“सहजो-घड़ी”
एक सुन्दर सी घड़ी थी । जिसमें काँच तो था, लेकिन बच्चों के पापा ने निकालवा दिया था चूँकि दोनों बच्चों में से एक बच्चा अंधा था,
जो घड़ी देखते वक्त हाथ से छूकर समझ पाता था, के कितने बजे हैं । घड़ी को भी खूब अच्छा लगता था, जब ये छोटा बच्चा सहजू, काँटों को अपने
सधे-सधाये हाथों से बड़ी मासूमीयत के साथ छूता था । हकीकत में तो दूर रहा, ख्वाब में भी घड़ी को कभी स्पर्श कर्कश लगा हो, स्वयं घड़ी को भी याद नहीं होगा, एक और भाई था, बड़ा था इससे, आँखें भी थी, पर सहजू सहज था, और ये वैसे दूर से भी घड़ी के लिए देख सकता था, लेकिन ये जब-तब घड़ी के करीब से गुजरता था, तो अपने हाथों से काँटों को छूता था, बन करके अपनी आँखें बन्द करके, तब काँटों को बेहद दर्द होता था, हा ! हाय ! इसके चंचल हाथ यदवा-तदवा चलकर के काँटों को आगे-पीछे कर देते थे, रात भर रोती रहती थी घड़ी,
‘के भगवान् सहजू के छूने से पहले, सहजू के पापा या सहजू की मम्मी आकर के मुझे रास्ते पर ले आयें, वरना ‘सहजू के हाथ गलत समय लगे चलेगा ।
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