“भगवत् भगत-सहजू”
गाल ज्यादा बजाते है हम । ऐसा नहीं ‘कि तलक आज भगवान् कभी हमसे टकराये ही नहीं ।
हाँ… गो-महुये से भगवान् हमें कभी भाये ही नहीं । कड़वा सत्य है यह ।
एक था अद्भुत भक्त, नाम था सहजू, जैसा नाम था, वैसा ही काम । ठण्डी में उसका एक बाजू कभी रजाई में तुप नहीं पाया, क्यों ? क्योंकि एक व्यक्ति के ओढ़ने लायक रजाई में उसने हमेशा अपने साथ भगवान् को सुलाया, जैसे माँ देखती है रात में उठ-उठ के, वैसे उसने भगवान् को रजाई उड़ाई । दे-दे थपकिंयाँ, गा-गा लोरिंयाँ देर रात जाने कब सोता था । सबेरे प्रातःकाल सूरज को उठा, भगवान् को प्रभाती गाकर के उठाता था । कभी उसने ब्रश पानी में एक न डुबोया । माँ के द्वारा दिया गया दूध का प्याला उसने आधा लिया और आधा माँ से ये कहकर के वापिस लौटा दिया, ‘कि माँ आधा दूध भगवान् को दे दो और माँ ने इसलिये वापिस ले लिया ‘कि बच्चा किसी तरह जुड़ रहा है भगवान् से, तो अच्छी ही बात है, क्यों उसके श्रद्धान में रोड़े बने हम ।
बाल्टी भर पानी, सूती कपड़े से छान कुँए से निकाला तो उसने, लेकिन एक दो लोटे ही अपने शरीर पे डाला, बाकी का पानी रख दिया भगवान् के लिये नहाने को । पापा जब भी नये कपड़े लाये उसने हर दूसरी बार यह कहने लौटा दिये ‘कि पापा ये कपड़े भगवान् को पहने के लिये दे दो । ऐसा ही खिलौने मिलने पर किया और पापा भी वापिस करने बाजार गये, यह सोचकर ‘कि अच्छा है बच्चा मितव्ययी बनना सीख रहा है ।
आज वर्षों पे वर्ष गुजर गये हैं, लेकिन सहजू ने कभी भर-पेट भोजन नहीं किया, अपनी थाली से सिर्फ छिटकी भगवान् के लिये निकाल कर रखना, अन्नदाता का अपमान जैसा लगता था उसे, शादी हो गई है उसकी, बहुरिया का नाम लाजो है । बिलकुल छुई-मुई सी है, सहजू के पीछे-पीछे परछाई के तरह चलती है । बड़ी खुश है, ऐसे भगवत् भगत को अपने स्वामी के रूप में पाकर के, सहजू जैसा उसने भी अपना जीवन ढ़ाल लिया है । क्षितिज छोर छूने वाली पैसों की दौड़ में उन्हें कभी भी किसी में शामिल होते नहीं देखा । गरीबी उनकी जिन्दगी में घर किये थी, यह बात सफेद झूठ में आती है । खूब कमाते थे, हाँ… बस इतना था ‘कि उड़ाते नहीं थे फिजूल, न उड़ते थे, जमीन से लग जीने वाले लोगों में से थे वह । न करने योग्य काम कभी वे कर की नहीं पाये, भगवान् जो उनके साथ साये के जैसे लगे रहते थे ।
यानि ‘कि ये कहो, आज चोला जो दिया था प्रभु ने, उन्हें को जैसा का तैसा उतारने का दिन आ गया था । दोनों ने भगवत् नाम के सुमरण के साथ सार्थक सु-मरण किया ।और जा पहुँचे वैकुण्ठ, श्री हरि खुद चलकर द्वार तक आये, और जैसे ही उन्होंने सहजू-लाजो हाथ पकड़ा, हाथों से पुनः पुनः नीचे आने जाने की रेखा ही नदारद हो गई । भगवन् कहने लगे तुम लोगों ने तो मुझे परेशान कर दिया, अब नीचे जाके, न जाने क्या लीला रचोगे नई, तुम दोनों मेरे साथ यहीं रुको, मैं तुम्हारे साथ हमेशा के लिये रहना चाहता हूँ ।
सुन रहे हैं आप, श्री हरि खुद भक्तों के साथ रहने की कह रहे हैं, साथ में नहीं रख रहें हैं भक्तों को ।
कहानी का सार यही है, ‘कि भगवान् को बुलाओ तो आते हैं, आव-भगत जैसी करो, अनोखी लौटाते हैं भगवान् । आओ एक भव भगवान् के नाम करने की लेते हैं सपथ, बिना शरत ।काना
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