‘वर्धमान मंत्र’
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूजन”
भगवत कृपा बलिहारी ।
करुणा क्षमा झिर न्यारी ।
घर धनवान दीन न देख ।
बरसें झमाझम बस मेघ ।।
बन्दर बाँट यम प्यारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्र !
अत्र अवतर-अवतर संवौषट्
इति आह्वानन ।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
इति स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
इति सन्निधिकरणम् ।
जन सामान्य वैसा भूप ।
देखे कहाँ पैसा धूप ।।
मैं भी लिये जल झारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चेहरा देख दे कब पेड़ ।
पाया छांव बाल, अधेड़ ।।
चन्दन धार अविकारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
भवाताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सरिता राज राजा राम ।
मीठा नीर दे निर्दाम ।।
अक्षत धान मण थाली ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अक्षय पद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
गैय्या दे चली बस क्षीर ।
राखे बेवजह दृग् नीर ।।
पुष्प पिटार दिव क्यारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
कामबाण विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक सुर लोग दें आवाज ।
‘काकी’ छुपा किससे राज ।।
घृत नैवेद्य मनहारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
माया कल्पतर व्यवहार ।
पाया चोर, पहरेदार ।।
जगमग अबुझ दीवाली ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पारस मणी अपने भॉंत ।
सोना नव पुरा इस्पात ।।
दश विध गंध आहा’री ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अष्ट कर्म दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बोई फसल लहरे खेत ।
परहित खड़े रहते सेत ।।
नन्दन बाग फल डाली ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
मोक्ष फल प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दृग्-जल गंध अक्षत फूल ।
नेवज, दीप, धूप अमूल ।।
श्रीफल द्रव्य स्वीकारी ।
भगवत कृपा बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=कल्याणक अर्घ्य=
साँच कलि-यान
पॉंच कल्याण
वाँच भगवान्
रत्न बरसात ।
स्वप्न वर साथ ।
गर्भ कल्याण ।
सौधर्म आन ।
मनाये मैं भी मनाऊॅं ।
फिरके नव जन्म न पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं गर्भ मंगल मंडिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मेर अभिषेक ।
हेर अभिलेख ।
जन्म कल्याण ।
सौधर्म आन ।
मनाये मैं भी मनाऊॅं ।
फिरके नव जन्म न पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं जन्म मंगल मंडिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
केश उत्पाट ।
द्वेष-रत घात ।
त्याग कल्याण ।
सौधर्म आन ।
मनाये मैं भी मनाऊॅं ।
फिरके नव जन्म न पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं तपो मंगल मंडिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करुणा निधान ।
शरणा समान ।
ज्ञान कल्याण ।
सौधर्म आन ।
मनाये मैं भी मनाऊॅं ।
फिरके नव जन्म न पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं केवल ज्ञान प्राप्ताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ऋज गत समेक ।
शिल सिद्ध टेक ।
मोक्ष कल्याण ।
सौधर्म आन ।
मनाये मैं भी मनाऊॅं ।
फिरके नव जन्म न पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं मोक्ष मंगल मंडिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
==विधान प्रारंभ==
“चतु: दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अरि-हंताणं*
णमो णमो अरिहन्त जिनन्द ।
णमो णमो जिण सिद्ध अणन्त ।।
वन्दण आ-यरीय उवझाय ।
सव्व साहूणं मण वच काय ।।१।।
