना ।
विष विषय भोग तज नाना ।।
जल बुद-बुद जीवन धारा ।
मुनि जो’वन राह निहारा ।।
व्रत, समिति गुप्ति संयुक्ता ।
स्वाध्याय, ध्यान अनुरक्ता ।।
गत मोह, मोख अभिलाषा ।
साधा निज निलय निवासा ।।
तन मल पटलों की माला ।
गिर कर्म बन्ध हिल चाला ।।
अम्बर, आडम्बर रीते ।
अरि मदन, मोह, मद जीते ।।
शिल तप्त किरण दिनमाना ।
लू लपट घर्म पवमाना ।।
डग डग गिर शिखर निरखते ।
सूरज सन्मुख तप तपते ।।
सन्तोष छत्र सिर छाया ।
जल क्षमा सिंच पुन काया ।।
ज्ञानामृत पान हमेशा ।
क्यों परिषह करें परेशाँ ।।
गल मोर, भ्रमर काजर से ।
‘घन’ घोरे गरजते बरसे ।।
ले इन्द्र धनुष निकला है ।
ढ़ा रही कहर चपला है ।।
ठण्डी चल रहीं हवाएँ ।
लग ताँता खड़ीं बलाएँ ।।
तरु मूल योग तब साधा ।
नवकार मंत्र आराधा ।।
संसार भीत, वनवासी ।
जलधार बाण बरसा सी ।।
अरि परिषह घात प्रवीरा ।
कब चारित ढ़िगें गभीरा ।।
हिम परतें रस्ते रस्ते ।
झर चाले तरु-तरु पत्ते ।।
हा ! सांय-सांय आवाजें ।
डर, सिहरन, भीति नवाजे ।।
पवमान नजर काली है ।
तन यष्टि सूख चाली है ।।
धृति ओढ़ कवरिया कारी ।
थित चतुषथ रात गुजारी ।।
त्रैविध जोगी बड़भागी ।
सुख अविनश्वर अनुरागी ।।
पुन जोड़ तपोधन न्यारे ।
शिव तक बन चलो सहारे ।।
*भद्रिका छन्द*
सज्ज्ञानामृत-पायिभिः
क्षान्ति-पय: सिंच्यमान-पुण्यकायैः, धृत-सन्तोषच्-छत्रकैस्-
तापस्-तीव्रोऽपि सह्यते मुनीन्द्रैः ।।4।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
नरक पतन भयभीता ।
परिणति हंस विनीता ।।
विष विषयों में पाया ।
लगी न देर भुलाया ।।
जीवन बुद-बुद पानी ।
ठानी सरित् रवानी ।।
दुख जम जन्म बुढ़ापा ।
मुनि रस्ता वन नापा ।।
समिति गुप्त व्रत धारी ।
अध्ययन ध्यान विहारी ।।
मानस सुख अभिलाषा ।
तापस रख दृग् नासा ।।
तन मल पटल निकेता ।
गत-रत ऊरध-रेता ।।
गाँठ कर्म वस ढ़ीली ।
निस्पृह ! आँख पनीली ।।
तप्त शिला तप भाना ।
चढ़ गिर शिखर सुजाना ।।
सन्मुख सूर निवसते ।
घोर तपस्या करते ।।
क्षमा शील पुन काया ।
तरु सन्तोषी छाया ।।
संज्ञानामृत धारा ।
इक सहिष्णु अवतारा ।।
इन्द्रधनुष अभिरामा ।
काग भ्रमर घन श्यामा ।।
गर्जन वज्र कराली ।
मारुत शीतल चाली ।।
झिर मूसल थारा सी ।
तब मुनिगण वनवासी ।।
योग मूल तरु साधें ।
असि आउसा आराधें ।।
झिर बरसा बाणों की ।
धन ! रक्षा रत्नों की ।।
धीरा ! नृसिंह ! प्रवीरा !
