“काना…कान्हा”
एक सहजू नाम का लड़का था । बड़ा प्यारा, दुनिया भर से न्यारा । भोला-भाला, सीधा-साधा जग-भर की अच्छी-अच्छी उपमाएँ भी कम पड़
जातीं थीं, ऐसा था यानि ‘कि अपने ही जैसा था ।
गिल्ली-डण्डा उसका पसंदीदा खेल था, एक अनाड़ी लड़के ने डण्डा गिल्ली में कुछ इस तरीके से दे मारा ‘कि, सीधे जाकर सहजू की आँख में गिल्ली आकर लगी । आँख लहुलुहान हो गई । जल्दी ही हास्पिटल ले आये सहजू को, लेकिन अफसोस डॉक्टर लाख कोशिशों के बाद भी, सहजू को दो आँखों वाला न बना पाये ।
सहजू ज्यादा बड़ा न था, गाँव के बच्चे अब से काना कहके बुलाने लगे, सहजू के अलावा दूसरे स्कूल की, दूसरी कक्षा में लगता है, कोई और बच्चा पढ़ता ही नहीं था । सारे कड़वे-सच के पक्षधर थे ।
लोक व्यवहार का ज्ञान जर्रा भी नहीं रखते थे । बेचारा सहजू कहता भी क्या, बच्चों ने जो नया नाम दिया है, वह सार्थक ही तो है, अब एक आँख से उसे दिखता जो नहीं ।
सहजू ने बेवाक बनके, तपाक से जबाब देना न सीखा था । फिर से घुल-मिल गया । लेकिन अब गिल्ली डण्डे का खतरे से भरा खेल न खेल कर खूब मन लगाकर पढ़ने लगा, उसके पापा एक ईमानदार शिक्षक थे, उन्होंने बच्चे को पढ़ने के लिये गाँव से बाहर कॉलेज पढ़ने भेजा । कॉलेज में जोरों से पश्चिमी हवा चलती थी, सुर-सुर करके । लेकिन सहजू उस हवा से बचा रहा, क्यों, क्योंकि उसके पापा ने बचपन से ही इंसानियत के वो सूूत्र,
फिर-के कपास करके यानि ‘कि बाल-बुद्धि योग्य बना करके उसके कानों तक पहुँचाये थे,
सुनते हैं कानों में रुई लगा लो, तो हवा ज्यादा असर नहीं दिखा पाती,
साल-दर-साल सहजू अब्बल आता रहा । सारीं परिक्षाएँ नाम-अनुरूप सहज चमकीले तमगों के साथ उत्तीर्ण करके, आज कलेक्टर बनके अपने गाँव फिर के वापिस आया है, सारे गाँव के लोग आगवानी करने इकट्ठे हुये हैं, कोई फूलमाला, तो कोई श्री फल लिये खड़ा है, सारे एक सुर से बोल रहे आज हमारा कान्हा कलेक्टर बनके आ रहा रहा है। नारे लग रहें हैं…हर माँ का बेटा कैसा हो । सारे लोग उत्तर स्वरूप कह रहे हैं, हमार कान्हा जैसा हो ।
बिलकुल ऐसा ही है, इस दुनिया का दूनिया, पहले टाँग खींचती है, यदि अपने लक्ष्य की ओर नजरें टिकाये रहो तो, पीछे लग चलती है । कहानी हमें सिख’लाती दूसरों के पैमानों से, कभी मत तुलना । आपका ज़मीर क्या कहता है । भीतर आवाज सुन, जावाज-बन गाजो
आजो भाऊ आजो
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