ॐ ह्रीं भीतर मौन प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सिद्धाणं*
एक मेक ज्यों पानी दूध ।
कर्म जुड़े स्वयमेव अटूट ।।
भक्ति विनाशे कर्म निकाच ।
आया आश लिये दर सॉंच ।।२।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आयरि-याणं*
जिनके पास मोति श्रुत रूप ।
कहें तुम्हें वे ज्योति-स्वरूप ।।
नापे राह अंधेरा पाप ।
मन जो आन विराजे आप ।।३।।
ॐ ह्रीं अन्त: अंधकार निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उवज्झा-याणं*
हर्ष अश्रु ले, गदगद बोल ।
भजा तुम्हें थव मन्त्र अडोल ।।
निकल रोग अहि वामी देह ।
दिखें भागते निस्संदेह ।।४।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल मीठा लें चन्दन नीका ।
तण्डुल, गुल-कुल आप सरीखा ।।
चरु ले, दीप-धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, हित शिरपुर द्वारे ।।1।।
ॐ ह्रीं चतु: दल कमल हृदयस्-थिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
पूर्व गर्भ तुम कंचन भूम ।
पुण्य प्रताप मनस् मासूम ।।
आप विराजे मन जब आन ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समान ।।१।।
ॐ ह्रीं पुण्य-तन प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
इक निर्बाध तुम्हीं सर्वेश ।
बन्धु अकारण ! जगत् हितेश ।।
सेज चित्त मम आप निवास ।
कर ही दोगे दुक्ख विनाश ।।२।।
ॐ ह्रीं संक्लेश संहारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
भटक भटक अटवी संसार ।
अमृत सरित् नय कथा तिहार ।।
पा साधूॅं जब भीतर डूब ।
दबना दव-दुख, कहॉं अजूब ।।३।।
ॐ ह्रीं दुःख दावानल उपशामकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
पल विहार पा पाँवन पर्श ।
कमल कतार स्वर्ण भा-दर्श ।।
मन सर्वांग पर्श पा तोर ।
श्रेय न कौन बढ़ा मुझ ओर ।।४।।
ॐ ह्रीं निस्वार्थ सहाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
काम विराम ! अमृत ! सुन वैन ।
शिव स्वरूप रख तुमको नैन ।।
रोग रूप कॉंटे विकराल ।
किस विध आंख करेंगे लाल ।।५।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
पाहन ही इक मानस्-तम्भ ।
चूर चूर पर मानस् दम्भ ।।
कारण आप निकटता एक ।
यथा न कहीं और उल्लेख ।।६।।
ॐ ह्रीं संकट मोचनयाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
संस्पर्शित तुम देह पहाड़ ।
अपहरती रज रोग बयार ।।
ध्यान द्वार तुम हृदय प्रविष्ट ।
‘सहजो’ सिद्ध समस्त अभीष्ट ।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वाथ सिद्धि कारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
भव भव प्राप्त दुक्ख तुम ज्ञात ।
शस्त्र घात वत् जिनकी याद ।।
तुम सर्वग, तुम दया निधान ।
क्या करतब अब तुम्हीं प्रमाण ।।८।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल ले के, चन्दन ले के मैं ।
अक्षत लिये, सुमन ले के मैं ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, दो लगा किनारे ।।2।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सभिण्ण-सोदाराणं*
मरण समय सुन कर नवकार ।
स्वर्ग श्वान रत पापाचार ।।
ले मणमाल जाप तुम नाम ।
क्या संदेह ? विभव सुर स्वाम ।।१।।
ॐ ह्रीं नरक तिर्यंच दुर्गति निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
निर्मल चरित भले संज्ञान ।
बिन तुम भक्ति रूप श्रद्धान ।।
बन्धन मुहर विमोह किवाड़ ।
किस विध उद्-घाटित शिव द्वार ।।२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
अघ अंधयार ढ़का शिव-पन्थ ।
गहन गहन दुख गर्त अनन्त ।।
अगर अगार न तुम धुन दीव ।
होता कौन विमुक्ति करीब ।।३।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
ढ़की कर्म निधि आतम ज्योत ।
विमत अलब्ध, सुदृष्ट बपौत ।।
भक्त आप ले थवन कुदाल ।
करे हस्तगत वह तत्काल ।।४।।