अविचल चरित गभीरा ।।
हिम कण रस्ते-रस्ते ।
पत चाले तर पत्ते ।।
सांय-सांय स्वर भारी ।
सूख यष्टि तन चाली ।।
धीरज क़मरी ओढ़ी ।
चौराहे दृग् जोड़ी ।।
रातरि शिशिर गुजारें ।
कर्मों को ललकारें ।।
लगन योग त्रय लागी ।
सुख सन्मुख बड़भागी ।।
धन्य तपोधन सारे ।
मेटें मन अंधियारे ।।
*दुवई छन्द*
शिखि-गल-कज्जलालि-मलिनैर्-,
विबुधाधिप-चाप-चित्रितैर् ।
भीम-रवैर्-विसृष्ट – चण्डा-,
शनि-शीतल-वायु-वृष्टिभिः ।
गगन-तलं विलोक्य जलदैः
स्थगितं सहसा तपोधनाः ।
पुनरपि तरु-तलेषु विषमासु,
निशासु विशङ्क-मासते ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय
आमय जर जनम मरण ।
दुख दुःसह नरक पतन ।
मति जागृत पानीय पय ।
धरती के देवता जय
जल बुदबुद जीवन पल ।
बिजुरी से विषय चपल ।
जो’वन लीना आश्रय ।
धरती के देवता जय
व्रत समिति गुप्ति संबल ।
स्वाध्याय ध्यान पल पल ।
जप तप हित कर्मन क्षय ।
धरती के देवता जय
मल पटल देह शोभा ।
गत गहल, विगत लोभा ।
दैगम्बर सदय हृदय ।
धरती के देवता जय
शिल तप्त सूर किरणन ।
गिरि शिखर नाप चरणन ।
थित सूर जोड़ दृग् द्वय ।
धरती के देवता जय
संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
जल क्षमा सिञ्च पुन तन ।
तर-तोष परिषह विलय ।
धरती के देवता जय
शिखि कण्ठ, भ्रमर काजर ।
सुर धनु गर्जन बादर ।
तरु मूल प्रावृट् समय ।
धरती के देवता जय
शर ताड़ित जल धारा ।
मन अन-तरंग न्यारा ।।
अविचल चरित हिमालय ।
धरती के देवता जय
झिर हिमकण मिश्रित जल ।
स्वर सांय-सांय अविरल ।
मनु मारुत परुष प्रलय ।
धरती के देवता जय
तन ढ़ाक धीर कम्बल ।
चौराह शिशिर निशि पल ।
सहजो व्यतीत निर्भय ।
धरती के देवता जय
इमि योग त्रय अनूठे ।
आशा झिर सुख फूटे ।
वे सन्त भर दें विनय ।
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय
धरती के देवता जय
*भद्रिका छन्द*
जल-धारा-शर-ताडिता
न चलन्ति चरित्रतः सदा नृसिंहाः ।
संसार-दुःख-भी-रवः
परीषहा-राति-घातिनः प्रवीराः ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
त्रस्त यम जनम बुढ़ापा रोग ।
हृदय जल-पय विवेक संजोग ।।
नदारत घन बिजुरी पल बाद ।
भोग विष विषय देर कब हाथ ।।
क्षण क्षयी जैसे बुद-बुद नीर ।
जिन्दगानी क्षण क्षयी शरीर ।।
घोर दुख नरक पतन भयभीत ।
जागा ली जो’वन कानन प्रीत ।।
सतत स्वाध्याय ध्यान संलीन ।
पंच व्रत समिति गुप्तियाँ तीन ।।
मोह चकचूर हूर शिव हेत ।
आसमाँ तप बहिरन्तर केत ।।
लिप्त अवलिप्त मल पटल देह ।
शिथिल बन्धन भव निस्संदेह ।।
गत विगत रत नित निरत समाध ।
निष्पृही नगन दिगम्बर साध ।।
शिला संतप्त खर प्रखर शूर ।
लू लपट रूप बनाया क्रूर ।।
गिर शिखर दुपहर दृग् रख पन्थ ।
सूर सन्मुख तप तपें भदन्त ।।
सतत सत् ज्ञानामृत रस पान ।
