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कविता

कविता- लोभ

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

लोभ
(१)
नदी वगैर पैसे लिये ही
मीठा पानी पिला चली
मैंने फलाई झोली
किसी को वगैर कुछ दिये ही

(२)
बुरऔ आ कर रयै
लोभ करके अपन
विश्वास नैंय्या तो
अक्षर पलटा लेओ
लो…भ
भ…लो तब हुइये
मतलब
जित्तो बन सके
उत्तो पिरयास करके
पल्टी खिलाओ अपने मन खों

(३)
लालची दीमक मत बनो
‘के आ करके सांप
लालच के अक्षर पलटाते हुए कहे
ला…ल…च
च…ल…ला

(४)
पैसों को बात ही नहीं की
पेड़ ने फल खिला दिये
मीठे मीठे
दिल जो रखता है
जाने क्यूॅं
मैं दिमाग लगाता हूॅं
शायद यह वेद-वाक्य भूल जाता हूॅं
‘के
“इस धरा का, इस धरा पर
सब धरा रह जायेगा
बांध मुट्ठी आया था
‘रे हाथ पसारे जायेगा”

(५)
खेत वगैरह
वगैर खेद किये
कई गुना लौटाते हैं
और हम लौटाते समय
लौट लौट के गणित लगाते हैं
‘के दोस्ती पक्की
और खर्चा अपना अपना

(६)
हकलाने वाले लोग
इस शब्द से
बनती कोशिश बचें
भा
मतलब आभा छीनता है यह
यदि आप पूछते ही हैं कैसे ?
तो आईए हकलाकर के
बोलते हैं
लो…लो…लो भा

(७)
बाढ़ वाला पानी मैला
कह ला…ला
क्यों उतारना पानी अपना
जब वहाँ पर
ले ही नहीं जा सकते हैं एक धेला
और किसे नहीं पता
दुनिया चला चली का मेला

(८)
अपनी आँखें दो बन्द करके
बेसुध होकर के दूध पीती
दिखती है बिल्ली
और पीठ पर डंडे पड़ते ही
मिमयाती फिरती है बिल्ली
यदि हम भी इसी कतार में खड़े हैं
तो अभी बड़ी दूर है अपनी दिल्ली

(९)
हाथों से नहीं उठती है
कॉलर
आंखों में शरम रखने से उठती है
बातें सरगम रखने से उठती है
कॉलर
हाथों से नहीं उठती है

(१०)
मेरा मन कॉंटों के बीच
मुस्कान लेते हुए सुमन से
मिल करके आया है जब से
उसने
भगवान् को उलाहना देना छोड़ करके
‘तूने खूब दिया भगवान्
तेरा बहुत बड़ा अहसान’
‘के यह सहजो-मंत्र जप रहा तब से

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