ॐ ह्रीं निस्तरंग डूब प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
स्याद् वाद गिर हिम अवतार ।
सिन्ध अमृत शिव तक विस्तार ।।
तुम पद भक्त गंग अवगाह ।
गत रज कर्म, विगत भवदाह ।।५।।
ॐ ह्रीं भव दाह विमोचन समर्थाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
आप भाँत मैं सुख संपन्न ।
सन्मति निर्विकल्प उत्पन्न ।।
मिथ्या यदपि तृप्ति अहसास ।
महिमा तुम अचिन्त्य अविनाश ।।६।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
लहर सिन्ध धुन तुम सत् भंग ।
विरहित मल एकान्त निसँग ।।
कर मन्थन बुध मन मन्दार ।
करे अमृत सेवन चिरकाल ।।७।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्व उनमूलन समर्थाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
अस्त्र शस्त्र से रखते प्रीत ।
शत्रु जिन्हें लेते हैं, जीत ।।
देह आप सुन्दर अभिराम ।
क्या वस्त्राभूषण का काम ।।८।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्टंग-
महा-निमित्त-कुसलाणं*
इन्द्र आप क्या करता सेव ।
पुण्य सातिशय भरता जेब ।।
तुम शिव पोत लगाते छोर ।
जोग प्रशंसा थुति यह तोर ।।९।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
वाणी आप अनक्षर रूप ।
अक्षर गम्य न आप स्वरूप ।।
कल्प वृक्ष जैसे फलदार ।
तर अमि भक्ति हृदय उद्गार ।।१०।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
द्वेष किसी से तुम्हें न नेह ।
मन तुम परम उपेक्ष विदेह ।।
वैमनस्य मेंटे तुम छांव ।
ऐसा और ना देव प्रभाव ।।११।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
विरद वाँचते देवी देव ।
ज्ञान मूर्त ! तुम वन्द्य सदैव ।।
किया आपका पल गुण गान ।
प्रद सम चरित ज्ञान श्रद्धान ।।१२।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि बाधा निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
दरश, वीर्य, सुख, ज्ञान अनन्त ।
पथि निस्वार्थ आप श्रुति पन्थ ।।
धन्य पुण्य-तन ! शिव-पथ पूर ।
थल निवार्ण बढ़ाये नूर ।।१३।।
ॐ ह्रीं भूल उन्मूलन समर्थाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
तव थव असफल विबुध प्रयास ।
मुझे मति-मन्द कहाँ अवकाश ।।
हित-शिव कल्पद्रुम कल्याण ।
किया बहाने श्रुति सम्मान ।।१४।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
अरिहंताणं अरिहंताणं ।
सिद्धाणं श्री आयरियाणं ।।
उवझा-याणं उवझा-याणं ।
लोए णमो सव्व साहूणं ।।१५।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
एक मेक पय पानी जैसे ।
कर्म बॅंध चले जाने कैसे ।।
भक्ति मेंटती कर्म निकाचा ।
लगा हाथ मेरे दर साँचा ।।१६।।
ॐ ह्रीं निकाचित कर्म निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
भर लाया जल-चन्दन झारी ।
धान-शालि-सित, पुष्प पिटारी ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करुँ यजन, दुख मैंटो सारे ।।3।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल हृदयस्-थिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
सीप हाथ जिनके श्रुत मोती ।
कहा तुम्हें उन्होंने ज्योती ।।
रह न सकेगा पाप अंधेरा ।
मन मेरे जब आप बसेरा ।।१।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
हर्ष अश्रु ले गदगद वाणी ।
तव थव मन्त्र जाप जप प्राणी ।।
रोग सर्प बिच वामी देहा ।
पकड़ निकालें निस्संदेहा ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
तव अवतार पूर्व बलिहारी ।
पृथ्वी स्वर्ण मयी हो चाली ।।
हुआ तुम्हें मन-भवन बिठाना ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समाना ।।३।।
ॐ ह्रीं सत् शिव सुन्दर रूप प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
बन्धु अकारण हितु जग तीना ।
जग निर्बाध नेत्र रख लीना ।।
मम मन सेज निवास तुम्हारा ।
अपहर ही लोगे दुख सारा ।।४।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