छत्र संतोष मित्र कल्याण ।।
क्षमा जल सिंचमान पुन-काय ।
न कहते, सहते धन ! मुनिराय ।।
भ्रमर स्याही कज्जल मानिन्द ।
यथा कुछ-कुछ मयूर गल-कण्ठ ।।
इन्द्र ले धनुष हुआ तैयार ।
सघन घन गर्जन हाहाकार ।।
कहर बिजुरी, शीतल पवमान ।
मूसला धारा स्वयं समान ।।
तापसी देख यथा आकाश ।
आन करते तरुमूल निवास ।।
धार जल मानो बरसा तीर ।
नृसिंह ! सहते सहजो धर धीर ।।
शत्रु परिषह जय, माथ गुलाल ।
अविचलित चरित सुमेर पहार ।।
समिश्रित हिम कण जल बरसात ।
पाँत लग झिर तरु पात प्रपात ।।
शब्द हा ! साँय साँय विकराल
वन्य पशु रव रौरवी मिशाल ।।
परुष पवमान शिशिर दिनरात ।
सूख चाला तन लकरी भॉंत ।।
ओढ़ कम्बल धीरज मुनिराज ।
गुजारें निशि चौराह विराज ।।
योग साधा आतापन चूल ।
जोग अभावकाश तरुमूल ।।
आश आनन्द निराकुल छांव ।
सन्त वे ले चालें शिव गाँव ।।
*दुवई छन्द*
अविरत-बहल-तुहिन-कण-
वारिभिरङ्घ्रिप-पत्र- पातनै ।
रनवरत-मुक्त-सीत्कार-रवैः,
परुषैरथानिलैः शोषितगात्रयष्टयः ।
इह श्रमणा धृति कम्बला-
वृता: शिशिर-निशां ।
तुषार विषमां
गमयन्ति चतुःपथे स्थिताः ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दर्शन साधु बलिहारी ।
करुणा दया अवतारी ।।
मरना जनमना आवर्त ।
दुख संत्रस्त नारक गर्त ।।
परिणति श्याह संहारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
बुद-बुद-नीर जीवन लेख ।
क्षणिक विभूत बिजुरी, मेघ ।।
जो’वन राह दृग्-धारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
धृत व्रत समित गुप्त विभूत ।
नित स्वाध्याय, डूब अनूठ ।।
तापस इक निरतचारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
‘गुण’-मण पटल-मल अनुस्यूत ।
बन्धन कर्म शिथली भूत ।।
निर-हंकार ब्रम-चारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
शिल सन्तप्त उन्मुख सूर ।
चढ़ गिरि शिखर सन्मुख सूर ।।
तप संप्रीत विस्तारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
तर सन्तोष ‘शोष कषाय’ ।
सिञ्चित क्षमा जल, पुन काय ।।
अमरित ज्ञान आहा’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
कज्जल-भ्रमर कण्ठ-मयूर ।
धन ! धनु-इन्द्र गर्जन भूर ।।
तरु तल योग निशिकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
ताड़ित धार जल मनु बाण ।
दुख भवभीत, धीरज वान् ।।
नृसिंह ! सहिष्णु ! अविकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
हो स्वर साँय-साँय कराल ।
डग-डग बिछ चला हिम जाल ।।
शोषित यष्टि तन सारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
चाले ओढ़ कम्बल धीर ।
रातरि शिशिर नग्न शरीर ।।
थित चतुपथ गुजर चाली ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
इमि त्रय योग धार भदन्त !