पग पग भव अटवी चिर नापी ।
पा तुम अमृत कथा नय वापी ।।
साधूॅं नख-शिख उसमें डुबा ।
दबे दाब दुख, कहाँ अजूबा ।।५।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
पल विहार पा तुम पद छाया ।
पद्म कतार स्वर्ण छव आया ।।
मन सर्वांग छुओ तुम मोरा ।
लाभ न कौन श्रेय बेजोड़ा ।।६।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
अमृत वचन झिर तुम मुख चन्दा ।
पिऊॅं भक्ति प्यालन सानन्दा ।।
रोग रूप काँटे भयकारी ।
किसविध करें आंख नम म्हारी ।।७।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
मानस्-तम्भ यदपि पाषाणा ।
तदपि विहर चाला अभिमाना ।।
वजह निकटता सिर्फ तुम्हारी ।
धन ! धन ! अचिन्त्य महिमा धारी ।।८।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
तुम तन पर्वत मारुत आई ।
रोग धूल मनु शामत आई ।।
ध्यान मार्ग तुम हृदय पधारे ।
देर न, म्हारे वारे न्यारे ।।९।।
ॐ ह्रीं वात पित्त कफ उपशामकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
भव भव दुक्ख प्राप्त जो हमको ।
तुम सर्वेश पता ही तुमको ।।
सिहरन उठी याद क्या कीना ।
क्या करतब अब आप प्रवीणा ।।१०।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
नेत्र श्वान ने सुरगन खोला ।
सुन नवकार मन्त्र अमोला ।।
ले मण-माल आप गुण गाना ।
क्या सन्देह राज-दिव पाना ।।११।।
ॐ ह्रीं सार्थ सु-मरण भव प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
भले ज्ञान चारित्र अनूठा ।
स्रोत भक्ति तुम हृदय न फूटा ।।
मुहर बन्द मोहन वह ताला ।
शिव दर कैसे खुलने वाला ।।१२।।
ॐ ह्रीं उत्पाट कपाट शिव भव प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
ढ़का मुक्ति पथ पाप अंधेरे ।
दुख रूपी गड्ढे बहुतेरे ।।
आगे तुम धुन चले न दीवा ।
लगे कौन मंजिल से जीवा ।।१३।।
ॐ ह्रीं जिन गुण संपद् प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
आत्म ज्योति निधि कर्मन झाँपी ।
दृग् धर नन्द हेत ‘अर’ हापी ।।
ले तुम संस्तव रूप कुदाली ।
सहज भक्त ले मना दिवाली ।।१४।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
स्याद् वाद नय हिमगिर निसरी ।
मोक्ष अमृत सागर तक बिखरी ।।
तुम पद भक्ति गंग नदिया में ।
धुलें पाप कब संशय जा में ।।१५।।
ॐ ह्रीं जिन भक्त कीर्ति संभवाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
आप हृदय लहरे सुख जैसा ।
निर्विकल्प हूॅं मैं भी ऐसा ।।
यदपि धारणा झूठ हमारी ।
पर महिमा तुम अतिशय कारी ।।१६।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
तुम धुन सिन्ध भंग सत् लहरें ।
मल एकान्त विहरतीं विहरें ।।
मन मन्दर मन्थन करतारा ।
सेवन अमृत तृप्त चिरकाला ।।१७।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
सुन्दर आप छाप शश पूना ।
व्यर्थ वस्त्र आभरण प्रसूना ।।
मित्र सभी जग शत्रु न कोई ।
अस्त्र शस्त्र सो नाहक दोई ।।१८।।
ॐ ह्रीं सत्त्वेषु मैत्रीं भावना संभवाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
इन्द्र आप सेवा क्या करता ।
झोली आप पुण्य से भरता ।।
भव जल तरण तारने वाले ।
बड़े कीमती ये जयकारे ।।१९।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
तव धुन निरक्षरी ओंकारा ।
अ-स्पष्ट मम थुति उद्गारा ।।
तुम गुण गान समर्थ न माना ।
भॉंत कल्पतर प्रद वरदाना ।।२०।।
ॐ ह्रीं सार्थ स-क्षम साधु पद प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
आप कभी ना आपा खोते ।
रुष्ट किसी से तुष्ट न होते ।।
सन्निधि आप वैर अपहारी ।
यूँ ही विनत न दुनिया सारी ।।२१।।
ॐ ह्रीं वैर-भाव विध्वंसकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
गाता स्वर्ग आप गुण गाथा ।
दाता ! ज्ञान मूर्ति, जग त्राता ! ।।
तत्व ग्रन्थ विद् भक्त तिहारे ।