जप-तप हेत परमानन्द ।।
दे लिख नाम सरना’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
*भद्रिका छन्द*
इति योगत्रयधारिणः,
सकलतप: शालिनः, प्रवृद्धपुण्यकायाः । परमानन्द-सुखैषिणः,
समाधि-मग्रयं दिशन्तु नो भदन्ताः ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री श्रमण भगवन्
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
==दोहा==
पुण्य सातिशय मानिये,
दर्शन गुरु महाराज ।
चरणों से लग चालिये,
बनता बिगड़ा काम ।।
हमें नरकों में ना जाना ।
जिन्होंने अबकी यह ठाना ।।
त्रस्त जय, जनम, मरण, ओ ‘री ।
हंस मत प्रीत अमिट जोड़ी ।।
क्षण क्षणी घन बिजुरी जैसे ।
विष विषय-जर रुपये पैसे ।।
ओंस मानिन्द जिन्दगानी ।
चले वन, लिये आँख पानी ।।
समित, व्रत, गुप्ति केत लहरे ।
सतत श्रुत रत, उतरे गहरे ।
निरत जप तप विशुद्धि पाने ।
नाम सिद्धों में लिखवाने ।।
मल पटल आभूषण धारी ।
दिगम्बर निष्पृह अविकारी ।।
कर्म बन्धन गिर हिल चाला ।
विनिर्गत मोह मदिर हाला ।।
शिला संतप्त सूर्य रश्मी ।
लू लपट खो आई नरमी ।।
गिर शिखर पाँव पाँव आते ।
खड़े रवि सन्मुख हो जाते ।।
ज्ञान अमरित धारा फूॅंटी ।
देह तर क्षमा जल अनूठी ।।
छत्र संतोष पुण्य काया ।
नाम सहजो सहिष्णु आया ।।
कण्ठ शिखि से काले काले ।
भ्रमर कज्जल प्रतिछवि वाले ।।
घन सघन गर्जन विकराला ।
वायु शीतल मूसल धारा ।।
ले दिखे इन्द्र धनुष अपना ।
देख तापस ऐसा गगना ।।
तरु तले बैठ चले देखा ।
मेंटने श्याह कर्म लेखा ।।
धार जल मनु बाणन बरसा ।
सहर्षित सहन विघन सहसा ।।
धीर ! पर हेत दृग् भिजोते ।
चरित से विचलित कम होते ।।
बर्फ रस्ते रस्ते छाई ।
पात तरु मनु शामत आई ।।
शब्द हा ! साँय साँय भारी ।
ठण्ड खा शुष्क देह सारी ।।
लगा राखा अंकुश मन पे ।
धीर कम्बल ओढ़ा तन पे ।।
खड़े चौराहे निशि ठण्डी ।।
गुजर चाली धन ! शिव पंथी ।।
योग त्रय धारक बड़भागी ।
निराकुल सुख इक अनुरागी ।।
हेत सुमरण सु’मरण कीना ।
जाग भी’तर संध्या तीना ।।
==दोहा==
पनडुबी मोक्ष विठार लो,
मोर न ज्यादा भार ।
‘सहज-निराकुल’ लो बना,
हो विनती स्वीकार ।।
अंचलिका
इच्छामि भंते !
योगि-भत्ति-काउस्सग्गो कओ
तस्सालोचेउं
अड्ढा-इज्ज-दीव-दो-समुद्देसु,
पण्ण-रस-कम्म-भूमिसु,
आदावण-रुक्ख-मूल-
अब्भोवास-ठाण-मोण-
वीरास-णेक्क-पास-
कुक्कुडा-सण-चउ-छ-पक्ख-
खवणादि-जोग-जुत्ताणं,
सव्वसाहूणं
णिच्च-कालं अंचेमि, पूजेमि,
वंदामि, णमस्सामि,
दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ,
बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं,
जिणगुणसंपत्ति होदु मज्झं ।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
==आरती==
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।
पहली आरति ग्रीष्म दुपारी ।
सूर्य आग बरसाता भारी ।।
चढ़ पहाड़ शिल तप्त निहारा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।
दूजी आरति वरषा वासा ।
बिजली देख मेघ काला सा ।।
वृक्ष तले आ आसन माड़ा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।
तीजी, आरति ठण्ड करारी ।
सायं साँय कर मारुत चाली ।।
लुभा रहा तब जिन्हें चुराहा ।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।
लिये स्वर्ण दीपक घृत वाला ।।
करूँ आरती जय गुरुदेवा ।
दुख निवारती श्री गुरु सेवा ।।
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