भक्त तुम्हारे दिव शिव द्वारे ।।२२।।
ॐ भव बन्धन विमोचकाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
वीर्य नन्त, सुख, दर्शन, ज्ञाना ।
जिसने थुति करना तुम ठाना ।।
तर कल्याण पंच तिस झोरी ।
परिणय मुक्ति राधिका गोरी ।।२३।।
ॐ ह्रीं कल्याणक संभवाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
तव गुण सिन्ध पार ना जोगी ।
मुझ मत-मन्द धार दृग् होगी ।।
आदर कीना थवन बहाने ।
‘साध निराकुल सहज’ तराने ।।२४।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल पावन, वावन चन्दन ले ।
अक्षत अछत, सुमन नन्दन ले ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, टक दो जश तारे ।।4।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“महा-अर्घं”
दृग् जल, चन्दन, अक्षत, धूप ।
पुष्प, दीप, चरु, श्री फल धूप ।।
अर्घ बना भेंटूॅं जिनराज ।
‘सहज-निराकुल’ बनने काज ।।5।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री भगवत् जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
:: जाप्य ::
।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं
श्री भगवत् जिनेन्द्राय नमः ।।
==जयमाला==
“लघु चालीसा”
दोहा=
किस कारज का आरसी,
कंगन अपने हाथ ।
बरसी झिर लग तुम कृपा,
लेख न बस एकाद ।।
आँख सावण भादों थारी ।
साख गंगा जमुना न्यारी ।।
पीर हरने वाले हो तुम ।
तीर धरने वाले हो तुम ।।१।।
चीर द्रोपदी बढ़ाया है ।
शील परचम लहराया है ।।
मोह हरने वाले हो तुम ।
मोख धरने वाले हो तुम ।।२।।
पॉंव लग खुल्ले पट कीले ।
शील जय नीली दृग् गीले ।।
विघन हरने वाले हो तुम ।
शगुन करने वाले हो तुम ।।३।।
आग बन चली झील पानी।
गूंज नभ सति सीता रानी ।।
भाग लिखने वाले हो तुम ।
जाग रखने वाले हो तुम ।।४।।
नाग थे घट निकली माला ।
अखर सोमा सत जयकारा ।।
माफ़ करने वाले हो तुम ।
पाप हरने वाले हो तुम ।।५।।
वीर पड़गे चन्दन द्वारे ।
टूक जंजीर खुले ताले ।।
बात रखने वाले हो तुम ।
साथ चलने वाले हो तुम ।।६।।
नाम बजरंग बाल भोला ।
अंजना सत दृग् जल ढ़ोला ।।
लाज रखने वाले हो तुम ।
आज अपने वाले हो तुम ।।७।।
सुलोचन कर जोड़े खाली ।
व्यन्तरी माया खो चाली ।।
ओट करने वाले हो तुम ।
खोट हरने वाले हो तुम ।।८।।
नाम सार्थक सुन्दर मैना ।
गर्व सत परिपाटी जैना ।।
बोझ हरने वाले हो तुम ।
लोच रखने वाले हो तुम ।।९।।
नाथ ! मैं भी हूँ एक दुखिया ।
आ चला निवस आंख दरिया ।।
निराकुल सुखिया कर लो ना ।
दे चरण कुटिया इक कोना ।।१०।।
=दोहा=
बरस चली भगवत कृपा,
धन्य जन्म मम आज ।
दूॅं जब जब आवाज मैं,
रखना यूॅं ही लाज ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवत् जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
जोड़ हाथ, झुका माथ,
इन्द्र करे सेवा ।।
छह महिने गर्भ पूर्व,
रत्नों की बरसा ।
निश पिछली देख स्वप्न,
मात रही हरषा ।।
दर्श मात्र शचि समेत,
तट सुरेन्द्र खेवा ।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
क्षीर-नीर भर कलशा,
शीश इन्द्र ढ़ोरे ।
लख टकेक सहस नेत्र,
पुण्य धन ! बटोरे ।।
वस्त्र भोग ले मनोग,
खड़े सुर सदैवा ।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
राग-आग जान मान,
राज भेष मञ्चन ।
नमः सिद्ध बोल दीक्ष,
स्वयं केश लुञ्चन ।।
ज्ञान चार चार आंख,
आंख गंग-रेवा ।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
सींह हिरण समव-शरण,
दिव्य धुनी गूँजी ।
कर्म दहन, ध्यान अगन,
सुख अपूर्व पूॅंजी ।।
पिंजरे से सर्व काल,
मुक्त इक परेवा ।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
जोड़ हाथ, झुका माथ,
इन्द्र करे सेवा ।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र,
जय जिनेन्द्र देवा ।
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